कहानी – सालवती (लेखक – जयशंकर प्रसाद)

1jpdसदानीरा अपनी गम्भीर गति से, उस घने साल के जंगल से कतरा कर चली जा रही है। सालों की श्यामल छाया उसके जल को और भी नीला बना रही है; परन्तु वह इस छायादान को अपनी छोटी-छोटी वीचियों से मुस्कुरा कर टाल देती है। उसे तो ज्योत्सना से खेलना है। चैत की मतवाली चाँदनी परिमल से लदी थी। उसके वैभव की यह उदारता थी कि उसकी कुछ किरणों को जंगल के किनारे की फूस की झोपड़ी पर भी बिखरना पड़ा।

उसी झोपड़ी के बाहर नदी के जल को पैर से छूती हुई एक युवती चुपचाप बैठी आकाश के दूरवर्ती नक्षत्रों को देख रही थी। उसके पास ही सत्तू का पिंड रक्खा था। भीतर के दुर्बल कण्ठ से किसी ने पुकारा-”बेटी!”

 

परन्तु युवती तो आज एक अद्‌भुत गौरव-नारी-जीवन की सार्थकता देखकर आयी है! पुष्करिणी के भीतर से कुछ मिट्टी, रात में ढोकर बाहर फेंकने का पारिश्रमिक चुकाने के लिए, रत्नाभरणों से लदी हुई एक महालक्ष्मी बैठी थी। उसने पारिश्रमिक देते हुए पूछा-”बहन! तुम कहाँ रहती हो? कल फिर आना।” उन शब्दों में कितना स्नेह था। वह महत्व! …क्या इन नक्षत्रों से भी दूर की वस्तु नहीं? विशेषत: उसके लिए …. वह तल्लीन थी। भीतर से फिर पुकार हुई।

 

”बेटी! …. सालवती! …. रात को नहा मत! सुनती नहीं! …. बेटी!”

 

”पिताजी!” सालवती की तन्द्रा टूटी। वह उठ खड़ी हुई। उसने देखा कि वृद्ध छड़ी टेकता हुआ झोपड़ी के बाहर आ रहा है। वृद्ध ने सालवती की पीठ पर हाथ रखकर उसके बालों को टटोला! वे रूखे थे। वृद्ध ने सन्तोष की साँस लेकर कहा-”अच्छा है बेटी! तूने स्नान नहीं किया न! मैं तनिक सो गया था। आज तू कहाँ चली गयी थी? अरे, रात तो प्रहर से अधिक बीत चुकी। बेटा! तूने आज कुछ भोजन नहीं बनाया?”

 

”पिताजी! आज मैं नगर की ओर चली गयी थी। वहाँ पुष्करिणी बन रही है। उसी को देखने।”

 

”तभी तो बेटी! तुझे विलम्ब हो गया। अच्छा, तो बना ले कुछ। मुझे भी भूख लगी है। ज्वर तो अब नहीं है। थोड़ा-सा मूँग का सूप … हाँ रे! मूँग तो नहीं है! अरे, यह क्या है रे?”

 

”पिताजी! मैंने पुष्करिणी में से कुछ मिट्टी निकाली है। उसी का यह पारिश्रमिक है। मैं मूँग लेने ही तो गयी थी; परन्तु पुष्करिणी देखने की धुन में उसे लेना भूल गयी।”

 

”भूल गयी न बेटी! अच्छा हुआ; पर तूने यह क्या किया! वज्जियों के कुल में किसी बालिका ने आज तक …. अरे ….. यह तो लज्जापिंड है! बेटी! इसे मैं न खा सकूँगा। किसी कुलपुत्र के लिए इससे बढक़र अपमान की और कोई वस्तु नहीं। इसे फोड़ तो!”

 

सालवती ने उसे पटककर तोड़ दिया। पिंड टूटते ही वैशाली की मुद्रा से अंकित एक स्वर्ण-खण्ड उसमें से निकल पड़ा। सालवती का मुँह खिल उठा; किन्तु वृद्ध ने कहा-”बेटी! इसे सदानीरा में फेंक दे।’ सालवती विषाद से भरी उस स्वर्ण-खण्ड को हाथ में लिये खड़ी रही। वृद्ध ने कहा-”पागल लडक़ी! आज उपवास न करना होगा। तेरे मिट्टी ढोने का उचित पारिश्रमिक केवल यह सत्तू है। वह स्वर्ण का चमकीला टुकड़ा नहीं।”

 

”पिताजी! फिर आप?”

 

”मैं ….? आज रात को भी ज्वर का लंघन समझूँगा! जा, यह सत्तू खाकर सदानीरा का जल पीकर सो रह!”

 

”पिताजी! मैं भी आज की रात बिना खाये बिता सकती हूँ; परन्तु मेरा एक सन्देह ….”

 

”पहले उसको फेंक दे, तब मुझसे कुछ पूछ!”

 

सालवती ने उसे फेंक दिया। तब एक नि:श्वास छोड़कर बुड्ढे ने कहना आरम्भ किया:

 

”आर्यों का वह दल, जो माधव के साथ ज्ञान की अग्नि मुँह में रखकर सदानीरा के इस पार पहले-पहल आया, विचारों की स्वतन्त्रता का समर्थक था। कर्मकाण्डियों की महत्ता और उनकी पाखण्डप्रियता का विरोधी वह दल, सब प्रकार की मानसिक या नैतिक पराधीनता का कट्टर शत्रु था।

 

”जीवन पर उसने नये ढंग से विचार करना आरम्भ किया। धर्म का ढोंग उसके लिए कुछ अर्थ नहीं रखता था। वह आर्यों का दल दार्शनिक था। उसने मनुष्यों की स्वतन्त्रता का मूल्य चारों ओर से आँकना चाहा। और आज गंगा के उत्तरी तट पर विदेह, वज्जि, लिच्छवि और मल्लों का जो गणतन्त्र अपनी ख्याति से सर्वोन्नत है वह उन्ही पूर्वजों की कीर्तिलेखा है।

 

”मैं भी उन्ही का कुलपुत्र हूँ। मैंने भी तीर्थंकरों के मुख से आत्मवाद-अनात्मवाद के व्याख्यान सुने हैं। संघो के शास्त्रार्थ कराये हैं। उनको चातुर्मास कराया है। मैं भी दार्शनिकों में प्रसिद्ध था। बेटी! तू उसी धवलयश की दुहिता होकर किसी की दया पर अपना जीवन-निर्वाह करे, यह मैं नहीं सहन कर सकता।

 

”बेटी, गणराज्य में जिन लोगों के पास प्रभूत धन है, उन लोगों ने निर्धन कुलीनों के निर्वाह के लिए यह गुप्तदान की प्रथा चलायी है कि अँधेरे में किसी से थोड़ा काम कराकर उसे कुछ स्वर्ण दे देना। क्या यह अनुग्रह नहीं हैं बेटी?”

 

”है तो पिताजी!”

 

”फिर यह कृतज्ञता और दया का भार तू उठावेगी! वही हम लोगों की सन्तान जिन्होंने देवता और स्वर्ग का भी तिरस्कार किया था, मनुष्य की पूर्णता और समता का मंगलघोष किया था, उसी की सन्तान अनुग्रह का आश्रय ले?”

 

”नहीं पिता जी! मैं अनुग्रह न चाहूँगी।”

 

”तू मेरी प्यारी बेटी है। जानती है बेटी! मैंने दार्शनिकवादों में सर्वस्व उड़ाकर अपना कौन-सा सिद्धान्त स्थिर किया है!”

 

”नहीं पिता जी!”

 

”आर्थिक पराधीनता ही संसार में दु:ख का कारण है। मनुष्य को उससे मुक्ति पानी चाहिए; मेरा इसलिए उपास्य है स्वर्ण।”

 

”किन्तु आपका देवता कहाँ है?”

