उपन्यास – कंकाल, भाग -2 (लेखक – जयशंकर प्रसाद )

1jpdएक ओर तो जल बरस रहा था, पुरवाई से बूँदें तिरछी होकर गिर रही थीं, उधर पश्चिम में चौथे पहर की पीली धूप उनमें केसर घोल रही थी। मथुरा से वृन्दावन आने वाली सड़क पर एक घर की छत पर यमुना चादर तान रही थी। दालान में बैठा हुआ विजय एक उपन्यास पढ़ रहा था। निरंजन सेवा-कुंज में दर्शन करने गया था। किशोरी बैठी हुई पान लगा रही थी। तीर्थयात्रा के लिए श्रावण से ही लोग टिके थे। झूले की बहार थी; घटाओं का जमघट।

उपन्यास पूरा करते हुए विश्राम की साँस लेकर विजय ने पूछा, ‘पानी और धूप से बचने के लिए एक पतली चादर क्या काम देगी यमुना?’

 

‘बाबाजी के लिए मघा का जल संचय करना है। वे कहते हैं कि इस जल से अनेक रोग नष्ट होते हैं।’

 

‘रोग चाहे नष्ट न हो; पर वृन्दावन के खारे कूप-जल से तो यह अच्छा ही होगा। अच्छा एक गिलास मुझे भी दो।’

 

‘विजय बाबू, काम वही करना, पर उसकी बड़ी समालोचना के बाद, यह तो आपका स्वभाव हो गया है। लीजिये जल।’ कहकर यमुना ने पीने के जल दिया।

 

उसे पीकर विजय ने कहा, ‘यमुना, तुम जानती हो कि मैंने कॉलेज में एक संशोधन समाज स्थापित किया है। उसका उद्देश्य है-जिन बातों में बुद्धिवाद का उपयोग न हो सके, उसका खण्डन करना और तदनुकूल आचरण करना। देख रही हो कि मैं छूत-छात का कुछ विचार नहीं करता, प्रकट रूप से होटलों तक में खाता भी हूँ। इसी प्रकार इन प्राचीन कुसंस्कारों का नाश करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ, क्योंकि ये ही रूढ़ियाँ आगे चलकर धर्म का रूप धारण कर लेती हैं। जो बातें कभी देश, काल, पात्रानुसार प्रचलित हो गयी थीं, वे सब माननीय नहीं, हिन्दू-समाज के पैरों में बेड़ियाँ हैं।’ इतने में बाहर सड़क पर कुछ बालकों के मधुर स्वर सुनायी पड़े, विजय उधर चौंककर देखने लगा, छोटे-छोटे ब्रह्मचारी दण्ड, कमण्डल और पीत वसन धारण किये समस्वर में गाये जा रहे थे-

 

कस्यचित्किमपिनोहरणीयं मर्म्मवाक्यमपिनोच्चरणीयम्,

 

श्रीपतेःपदयुगस्मणीयं लीलयाभवजलतरणीयम्।

 

उन सबों के आगे छोटी दाढ़ी और घने बालों वाला एक युवक सफेद चद्दर, धोती पहने जा रहा था। गृहस्थ लोग उन ब्रह्मचारियों की झोली में कुछ डाल देते थे। विजय ने एक दृष्टि से देखकर मुँह फिराकर यमुना से कहा, ‘देखो यह बीसवीं शताब्दी में तीन हजार बी.सी. का अभिनय! समग्र संसार अपनी स्थिति रखने के लिए चंचल है, रोटी का प्रश्न सबके सामने है, फिर भी मूर्ख हिन्दू अपनी पुरानी असभ्यताओं का प्रदर्शन कराकर पुण्य-संचय किया चाहते हैं।’

 

‘आप तो पाप-पुण्य कुछ मानते ही नहीं, विजय बाबू!’

 

‘पाप और कुछ नहीं है यमुना, जिन्हें हम छिपाकर किया चाहते हैं, उन्हीं कर्मों को पाप कह सकते हैं; परन्तु समाज का एक बड़ा भाग उसे यदि व्यवहार्य बना दे, तो वहीं कर्म पुण्य हो जाता है, धर्म हो जाता है। देखती नहीं हो, इतने विरुद्ध मत रखने वाले संसार के मनुष्य अपने-अपने विचारों में धार्मिक बने हैं। जो एक के यहाँ पाप है, वही दूसरे के लिए पुण्य है।’

 

किशोरी चुपचाप इन लोगों की बात सुन रही थी। वह एक स्वार्थ से भरी चतुर स्त्री थी। स्वतन्त्रता से रहना चाहती थी, इसलिए लड़के को भी स्वतन्त्र होने में सहायता देती थी। कभी-कभी यमुना की धार्मिकता उसे असह्य हो जाती है; परन्तु अपना गौरव बनाये रखने के लिए वह उसका खण्डन न करती, क्योंकि बाह्य धर्माचरण दिखलाना ही उसके दुर्बल चरित्र का आवरण था। वह बराबर चाहती थी कि यमुना और विजय में गाढ़ा परिचय बढ़े और उसके लिए वह अवसर भी देती। उसने कहा, ‘विजय इसी से तुम्हारे हाथ का भी खाने लगा है, यमुना।’

 

‘यह कोई अच्छी बात तो नहीं है बहूजी।’

 

‘क्या करूँ यमुना, विजय अभी लड़का है, मानता नहीं। धीरे-धीरे समझ जायेगा।’ अप्रतिम होकर किशोरी ने कहा।

 

इतने में एक सुन्दर तरुण बालिका अपना हँसता हुआ मुख लिए भीतर आते ही बोली, ‘किशोरी बहू, शाहजी के मन्दिर में आरती देखने चलोगी न?’

 

‘तू आ गयी घण्टी! मैं तेरी प्रतीक्षा में ही थी।’

 

‘तो फिर विलम्ब क्यों कहते हुए घण्टी ने अल्हड़पन से विजय की ओर देखा।

 

किशोरी ने कहा, ‘विजय तू भी चलेगा न?’

 

‘यमुना और विजय को यहीं झाँकी मिलती है, क्यों विजय बाबू?’ बात काटते हुए घण्टी ने कहा।

 

‘मैं तो जाऊँगा नहीं, क्योंकि छः बजे मुझे एक मित्र से मिलने जाना है; परन्तु घण्टी, तुम तो हो बड़ी नटखट!’ विजय ने कहा।

 

‘यह ब्रज है बाबूजी! यहाँ के पत्ते-पत्ते में प्रेम भरा है। बंसी वाले की बंसी अब भी सेवा-कुंज में आधी रात को बजती है। चिंता किस बात की?’

