ईश्वरीय खोज की अंतहीन गाथा : निराशा भरी उबन से लेकर ख़ुशी के महा विस्फोट तक
कभी कभी बड़े से बड़े भक्तों के मन में भी प्रश्न आता है कि, क्या लगातार ईश्वर को देखने से उबन (बोरियत) नहीं होगी ? और अगर बोरियत होगी तो फिर कोई आदमी क्यों पूरी जिंदगी मेहनत करे वो भी सिर्फ ईश्वर का दर्शन पाने के लिए ?
प्रश्न तो प्रश्न, कैसा भी प्रश्न आ सकता है किसी के दिमाग में !
ज्यादातर लोग भगवान के बारे में ऐसा प्रश्न पूछने पर, प्रश्नकर्ता को डांट कर शांत करा देतें हैं यह कह कर कि चुप रहो, भगवान् के बारे में इस तरह की उटपटांग बातें नहीं करतें हैं !
वैसे देखा जाए तो आज के अधिकाँश लोगों की भक्ति के पीछे कहीं ना कहीं यह भाव जरूर होता है कि अगर भगवान् की पूजा नहीं की या मंदिर जाकर भगवान् का दर्शन नहीं किया तो भगवान् नाराज हो जायेंगे जिसकी वजह से निजी जिंदगी में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है पर वास्तव में सिर्फ यह एक तरह का भ्रम है क्योंकि ईश्वर ना तो घमंडी हैं कि उन्हें खुशामद चाटुकारिता करने वाले मानव पसंद आयेंगे और ना ही ईश्वर, किसी मूर्ख क्रोधीं बादशाह की तरह हैं कि कोई उनकी शान में गुस्ताखी करे तो वो गुस्से में आकर उसका नाश कर देंगे !
ईश्वर की तुलना उस शिक्षक से की जा सकती है जिसे रट कर टॉप करने वाले स्टूडेंट्स की तुलना में, खुद अथक मेहनत से हर पहलू पर शोध कर पास होने वाले विद्यार्थी बहुत पसंद हैं मतलब सिर्फ कर्मकांड में ही फसकर ईश्वर को प्रसन्न करने के प्रयास में पूरा जीवन बिता देने वाले भक्तों की तुलना में वे भक्त ज्यादा पसंद हैं जो ईश्वर के रहस्य से सम्बंधित सभी पहलूओं (जैसे वास्तव में ईश्वर है कौन, वे दिखते कैसे हैं, वे करतें क्या हैं, वे रहतें कहाँ हैं, वे मरतें क्यों नहीं हैं, वे इतनी बड़ी सृष्टि कैसे बना लेते हैं, वे आखिर बार बार सृष्टि बनाते ही क्यों हैं ? आदि आदि) को अधिक से अधिक जानने की कोशिश करतें हैं (पर अपनी सभी लौकिक जिम्मेदारियों को भी भली भांति निभाते हुए) !
कोई कर्म योगी (जैसे ईमानदारी की कमाई के दम पर विनम्र भाव से सबकी उचित सेवा करने वाला कोई गृहस्थ) है तो उसके लिए ईश्वर के रहस्य के बारे में खोजने के प्रयास (जैसे ध्यान की अनंत गहराइयों में) में रोज सिर्फ चंद मिनट देना भी पर्याप्त हो सकता है किन्तु सांसारिक सभी जिम्मेदारियों से विमुख कोई वैरागी सन्यासी है तो उसके लिए सिर्फ चंद मिनट देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसे प्रतिदिन 18 से 20 घंटे तक विभिन्न योग क्रियाओं को करने की मेहनत करनी पड़ सकता है !
आईये हम बात करतें हैं, उपर्युक्त प्रश्न के बारे में ! किसी भी प्रश्न के उत्तर दो प्रकार के हो सकतें हैं,- एक सर्वप्रचलित उत्तर, दूसरा अनुभूत उत्तर !
उपर्युक्त प्रश्न के सर्व प्रचलित उत्तर का एक अच्छा उदाहरण हैं, पौराणिक काल के ग्रन्थों में वर्णित भगवान् शिव के वाहन श्री नंदी जी और भगवान् विष्णु के वाहन श्री गरुड़ जी के बीच लीलापूर्वक किया गया संवाद, जो भविष्य में हम सभी मानवों के मार्गदर्शन के लिए काम आने वाला था !
एक बार गरुड़ जी ने नंदी जी से पूछा कि मैने आज तक आपको जब भी देखा है, आप सिर्फ और सिर्फ भगवान् शिव की ही तरफ एक टक लगातार देखतें रहतें हैं, ऐसा क्यों ?
