सभी बिमारियों, सभी मनोकामनाओं व सभी समस्याओं का निश्चित उपाय है ये
मुख्यतः भक्ति योग में शीघ्र सफलता प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले आदरणीय जिज्ञासुओं के लिए यह लेख प्रस्तुत है !
इसमें सबसे पहली बात यह समझने की जरूरत है कि कोई भी व्यक्ति शुरुआत भले ही किसी एक योग से करे लेकिन धीरे धीरे वह स्वाभाविक प्रेरणा से अन्य तीनों योगों को भी निश्चित अपनाने लगता है, जिसका एक बहुत बढियां उदाहरण थे, श्री रामकृष्ण परम हंस !
श्री राम कृष्ण परमहंस ने भले ही शुरुआत भक्ति योग से की थी, लेकिन बाद में राजयोग, हठ योग व कर्म योग की भी साधनाओं को करने लगे थे ! आईये जानतें हैं कैसे-
श्री रामकृष्ण परमहंस बचपन से ही आम लड़कों से अलग थे और उन्हें माँ काली की पूजा करने में बड़ा आनन्द मिलता था जिसकी वजह से वे दिन रात हर समय माँ – माँ की ही रट लगाया करते थे ! तो यह था उनका शुरूआती भक्ति योग का समय !
कुछ समय पश्चात रामकृष्ण जी पूजा करने में इतने ज्यादा बेसुध हो जाने लगे थे कि अक्सर माँ काली को चढाने वाला फूल, खुद अपने ही ऊपर डालने लगे थे ! वे ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि अक्सर उन्हें अपने अंदर ही माँ काली का अहसास होता था ! उन्हें इतना जीवंत अहसास होना ही राज योग था !
यहाँ पाठको को समझने की जरूरत है कि धारणा व ध्यान की क्रियाएं तो हठ योग में भी हैं पर राज योग में तो सिर्फ यही क्रियाएं ही हैं जबकि हठ योग में इन क्रियाओं तक पहुचने से पहले यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहर आदि क्रियाओं को पूर्ण करना पड़ता है !
अगर आसान भाषा में कहें तो हठ योग (जिसे कुछ लोग अष्टांग योग भी कहतें है) वो होता है जिसमें कोई चाहे कितना भी चंचल उद्दंड दिमाग का व्यक्ति हो, आठ कठिन प्रक्रियाओं का सहारा लेकर अपने मन पर जबरदस्ती (अर्थात हठ पूर्वक) काबू पाकर अंतिम अवस्था समाधि तक पहुँच सकता है ! जबकि राज योग में बिना किसी अन्य क्रिया का सहारा लिए हुए सीधे मन को ही वश में करने की कोशिश की जाती है ! इसलिए राज योग की शुरुआत करना सबके बस की बात नहीं है ! राज योग की शुरुआत सिर्फ वही साधक सफलता पूर्वक कर पातें हैं जिनका मन पहले से एक मिनिमम स्तर तक पवित्र हो चुका हो क्योंकि मन में एक स्तरीय पवित्रता ना हो तो व्यक्ति कुछ ही दिनों बाद राज योग का अभ्यास करना छोड़ सकता है !
पुराणों में आपने कई जगह “ऋषि मुनि” शब्द को लिखा देखा होगा, तो इनमे “मुनि” वे ही होते थे जो राज योगी होते थे, क्योंकि वे सदा “मनन” करते थे इसलिए उन्हें मुनि कहा जाता था !
बाद में रामकृष्ण जी को भाव समाधि भी लगने लगी थी जो हठ योग व राज योग दोनों की अंतिम अवस्था अर्थात निर्विकल्प समाधि से ठीक पहले की अवस्था थी ! जीवन के अंत में उन्होंने निर्विकल्प समाधि के महा सुख का भी आस्वादन किया था !
श्री रामकृष्ण जी जीवन के अंत तक भी काफी मेहनत करते थे और अपने पास आने वाले हर जिज्ञासु की ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान की पिपासा को शांत करते थे और गरीबों को दान भी करते थे !