 

विजय के पास सरककर धीरे-से हँसते हुए उस चंचल किशोरी ने कहा। घण्टी के कपोलों में हँसते समय गड्ढे पड़ जाते थे। भोली मतवाली आँखें गोपियों के छायाचित्र उतारतीं और उभरती हुई वयस-संधि से उसकी चंचलता सदैव छेड़-छाड़ करती रहती। वह एक क्षण के लिए भी स्थिर न रहती, कभी अंगड़ाई लेती, तो कभी अपनी उँगलिया चटकाती, आँखें लज्जा का अभिनय करके जब पलकों की आड़ में छिप जातीं तब भी भौंहें चला करतीं, तिस पर भी घण्टी एक बाल-विधवा है। विजय उसके सामने अप्रतिभ हो जाता, क्योंकि वह कभी-कभी स्वाभाविक निःसंकोच परिहास कर दिया करती। यमुना को उसका व्यंग्य असह्य हो उठता; पर किशोरी को वह छेड़-छाड़ अच्छी लगती-बड़ी हँसमुख लड़की है!-यह कहकर बात उड़ा दिया करती।

 

किशोरी ने अपनी चादर ले ली थी। चलने को प्रस्तुत थी। घण्टी ने उठते-उठते कहा, ‘अच्छा तो आज ललिता की ही विजय है, राधा लौट जाती है!’ हँसते-हँसते वह किशोरी के साथ घर से बाहर निकल गयी।

 

वर्षा बन्द हो गयी थी; पर बादल घिरे थे। सहसा विजय उठा और वह भी नौकर को सावधान रहने के लिए कहकर चला गया।

 

यमुना के हृदय में भी निरुद्दिष्ट पथवाले चिंता के बादल मँडरा रहे थे। वह अपनी अतीत-चिंता में निमग्न हो गयी। बीत जाने पर दुखदायी घटना भी सुन्दर और मूल्यवान हो जाती है। वह एक बार तारा बनकर मन-ही-मन अतीत का हिसाब लगाने लगी, स्मृतियाँ लाभ बन गयीं। जल वेग से बरसने लगा, परन्तु यमुना के मानस में एक शिशु-सरोज लहराने लगा। वह रो उठी।

 

कई महीने बीत गये। किशोरी, निरंजन और विजय बैठे हुए बातें कर रहे थे, निरंजन दास का मत था कि कुछ दिन गोकुल में चलकर रहा जाय, कृष्णचन्द्र की बाललीला से अलंकृत भूमि में रहकर हृदय आनन्दपूर्ण बनाया जाय। किशोरी भी सहमत थी; किन्तु विजय को इसमें कुछ आपत्ति थी।

 

इसी समय एक ब्रह्मचारी ने भीतर आकर सबको प्रणाम किया। विजय चकित हो गया और निरंजन प्रसन्न।

 

‘क्या उन ब्रह्मचारियों के साथ तुम्हीं घूमते हो?’ मंगल विजय ने आश्चर्य भरी प्रसन्नता से पूछा।

 

‘हाँ विजय बाबू!’ मैंने यहाँ पर एक ऋषिकुल खोल रखा है। यह सुनकर कि आप लोग यहाँ आये हैं, मैं कुछ भिक्षा लेने आया हूँ।’

 

‘मंगल! मैंने तो समझा था कि तुमने कहीं अध्यापन का काम आरम्भ किया होगा; पर तुमने तो यह अच्छा ढोंग निकाला।’

 

‘वही तो करता हूँ विजय बाबू! पढ़ाता ही तो हूँ। कुछ करने की प्रवृत्ति तो थी ही, वह भी समाज-सेवा और सुधार; परन्तु उन्हें क्रियात्मक रूप देने के लिए मेरे पास और कौन साधन था?’

 

‘ऐसे काम तो आर्यसमाज करती ही थी, फिर उसके जोड़ में अभिनय करने की क्या आवश्यकता थी। उसी में सम्मिलित हो जाते।’

 

‘आर्यसमाज कुछ खण्डनात्मक है और मैं प्राचीन धर्म की सीमा के भीतर ही सुधार का पक्षपाती हूँ।’

 

‘यह क्यों नहीं कहते कि तुम समाज के स्पष्ट आदर्श का अनुकरण करने में असमर्थ थे, परीक्षा में ठहर न सके थे। उस विधिमूलक व्यावहारिक धर्म को तुम्हारे समझ-बूझकर चलने वाले सर्वतोभद्र हृदय ने स्वीकार किया, और तुम स्वयं प्राचीन निषेधात्मक धर्म के प्रचारक बन गये। कुछ बातों के न करने से ही यह प्राचीन धर्म सम्पादित हो जाता है-छुओ मत, खाओ मत, ब्याहो मत, इत्यादि-इत्यादि। कुछ भी दायित्व लेना नहीं चाहते और बात-बात में शास्त्र तुम्हारे प्रमाणस्वरूप हैं। बुद्धिवाद का कोई उपाय नहीं।’ कहते-कहते विजय हँस पड़ा।

 

मंगल की सौम्य आकृति तन गयी। वह संयत और मधुर भाषा में कहने लगा, ‘विजय बाबू, यह और कुछ नहीं केवल उच्छृंखलता है। आत्मशासन का अभाव-चरित्र की दुर्बलता विद्रोह कराती है। धर्म मानवीय स्वभाव पर शासन करता है, न कर सके तो मनुष्य और पशु में भेद क्या रह जाय आपका मत यह है कि समाज की आवश्यकता देखकर धर्म की व्यवस्था बनाई जाए, नहीं तो हम उसे न मानेंगे। पर समाज तो प्रवृत्तिमूलक है। वह अधिक से अधिक आध्यात्मिक बनाकर, तप और त्याग के द्वारा शुद्ध करके उच्च आदर्श तक पहुँचाया जा सकता है। इन्द्रियपराय पशु के दृष्टिकोण से मनुष्य की सब सुविधाओं के विचार नहीं किये जा सकते, क्योंकि फिर तो पशु और मनुष्य में साधन-भेद रह जाता है। बातें वे ही हैं मनुष्य की असुविधाओं का, अनन्त साधनों के रहते, अन्त नहीं, वह उच्छृंखल होना ही चाहता है।’

 

निरंजन को उसकी युक्तियाँ परिमार्जित और भाषा प्रांजल देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई, उसका पक्ष लेते हुए उसने कहा, ‘ठीक कहते हो मंगलदेव!’