भगवान शिव के वाहन नन्दी जी ने बिना भगवान् शिव से निगाहें हटाये हुए मात्र चंद शब्दों में इस प्रश्न का उत्तर दिया अर्थात भगवान् को लगातार निहारते रहने की अपनी दिव्य अनभूति के बारे में कहा कि ईश्वर से सतत झरने वाला आनन्द निश्चित रूप से उपमा रहित है अतः चाहे कितने भी युग इस परम आनन्द का आस्वादन किया जाय, तृप्ति मिल ही नहीं सकती है इसलिए ईश्वर को देखने से ज्यादा मनोरंजक, रोचक, रहस्यमय, सुन्दर, ख़ुशी प्रदान करने वाली वस्तु या कार्य कोई और हो ही नहीं सकता है !
उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर दूसरे तरीके से अर्थात स्वयं किसी ईश्वर दर्शन प्राप्त संत से तभी मिल सकता है जब दैवीय कृपा से किसी ईश्वर दर्शन प्राप्त संत का अति दुर्लभ सानिध्य प्राप्त हो सके ! हम आशा और शुभकामना करतें है कि इस जीव जगत के सभी प्राणियों को ऐसा सौभाग्य जीवन में जरूर प्राप्त हो कि उन्हें आदर्श माँ के समान दयालु और आदर्श पिता के समान अनुशासनप्रिय ऐसे दुर्लभ संत के सानिध्य से उनकी ईश्वरत्व की खोज सफल हो सके ! ऐसे ही एक परम आदरणीय ईश्वर दर्शन प्राप्त, दिव्य दृष्टि धारी संत की कृपा से हमें उपर्युक्त प्रश्न का जो उत्तर मिला था, उसका संक्षिप्त वर्णन हम यहाँ प्रस्तुत कर रहें हैं-
परम आदरणीय संत अनुसार- साधारण मानव ईश्वर के रंग रूप के बारे में जो कल्पना करतें हैं (जैसे कि ईश्वर एक बेहद सुंदर और दिव्य मानवीय रूप में हैं), वो कल्पना साधना के प्रारम्भिक चरण के लिए ठीक है पर जैसे जैसे साधक अपनी साधना में आगे बढ़ता जाता है, उसकी सोच की भेदक क्षमता क्रमशः बढ़ने लगती है जिसके परिणामतः उसे सबमें (यहाँ तक की जानलेवा जहर, नरभक्षी सिंह, भूकम्प बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदा, प्रथम द्रष्टया अपराध लगने वाले जैसे कर्म जो वास्तव में प्रकृति का एक कर्म समन्वय की प्रक्रिया हो सकती है, आदि) में भी ईश्वर और प्रकृति का डिफ़रेंट कॉम्बिनेशन (विभिन्न समुच्चय) दिखने लगता है !
वास्तव में अनंत ब्रह्मांडो का हर अलग अलग कण और हर अलग अलग घटनाएं, ईश्वर और प्रकृति के अलग अलग आपसी कॉम्बिनेशन का ही परिणाम होतीं है, जिस घटना में प्रकृति, तम तत्व की जितनी ज्यादा मात्रा को अपने अंदर समायोजित करती है वो घटना उतनी ही ज्यादा आसुरी (अर्थात पापमय) होती है, जैसे श्री द्रौपदी का चीर हरण जबकि परम ब्रह्म स्वयं उस समय पृथ्वी पर श्री कृष्ण रूप में प्रत्यक्ष रूप से विराजमान थे और जिस घटना में प्रकृति अपने अंदर जितनी ज्यादा मात्रा सत्व तत्व की मात्रा समायोजित करती है, वह घटना उतनी ही ज्यादा पुण्यमय होती है, जैसे अनंत ब्रह्मांड अधीश्वर श्री कृष्ण का अपने आँख के आसुओं द्वारा एक साधारण मानव सुदामा जी के चरणों को अपने गोद में रखकर धोना !
हालांकि ईश्वर को सत्व, रज, तम तीनो गुणों से भी परे अर्थात गुणातीत कहा गया है !
प्रकृति और ईश्वर, आपसी मिलन की मात्रा को क्रमशः घटा – बढ़ा करके अनंत प्रकार के डिफ़रेंट कॉम्बिनेशन्स (जैसे विभिन्न मानव, जंतु, वृक्ष, पहाड़, नदियाँ आदि) बनातें हैं इसलिए कहा जाता है कि ईश्वर अनंत हैं, इसलिए यह भी कहा जाता है कि प्रकृति जहाँ एक तरफ महा दयालु (माँ गौरी रूप) हैं, वहीँ दूसरी तरफ महा क्रूर (माँ काली रूप) भी हैं ! किसी जीव के साथ प्रकृति किस रूप में पेश आयेगी यह उस जीव के खुद के कर्मों से बना प्रारब्ध तय करेगा !