रामकृष्ण जी को तो माँ काली का प्रत्यक्ष दर्शन बहुत पहले ही हो चुका था और उनके अपने खाने पीने के लिए मंदिर में रोज पर्याप्त धन संग्रह भी हो जाता था, अतः अगर आम संसारी दृष्टि से देखा जाए तो उन्हें कोई जरूरत ही नहीं थी कि ईश्वर का निरंतर ध्यान जैसी परम आनन्ददायक प्रक्रिया को छोड़कर, गरीब भूखे नंगो के भोजन, वस्त्र व ज्ञान की व्यवस्था में रोज घंटो समय खर्च करने की ! पर इसके बावजूद भी उन्होंने अंतिम अवस्था तक अपने इस सांसारिक कर्तव्य का भी पालन किया और इसी को बोलतें है परम पवित्र कर्म योग !
चूंकि श्री राम कृष्ण परम हंस के तत्कालीन समाज में जहाँ उनकी बचपन की एजुकेशन एक पूजा पाठ के माहौल में हुई थी और उनकी शुरूआती नौकरी मंदिर के एक पुजारी के रूप में ही थी अतः उन्होंने जो उपर्युक्त कर्म योग निभाया वह निश्चित रूप से तत्कालीन समाज के हिसाब से एकदम उचित व प्रशंसनीय था !
पर कर्म योग की परिभाषा भी देश काल परिस्थित के हिसाब से अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग होती है, जैसे आज के समय में, सैनिक जो पूरी सावधानी से देश की सुरक्षा कर रहा हो, विद्यार्थी जो पूरी तन्मयता से विद्या अध्ययन कर रहा हो, गृहस्थ स्त्री/पुरुष जो पूरी ईमानदारी की कमाई से आजीविका चला रहा हो, घरेलु महिला जो पूरी सेवा भाव से सबका ख्याल रख रही हो आदि आदि, सभी कर्म योग ही तो कर रहें हैं (जब तक कि उनके कर्म में ईमानदारी व सत्यता बरकरार है तब तक) !
पुराणों में ईश्वर का ही एक नाम योग लिखा हुआ है, (इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि यह जगत पूर्णतः योगमय है) और यही ईश्वर अर्थात योग मुख्यतः चार शाखाओं में बट गया है ताकि अलग – अलग स्वभाव वाले व्यक्ति अपनी रूचि अनुसार अलग – अलग योग की पद्धति को चुनकर योगमय अर्थात ईश्वरमय हो सकें !
योग जिन चार मुख्य भागों में बटा हुआ हैं उन्ही के नाम है,- हठ योग, राज योग, भक्ति योग व कर्म योग ! इन योगों के अलावा जो अन्य योगों के नाम सुनने को मिलतें हैं, जैसे- जप योग, ध्यान योग, कीर्तन योग, भजन योग, सोहम योग, स्वर योग, तंत्र योग, क्रिया योग, नाद योग, सहज योग, सेवा योग आदि आदि वास्तव में उपर्युक्त चार योगों के ही अंतर्गत आतें हैं, जिन्हें बाद में लोगों ने अपनी सुविधा अनुसार अलग अलग नाम दे दिए हैं !
उदाहरण के तौर पर तंत्र योग, भक्ति योग के अंतर्गत ही आता है क्योंकि किसी भी तंत्र के कर्मकाण्ड युक्त प्रक्रिया में जब तक अपने इष्ट के प्रति भक्ति भाव भी ना हो तब तक सफलता नहीं मिलती (पर हाँ यह जरूर है कि किसी भक्ति में, कर्मकाण्ड बिल्कुल ना हो, तब भी सफलता मिलती है) ! इसी तरह स्वर योग, सोहम योग व सहज योग, राज योग की साधनाएं हैं जबकि नाद योग व ध्यान योग, हठ योग की साधनाएं हैं ! जप योग, कीर्तन योग व भजन योग, भक्ति योग की साधनाएँ हैं जबकि क्रिया योग व सेवा योग, कर्म योग के अंतर्गत आतें हैं !