 

विजय और भी गरम होकर आक्रमण करते हुए बोला, ‘और उन ढकोसलों में क्या तथ्य है?’ उसका संकेत मंदिरों के शिखरों की ओर था।

 

‘हमारे धर्म मुख्यतः एकेश्वरवादी हैं। विजय बाबू! वह ज्ञान-प्रधान है; परन्तु अद्वैतवाद की दार्शनिक युक्तियों को स्वीकार करते हुए कोई भी वर्णमाला का विरोधी बन जाए, ऐसा तो कारण नहीं दिखाई पड़ता। मूर्तिपूजा इत्यादि उसी रूप में है। पाठशाला मे सबके लिए एक कक्षा होती, इसलिए अधिकारी-भेद है। हम लोग सर्वव्यापी भगवान् की सत्ता को नदियों के जल में, वृक्षों में, पत्थरों में, सर्वत्र स्वीकार करने की परीक्षा देते हैं।’

 

‘परन्तु हृदय में नहीं मानते, चाहे अन्यत्र सब जगह मान लें।’ तर्क न करके विजय ने व्यंग्य किया। मंगल ने हताश होकर किशोरी की ओर देखा।

 

‘तुम्हारा ऋषिकुल कैसा चल रहा है?’ मंगल किशोरी ने पूछा

 

‘दरिद्र हिन्दुओं के ही लड़के मुझे मिलते हैं। मैं उनके साथ नित्य भीख माँगता हूँ। जो अन्न-वस्त्र मिलता है। उसी में सबका निर्वाह होता है। मैं स्वयं उन्हे संस्कृत पढ़ाता हूँ। एक ग्रहस्थ ने अपना उजड़ा हुआ उपवन दे दिया है। उसमें एक और लम्बी सी दालान है और पाँच-सात वृक्ष हैं; उतने में सब काम चल जाता है। शीत और वर्षा में कुछ कष्ट होता है, क्योकि दरिद्र हैं तो क्या, हैं तो लड़के ही न!’

 

‘कितने लड़के हैं?’ मंगल निरंजन ने पूछा।

 

‘आठ लड़के हैं, आठ बरस से लेकर सोलह बरस तक के।’

 

‘मंगल! और चाहे जो हो, तुम्हारे इस परिश्रम और कष्ट की सत्यनिष्ठा पर कोई अविश्वास नहीं कर सकता। मैं भी नहीं।’ विजय ने कहा।

 

मंगल मित्र से मुख से यह बात सुनकर प्रसन्न हो उठा, वह कहने लगा, ‘देखिये विजय बाबू! मेरे पास यही धोती और अँगोछा है। एक चादर भी है। मेरा सब काम इतने में चल जाता है। कोई असुविधा नहीं होती। एक लम्बा टाट है। उसी पर सब सो रहते हैं। दो-तीन बरतन है और पाठ्य-पुस्तकों की एक-एक प्रतियाँ। इतनी ही तो मेरे ऋषिकुल की सम्पत्ति है।’ कहते-कहते वह हँस पड़ा।

 

यमुना भीतर पीलीभीत के चावल बीन रही थी-खीर बनाने के लिए। उसके रोएँ खड़े हो गये। मंगल क्या देवता है! उसी समय उसे तिरस्कृत हृदय-पिण्ड का ध्यान आ गया। उसने मन में सोचा-पुरुष को उसकी क्या चिंता हो सकती है, वह तो अपना सुख विसर्जित कर देता है; जिसे अपने रक्त से उस सुख को खींचना पड़ता है, वही तो उसकी व्यथा जानेगा! उसने कहा, ‘मंगल ही नहीं, सब पुरुष राक्षस हैं; देवता कदापि नहीं हो सकते।’ वह दूसरी ओर उठकर चली गयी।

 

कुछ समय चुप रहने के बाद विजय ने कहा, ‘जो तुम्हारे दान के अधिकारी हैं, धर्म के ठेकेदार हैं, उन्हें इसलिए तो समाज देता है कि वे उसका सदुपयोग करें; परन्तु वे मन्दिरों में, मठों में बैठ मौज उड़ाते हैं, उन्हें क्या चिंता कि समाज के कितने बच्चे भूखे-नंगे और अशिक्षित हैं। मंगलदेव! चाहे मेरा मत तुमसे न मिलता हो, परन्तु तुम्हारा उद्देश्य सुन्दर है।’

 

निंरजन जैसे सचेत हो गया। एक बार उसने विजय की ओर देखा; पर बोला नहीं। किशोरी ने कहा, ‘मंगलदेव! मैं परदेश मे हूँ, इसलिए विशेष सहायता नही कर सकती; हाँ, तुम लोगों के लिए वस्त्र और पाठ्य-पुस्तकों की जितनी आवश्यकता हो, मैं दूँगी।’

 

‘और शीत, वर्षा-निवारण के योग्य साधारण गृह बनवा देने का भार मैं लेता हूँ मंगल!’ निरंजन ने कहा।

 

‘मंगल! मैं तुम्हारी इस सफलता पर बधाई देता हूँ।’ हँसते हुए विजय ने कहा, ‘कल मैं तुम्हारे ऋषिकुल में आऊँगा।’

 

निरंजन और किशोरी ने कहा, ‘हम लोग भी।’

 

मंगल कृतज्ञता से लद गया। प्रणाम करके चला गया।

 

सबका मन इस घटना से हल्का था; पर यमुना अपने भारी हृदय से बार-बार यही पूछती थी-इन लोगों ने मंगल को जलपान करने तक के लिए न पूछा, इसका कारण क्या उसका प्रार्थी होकर आना है?

 

यमुना कुछ अनमनी रहने लगी। किशोरी से यह बात छिपी न रही। घण्टी प्रायः इन्ही लोगों के पास रहती। एक दिन किशोरी ने कहा, ‘विजय, हम लोगों को ब्रज आये बहुत दिन हो गये, अब घर चलना चाहिए। हो सके तो ब्रज की परिक्रमा भी कर लें।’

 

विजय ने कहा, ‘मैं नही जाऊँगा।’

 

‘तू सब बातों में आड़े आ जाता है।’

 

‘वह कोई आवश्यक बात नहीं कि मैं भी पुण्य-संचय करूँ।’ विरक्त होकर विजय ने कहा, ‘यदि इच्छा हो तो आप चली जा सकती हैं, मैं तब तक यहीं बैठा रहूँगा।’

 

‘तो क्या तू यहाँ अकेला रहेगा?’