 

वृद्ध ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा-”मेरा उपास्य मेरी झोपड़ी में है; इस सदानीरा में है; और है मेरे परिश्रम में!”

 

सालवती चकित होकर देखने लगी।

 

वृद्ध ने कहा-”चौंक मत बेटी! मैं हिरण्यगर्भ का उपासक हूँ। देख, सदानीरा की शिलाओं मे स्वर्ण की प्रचुर मात्रा है।”

 

”तो क्या पिता जी! तुमने इसलिए इन काले पत्थरों से झोपड़ी भर रक्खी है?”-सालवती ने उत्साह से कहा।

 

वृद्ध ने सिर हिलाते हुए फिर अपनी झोपड़ी में प्रवेश किया। और सालवती! उसने घूमकर लज्जापिण्ड को देखा भी नहीं। वह दरिद्रता का प्रसाद यों ही बिखरा पड़ा रहा। सालवती की आँखों के सामने चन्द्रमा सुनहला होकर सदानीरा की जल-धारा को स्वर्णमयी बनाने लगा। साल के एकान्त कानन से मर-मर की ध्वनि उठती थी। सदानीरा की लहरें पुलिन से टकराकर गम्भीर कलनाद का सृजन कर रही थीं; किन्तु वह लावण्यमयी युवती अचेतन अवस्था में चुपचाप बैठी हुई वज्जियों की-विदेहों की अद्‌भुत स्वतन्त्रता पर विचार कर रही थी। उसने झुँझलाकर कहा-”ठीक! मैं अनुग्रह नहीं चाहती। अनुग्रह लेने से मनुष्य कृतज्ञ होता है। कृतज्ञता परतन्त्र बनाती है।”

 

लज्जापिण्ड से मछलियों की उदरपूर्ति कराकर वह भूखी ही जाकर सो रही।

 

— —

 

दूसरे दिन से वृद्ध शिला-खण्डों से स्वर्ण निकालता और सालवती उसे बेचकर आवश्यकता की पूर्ति करती। उसके साल-कानन में चहल-पहल रहती। अतिथि, आजीवक और अभ्यागत आते, आदर-सत्कार पाते, परन्तु यह कोई न जान सका कि यह सब होता कहाँ से है। वैशाली में धूम मच गयी। कुतूहल से कुलपुत्र चत्र्चल हुए! परन्तु एक दिन धवलयश अपनी गरिमा में हँसता हुआ संसार से उठ गया।

 

सालवती अकेली रह गयी। उसे तो स्वर्ण का उद्गम मालूम था। वह अपनी जीवनचर्या में स्वतन्त्र बनी रही। उसका रूप और यौवन मानसिक स्वतन्त्रता के साथ सदानीरा की धारा की तरह वेग-पूर्ण था।

 

— —

 

वसन्त की मञ्जरियों से पराग बरसने लगा। किसलय के कर-पल्लव से युवकों को आमन्त्रण मिला। वैशाली के स्वतन्त्र नागरिक आमोद-प्रमोद के लिए उन्मत्त हो उठे। अशोक के लाल स्तवकों में मधुपों का मादक गुञ्जार नगर-प्रान्त को संगीतमय बना रहा था। तब कलशों में आसव लिये दासों के वृन्द, वसन्त-कुसुमालंकृत युवतियों के दल, कुलपुत्रों के साथ वसन्तोत्सव के लिए, वनों उपवनों में फैल गये।

 

कुछ मनचले उस दूरवर्ती साल-कानन में भी पहुँचे। सदानीरा के तट पर साल की निर्जन छाया में उनकी गोष्ठी जमी। इस दल में अन्य लोगों की अपेक्षा एक विशेषता थी, कि इनके साथ कोई स्त्री न थी।

 

दासों ने आसन बिछा दिये। खाने-पीने की सामग्री रख दी गयी। ये लोग सम्भ्रान्त कुलपुत्र थे। कुछ गम्भीर विचारक-से वे युवक देव-गन्धर्व की तरह रूपवान् थे। लम्बी-चौड़ी हड्डियों वाले व्यायाम से सुन्दर शरीर पर दो-एक आभूषण और काशी के बने हुए बहुमूल्य उत्तरीय, रत्न-जटित कटिबन्ध में कृपाणी। लच्छेदार बालों के ऊपर सुनहरे पतले पटबन्ध और वसन्तोत्सव के प्रधान चिह्न-स्वरूप दूर्वा और मधूक-पुष्पों की सुरचित मालिका। उनके मांसल भुजदण्ड, कुछ-कुछ आसव-पान से अरुणनेत्र, ताम्बूलरञ्जित सुन्दर अधर, उस काल के भारतीय शारीरिक सौन्दर्य के आदर्श प्रतिनिधि थे।

 

वे बोलने के पहले थोड़ा मुस्कराते, फिर मधुर शब्दों में अपने भावों को अभिव्यक्त करते थे। गिनती में वे आठ थे। उनके रथ दूर खड़े थे। दासों ने आवश्यक वस्तु सजाकर रथों के समीप आश्रय लिया। कुलपुत्रों का पान, भोजन और विनोद चला।

 

एक ने कहा-”भद्र! अभिनन्द! अपनी वीणा सुनाओ।”

 

दूसरों ने भी इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया। अभिनन्द के संकेत पर दास ने उसकी वीणा सामने लाकर रख दी। अभिनन्द बजाने लगा। सब आनन्द-मग्न होकर सुनने लगे।

 

अभिनन्द ने एक विश्राम लिया। लोगों ने ‘साधु-साधु’ कहकर उसे अभिनन्दित किया। सहसा अश्वों के पद-शब्द सुनाई पड़े।

 

सिन्धुदेश के दो धवल अश्वों पर, जिनके स्वर्णालंकार चमक रहे थे, चामर हिल रहे थे, पैरों में झाँझें मधुर शब्द कर रही थीं, दो उच्च पदाधिकारी माननीय व्यक्तियों ने वहाँ पहुँचकर उस गोष्ठी के लोगों को चञ्चल कर दिया।

 

उनके साथ के अन्य अश्वारोही रथों के समीप ही खड़े रहे; किन्तु वे दोनों गोष्ठी के समीप आ गये।

 

कुलपुत्रों ने एक को पहचाना। वह था उपराजा अभय कुमार। उन लोगों ने उठकर स्वागत और नमस्कार किया।

 

उपराजा ने अश्व पर से ही पूछा-”कुलपुत्रों की शुभकामना करते हुए मैं पूछ सकता हूँ कि क्या कुलपुत्रों की प्रसन्नता इसी में है, कि वे लोग अन्य नागरिकों से अलग अपने वसन्तोत्सव का आनन्द आप ही लें?”

 

”उपराजा के हम लोग कृतज्ञ है। हम लोगों की गोष्ठी को वे प्रसन्नता से सुशोभित कर सकते हैं। हम लोग अनुगृहीत होंगे।”

 

”किन्तु मेरे साथ एक माननीय अतिथि हैं। पहले इनका परिचय करा दूँ?”

 

”बड़ी कृपा होगी।”

 

”ये हैं मगधराज के महामन्त्री! वैशाली का वसन्तोत्सव देखने आये हैं।”

 

कुलपुत्रों ने मन में सोचा-महामन्त्री चतुर हैं। रथ पर न चढक़र अश्व की वल्गा उसने अपने हाथ में रक्खी है। विनय के साथ कुलपुत्रों ने दोनो अतिथियों को घोड़ों से उतरने में सहायता दी। दासों ने दोनों अश्वों को रथ के समीप पहुँचाया और वैशाली के उपराजा तथा मगध के महामन्त्री कुलपुत्रों के अतिथि हुए।

 

महामन्त्री गूढ़ राजनीतिज्ञ था। वह किसी विशेष सिद्धि के लिए वैशाली आया था। वह संस्थागार के राजकों की मनोवृत्ति का गम्भीर अध्ययन कर रहा था। उनकी एक-एक बातों, आचरणों और विनयों को वह तीव्र दृष्टि से देखता। उसने पूछा-”कुलपुत्रों से मैं एक बात पूछँू, यदि वे मुझे प्रसन्नता से ऐसी आज्ञा दें?”