ईश्वर की इसी अनंत प्रारुपता की तुलना एक बेहद विशाल और साफ़ सुथरे मल्टी फेसेट डायमंड (बहु मुखी हीरा) से की जा सकती है, जिसमें चाहे जिस भी सिरे से अंदर झांककर हीरे के पार देखने की कोशिश की जाए, लेकिन सफलता नहीं मिलती क्योंकि ईश्वर अंत हीन है !
आप इस हीरे में देखने के लिए किस सिरे को चुनतें हैं यह आपकी इच्छा पर निर्भर है लेकिन यह तय है कि आप कभी भी इस हीरे के पार नहीं देख पायेंगे !
कुछ लोग इस हीरे में एक सिरे से अंदर झाँकतें हैं तो कुछ लोग दूसरे सिरे से, तो कुछ लोग तीसरे सिरे से, इस हीरे के अनंत सिरे हैं और यहाँ सिरे का मतलब है ‘ईश्वर को खोजने के अलग अलग तरीके’ जैसे – हठ योग, राज योग, भक्ति योग, कर्म योग आदि (जैसे सारी नदियां अंत में जाकर समुद्र में ही मिलतीं हैं ठीक उसी तरह हर तरह के तरीके अंततः ईश्वर की ओर ही उन्मुख होतें हैं) !
बेहद आश्चर्य की बात है कि कुछ लोग जाने अनजाने अपराध का भी रास्ता चुनतें हैं ईश्वरत्व की खोज के लिए, जैसे रावण, जिसने जानबूझकर चुन चुन कर ऐसे भीषण पाप कर्म किये कि ईश्वर को खुद आना पड़े उसे अपने में समायोजित करने के लिए (हालांकि अपराध के रास्ते से ईश्वरत्व तक पहुचने में, मौत से पहले ही अनेक अनेक अनेक बार मृत्यु तुल्य कष्ट झेलने पड़ते है, और पाप के रास्ते ईश्वर को अपनी ओर वही आकर्षित कर पाया है जिसने पहले अथक मेहनतभरी तपस्या करके रावण, महिषासुर, हिरण्यकश्यप जैसी महा शक्ति अर्जित की, इसलिए हमेशा कहा जाता है कि परोपकार का मार्ग ही सबसे सुखद व आसान है ईश्वरत्व को पाने के लिए) !
ईश्वर अर्थात श्री राम के द्वारा रावण का उद्धार होने पर ऐसा नहीं है कि रावण को ईश्वर का सम्पूर्ण ज्ञान हो गया क्योंकि श्री राम के द्वारा उद्धार होने पर रावण व कुम्भकर्ण, विभिन्न लोकों में अपने सभी पापों का बेहद कष्टसाध्य प्रायश्चित करते हुए अंततः वापस वैकुण्ठ लोक में “जय विजय” नाम के भगवान् के पार्षद बन तो गये लेकिन फिर शुरू हुआ उनके द्वारा ईश्वर को खोजने का और एडवांस्ड चरण अर्थात वैकुण्ठ लोक (जो कि स्वयं भगवान् नारायण का शरीर ही है; विष्णु सहस्त्रनाम में श्री विष्णु का एक नाम ‘वैकुण्ठ’ भी लिखा हुआ है) में व्याप्त ईश्वर द्वारा बनाई गयी असीमित सृष्टि अर्थात अनंत ब्रह्मांडों को ही समझने के लिए, उन पार्षदों द्वारा लगातार नए नए अनुसंधान करते रहना !
वास्तव में इस अनुसन्धान में ऐसे ऐसे महा आश्चर्यजनक, असंख्य कार्य होतें हैं जिनके बारे में ना आज तक किसी ने सुना है और ना ही इसका कहीं वर्णन हैं ! इस अनुसंधान के अंतर्गत अनंत आयामों में विचरण के दौरान अपनी इच्छा से विभिन्न प्रकार की विचित्र शरीर को धारण कर, ईश्वरीय योजना के क्रियान्वन अर्थात सत्व रज तम गुणों के बिगड़े समन्वय के सुधार या अन्य किसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को भी निभाना पड़ सकता है ! यहाँ तक की अपनी इच्छा से एक एकदम नयी सृष्टि का निर्माण कर, उसमे ही ईश्वर और प्रकृति के अंश को समझना पड़ सकता है या ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि में प्रकृति की घटनाओं में सीधा हस्तक्षेप कर, प्रकृति की प्रतिक्रिया को समझना पड़ सकता है आदि आदि (इन सब कार्यों का जानकारी आज के उपलब्ध किसी ग्रन्थ से नहीं बल्कि सिर्फ किसी ईश्वर दर्शन प्राप्त संत की कृपा से ही हो सकता है) !