 

‘नहीं, मंगल के आश्रम में जा रहूँगा। वहाँ मकान बन रहा है, उसे भी देखूँगा, कुछ सहायता भी करूँगा और मन भी बहलेगा।’

 

‘वह आप ही दरिद्र है, तू उसके यहाँ जाकर उसे और भी दुख देगा।’

 

‘तो मैं क्या उसके सिर पर रहूँगा।’

 

‘यमुना! तू चलेगी?’

 

‘फिर विजय बाबू को खिलावेगा कौन बहू जी, मैं तो चलने के लिए प्रस्तुत हूँ।’

 

किशोरी मन-ही-मन हँसी थी, प्रसन्न भी हुई और बोली, ‘अच्छी बात है। तो मैं परिक्रमा कर आऊँ, क्योंकि होली देखकर अवश्य घर लौट चलना है।’

 

निरंजन और किशोरी परिक्रमा करने चले। एक दासी और जमादार साथ गया।

 

वृदांवन में यमुना और विजय अकेले रहे। केवल घण्टी कभी-कभी आकर हँसी की हलचल मचा देती। विजय कभी-कभी दूर यमुना के किनारे चला जाता और दिन-दिन भर पर लौटता। अकेली यमुना उस हँसोड़ के व्यंग्य से जर्जरित हो जाती। घण्टी परिहास करने में बड़ी निर्दय थी।

 

एक दिन दोपहर की कड़ी धूप थी। सेठजी के मन्दिर में कोई झाँकी थी। घण्टी आई और यमुना को दर्शन के लिए पकड़ ले गयी। दर्शन से लौटते हुए यमुना ने देखा, एक पाँच-सात वृक्षों का झुरमुट और घनी छाया, उसने समझा कोई देवालय है। वह छाया के लालच से टूटी हुई दीवार लाँघकर भीतर चली गयी। देखा तो अवाक् रह गयी-मंगल कच्ची मिट्टी का गारा बना रहा है, लड़के ईंटें ढो रहे हैं, दो राज उस मकान की जोड़ाई कर रहे हैं। परिश्रम से मुँह लाल था। पसीना बह रहा था। मंगल की सुकुमार देह विवश थी। वह ठिठककर खड़ी हो गयी। घण्टी ने उसे धक्का देते हुए कहा, ‘चल यमुना, यह तो ब्रह्मचारी है, डर काहे का!’ फिर ठठाकर हँस पड़ी।

 

यमुना ने एक बार फिर उसकी ओर क्रोध से देखा। वह चुप भी न हो सकी थी कि फरसा रखकर सिर से पसीना पोंछते हुए मंगल ने घूमकर देखा, ‘यमुना!’

 

ढीठ घण्टी से अब कैसे रहा जाय, वह झटककर बोली, ‘ग्वालिनी! तुम्हें कान्ह बुलावे री!’ यमुना गड़ गयी, मंगल ने क्या समझा होगा वह घण्टी को घसीटती हुई बाहर निकल आयी। यमुना हाँफ रही थी। पसीने-पसीने हो रही थी। अभी वे दोनों सड़क पर पहुँची भी न थीं कि दूर से किसी ने पुकारा, ‘यमुना!’

 

यमुना मन में संकल्प-विकल्प कर रही थी कि मंगल पवित्रता और आलोक से घिरा हुआ पाप है कि दुर्बलताओं में लिपटा हुआ एक दृढ़ सत्य उसने समझा कि मंगल पुकार रहा है, वह और लम्बे डग बढ़ाने लगी। घण्टी ने कहा, ‘अरी यमुना! वह तो विजय बाबू हैं। पीछे-पीछे आ रहे हैं।’

 

यमुना एक बार काँप उठी-न जाने क्यों, पर खड़ी हो गयी, विजय घूमकर आ रहा था। पास आ जाने पर विजय ने एक बार यमुना को ऊपर से नीचे तक देखा।

 

कोई कुछ बोला नहीं, तीनों घर लौट आये।

 

बसंत की संध्या सोने की धूल उड़ा रही थी। वृक्षों के अन्तराल से आती हुए सूर्यप्रभा उड़ती हुई गर्द को भी रंग देती थी। एक अवसाद विजय के चारों ओर फैल रहा था। वह निर्विकार दृष्टि से बहुत सी बातें सोचते हुए भी किसी पर मन स्थिर नहीं कर सकती। घण्टी और मंगल के परदे में यमुना अधिक स्पष्ट हो उठी थी। उसका आकर्षण अजगर की साँस के समान उसे खींच रहा था। विजय का हृदय प्रतिहिंसा और कुतूहल से भर गया था। उसने खिड़की से झाँककर देखा, घण्टी आ रही है। वह घर से बाहर ही उससे जा मिला।

 

‘कहाँ विजय बाबू?’ घण्टी ने पूछा।

 

‘मंगलदेव के आश्रम तक, चलोगी?’

 

‘चलिये।’

 

दोनों उसी पथ पर बढ़े। अँधेरा हो चला था। मंगल अपने आश्रम में बैठा हुआ संध्यापासन कर रहा था। पीपल के वृक्ष के नीचे शिला पर पद्मासन लगाये वह बोधिसत्त्व की प्रतिमूर्ति सा दिखता था। विजय क्षण भर देखता रहा, फिर मन ही मन कह उठा-पाखण्ड आँख खोलते हुए सहसा आचमन लेकर मंगल ने धुँधले प्रकाश में देखा-विजय! और दूर कौन है, एक स्त्री वह पल भर के लिए अस्त-व्यस्त हो उठा। उसने पुकारा, ‘विजय बाबू!’

 

विजय और घण्टी वहीं लौट पड़े, परन्तु उस दिन मंगल के पुरुष सूक्त का पाठ न हो सका। दीपक जल जाने पर जब वह पाठशाला में बैठा, तब प्राकृत प्रकाश के सूत्र उसे बीहड़ लगे। व्याख्या अस्पष्ट हो गयी। ब्रह्मचारियों ने देखा-गुरुजी को आज क्या हो गया है।

 

विजय घर लौट आया। यमुना रसोई बनाकर बैठी थी। हँसती हुई घण्टी को उसने साथ ही आते देखा। वह डरी। और न जाने क्यों उसने पूछा। विजय बाबू, विदेश में एक विधवा तरुणी को लिए इस तरह घूमना क्या ठीक है?’