तो आज हम बात कर रहें, भक्ति योग के एक ऐसे उपाय के बारे में जो परम आदरणीय संत समाज की अत्यंत दयामयी कृपा से सुनने को मिला है कि इस उपाय को लम्बे समय तक करने से ना केवल सभी तरह की बिमारियों व सभी समस्याओं (जैसे- फर्जी मुकदमा, गरीबी, कर्जा, एक्सीडेंट, अपमान, दुष्टों का अत्याचार, किसी भी तरह की शारीरिक दिव्यांगता, घरेलु झगड़े, शारीरिक कुरूपता या कोई भी अन्य समस्या दुःख या मुसीबत) का निश्चित समाधान भी होता है बल्कि हर उचित मनोकामना भी उचित समय आने पर निश्चित पूर्ण होकर रहती है ! और अगर बिना धैर्य खोये हुए कोई इसे लगातार करता रहे तो अंततः उसे अनंत ब्रह्मांड अधीश्वरी महामाया जगदम्बा सरस्वती के प्रत्यक्ष दर्शन का महा सौभाग्य भी मिलता है !
इसे जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि भक्ति कहतें किसे हैं ? भक्ति की सबसे आसान परिभाषा है,- ईश्वर में आसक्ति ! आसक्ति अर्थात लगाव जब तक सांसारिक चीजों या रिश्तों में रहता है तब तक निष्फल रहता है पर जब यही आसक्ति ईश्वर में हो जाती है तो महान चमत्कारी फल देने वाली हो जाती है !
जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने भक्ति योग के साधकों के लिए कहा है,- “कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा” ! अर्थात इस कलियुग में किसी भी कठिन कर्म काण्ड में उलझने की जरूरत नहीं है क्योंकि कठिन कर्मकाण्ड युक्त पूजा पाठ से मिलने वाले सारे लाभ आसानी से केवल भगवान् के नाम जप से भी बिल्कुल मिल सकतें हैं और नाम जप में सबसे बड़ी ख़ास बात यह है कि भगवान् के नाम जप को कभी भी, कहीं भी (यहाँ तक कि टॉयलेट में भी) आसानी से किया जा सकता है और इसमे सिर्फ लाभ ही लाभ है, हानि कुछ भी नहीं है, जबकि भगवान के मन्त्रों से युक्त कर्मकाण्ड युक्त पूजा पाठ को अशुद्ध उच्चारण या अशुद्ध जगह करने से लाभ की जगह हानि होने की संभावना बनी रहती है !
माँ सरस्वती के यह तीन नाम, “सरस्वती सहस्त्रनाम स्तोत्र” में दिए गएँ हैं ! यह तीन नाम निश्चित रूप से महान दिव्य हैं क्योंकि इनका नियमित रूप से लम्बे समय तक जप करने से दुनिया का कौन सा उचित कार्य ऐसा है जो संभव ना हो सके !
इन तीन नामों को इस प्रकार जपें- “ जय माँ सरस्वती जितेन्द्रिया अनन्ता “
आईये बतातें हैं परम आदरणीय संतसमाज अनुसार इन नामों का सक्षिप्त परिचय व लाभ-
इन नामो में जो “अनन्ता” नाम है उसे शास्त्रों में दुनिया की, सभी तरह की समस्याओं व सभी तरह की बीमारियों का सबसे बड़ा निदान कहा गया है क्योंकि अनन्ता का मतलब होता है, देवी के द्वारा बनाए गये अनंत ब्रह्मांडो में व्याप्त देवी के अनंत रूप !
इसलिए जब कोई स्त्री/पुरुष देवी के “अनन्ता” नाम को बार बार काफी लम्बे समय तक जपता है तो अनंत ब्रह्मांडों में व्याप्त हर कण कण में देवी सरस्वती का ही आवाहन व प्रकटी करण होने लगता है जिसकी वजह से उस स्त्री/पुरुष के लिए धीरे धीरे कोई भी चीज, किसी भी तरह से हानिकारक, नुकसानदायक, घातक नहीं रह जाती है बल्कि हर कण कण में स्वयं जगदम्बा के प्रकटीकरण की वजह से हर वस्तु बेहद फायदेमंद साबित होने लगतें हैं ! यहाँ तक कि कई वर्षों तक प्रेमपूर्वक नियमित जप करने से घोर विष भी अमृत की तरह गुणकारी हो जाता है !