 

अभिनन्द ने कहा-”अपने माननीय अतिथि को यदि हम लोग प्रसन्न कर सकें, तो अनुगृहीत होंगे।”

 

”वैशाली के 7707 राजकों में आप लोग भी हैं। फिर आपके उत्सव में वैराग्य क्यों? अन्य नागरिकों से आप लोगों का उत्सव विभिन्न क्यों है? आपकी गोष्ठी में ललनाएँ नहीं! वह उल्लास नहीं, परिहास नहीं, आनन्द-उमंग नहीं। सबसे दूर अलग, संगीत आपानक से शून्य आपकी गोष्ठी विलक्षण है।”

 

अभयकुमार ने सोचा, कि कुलपुत्र इस प्रश्न को अपमान न समझ लें। कहीं कड़वा उत्तर न दे दें। उसने कहा-”महामन्त्री! यह जानकर प्रसन्न होंगे, कि वैशाली गणतन्त्र के कुलपुत्र अपनी विशेषताओं और व्यक्तित्व को सदैव स्वतन्त्र रखते हैं।”

 

अभिनन्द ने कहा-”और भी एक बात है। हम लोग आठ स्वतन्त्र तीर्थंकरों के अनुयायी हैं और परस्पर मित्र हैं। हम लोगों ने साधारण नागरिकों से असमान उत्सव मनाने का निश्चय किया था। मैं तो तीर्थंकर पूरण कश्यप के सिद्धान्त अक्रियवाद को मानता हूँ। यज्ञ आदि कर्मों में न पुण्य है, न पाप। मनुष्य को इन पचड़ों में न पडऩा चाहिए।”

 

दूसरे ने कहा-”आर्य, मेरा नाम सुभद्र है। मैं यह मानता हूँ, कि मृत्यु के साथ ही सब झगड़ों का अन्त हो जाता है।”

 

तीसरे ने कहा-”मेरा नाम वसन्तक है। मैं संजय वेलठिपुत्त का अनुयायी हूँ। जीवन में हम उन्हीं बातों को जानते हैं, जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध हमारे सम्वेदनों से है। हम किसी अनुभवातीत वस्तु को नहीं जान सकते।”

 

चौथे ने कहा-”मेरा नाम मणिकण्ठ है। मैं तीर्थंकर प्रबुध कात्यायन का अनुगत हूँ। मैं समझता हूँ कि मनुष्य कोई सुनिश्चित वस्तु को ग्रहण नहीं कर सकता। कोई सिद्धान्त स्थिर नहीं कर सकता।”

 

पाँचवें ने कहा-”मैं आनन्द हूँ, आर्य! तीर्थंकर मस्करी गोशाल के नियतिवाद में मेरा पूर्ण विश्वास है। मनुष्य में कर्म करने की स्वतन्त्रता नहीं। उसके लिए जो कुछ होना है वह होकर ही रहेगा। वह अपनी ही गति से गन्तव्य स्थान तक पहुँच जायगा।”

 

छठे ने कहा-”मै तीर्थंकर नाथ-पुत्र का अन्तेवासी हूँ। मैं कहता हूँ, कि वस्तु है भी, नहीं भी है। दोनों हो सकती है।”

 

सातवें ने कहा-”मैं तीर्थंकर गौतम का अनुयायी सुमङ्गल हूँ, किसी वास्तविक सत्ता में विश्वास ही नहीं करता। आत्मन् जैसा कोई पदार्थ ही नहीं है।”

 

आठवें ने किञ्चित् मुस्कुराकर कहा-”आर्य! मैं मैत्रायण विदेहों के सुनिश्चित आत्मवाद को मानने वाला हूँ। ये जितनी भावनाएँ हैं, सबका उद्गम आत्मन् ही है।”

 

अभिनन्द ने कहा-”तब हम लोगों की विलक्षणता पर महामन्त्री को आश्चर्य होना स्वाभाविक है।”

 

अभयकुमार कुछ प्रकृतिस्थ हो रहा था। उसने देखा कि महामन्त्री बड़े कुतूहल और मनोनिवेश से कुलपुत्रों का परिचय सुन रहा है। महामन्त्री ने कुछ व्यंग्य से कहा-”आश्चर्य है! माननीय कुलपुत्रों ने अपने विभिन्न विचारों का परिचय देकर मुझे तो चकित कर दिया है। तब आप लोगों का कोई एक मन्तव्य नहीं हो सकता!”

 

”क्यों नहीं; वज्जियों का एक तो स्थिर सिद्धान्त है ही। अर्थात् हम लोग वज्जिसंघ के सदस्य हैं। राष्ट्रनीति में हम लोगों का मतभेद तीव्र नहीं होता।” कुलपुत्रों को चुप देखकर किसी ने साल के अन्तराल से सुकोमल कण्ठ से यह कहा और नदी की ओर चली गयी।

 

उन लोगों की आँखें उधर उस कहनेवाले को खोज रहीं थी कि सामने से कलश लिये हुए सालवती सदानीरा का जल भरने के लिए आती दिखलाई पड़ी।

 

मगध के महामन्त्री को उस रूप-लावण्यमयी युवती का यह उत्तर थप्पड़-सा लगा। उसने कहा-”अद्‌भुत!”

 

प्रसन्नता से महामन्त्री की विमूढ़ता का आनन्द लेते हुए अभयकुमार ने कहा-”आश्चर्य कैसा आय्र्य?”

 

”ऐसा सौन्दर्य तो मगध में मैंने कोई देखा ही नहीं। वज्जियों का संघ सब विभूतियों से सम्पन्न है। अम्बापाली, जिसके रूप पर हम लोगों को गर्व है, इस लावण्य के सामने तुच्छ है। और इसकी वाक्पटुता भी ….!”

 

”किन्तु मैंने सुना है कि अम्बापाली वेश्या है। और यह तो?” इतना कहकर अभयकुमार रुक-सा गया।

 

महामन्त्री ने गम्भीरता से कहा-”तब यह भी कोई कुलवधू होगी! मुझे क्षमा कीजिए।”

 

”यह तो पूछने से मालूम होगा!”

 

क्षण भर के लिए सब चुप हो गये थे। सालवती अपना पूर्ण घट लेकर करारे पर चढ़ रही थी। अभिनन्द ने कहा-”कल्याणी! हमलोग आपका परिचय पाने के लिए उत्सुक हैं!”

 

”स्वर्गीय कुलपुत्र आय्र्य धवलयश की दुहिता सालवती के परिचय में कोई विचित्रता नहीं है!” सालवती ने गम्भीरता से कहा-वह दुर्बल कटि पर पूर्ण कलश लिए कुछ रुक-सी गयी थी।

 

मैत्रायण ने कहा-”धन्य है कुलपुत्रों का वंश! आज हमलोगों का प्रतिनिधि बनकर जो उचित उत्तर आपने मगध के माननीय महामन्त्री को दिया है, वह कुलीनता के अनुरूप ही है। हमलोगों का साधुवाद ग्रहण कीजिए!”