 

‘यह बात आज क्यों पूछती हो यमुना घण्टी! इसमें तुम्हारी क्या सम्मति है?’ शान्त भाव से विजय ने कहा।

 

‘इसका विचार तो यमुना को स्वयं करना चाहिए। मैं तो ब्रजवासिनी हूँ, हृदय की बंसी को सुनने से कभी रोका नहीं जा सकता।’

 

यमुना व्यंग्य से मर्माहत होकर बोली, ‘अच्छा, भोजन कर लीजिए।’

 

विजय भोजन करने बैठा, पर अरुचि थी। शीघ्र उठ गया। वह लैम्प के सामने जा बैठा। सामने ही दरी के कोने पर बैठी यमुना पान लगाने लगी। पान विजय के सामने रखकर चली गयी, किन्तु विजय ने उसे छुआ भी नहीं, यह यमुना ने लौट आने पर देखा। उसने दृढ़ स्वर में पूछा, ‘विजय बाबू, पान क्यों नहीं खाया आपने?’

 

‘अब पान न खाऊँगा, आज से छोड़ दिया।’

 

‘पान छोड़ने मे क्या सुविधा है?’

 

‘मैं बहुत जल्दी ही ईसाई होने वाला हूँ, उस समाज में इसका व्यवहार नहीं। मुझे यह दम्भपूर्ण धर्म बोझ के समान दबाये है, अपनी आत्मा के विरुद्ध रहने के लिए मैं बाध्य किया जा रहा हूँ।’

 

‘आपके लिए तो कोई रोक-टोक नहीं, फिर भी।’

 

‘यह मैं जानता हूँ, कोई रोक-टोक नहीं, पर मैं यह भी अनुभव करता हूँ कि मैं कुछ विरुद्ध आचरण कर रहा हूँ। इस विरुद्धता का खटका लगा रहता है। मन उत्साहपूर्ण होकर कर्तव्य नहीं करता। यह सब मेरे हिन्दू होने के कारण है। स्वतंत्रता और हिन्दू धर्म दोनों विरुद्धवाची शब्द हैं।’

 

‘पर ऐसी बहुत-सी बातें तो अन्य धर्मानुयायी मनुष्यों के जीवन में भी आ सकती हैं। सबका काम सब मनुष्य तो नहीं कर सकते।’

 

‘तो भी बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जो हिन्दू धर्म में रहकर नहीं की जा सकतीं; किन्तु मेरे लिए नितान्त आवश्यक हैं।’

 

‘जैसे?’

 

‘तुमसे ब्याह कर लेना!’

 

यमुना ने ठोकर लगने की दशा में पड़कर पूछा, ‘क्यों विजय बाबू! क्या दासी होकर रहना किसी भी भद्र महिला के लिए अपमान का पर्याप्त कारण हो जाता है?’

 

‘यमुना! तुम दासी हो कोई दूसरा हृदय खोलकर पूछ देखे, तुम मेरी आराध्य देवी हो-सर्वस्व हो!’ विजय उत्तेजित था।

 

‘मै आराध्य देवता बना चुकी हूँ, मैं पतित हो चुकी हूँ, मुझे…’

 

‘यह मैंने अनुमान कर लिया था, परन्तु इन अपवित्राओं में भी मैं तुम्हें पवित्र उज्ज्वल और ऊर्जस्वित पाता हूँ-जैसे मलिन वसन में हृदयहारी सौन्दर्य।’

 

‘किसी के हृदय की शीतलता और किसी के यौवन की उष्णता-मैं सब झेल चुकी हूँ। उसमें सफल हुई, उसकी साध भी नहीं रही। विजय बाबू! मैं दया की पात्री एक बहन होना चाहती हूँ-है किसी के पास इतनी निःस्वार्थ स्नेह-सम्पत्ति, जो मुझे दे सके कहते-कहते यमुना की आँखों से आँसू टपक पड़े।

 

विजय थप्पड़ खाये हुए लड़के के समान घूम पड़ा, ‘मैं अभी आता हूँ…’ कहता हुआ वह घर से बाहर निकल गया।

 

(2)

 

कई दिन हो गये, विजय किसी से कुछ बोलता नहीं। समय पर भोजन कर लेता और सो रहता। अधिक समय उसका मकान के पास ही करील की झाड़ियों की टट्टी के भीतर लगे हुए कदम्ब के नीचे बीतता है। वहाँ बैठकर वह कभी उपन्यास पढ़ता और कभी हारमोनियम बजाता है।

 

अँधेरा हो गया था, वह कदम्ब के नीचे बैठा हारमोनियम बजा रहा था। चंचल घण्टी चली आयी। उसने कहा, ‘बाबूजी आप तो बड़ा अच्छा हारमोनियम बजाते है।’ पास ही बैठ गयी।

 

‘तुम कुछ गाना जानती हो?’

 

‘ब्रजवासिनी और कुछ चाहे ना जाने, किन्तु फाग गाना तो उसी के हिस्से का है।’

 

‘अच्छा तो कुछ गाओ, देखूँ मैं बजा सकता हूँ

 

ब्रजबाला घण्टी एक गीत सुनाने लगी-

 

‘पिया के हिया में परी है गाँठ

 

मैं कौन जतन से खोलूँ

 

सब सखियाँ मिलि फाग मनावत

 

मै बावरी-सी डोलूँ!

 

अब की फागुन पिया भये निरमोहिया

 

मैं बैठी विष घोलूँ।

 

पिया के-‘

 

दिल खोलकर उसने गाया। मादकता थी उसके लहरीले कण्ठ स्वर में, और व्याकुलता थी। विजय की परदों पर दौड़ने वाली उँगलियों में! वे दोनों तन्मय थे। उसी तरह से गाता हुआ मंगल-धार्मिक मंगल-भी, उस हृदय द्रावक संगीत से विमुग्ध होकर खड़ा हो गया। एक बार उसे भ्रम हुआ, यमुना तो नहीं है। वह भीतर चला गया। देखते ही चंचल घण्टी हँस पड़ी! बोली, ‘आइए ब्रह्मचारीजी!’

 

विजय ने कहा, ‘बैठोगे या घर के भीतर चलूँ?’

 

‘नही विजय! मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ। घण्टी, तुम घर जा रही हो न!’

 

विजय ने सहमते हुए पूछा, ‘क्या कहना चाहते हो?’

 

‘तुम इस लड़की को साथ लेकर इस स्वतन्त्रता से क्यों बदनाम हुआ चाहते हो?’

 

‘यद्यपि मैं इसका उत्तर देने को बाध्य नहीं मंगल, एक बात मैं भी तुमसे पूछना चाहता हूँ-बताओ तो, मैं यमुना के साथ भी एकान्त में रहता हूँ, तब तुमको सन्देह क्यों नहीं होता!’