किसी भी व्यक्ति को कोई भी बिमारी, किसी ना किसी कीटाणु की ही वजह से होती है पर “अनंता” नाम का लम्बे समय तक जप करने से शरीर में व्याप्त हर तरह के कीटाणु (चाहे वे एड्स या कैंसर जैसी घातक बीमारी के ही क्यों ना हो) भी धीरे धीरे अपनी हानिकारक प्रवृति छोड़ने पर निश्चित मजबूर होने लगतें हैं !
परम आदरणीय संतों ने यहाँ तक कहा है कि शरीर के कर्माशय में मौजूद वो प्रारब्ध के बीज अर्थात असली कारण जो किसी मानव में दिव्यांगता या असमय बुढ़ापा या हीन भावना पैदा करने वाली किसी तरह की शारीरिक कुरूपता (चाहे कुरूपता जन्मजात हो या चाहे किसी दुर्घटना या बीमारी की वजह से उत्पन्न हुई हो) उत्पन्न करतें हैं, वे भी वर्षों के जप से उत्पन्न माँ सरस्वती के असहनीय तेज से निश्चित पूर्णतः निष्प्रभावी किये जा सकतें हैं जिससे सौ प्रतिशत बीमारी रहित चिरयुवा सुंदर शरीर प्राप्ति की असम्भव लगने वाली परिकल्पना को निश्चित संभव किया जा सकता है !
बहुत सीधा सा सिद्धांत है कि जब मानव शरीर के हर कण कण में महामाया सरस्वती के कृपा अंश का प्रकटीकरण बढ़ता जाएगा तो निश्चित रूप से शरीर रोज पहले से ज्यादा तेजस्वी, ओजस्वी, बलशाली व सुंदर होती जाएगी !
वास्तव में ऐसी ही शरीर के लिए कुछ भी हानिकारक नहीं रह जाता है ! आपने पुराणों में घटना पढ़ी होगी जब कोई आदमखोर भूखा शेर भी किसी ऋषि के पास पहुचतें ही, अपना खूंखार स्वभाव को छोड़कर तुरंत गाय के समान सीधा स्वभाव का बन जाता है क्योंकि जब तक वह शेर ऋषि के पास रहता है तब तक वह शेर, वह पुराना वाला शेर नहीं रह जाता है बल्कि ऋषि के शरीर से सतत निकलने वाले दिव्य तप के तेज की वजह से उसमें ईश्वरत्व का अंश काफी बढ़ जाता है ! इसलिए यह भी पुराणो में कहा गया है कि सच्चे संत का दर्शन महापुण्य दायक होता है क्योंकि सच्चे संत के निकट पहुचतें ही उनके तपोबल की वजह से भयंकर पापी प्राणी के अंदर भी ईश्वरत्व प्रकट होने लगता है (जैसे श्री गौतमबुद्ध के पास पहुचतें ही, सैकड़ों लोगों की निर्दयतापूर्वक हत्या कर देने वाले डाकू अंगुलिमाल का हृदय भी तेजी से परिवर्तित होने लगा था) !
जो बुरा प्रारब्ध किसी उचित मनोकामना की पूर्ती में भी बार बार बाधक बन रहा हो वह भी धीरे धीरे इस नाम जप के लम्बे अभ्यास से एकदम निष्प्रभावी होता जाता है जिसकी वजह से थोड़े से ही कर्म से वह मनोकामना आसानी से पूर्ण हो जाती है !
“अनन्ता” नाम का जप सफलता पूर्वक लम्बे समय तक हो सके, इसके लिए “जितेन्द्रिया” नाम का जप अति आवश्यक है ! यह तो तय है कि अनन्ता नाम के जप से अनंत लाभ मिलतें हैं, पर इन लाभों को पाने का सफर उन लोगों को लम्बा लग सकता है जिनके अंदर धैर्य नहीं है ! सभी तरह के आन्तरिक व बाहरी विघ्न बाधाओं से लड़ने की शक्ति प्रदान करते हुए इन नामो के जप की पूर्णता की सिद्धि के लिए अति आवश्यक है “जितेन्द्रिया” नाम का जप करना ! जितेन्द्रिया नाम का जप करने से पापी से पापी आदमी भी पूर्ण मेहनती, ईमानदार व सत्यवादी निश्चित होकर ही रहता है ! देवी की पूर्ण कृपा प्राप्त करने के लिए यह जरूरी है कि अपने अन्तरंग की सफाई हो, इसलिए भी “जितेन्द्रिया” नाम का जप अत्यावश्यक है !