 

”क्या कहूँ आय्र्य! मैं उतनी सम्पन्न नहीं हूँ कि आप जैसे माननीय अतिथियों का स्वागत-सत्कार कर सकूँ। फिर भी जल-फल-फूल से मैं दरिद्र भी नहीं। मेरे साल-कानन में आने के लिए मैं आप लोगों का हार्दिक स्वागत करती हूँ। जो आज्ञा हो मैं सेवा करूँ।”

 

”शुभे, हम लोगों को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं। हम लोग आपकी उदारता के लिए कृतज्ञ हैं।” अभिनन्द ने कहा।

 

”किन्तु मैं एक प्रार्थना करूँगा।” महामन्त्री ने सविनय कहा।

 

”आज्ञा दीजिए।”

 

”यदि आप अन्यथा न समझें।”

 

”कहिए भी ।”

 

”अभिनन्द के हाथ में वीणा है। एक सुन्दर आलाप की पूर्ति कैसे होगी?” धृष्ट महामन्त्री ने कहा।

 

”मुझे तो संगीत की वैसी शिक्षा नहीं मिली जिससे आप प्रसन्न होंगे। फिर भी कलश रखकर आती हूँ।” निस्संकोच भाव से कहकर सालवती चली गयी। सब चकित थे।

 

वेत से बुनी हुई डाली में थोड़े-से फल लिये हुए सालवती आयी। और आसन के एक भाग में वह बैठ गयी। कुलपुत्रों ने फल चखे और थोड़ी मात्रा में आसव भी। अभिनन्द ने वीणा उठा ली। अभयकुमार प्यासी आँखों से उस सौन्दर्य को देख रहा था। सालवती ने अपने गोत्र की छाप से अंकित अपने पिता से सीखा हुआ पद मधुर स्वर से गाना आरम्भ किया। श्रोता मुग्ध थे। उस संगीत का विषय था-जंगल, उसमें विचरने की प्राकृतिक स्वतन्त्रता। वह अकृत्रिम संगीत किसी डाल पर बैठी हुई कोकिल के गान से भी विलक्षण था। सब मुग्ध थे। संगीत समाप्त हुआ, किन्तु उसका स्वर मण्डल अभी उस प्रदेश को अपनी माया से आच्छन्न किये था। सालवती उठ खड़ी हुई। अभयकुमार ने एक क्षण में अपने गले से मुक्ता की एकावली निकाल कर अञ्जलि में ले ली और कहा-”देवि, यह उपहार है।” सालवती ने गम्भीर भाव से सिर झुकाकर कहा-”बड़ी कृपा है; किन्तु मैं किसी के अनुग्रह का दान नहीं ग्रहण करती।” और वह चली भी गयी।

 

सब लोगों ने आश्चर्य से एक-दूसरे को देखा।

 

3

 

अभयकुमार को उस रात्रि में निद्रा नहीं आयी। वह सालवती का चित्र अपनी पुतलियों पर बनाता रहा। प्रणय का जीवन अपने छोटे-छोटे क्षणों में भी बहुत दीर्घजीवी होता है। रात किसी तरह कटी। अभयकुमार वास्तव में कुमार था और था वैशाली का उपराजा। नगर के उत्सव का प्रबन्ध उसी के हाथ में था। दूसरा प्रभात अपनी तृष्णा में लाल हो रहा था। अभय के हृदय में निदारुण अपमान भी चुभ रहा था, और चुभ रहा था उन दार्शनिक कुलपुत्रों का सव्यंग्य परिहास, जो सालवती के अनुग्रह न लेने पर उसकी स्वतन्त्रता की विजय समझकर और भी तीव्र हो उठा था।

 

— पुनश्च —

 

उन कुलपुत्रों की गोष्ठी उसी साल-कानन में जमी रही। अभी उन लोगों ने स्नान आदि से निवृत्त होकर भोजन भी नहीं किया था कि दूर से तूय्र्यनाद सुनाई पड़ा। साथ में एक राजपुरुष उच्च कण्ठ से पुकारता था-

 

”आज अनंग-पूजा के लिए वज्जियों के संघ में से सबसे सुन्दरी कुमारी चुनी जायगी। जिसको चुनाव में आना हो, संस्थागार में एक प्रहर के भीतर आ जाय।”

 

अभिनन्द उछल पड़ा। उसने कहा-”मैत्रायण! सालवती को लिवा ले चलना चाहिए। ऐसा न हो कि वैशाली के सबसे उत्तम सौन्दर्य का अपमान हो जाय।”

 

”किन्तु वह अभिमानिनी चलेगी?”

 

”यही तो विकट प्रश्न है।”

 

”हम सब चलकर प्रार्थना करें।”

 

”तो चलो।”

 

सब अपना दुकूल सँभालते हुए सालवती की झोपड़ी की ओर चल पड़े। सालवती अपना नियमित भोज्य चावल बना रही थी। उसके पास थोड़ा दूध ओर फल रक्खा था। उसने इन लोगों को आते देखकर सहज प्रसन्नता से मुस्कराकर कहा-”स्वागत! माननीय कुलपुत्रों को आतिथ्य ग्रहण करने के लिए मैं निमन्त्रित करती हूँ।” उसने एक शुभ्र कम्बल बिछा दिया।

 

युवकों ने बैठते हुए कहा-

 

”किन्तु हम लोग भी एक निमन्त्रण देने आये हैं।”

 

सालवती कुछ सोचने लगी।

 

”हम लोगों की प्रार्थना अनुचित न होगी।” आनन्द ने कहा।

 

”कहिए।”

 

”वैशाली के नागरिकों ने एक नया निर्णय लिया है-कि इस बार वसन्तोत्सव की अनंगपूजा वज्जिराष्ट्र की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी के हाथों से करायी जाय। इसके लिए संस्थागार में चुनाव होगा।”

 

”तो इसमें क्या मैं परिवर्तन कर सकती हूँ?” सालवती ने सरलता से पूछा।

 

”नहीं शुभे! आपको भी इसमें भाग लेना होगा। हम लोग आपको संस्थागार में ले चलेंगे, और पूर्ण विश्वास है कि हम लोगों का पक्ष विजयी होगा।”

 

”किन्तु क्या आप लोगों का यह मुझ पर अनुग्रह न होगा, जिसे मैं कदापि न ग्रहण करूँगी।”

 

”नहीं भद्रे! यदि मेरे प्रस्ताव को बहुमत मिला, तो क्या हम लोगों की विजय न होगी, और तब क्या हमीं लोग आपके अनुगृहीत न होंगे?”

 

सालवती कुछ चुप-सी हो गयी।

 

मैत्रायण ने फिर कहा-”विचारों की स्वतन्त्रता इसी में है कि वे स्पष्ट रूप से प्रचारित किये जायँ, न कि वे सत्य होते हुए भी दबा दिये जायँ।”

 

सालवती इस सम्मान से अपने हृदय को अछूता न रख सकी। स्त्री के लिए उसके सौन्दर्य की प्रशंसा! कितनी बड़ी विजय है। उसने व्रीड़ा से कहा-”तो क्या मुझे चलना ही होगा?”

 

”यह हम लोगों के लिए अत्यन्त प्रिय-सन्देश है। आनन्द, तुम रथों को यहीं ले आओ, और मैं समझता हूँ कि सौन्दर्य-लक्ष्मी तुम्हारे रथ पर ही चलेंगी। तुम होगे उस रथ के सारथि।”

 

आनन्द सुनते ही उछल पड़ा। उसने कहा-”एक बात और भी …”

 

सालवती ने प्रश्न करनेवाली आँखों से देखा!

 

आनन्द ने कहा-”सौन्दर्य का प्रसाधन!”

 

”मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं यों ही चलूँगी। ओर कुलपुत्रों के निर्णय की मैं भी परीक्षा करूँगी। कहीं वे भ्रम में तो नहीं है।”

 

थोड़ा जलपान करके सब लोग प्रस्तुत हो गये। तब सालवती ने कहा-”आप लोग चलें, मैं अभी आती हूँ।”

 

कुलपुत्र चले गये।

 

सालवती ने एक नवीन कौशेय पहना, जूड़ें में फूलों की माला लगायी और रथ के समीप जा पहुँची।

 

सारथी को हटाकर आनन्द अपना रथ स्वयं हाँकने लगा। उस पर बैठी थी सालवती। पीछे उसके कुलपुत्रों के सात रथ थे। जब वे संस्थागार के राजपथ पर अग्रसर हो रहे थे तब भीड़ में आनन्द और आश्चर्य के शब्द सुनाई पड़े, सुन्दरियों का मुख अवनत हुआ। इन कुलपुत्रों को देखकर राजा ने पूछा-”मेरे माननीय दार्शनिक कुलपुत्रों ने यह रत्न कहाँ पाया?”