 

‘मुझे उसके चरित्र पर विश्वास है।’

 

‘इसलिए कि तुम उसे भीतर से प्रेम करते हो! अच्छा, यदि मैं घण्टी से ब्याह करना चाहूँ, तो तुम पुरोहित बनोगे?’

 

‘विजय तुम अतिवादी हो, उदात्त हो!’

 

‘अच्छा हुआ कि मैं वैसा संयतभाषी कपटाचारी नहीं हूँ, जो अपने चरित्र की दुर्बलता के कारण मित्र से भी मिलने में संकोच करता है। मेरे यहाँ प्रायः तुम्हारे न आने का यही कारण है कि तुम यमुना की…’

 

‘चुप रहो विजय! उच्छृंखलता की भी एक सीमा होती है।’

 

‘अच्छा जाने दो। घण्टी के चरित्र पर विश्वास नहीं, तो क्या समाज और धर्म का यह कर्तव्य नहीं कि उसे किसी प्रकार अवलम्ब दिया जाये, उसका पथ सरल कर दिया जाये यदि मैं घण्टी से ब्याह करूँ तो तुम पुरोहित बनोगे बोलो, मैं इसे करके पाप करूँगा या पुण्य?’

 

‘यह पाप हो या पुण्य, तुम्हारे लिए हानिकारक होगा।’

 

‘मैं हानि उठाकर भी समाज के एक व्यक्ति का कल्याण कर सकूँ तो क्या पाप करूँगा उत्तर दो, देखें तुम्हारा धर्म क्या व्यवस्था देता है।’ विजय अपनी निश्चित विजय से फूल रहा था।

 

‘वह वृंदावन की एक कुख्यात बाल-विधवा है, विजय।’

 

सहज में पच आने वाला धीरे से गले उतर जाने वाला स्निग्ध पदार्थ सभी आत्मसात् कर लेते हैं। किन्तु कुछ त्याग-सो भी अपनी महत्ता का त्याग-जब धर्म के आदर्श ने नहीं, तब तुम्हारे धर्म को मैं क्या कहूँ, मंगल।’

 

‘विजय! मैं तुम्हारा इतना अनिष्ट नहीं देख सकता। इसे त्याग तुम भले ही समझ लो; पर इसमें क्या तुम्हारी दुर्बलता का स्वार्थपूर्ण अंश नहीं है। मैं यह मान भी लूँ कि विधवा से ब्याह करके तुम एक धर्म सम्पादित करते हो, तब भी घण्टी जैसी लड़की से तुमको जीवन से जिए परिण्य सूत्र बाँधने के लिए मैं एक मित्र के नाते प्रस्तुत नहीं।’

 

‘अच्छा मंगल! तुम मेरे शुभचिन्तक हो; यदि मैं यमुना से ब्याह करूँ? वह तो…’

 

‘तुम पिशाच हो!’ कहते हुए मंगल उठकर चला गया।

 

विजय ने क्रूर हँसी हँसकर अपने आप कहा, ‘पकड़े गये ठिकाने पर!’ वह भीतर चला गया।

 

दिन बीत रहे थे। होली पास आती जाती थी। विजय का यौवन उच्छृंखल भाव से बढ़ रहा था। उसे ब्रज की रहस्यमयी भूमि का वातावरण और भी जटिल बना रहा था। यमुना उससे डरने लगी। वह कभी-कभी मदिरा पीकर एक बार ही चुप हो जाता। गम्भीर होकर दिन-ब-दिन बिता दिया करता। घण्टी आकर उसमें सजीवता ले आने का प्रयत्न करती; परन्तु वैसे ही जैसे एक खँडहर की किसी भग्न प्राचीर पर बैठा हुआ पपीहा कभी बोल दे!

 

फाल्गुन के शुक्लपक्ष की एकादशी थी। घर के पास वाले कदम्ब के नीचे विजय बैठा था। चाँदनी खिल रही थी। हारमोनियम, बोतल और गिलास पास ही थे। विजय कभी-कभी एक-दो घूँट पी लेता और कभी हारमोनियम में एक तान निकाल लेता। बहुत विलम्ब हो गया था। खिड़की में से यमुना चुपचाप यह दृश्य देख रही थी। उसे अपने हरद्वार के दिन स्मरण हो आये। निरभ्र गगन में चलती हुई चाँदनी-गंगा के वक्ष पर लोटती हुई चाँदनी-कानन की हरियाली में हरी-भरी चाँदनी! और स्मरण हो रही थी। मंगल के प्रणय की पीयूष वर्षिणी चन्द्रिका एक ऐसी ही चाँदनी रात थी। जंगल की उस छोटी कोठरी में धवल मधुर आलोक फैल रहा था। तारा लेटी थी, उसकी लटें तकिया पर बिखर गयी थीं, मंगल उस कुन्तल-स्तवक को मुट्ठी में लेकर सूँघ रहा था। तृप्ति थी किन्तु उस तृप्ति को स्थिर रखने के लिए लालच का अन्त न था। चाँदनी खिसकती जाती थी। चन्द्रमा उस शीतल आलिंगन को देखकर लज्जित होकर भाग रहा था। मकरन्द से लदा हुआ मारुत चन्द्रिका-चूर्ण के साथ सौरभ राशि बिखेर देता था।

 

यमुना पागल हो उठी। उसने देखा-सामने विजय बैठा हुआ अभी पी रहा है। रात पहर-भर जा चुकी है। वृन्दावन में दूर से फगुहारों की डफ की गम्भीर ध्वनि और उन्मत्त कण्ठ से रसीले फागों की तुमुल तानें उस चाँदनी में, उस पवन में मिली थीं। एक स्त्री आई, करील की झाड़ियों से निकलकर विजय के पीछे खड़ी हो गयी। यमुना एक बार सहम उठी, फिर उसने देखा-उस स्त्री ने हाथ का लोटा उठाया और उसका तरल पदार्थ विजय के सिर पर उड़ेल दिया।

 

विजय के उष्ण मस्तक को कुछ शीतलता भली लगी। घूमकर देखा तो घण्टी खिलखिलाकर हँस रही थी। वह आज इन्द्रिय-जगत् के वैद्युत प्रवाह के चक्कर खाने लगा, चारों ओर विद्युत-कण चमकते, दौड़ते थे। युवक विजय अपने में न रह सका, उसने घण्टी का हाथ पकड़कर पूछा, ‘ब्रजबाले, तुम रंग उड़ेलकर उसकी शीतलता दे सकती हो कि उस रंग की-सी ज्वाला-लाल ज्वाला! ओह, जलन हो रही है घण्टी! आत्मसंयम भ्रम है बोलो!’