इस अनुसन्धान के दौरान कोई दिव्यात्मा जिन जिन भी चीजों और घटनाओं के सम्पर्क में आती है उन सभी चीजों/ घटनाओं में ईश्वर व प्रकृति के डिफरेंट कॉम्बिनेशन को ही समझने की कोशिश करती रहती है |
वास्तव में ईश्वर की बनाई हुई हर वस्तु/घटना में ईश्वर का ही रूप होता है भले ही हम उसे समझ पायें या नहीं !
ईश्वर की खोज के पहले चरण के बाद दूसरा चरण, फिर तीसरा चरण, फिर चौथा चरण, और फिर इस तरह के अंतहीन चरण हैं और यह स्वीकारोक्ति ना केवल किसी एक ईश्वर दर्शन प्राप्त संत की है, बल्कि हर ईश्वर दर्शन प्राप्त संत की है चाहे वे स्वयं सप्तर्षि हों या परम श्रेष्ठ ऋषि लोमश ही क्यों ना हों जो अनंत वर्ष तक ईश्वर को ही खोजते रहने के बाद भी कहतें हैं कि अभी तक तो हमने ईश्वर के बारे में कुछ जाना ही नहीं !
यहाँ तक कि ईश्वर के साकार रूप भी स्वयं अपने ही निराकार रूप के ध्यान में ही निमग्न रहतें हैं, जैसे भगवान् शिव हमेशा समाधिस्थ होकर अंत हीन निराकार ब्रह्म (निराकार रूप में ब्रह्म व प्रकृति में भेद कर पाना संभव नहीं है) को ही समझने के अनुसन्धान में व्यस्त रहतें हैं, भगवान् विष्णु भी हमेशा योगनिद्रा में रहकर निराकार ब्रह्म पर ही अनुसंधान करते रहतें हैं ! ईश्वर का साकार रूप लेने पर उनकी शक्ति भी सीमित हो जाती है (हालांकि वो शक्ति भी साधारण मानवों के लिए अकल्पनीय होती है; इस कांसेप्ट को हमने एक पूर्व के लेख में भी संक्षिप्त रूप से समझाया है जिसका लिंक नीचे दिया गया है) पर आकार रहित, निराकार ईश्वर की शक्ति असीमित है !
अतः ईश्वर के दर्शन प्राप्त करने की साधना के प्रारम्भिक अवस्था में किसी मानव को थोड़ी निराशा, हताशा, निरुत्साह, बोरियत आदि सब हो सकता है (क्योंकि जब किसी मेहनत का प्रत्यक्ष रिजल्ट ना मिले तो धैर्य की कमी युक्त मानवों का उत्साह ठंडा पड़ने लगता है) लेकिन जब उसकी साधना थोड़ी गंभीर अवस्था पकड़ती है तब उसे विलक्षण व चमत्कारी अनुभव होने लगतें हैं (हालांकि इन चमत्कारी अनुभवों को यथासंभव गुप्त रखना चाहिए) जो क्रमशः बढ़ने लगतें हैं ! ये मामूली से मामूली चमत्कार भी ऐसे होतें हैं जिनके बारे में आज के मॉडर्न साइंस को फॉलो करने वाले वैज्ञानिकों के पास कोई जवाब नहीं होता है पर यही चमत्कार उस साधक की साधना के उत्साह को ठंडा होने से बचातें हैं जिसे अक्सर भौतिकवादी समाज से सुनने को मिल सकता है कि अरे भगवान् वगवान नाम की कोई चीज नहीं होती है !
और एक बार जब ईश्वर दर्शन की परम उपलब्धि प्राप्त हो जाती है तब दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है और तब ही साधक को अपने आस पास से लेकर, दूसरे ब्रह्मांडों तक की हर वस्तु और हर घटना में खुद ईश्वर और प्रकृति के डिफरेंट कॉम्बिनेशन का रहस्य क्रमशः समझ में आने लगता है और यही होता है एक दिव्य देहधारी ऋषि सत्ता का मुख्य कार्य चूंकि ईश्वर अंत हीन है इसलिए उसे समझने का प्रयास करने में भी अंतहीन समय चाहिए जिसके लिए ऋषि सत्ता का आत्मबल बहुत काम आता है जो उन्हें समय से भी परे बना देता है अर्थात ईश्वर के ही समान अमर बना देता है कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि ईश्वर को खोजने की साधना में जब तक ईश्वरीय कृपा की एक बूँद नहीं मिलती तब तक थोड़ी निराशा हो सकती है पर जैसे ही ईश्वर, किंचित दृष्टिपात करतें हैं, वैसे ही ईश्वर में इतना ज्यादा आनन्द आने लगता है कि हर कण कण में ही ईश्वरीय अनुभूति होने लगती है !
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