 

”कल्याणी सालवती कुलपुत्र धवलयश की एकमात्र दुहिता है।”

 

”मुझे आश्चर्य है कि किसी कुलपुत्र ने अब तक इस कन्यारत्न के परिणय की प्रार्थना क्यों नहीं की? अच्छा तो क्या मत लेने की आवश्यकता है?” राजा ने गम्भीर स्वर से पूछा!

 

”नहीं, नहीं, सालवती वज्जिराष्ट्र की सर्वश्रेष्ठ कुमारी सुन्दरी है।” जनता का तुमुल शब्द सुनाई पड़ा।

 

राजा ने तीन बार इसी तरह प्रश्न किया। सबका उत्तर वही था। सालवती निर्विवाद विजयिनी हुई। तब अभयकुमार के संकेत पर पचीसों दास, थालों में रत्नों के अलंकार, काशी के बहुमूल्य कौशेय, अंगराग, ताम्बूल ओर कुसुम-मालिकाएँ लेकर उपस्थित हुए।

 

अभयकुमार ने खड़े होकर संघ से प्रार्थना की-”मैं इस कुलकुमारी के पाणिपीडऩ का प्रार्थी हूँ। कन्या के पिता नहीं है, इसलिए संघ मुझे अनुमति प्रदान करे।”

 

सालवती के मुँह पर भय और रोष की रेखाएँ नाचने लगीं। वह प्रतिवाद करने जा रही थी कि मगध के महामन्त्री के समीप बैठा हुआ मणिधर उठ खड़ा हुआ। उसने तीव्र कण्ठ से कहा-”मेरी एक विज्ञप्ति है, यदि संघ प्रसन्नता से सुने।” यह अभय का प्रतिद्वन्द्वी सेनापति मणिधर उपराजा बनने का इच्छुक था। सब लोग किसी आशंका से उसी की ओर देखने लगे।

 

राजा से बोलने की आज्ञा पाकर उसने कहा-”आज तक हम लोग कुलपुत्रों की समता का स्वप्न देखते हैं। उनके अधिकार ने, सम्पत्ति और स्वार्थों की समानता की रक्षा की है। तब क्या उचित होगा कि यह सर्वश्रेष्ठ सौन्दर्य किसी के अधिकार में दे दिया जाय? मैं चाहता हूँ कि राष्ट्र ऐसी सुन्दरी को स्वतन्त्र रहने दे और वह अनंग की पुजारिन अपनी इच्छा से अपनी एक रात्रि की दक्षिणा 100 स्वर्ण-मुद्राएँ लिया करे।”

 

सालवती विपत्ति में पड़ गयी। उसने अपने दार्शनिक कुलपुत्रों की ओर रक्षा पाने के विचार से देखा। किन्तु उन लोगों ने घटना के इस आकस्मिक परिवर्तन को सोचा भी न था। इधर समानता का सिद्धान्त! संस्थागार में हलचल मच गयी। राजा ने इस विज्ञप्ति पर मत लेना आवश्यक समझा। शलाकायें बटीं। गणपूरक अपने कार्य में लगा। और सालवती प्रार्थना करने जा रही थी कि ”मुझे इस उपद्रव से छुट्टी मिले।”

 

किन्तु समानता और प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों की लगन! कौन सुनता है किसकी? उधर एक व्यक्ति ने कहा-”हम लोग भी अम्बपाली के समान ही क्या वज्जिराष्ट्र में एक सौन्दर्य-प्रतिमा नहीं स्थापित कर सकते, जिससे अन्य देशों का धन इस राष्ट्र में आवे। अभयकुमार हतबुद्धि-सा क्षोभ और रोष से काँप रहा था।

 

उसने तीव्र दृष्टि से मगध के महामन्त्री की ओर देखा। मन्त्री ने मुस्करा दिया। गणपूरक ने विज्ञप्ति के पक्ष में बहुमत की घोषणा की। राजा ने विज्ञप्ति पर स्वीकृति दी।

 

जब मत लिया जा रहा था, तब सालवती के मन की अवस्था बड़ी विचित्र हो रही थी। कभी तो वह सोचती थी-”पिता हिरण्य के उपासक थे। स्वर्ण ही संसार के प्रभु हैं-स्वतन्त्रता का बीज है। वही 100 स्वर्ण-मुद्राएँ उसकी दक्षिणा हैं और अनुग्रह करेगी वही। तिस पर इतनी सम्वर्धना! इतना आदर? दूसरे क्षण उसके मन में यह बात खटकने लगती कि वह कितनी दयनीया है, जो कुलवधू का अधिकार उसके हाथ से छीन लिया गया और उसने ही तो अभय का अपमान किया था। किस लिए? अनुग्रह न लेने का अभिमान! तो क्या मनुष्य को प्राय: वही करना पड़ता है, जिसे वह नहीं चाहता। उसी ने मगध के महामन्त्री के सामने प्रजातन्त्र का उत्कर्ष बताया था। वही एकराज मगध का प्रतिनिधि यहाँ बैठा है। तब बहुमत की जय हो! वह विरोध करना चाहती थी, परन्तु कर न सकी।

 

उसने आनन्द के नियतिवाद का एक बार मन में स्मरण किया, और गन्तव्य पथ पर वेग से चली।

 

तब सालवती को घेरकर कुलपुत्रों ने आनन्द से उसका जयघोष किया। देखते-देखते सालवती के चरणों में उपहार के ढेर लग गये। वह रथ पर अनङ्गपूजा के स्थान पर चली-ठीक जैसे अपराधी वध्यस्थल की ओर! उसके पीछे सहस्रों रथों और घोड़ों पर कुलपुत्र, फिर जन:स्रोत। सब आज अपने गणतन्त्र के सिद्धान्त की विजय पर उन्मत्त थे।

 

अभयकुमार जड़-सा वहीं खड़ा रहा। जब संस्थागार से निकलने के लिए मन्त्री उसके पास आया, तब अभय का हाथ दबा कर उसने कहा-”उपराजा प्रसन्न हों….”

 

”महामन्त्री! तुम्हारी कूटिनीति सफल हुई।”-कहकर अभय ने क्षोभ से उसकी ओर देखा।

 

”आप लोगों का राष्ट्र सचमुच स्वतन्त्रता और समानता का उपासक है। मैं साधुवाद देता हूँ।”

 

दोनों अपने रथों पर चढक़र चले गये।

 

4

 

सालवती, वैशाली की अप्सरा सालवती, अपने विभव और सौन्दर्य में अद्वितीय थी। उसके प्रमुख उपासक थे वैशाली के सेनापति मणिधर। सम्पत्ति का स्रोत उस सौन्दर्य-सरोवर में आकर भर रहा था। वहाँ अनेक कुलपुत्र आये, नहीं आया तो एक अभयकुमार।

 

और सालवती का मान जैसे अभयकुमार को पदावनत किये बिना कुचला जा रहा था। वह उस दिन की एकावली पर आज अपना पूरा अधिकार समझती थी, किन्तु वह अब कहाँ मिलने की ।

 