 

‘मैं, मेरे पास दाम न था, रंग फीका होगा विजय बाबू!’

 

हाड़-मांस के वास्तविक जीवन का सत्य, यौवन आने पर उसका आना न जानकर बुलाने की धुन रहती है। जो चले जाने पर अनुभूत होता है, वह यौवन, धीवर के लहरीले जाल में फँसे हुए स्निग्ध मत्स्य-सा तड़फड़ाने वाला यौवन, आसन से दबा हुआ पंचवर्षीय चपल तुरंग के समान पृथ्वी को कुरेदने-वाला त्वरापूर्ण यौवन, अधिक न सम्हल सका, विजय ने घण्टी को अपनी मांसल भुजाओं में लपेट लिया और एक दृढ़ तथा दीर्घ चुम्बन से रंग का प्रतिवाद किया।

 

यह सजीव और उष्ण आलिंगन विजय के युवा जीवन का प्रथम उपहार था, चरम लाभ था। कंगाल को जैसे निधि मिली हो! यमुना और न देख सकी, उसने खिड़की बन्द कर दी। उस शब्द ने दोनों को अलग कर दिया। उसी समय इक्कों के रुकने का शब्द बाहर हुआ। यमुना नीचे उतर आयी किवाड़ खोलने। किशोरी भीतर आयी।

 

अब घण्टी और विजय आस-पास बैठ गये थे। किशोरी ने पूछा, ‘विजय कहाँ है?’ यमुना कुछ न बोली। डाँटकर किशोरी ने कहा, ‘बोलती क्यों नहीं यमुना?’

 

यमुना ने कुछ न कहकर खिड़की खोल दी। किशोरी ने देखा-निखरी चाँदनी में एक स्त्री और पुरुष कदम्ब के नीचे बैठे हैं। वह गरम हो उठी। उसने वहीं से पुकारा, ‘घण्टी!’

 

घण्टी भीतर आयी। विजय का साहस न हुआ, वह वहीं बैठा रहा। किशोरी ने पूछा, ‘घण्टी, क्या तुम इतनी निर्लज्ज हो!’

 

‘मैं क्या जानूँ कि लज्जा किसे कहते हैं। ब्रज में तो सभी होली में रंग डालती हैं, मैं भी रंग डाल आयी। विजय बाबू को रंग से चोट तो न लगी होगी किशोरी बहू!’ फिर हँसने के ढंग से कहा, ‘नहीं, पाप हुआ हो तो इन्हें भी ब्रज-परिक्रमा करने के लिए भेज दीजिये!’

 

किशोरी को यह बात तीर-सी लगी। उसने झिड़कते हुए कहा, ‘चलो जाओ, आज से मेरे घर कभी न आना!’

 

घण्टी सिर नीचा किये चली गयी।

 

किशोरी ने फिर पुकारा, ‘विजय!’

 

विजय लड़खड़ाता हुआ भीतर आया और विवश बैठ गया। किशोरी से मदिरा की गन्ध छिप न सकी। उसने सिर पकड़ लिया। यमुना ने विजय को धीरे से लिटा दिया। वह सो गया।

 

विजय ने अपने सम्बन्ध की किंवदन्तियों को और भी जटिल बना दिया, वह उन्हें सुलझाने की चेष्टा भी न करता था। किशोरी ने बोलना छोड़ दिया था। किशोरी कभी-कभी सोचती-यदि श्रीचन्द्र इस समय आकर लड़के को सम्हाल लेते! परन्तु वह बड़ी दूर की बात थी।

 

एक दिन विजय और किशोरी की मुठभेड़ हो गयी। बात यह थी कि निरंजन ने इतना ही कहा कि मद्यपों के संसर्ग में रहना हमारे लिए असंभव है! विजय ने हँसकर कहा, ‘अच्छी बात है, दूसरा स्थान खोज लीजिये। ढोंग से दूर रहना मुझे भी रुचिकर है।’ किशोरी आ गयी, उसने कहा, ‘विजय, तुम इतने निर्लज्ज हो! अपने अपराधों को समझकर लज्जित क्यों नहीं होते नशे की खुमारी से भरी आँखों को उठाकर विजय ने किशोरी की ओर देखा और कहा, ‘मैं अपने कर्मों पर हँसता हूँ, लज्जित नहीं होता। जिन्हें लज्जा बड़ी प्रिय हो, वे उसे अपने कामों में खोजें।’

 

किशोरी मर्माहत होकर उठ गयी, और अपना सामान बँधवाने लगी। उसी दिन काशी लौट जाने का उसका दृढ़ निश्चय हो गया। यमुना चुपचाप बैठी थी। उससे किशोरी ने पूछा, ‘यमुना, क्या तुम न चलोगी?’

 

‘बहूजी, मैं अब कहीं नहीं जाना चाहती; यहीं वृन्दावन में भीख माँगकर जीवन बिता लूँगी!’

 

‘यमुना, खूब समझ लो!’

 

‘मैंने कुछ रुपये इकट्ठे कर लिए हैं, उन्हें किसी के मन्दिर में चढ़ा दूँगी और दो मुट्ठी भर भात खाकर निर्वाह कर लूँगी।’

 

‘अच्छी बात है!’ किशोरी रूठकर उठी।

 

यमुना की आँखों से आँसू बह चले। वह भी अपनी गठरी लेकर किशोरी के जाने के पहले ही उस घर से निकलने के लिए प्रस्तुत थी।

 

सामान इक्कों पर धरा जाने लगा। किशोरी और निरंजन ताँगे पर जा बैठे। विजय चुपचाप बैठा रहा, उठा नहीं, जब यमुना भी बाहर निकलने लगी, तब उससे रहा न गया; विजय ने पूछा, ‘यमुना, तुम भी मुझे छोड़कर चली जाती हो!’ पर यमुना कुछ न बोली। वह दूसरी ओर चली; ताँगे और इक्के स्टेशन की ओर। विजय चुपचाप बैठा रहा। उसने देखा कि वह स्वयं निर्वासित है। किशोरी का स्मरण करके एक बार उसका हृदय मातृस्नेह से उमड़ आया, उसकी इच्छा हुई कि वह भी स्टेशन की राह पकड़े; पर आत्माभिमान ने रोक दिया। उसके सामने किशोरी की मातृमूर्ति विकृत हो उठी। वह सोचने लगा-माँ मुझे पुत्र के नाते कुछ भी नहीं समझती, मुझे भी अपने स्वार्थ, गौरव और अधिकार-दम्भ के भीतर ही देखना चाहती है। संतान स्नेह होता तो यों ही मुझे छोड़कर चली जाती वह स्तब्ध बैठा रहा। फिर कुछ विचारकर अपना सामान बाँधने लगा, दो-तीन बैग और बण्डल हुए। उसने एक ताँगे वाले को रोककर उस पर अपना सामान रख दिया, स्वयं भी चढ़ गया और उसे मथुरा की ओर चलने के लिए कह दिया। विजय का सिर सन-सन कर रहा था। ताँगा अपनी राह पर चल रहा था; पर विजय को मालूम होता था कि हम बैठे हैं और पटरी पर के घर और वृक्ष सब हमसे घृणा करते हुए भाग रहे हैं। अकस्मात् उसके कान में एक गीत का अंश सुनाई पड़ा-

 

‘मैं कौन जतन से खोलूँ!’