“सरस्वती” नाम ही “अनन्ता व जितेन्द्रिया” नामों का आधार व शक्ति है इसलिए इस नाम का सबसे शुरू में जप करना नितांत आवश्यक है !
अतः इस प्रकार यह उचित नाम क्रम है,- “ जय माँ सरस्वती जितेन्द्रिया अनन्ता “
इन नामों को जब चाहें, जितना चाहें जप सकतें हैं ! यह निश्चित और अनुभूत है कि पूर्ण विश्वास से जपने से पहले ही दिन से कुछ ना कुछ लाभ जरूर मिलने लगता है !
बच्चे का पढाई में मन ना लगता हो या पढाई लिखाई बहुत कठिन लगती हो या बिल्कुल ही समझ में ना आती हो तो इन नामों के जप से निश्चित चमत्कारी लाभ मिलता है ! इसे रोज करने वालों की बुद्धि निश्चित ही बहुत तेज हो जाती है और प्रभावशाली बोल पाने की क्षमता का भी आश्चर्यजनक विकास होता है, जिससे कठिन से कठिन एग्जाम, इंटरव्यू आदि भी आसानी से पास किये जा सकतें हैं !
हकला कर (अर्थात ज्यादा रुक रुक कर अस्पष्ट) बोलने की आदत की आज तक कोई भी प्रभावी दवा नहीं बनी है पर इन नामों के जप से हकलाने का भी निश्चित समाधान होता है ! माँ सरस्वती की कृपा से ऐसी एकदम साफ़ और स्पष्ट वाणी मुंह से निकलती है जो अन्य लोगों को सुनने में अच्छी लगती है !
घर में कोई एक आदमी या सभी झगड़ालू स्वभाव के हों या किसी को कोई बुरी आदत (जैसे- झूठ बोलने की आदत, चोरी की लत, शराब सिगरेट तम्बाखू चरस हेरोइन आदि नशा करने की आदत) हो या किसी को कोई भी कठिन बीमारी हो, तो भी इन नामों के जप से आश्चर्यजनक लाभ मिलता है !
इसके अलावा किसी भी तरह के मानसिक रोगों व समस्याओं (जैसे पागलपन, साईको – सनकी स्वभाव, भूलने की आदत, अँधेरे में या भूत प्रेत से डर महसूस होना, छोटी छोटी बात पर तनाव उलझन चिढन क्रोध महसूस होना आदि) का भी निश्चित इलाज होता है !
इन नामों को कोई, किसी दूसरे के लिए भी जप सकता है मतलब जैसे किसी का बेटा दुष्ट स्वभाव का हो गया हो या पत्नी कामचोर झगडालू स्वभाव की हो या पति व्याभिचारी शराबी हो या किसी का कोई परिचित बीमार हो या किसी परिचित की कोई उचित मनोकामना पूरी करनी हो तो उसके लिए भी देवी के इन तीन नामों का जप कोई भी उनका हितैषी कर सकता है ! जिसके लिए बस जप शुरू करने से पहले देवी सरस्वती से प्रार्थना कर लें कि मैं अमुक स्त्री/पुरुष के स्वभाव या स्वास्थ्य या समस्या में सुधार के लिए या उसकी अमुक उचित मनोकामना पूरी करने के लिए, आपके इन तीन नामों का जप करने जा रहा हूँ, कृपया इसे सफल बनाने का आशीर्वाद दीजियेगा !
देवी के इन तीन नामों को जपने के लिए किसी भी माला की आवश्यकता नहीं है ! इन नामों का जप कभी भी, कहीं भी किया जा सकता है मतलब टेलीविजन देखते हुए, बस में सफर करते हुए, किचेन में काम करते हुए, ऑफिस में लंच करते हुए, सड़क पर पैदल चलते हुए भी किया जा सकता है !