उसका हृदय तीव्र भावों से भर गया था। आज वह चिन्तामग्न थी। मगध का युद्ध वैशाली में भयानक समाचार भेज रहा था। मगध की पूर्ण विजय के साथ यह भी समाचार मिला कि सेनापति मणिधर उस युद्ध में मारे गये। वैशाली में रोष और उत्साह छा गया। नयी सेना का सञ्चालन करने के लिए आज संस्थागार में चुनाव होनेवाला है। नगर की मुख्य महिलाएँ, कुमारियाँ उस सेनापति का अभिनन्दन करने के लिए पुष्परथों पर चढक़र चली जा रही है। उसे भी जाना चाहिए, क्या मणिधर के लिए दु:खी होना मानसिक परतन्त्रता का चिह्न है, जिसे वह कभी स्वीकार न करेगी। वह भी उठी। आज उसके शृंगार का क्या कहना है! जिसके अभिमान पर वह जी रही थी, वही उसका सौन्दर्य कितने आदर और प्रदर्शन की वस्तु है। उसे सब प्रकार से सजाकर मणियों की झिलमिल में पुष्पों से सजे हुए रथ पर चढक़र सालवती संस्थागार की ओर चली। कुछ मनचले नवयुवकों का जयघोष विरोध के स्वर में लुप्त हो गया। वह पीली पड़ गयी।

 

साधारण नागरिकों ने चिल्लाकर कहा-”इसी के संसर्ग-दोष से सेनापति मणिधर की पराजय हुई।”

 

एक ने कहा-”यह मणिधर की काल-भुजङ्गिनी है।”

 

दूसरे ने कहा-”यह वैशाली का अभिशाप है।”

 

तीसरे ने कहा-”यह विचार-स्वातन्त्र्य के समुद्र का हलाहल है।” सालवती ने सारथी से कहा-”रथ फेर दो।” किन्तु दूसरी ओर से अपार जनसमूह आ रहा था। बाध्य होकर सालवती को राजपथ में एक ओर रुकना पड़ा।

 

तूर्यनाद समीप आ रहा था। सैनिकों के शिरस्त्राण और भाले चमकने लगे। भालों के फलक उन्नत थे। और उनसे भी उन्नत थे उन वीरों के मस्तक, जो स्वदेश की स्वतन्त्रता के लिए प्राण देने जा रहे थे। उस वीर-वाहिनी में सिन्धुदेश के शुभ्र अश्वराज पर अभयकुमार आरूढ़ था। उसके मस्तक पर सेनापति का स्वर्णपट्ट सुशोभित था। दाहिनी भुजा उठी हुई थी, जिसमें नग्न खंग सारी जनता को अभिवादन कर रहा था। और वीरों को रण-निमन्त्रण दे रही थी उसके मुख पर की सहज मुस्कान।

 

फूलों की वर्षा हो रही थी। ”वज्जियों की जय” के रणनाद से वायुमण्डल गूँज रहा था। उस वीरश्री को देखने, उसका आदर करने के लिए कौन नहीं उत्सुक था। सालवती भी अपने रथ पर खड़ी हो गयी थी। उसने भी एक सुरचित माला लक्ष्य साधकर फेंकी और वह उस खंग से जाकर लिपट गयी।

 

जनता तो भावोन्माद की अनुचरी है। सैंकड़ों कण्ठ से ‘साधु’ की ध्वनि निकली। अभय ने फेंकनेवाली को देखा। दोनों के नेत्र मिले। सालवती की आँखे नीची हो रहीं। और अभय! तन्द्रालस जैसा हो गया, निश्चेष्ट। उसकी तन्द्रा तब टूटी जब नवीन अश्वारोहियों का दल चतुष्पथ पर उसके स्वागत पर वीर गर्जन कर उठा। अभयकुमार ने देखा वे आठों दार्शनिक कुलपुत्र एक-एक गुल्म के नायक हैं, उसका मन उत्साह से भर उठा। उसने क्षणभर में निश्चय किया कि जिस देश के दार्शनिक भी अस्त्र ग्रहण कर सकते हैं वह पराजित नहीं होगा।

 

अभयकुमार ने उच्च कण्ठ से कहा-”कुलपुत्रों की जय!”

 

”सेनापति अभयकुमार की जय!”-कुलपुत्रों ने प्रत्युत्तर दिया।

 

”वज्जियों की जय!”-जनता ने जयनाद किया।

 

वीर-सेना युद्ध-क्षेत्र की ओर चली और सालवती दीन-मलिन अपने उपवन को लौटी। उसने सब शृंगार उतारकर फेंक दिये। आज वह सबसे अधिक तिरस्कृत थी। वह धरणी में लोटने लगी। वसुधा पर सुकुमार यौवनलता-सी वह निरवलम्ब पड़ी थी।

 

आज जैसे उसने यह अनुभव किया कि नारी का अभिमान अकिञ्चन है। वह मुग्धा विलासिनी, अभी-अभी संसार के सामने अपने अस्तित्व को मिथ्या, माया, सारहीन समझकर आयी थी। वह अपने सुवासित अलकों को बिखराकर उसी में अपना मुँह छिपाये पड़ी थी। नीला उसकी मुँहलगी दासी थी। और वह वास्तव में सालवती को प्यार करती थी। उसने पास बैठकर धीरे-धीरे उसके बालों को हटाया, आँसू पोंछे, गोद में सिर रख लिया। सालवती ने प्रलय-भरी आँखों से उसकी ओर देखा। नीला ने मधुर स्वर से कहा-”स्वामिनी! यह शोक क्यों?”

 

सालवती चुप रही।

 

”स्वामिनी! शय्या पर चलो। इससे तो और भी कष्ट बढऩे की सम्भावना है।”

 

”कष्ट! नीले! मुझे सुख ही कब मिला था?”

 

”किन्तु आपके शरीर के भीतर एक अन्य प्राणी की जो सृष्टि हो रही है, उसे तो सँभालना ही होगा।”

 

सालवती जैसे नक्षत्र की तरह आकाश से गिर पड़ी। उसने कहा-”कहती क्या है?”

 

नीला हँसकर बोली-”स्वामिनी! अभी आपको अनुभव नहीं है। मैं जानती हूँ। यह मेरा मिथ्या प्रलोभन नहीं है।

 

सालवती सब तरह से लुट गयी। नीला ने उसे शय्या पर लिटा दिया। उसने कहा-”नीले! आज से मेरे सामने कोई न आवे, मैं किसी को मुँह नहीं दिखाना चाहती। बस, केवल तुम मेरे पास बनी रहो।”

 

सुकोमल शय्या पर सालवती ने करवट ली। सहसा उसके सामने मणिधर का वह पत्र आया, जिसे उसने रणक्षेत्र से भेजा था। उसने उठाकर पढऩा आरम्भ किया : ”वैशाली की सौन्दर्य-लक्ष्मी!” वह रुक गयी। सोचने लगी। मणिधर कितना मिथ्यावादी था। उसने एक कल्पित सत्य को साकार बना दिया। वैशाली में जो कभी न था, उसने मुझे वही रूपाजीवा बनाकर क्या राष्ट्र का अनिष्ट नहीं किया! …. अवश्य …. देखो आगे लिखता है-”मेरा मन युद्ध में नहीं लगता है।” लगता कैसे? रूप-ज्वाला के शलभ! तुझे तो जल-मरना था। तो उसे अपराध का दण्ड मिला। और स्वतन्त्रता के नाम जो भ्रम का सृजन कर रही थी, उसका क्या हुआ! मैं साल-वन की विहंगिनी! आज मेरा सौन्दर्य कहाँ है? और फिर प्रसव के बाद क्या होगा?