शुरुआत में कुछ दिन, मुंह से बोलकर (उच्चारण करते हुए) जप करें ताकि सही उच्चारण करने की आदत पड़ जाए फिर उसके बाद मन में जप करिए ! मुंह से बोलने की तुलना में, मन में जप करने से ज्यादा लाभ मिलता है पर शुरुआत में कुछ दिन मुंह से उच्चारण करना इसलिए उचित होता है ताकि सही उच्चारण करने की पक्की आदत पड़ जाए ! पूर्ण लाभ तभी मिलेगा जब उच्चारण शुद्ध होगा इसलिए ज्यादा जपने के चक्कर में या जल्दी जल्दी जपने के चक्कर में गलत नहीं जपना चाहिए !
नोट– वैसे तो माँ सरस्वती के इन तीन महाफलदायी नामों का जप, पूरी तरह से आपकी खुद की सुविधा के ऊपर निर्भर है मतलब आप जब चाहें और जितना चाहें इन तीन नामों का जप कर सकतें हैं ! लेकिन इसके बावजूद भी कई भक्त अक्सर जानना चाहतें हैं कि उन्हें इन नामों का जप किस समय और कितनी बार करना चाहिए !
तो ऐसे पाठको को सुझाव है कि इन तीन नामों का जप करने का सबसे अच्छा तरीका है कि कम से कम 108 बार सुबह और 108 बार रात को सोते समय करना चाहिए !
सुबह का जप अगर बिस्तर से उठते ही बिस्तर पर ही किया जाए तो सर्वोत्तम होता है क्योंकि ऐसा करने से पूरा दिन आपके चारो तरफ माँ सरस्वती का एक प्रबल शक्तिशाली अदृश्य सुरक्षा घेरा बना रहेगा जो आपको हर समस्या व मुसीबतों से हमेशा बचाता रहेगा जब तक कि आप जानबूझ कर कोई बड़ा गलत काम नहीं करते हैं !
रात का जप बिस्तर पर सोने से ठीक पहले करना चाहिए ! अगर आपके पास और ज्यादा समय हो तो आप यह जप संख्या 108 से ज्यादा बढ़ा सकतें हैं क्योंकि अधिक करने से अधिक फल मिलता है (संस्कृत में कहावत भी है,- “अधिकस्य अधिकम फलम” अर्थात अधिक मेहनत का अधिक फल मिलता है) !
यहाँ बहुत ही ध्यान से समझने वाली बात है कि अगर कोई भी व्यक्ति इस जप को करेगा तो यह निश्चित है कि उसके जीवन से धीरे धीरे सभी तरह के दुःख समाप्त होने लगेंगे {हालांकि बीच बीच में माँ सरस्वती कुछ बेहद कठिन परीक्षाएं (जैसे कोई विकट सामजिक समस्या, आर्थिक तंगी, आदि) लेती रहती हैं पर उनसे घबराकर जप करना छोड़ नहीं देना चाहिए, क्योंकि देर सवेर सभी दुःख समाप्त होकर महा प्रसन्नता निश्चित प्राप्त होती है} लेकिन यह परिवर्तन (अर्थात सभी दुखों का समाप्त होना) खुद सबसे पहले किसी को पसंद नहीं आता है तो वह है आदमी की खुद की बुरी किस्मत को !
इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण जानने वाली बात यह भी है कि यदि कोई गृहस्थ स्त्री/पुरुष जो अपने जरूरी कर्म योग (जैसे- नौकरी, व्यापार, पढाई लिखाई, घर परिवार की उचित देखभाल आदि) की अनदेखी करके सिर्फ भक्ति योग (अर्थात भगवान का नाम जपे) तो उसे उसका कोई विशेष लाभ नहीं मिलता, क्योंकि भगवान् किसी भी आध्यात्मिक प्रक्रिया का फल तभी प्रदान करतें हैं जब उसे सही तरीके से किया जाए !
और सही तरीका यही है कि गृहस्थ को अपने रोज के कर्मयोग को ईमानदारी से निभाने के बाद जो भी समय बचता हो, उसी में ही भक्ति योग करना चाहिए !
भले ही कर्म योग निभाने के बाद, भक्ति योग के लिए बहुत थोड़ा ही समय रोज बच पाता हो, पर उस थोड़े से ही समय में किसी गृहस्थ द्वारा की गयी पूजा भी किसी सन्यासी द्वारा की गयी कई घंटे की पूजा के बराबर फलदायी होती है !
It’s a sure shot solution for all diseases, wishes and problems
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