 

वह रोती रही।

 

सालवती के जीवन में रुदन का राज्य था। जितना ही वह अपने स्वतन्त्रता पर पहले सहसा प्रसन्न हो रही थी, उतना ही उस मानिनी का जीवन दु:खपूर्ण हो गया।

 

वह गर्भवती थी।

 

उपवन से बाहर न निकलती थी और न तो कोई भीतर आने पाता। सालवती ने अपने को बन्दी बना लिया।

 

कई महीने बीत गये। फिर से मधुमास आया। पर सालवती का वसन्त जैसे सदा के लिए चला गया था। उसने उपवन की प्राचीर में से सुना जैसे कोई तूर्यनाद के साथ पुकार रहा है : ”वज्जियों की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी अनङ्गपूजा …” आगे वह कुछ न सुन सकी। वह रोष से मूर्च्छित थी। विषाद से उसकी प्रसव-पीड़ा भयानक हो रही थी। नीला ने उपचार किया। वैद्य के प्रयत्न से उस रात्रि में सालवती को एक सुन्दर-सी सन्तान हुई।

 

सालवती ने अपने यौवन-वन के कुठार को देखा। द्वन्द्व से वह तड़पने लगी, मोह को मान ने पराजित किया। उसने कोमल फूलों की टोकरी में अच्छे वस्त्रों में लपेटकर उस सुकुमार शिशु को एक ओर गोधूलि की शीतल छाया में रखवा दिया। वैद्य का मुँह सोने से बन्द कर दिया गया।

 

उसी दिन सालवती अपने सुविशाल भवन में लौट आयी।

 

और उसी दिन अभयकुमार विजयी होकर अपने पथ से लौट रहा था। तब उसे एक सुन्दर शिशु मिला। अभय उसे अपने साथ ले आया।

 

प्रतियोगिता का दिन था। सालवती का सौन्दर्य-दर्प जागरूक हो गया था। उसने द्राक्षासव का घूँट लेकर मुकुर में अपनी प्रतिच्छाया देखी। उसको जैसे अकारण सन्देह हुआ कि उसकी फूलों की ऋतु बीत चली है। वह अपमान से भयभीत होकर बैठ रही।

 

वैशाली विजय का उत्सव मना रही थी। उधर वसन्त का भी समारोह था। सालवती को सब लोग भूल गये। और अभयकुमार! वह कदाचित् नहीं भूला-कुछ-कुछ क्रोध से, कुछ विषाद से, और कुछ स्नेह से। संस्थागार में चुनाव की भीड़ थी। उसमें जो सुन्दरी चुनी गयी, वह निर्विवाद नहीं चुनी जा सकी। अभयकुमार ने विरोध किया। आठों कुलपुत्रों ने उसका साथ देते हुए कहा-”जो अनुपम सौन्दर्य नहीं, उसे वेश्या बनाना सौन्दर्य-बोध का अपमान करना है।” किन्तु बहुमत का शासन! चुनाव हो ही गया। वैशाली को अब वेश्याओं की अधिक आवश्यकता थी।

 

सालवती ने सब समाचार अपनी शय्या पर लेटे-लेटे सुना। वह हँस पड़ी! उसने नीला से कहा-” नीले! मेरे स्वर्ण-भण्डार में कमी तो नहीं है?”

 

”नहीं स्वामिनी!”

 

”इसका ध्यान रखना! मुझे आर्थिक परतन्त्रता न भोगनी पड़े।”

 

”इसकी सम्भावना नहीं। आप निश्चिन्त रहें।”

 

किन्तु सालवती! हाँ, वह स्वतन्त्र थी, एक कंगाल की तरह, जिसके पास कोई अधिकार, नियन्त्रण, अपने पर भी नहीं-दूसरे पर भी नहीं। ऐसे आठ वसन्त बीत गये।

 

5

 

अभयकुमार अपने उद्यान में बैठा था। एक शुभ्र शिला पर उसकी वीणा रक्खी थी। दो दास उसके सुगठित शरीर में सुगन्धित तेल-मर्दन कर रहे थे। सामने मंच पर एक सुन्दर बालक अपनी क्रीड़ा-सामग्री लिये व्यस्त था। अभय अपनी बनायी हुई कविता गुनगुना रहा था। वह बालक की अकृत्रिम हँसी पर लिखी गयी थी। अभय के हृदय का समस्त सञ्चित स्नेह उसी बालक में केन्द्रीभूत था। अभय ने पूछा-आयुष्मान विजय! तुम भी आज मल्लशाला में चलोगे न!”

 

बालक क्रीड़ा छोड़कर उठ खड़ा हुआ, जैसे वह सचमुच किसी से मल्लयुद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो। उसने कहा-”चलूँगा और लड़ूँगा भी।”

 

अभय ठठाकर हँस पड़ा। बालक कुछ संकुचित हो गया। फिर सहसा अभय को स्मरण हो गया कि उसे और भी कई काम हैं। वह स्नान के लिए उठने लगा कि संस्थागार की सन्निपात भेरी बज उठी। एक बार तो उसने कान खड़े किये; पर फिर अपने में लीन हो गया। मगध-युद्ध के बाद उसने किसी विशेष पद के लिए कभी अपने को उपस्थित नहीं किया। वह जैसे वैशाली के शासन में भाग लेने से उदासीन हो रहा था! स्वास्थ्य का बहाना करके उसने अवसर ग्रहण किया। उसके मगध-युद्ध के सहायक आठों दार्शनिक कुलपुत्र उसके अभिन्न मित्र थे। वे भी अविवाहित थे। अभयकुमार की गोष्ठी बिना सुन्दरियों की जमात थी। वे भी आ गये। इन सबों के बलिष्ठ शरीरों पर मगध-युद्ध के वीर-चिह्न अंकित थे।

 

अभिनन्द ने पूछा-”आज संस्थागार में हम लोग चलेंगे कि नहीं?”

 

अभय ने कहा-”मुझे तो मल्लशाला का निमन्त्रण है।”

 

अभिनन्द ने कहा-”तो सचमुच हम लोग वैशाली के शासन से उदासीन हो गये हैं क्या?”

 

सब चुप हो गये। सुभद्र ने कहा-”अन्त में व्यवहार की दृष्टि से हम लोग पक्के नियतिवादी ही रहे। जो कुछ होना है, वह होने दिया जा रहा है।”

 

आनन्द हँस पड़ा। मणिकण्ठ ने कहा-”नहीं, हँसने से काम न चलेगा। आज जब उपवन से आ रहा था तब मैंने देखा कि सालवती के तोरण पर बड़ी भीड़ है। पूछने से मालूम हुआ कि आठ बरस के दीर्घ एकान्तवास के बाद सौन्दर्य के चुनाव में भाग लेने के लिए सालवती बाहर आ रही है। मैं क्षण-भर रुका रहा। वह अपने पुष्परथ पर निकली। नागरिकों की भीड़ थी। कुलवधुओं का रथ रुक रहा था। उनमें कई तेजस्विनी महिलाएँ थीं, जिनकी गोद में बच्चे थे। उन्होंने तीव्र स्वर में कहा-‘यही पिशाचिनी हम लोगों के बच्चों से उनके पिताओं को, स्त्रियों से अपने पतियों को छीननेवाली है।’ वह एक क्षण खड़ी रही। उसने कहा-‘देवियों! आठ बरस के बाद वैशाली के राजपथ पर दिखलाई पड़ी हूँ। इन दिनों मैंने किसी पुरुष का मुँह भी नहीं देखा। मुझे आप लोग क्यों कोस रही हैं!’ वे बोलीं-‘तूने वेश्यावृति के पाप का आविष्कार किया है। तू कुलपुत्रों के वन की दावाग्नि की प्रथम चिनगारी है। तेरा मुँह देखने से भी पाप है! राष्ट्र के इन अनाथ पुत्रों की ओर देख! पिशाचिनी!’ कई ने बच्चों को अपनी गोद से ऊँचा कर दिया। सालवती ने उन बालको की ओर देखकर रो दिया।”

 

”रो दिया?”-अभिनन्द ने पूछा।

 

”हाँ-हाँ, रो दिया और उसने कहा-‘देवियों! मुझे क्षमा करें। मैं प्रायश्चित करूँगी।’ उसने अपना रथ बढ़वा दिया। मैं इधर चला आया; किन्तु कुलपुत्रों से मैं सत्य कहता हूँ कि सालवती आज भी सुन्दरियों की रानी है।”

 

अभयकुमार चुपचाप विजय को देख रहा था। उसने कहा-”तो क्या हम लोग चलेंगे?”

 

”हाँ-हाँ-”

 

अभय ने दृढ़ स्वर में पूछा-”और आवश्यकता होगी तो सब प्रकार से प्रतिकार करने में पीछे न हटेंगे।”

 

”हाँ, न हटेंगे!”-दृढ़ता से कुलपुत्रों ने कहा।

 

”तो मैं स्नान करके अभी चला।”-रथों को प्रस्तुत होने के लिए कह दिया जाय।

 

जब अभय स्नान कर रहा था, तब कुलपुत्रों ने कहा-”आज अभय कुछ अद्‌भुत काम करेगा?”

 

आनन्द ने कहा-”जो होना होगा, वह तो होगा ही। इतनी घबराहट से क्या?”

 

अभय शीघ्र स्नानागार से लौट आया। उसने विजय को भी अपने रथ पर बिठाया।

 

कुलपुत्रों के नौ रथ संस्थागार की ओर चले। अभय के मुख पर गम्भीर चिन्ता थी और दुर्दमनीय दृढ़ता थी।

 

सिंहद्वार पर साधारण जनता की भीड़ थी और विशाल प्रांगण में कुलपुत्रों की और महिलाओं की । आज सौन्दर्य प्रतियोगिता थी। रूप की हाट सजी थी। आठ भिन्न आसनों पर वैशाली की वेश्यायें बैठी थीं। नवा आसन सूना था। अभी तक नई प्रार्थिनी-सुन्दरियों में उत्साह था; किन्तु सालवती के आते ही जैसे नक्षत्रों का प्रकाश मन्द हो गया। पूर्ण चन्द्रोदय था। सालवती आज अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य में यौवनवती थी। सुन्दरियाँ हताश हो रही थीं। कर्मचारी ने प्रतियोगिता के लिए नाम पूछा। किसी ने नहीं बताया।

 

उसी समय कुलपुत्रों के साथ अभय ने प्रवेश किया। मगध-युद्ध विजेता का जय-जयकार हुआ। सालवती का हृदय काँप उठा। न जाने क्यों वह अभय से डरती थी। फिर भी उसने अपने को सँभाल कर अभय का स्वागत किया। युवक सौन्दर्य के चुनाव के लिए उत्कण्ठित थे। कोई कहता था-”आज होना असम्भव है।” कोई कहता-”नहीं आज सालवती के सामने इसका निर्णय होगा।” परन्तु कोई सुन्दरी अपना नाम नहीं देना चाहती थी। सालवती ने अपनी विजय से मुस्करा दिया।

 

उसने खड़ी होकर विनीत स्वर से कहा-”यदि माननीय संघ को अवसर हो, वह मेरी विज्ञप्ति सुनना चाहें, तो मैं निवेदन करूँ।”

 

संस्थागार में सन्नाटा था।

 

उसने प्रतिज्ञा उपस्थित की।

 

”यदि संघ प्रसन्न हो, तो मुझे आज्ञा दे। मेरी यह प्रतिज्ञा स्वीकार करे कि ”आज से कोई स्त्री वैशाली-राष्ट्र में वेश्या न होगी।”

 

कोलाहल मचा।

 

”और तुम अपने सिंहासन पर अचल बनी रहो। कुलवधुओं के सौभाग्य का अपहरण किया करो।”-महिलाओं के तिरस्कारपूर्ण शब्द अलिन्द से सुनाई पड़े।

 

”धैर्य धारण करो देवियों! हाँ, तो-इस पर संघ क्या आज्ञा देता है?”-सालवती ने साहस के साथ तीखे स्वर में कहा।

 

अभय ने प्रश्न किया-”क्या जो वेश्यायें हैं, वे वैशाली में बनी रहेंगी? और क्या इस बार भी सौन्दर्य प्रतियोगिता में तुम अपने को विजयिनी नहीं समझती हो?”

 

”मुझे निर्वासन मिले-कारागार में रहना पड़े। जो भी संघ की आज्ञा हो; किन्तु अकल्याणकर और पराजय के मूल इस भयानक नियम को जो अभी थोड़े दिनों से वज्जिसंघ ने प्रचलित किया है, बन्द करना चाहिए।”

 

एक कुलपुत्र ने गम्भीर स्वर से कहा-”क्या राष्ट्र की आज्ञा से जिन स्त्रियों ने अपना सर्वस्व उसकी इच्छा पर लुटा दिया, उन्हें राष्ट्र निर्वासित करेगा, दण्ड देगा? गणतन्त्र का यह पतन।”

 

एक ओर से कोलाहल मचा-”ऐसा न होना चाहिए।”

 

”फिर इन लोगों का भाग्य किस संकेत पर चलेगा?”-राजा ने गम्भीर स्वर में पूछा। ‘इनका कौमार्य, शील और सदाचार खण्डित है। इनके लिए राष्ट्र क्या व्यवस्था करता है?”

 

”संघ यदि प्रसन्न हो, उसे अवसर हो, तो मैं कुछ निवेदन करूँ।”-आनन्द ने मुस्कराते हुए कहा।

 

राजा का संकेत पाकर उसने फिर कहा-”हम आठ मगध-युद्ध के खण्डित शरीर विलांग कुलपुत्र हैं। और ये शील खण्डिता आठ नई अनङ्ग की पुजारिनें हैं।”

 

कुल लोग हँसने की चेष्टा करते हुए दिखाई पड़े। कर्मचारियों ने तूर्य बजाकर शान्त रहने के लिए कहा।

 

राजा-उपराजा-सेनापति-मन्त्रधर-सूत्रधर-अमात्य व्यावहारिक और कुलिकों ने इस जटिल प्रश्न पर गम्भीरता से विचार करना आरम्भ किया। संस्थागार मौन था।

 

कुछ काल के बाद सूत्रधर ने पूछा-”तो क्या आठों कुलपुत्रों ने निश्चय कर लिया है? इन वेश्याओं को वे लोग पत्नी की तरह ग्रहण करेंगे?”

 

अभय ने उनकी ओर सम्भ्रम देखा। वे उठ खड़े हुए। एक साथ स्पष्ट स्वर में उन लोगों ने कहा-”हाँ, यदि संघ वैसी आज्ञा देने की कृपा करे।”

 

संघ मौन है; इसलिए मैं समझता हूँ उसे स्वीकार है।’-राजा ने कहा।

 

”सालवती! सालवती!!” की पुकार उठी। वे आठों अभिनन्द आदि के पाश्र्व में आकर खड़ी हो गई थीं; किन्तु सालवती अपने स्थान पर पाषाणी प्रतिमा खड़ी थी। यही अवसर था, जब नौ बरस पहले उसने अभयकुमार का प्रत्याख्यान किया था। पृथ्वी ने उसके पैर पकड़ लिये थे, वायुमण्डल जड़ था, वह निर्जीव थी।

 

सहसा अभयकुमार ने विजय को अपनी गोद में उठाकर कहा-”मुझे पत्नी तो नहीं चाहिए। हाँ, इस बालक की माँ को खोज रहा हूँ, जिसको प्रसव-रात्रि में ही उसकी मानिनी माँ ने लज्जा पिण्ड की तरह अपनी सौन्दर्य की रक्षा के लिये फेंक दिया था। उस चतुर वैद्य ने इसकी दक्षिण भुजा पर एक अमिट चिह्न अंकित कर दिया है। उसे यदि कोई पहचान सके, तो वह इसे अपनी गोद में ले।”

 

सालवती पागलों की तरह झपटी। उसने चिह्न देखा। और देखा उस सुन्दर मुख को। वह अभय के चरणों में गिरकर बोली-”यह मेरा है देव। क्या तुम भी मेरे होगे? अभय ने उसका हाथ पकड़कर उठा लिया।”

 

जयनाद से संस्थागार मुखरित हो रहा था।

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