 

उसने ताँगेवाले को रुकने के लिये कहा। घण्टी गाती जा रही थी। अँधेरा हो चला था। विजय ने पुकारा, ‘घण्टी!’

 

घण्टी ताँगे के पास चली आयी। उसने पूछा, ‘कहाँ विजय बाबू?’

 

‘सब लोग बनारस लौट गये। मैं अकेला मथुरा जा रहा हूँ। अच्छा हुआ, तुमसे भेंट हो गयी!’

 

‘अहा विजय बाबू! मथुरा मैं भी चलने को थी; पर कल आऊँगी।’

 

‘तो आज क्यों नहीं चलती बैठ जाओ, ताँगे पर जगह तो है।’

 

इतना कहते हुए विजय ने बैग ताँगेवाले के बगल में रख दिया, घण्टी पास जाकर बैठ गयी।

 

(3)

 

मथुरा में चर्च के पास एक छोटा-सा, परन्तु साफ-सुथरा बँगला है। उसके चारों ओर तारों से घिरी हुई ऊँची, जुरांटी की बड़ी घनी टट्टी है। भीतर कुछ फलों के वृक्ष हैं। हरियाली अपनी घनी छाया में उस बँगले को शीतल करती है। पास ही पीपल का एक बड़ा सा वृक्ष है। उसके नीचे बेंत की कुर्सी पर बैठे हुए मिस्टर बाथम के सामने एक टेबल पर कुछ कागज बिखरे हैं। वह अपनी धुन में काम में व्यस्त है।

 

बाथम ने एक भारतीय रमणी से ब्याह कर लिया है। वह इतना अल्पभाषी और गंभीर है कि पड़ोस के लोग बाथम को साधु साहब कहते हैं, उससे आज तक किसी से झगड़ा नहीं हुआ, और न उसे किसी ने क्रोध करते देखा। बाहर तो अवश्य योरोपीय ढंग से रहता है, सो भी केवल वस्त्र और व्यवहार के सम्बन्ध में; परन्तु उसके घर के भीतर पूर्ण हिन्दू आचार हैं। उसकी स्त्री मारगरेट लतिका ईसाई होते हुए भी भारतीय ढंग से रहती है। बाथम उससे प्रसन्न है; वह कहता है कि गृहणीत्व की जैसी सुन्दर योजना भारतीय स्त्री को आती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इतना आकर्षक, इतना माया-ममतापूर्ण स्त्री-हृदय सुलभ गार्हस्थ्य जीवन और किसी समाज में नहीं। कभी-कभी अपने इन विचारों के कारण उसे अपने योरोपीय मित्रों के सामने बहुत लज्जित होना पड़ता है; परन्तु उसका यह दृढ़ विश्वास है। उसका चर्च के पादरी पर भी अनन्य प्रभाव है। पादरी जॉन उसके धर्म-विश्वास का अन्यतम समर्थक है। लतिका को वह बूढ़ा पादरी अपनी लड़की के समान प्यार करता है। बाथम चालीस और लतिका तीस की होगी। सत्तर बरस का बूढ़ा पादरी इन दोनों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होता है।

 

अभी दीपक नहीं जलाये गये थे। कुबड़ी टेकता हुआ बूढ़ा जॉन आ पहुँचा। बाथम उठ खड़ा हुआ, हाथ मिलाकर बैठते हुए जॉन ने पूछा, ‘मारगरेट कहाँ है तुम लोगों को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता होती है।’

 

‘हाँ पिताजी, हम लोग भी साथ ही चलेंगे।’ कहते हुए बाथम भीतर गया और कुछ मिनटों में लतिका एक सफेद रेशमी धोती पहने बाथम के साथ बाहर आ गयी। बूढ़े पादरी ने लतिका से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘चलती हो मारगरेट?’

 

बाथम और जान भी लतिका को प्रसन्न रखने के लिए भारतीय संस्कृति से अपनी पूर्ण सहानुभूति दिखाते। वे आपस में बात करने के लिए प्रायः हिन्दी में ही बोलते।

 

‘हाँ पिता! मुझे आज विलम्ब हुआ, अन्यथा मैं ही इनसे चलने के लिए पहले अनुरोध करती। मेरी रसोईदारिन आज कुछ बीमार है, मैं उसकी सहायता कर रही थी, इसी से आपको कष्ट करना पड़ा।’

 

‘ओहो! उस दुखिया सरला को कहती हो। लतिका! इसके बपतिस्मा न लेने पर भी मैं उस पर बड़ी श्रद्धा करता हूँ। वह एक जीती-जागती करुणा है। उसके मुख पर मसीह की जननी के अंचल की छाया है। उसे क्या हुआ है बेटी?’

 

‘नमस्कार पिता! मुझे तो कुछ नहीं हुआ है। लतिका रानी के दुलार का रोग कभी-कभी मुझे बहुत सताता है।’ कहती हुई एक पचास बरस की प्रौढ़ा स्त्री ने बूढ़े पादरी के सामने आकर सिर झुका दिया।

 

‘ओहो, मेरी सरला! तुम अच्छी हो, यह जानकर मैं बहुत सुखी हुआ। कहो, तुम प्रार्थना तो करती हो न पवित्र आत्मा तुम्हारा कल्याण करे। लतिका के हृदय में यीशु की प्यारा करुणा है, सरला! वह तुम्हें बहुत प्यार करती है।’ पादरी ने कहा।

 

‘मुझ दुखिया पर दया करके इन लोगों ने मेरा बड़ा उपकार किया है साहब! भगवान् इन लोगों का मंगल करे।’ प्रौढ़ा ने कहा।

 

‘तुम बपतिस्मा क्यों नहीं लेती हो, सरला! इस असहाय लोक में तुम्हारे अपराधों को कौन ऊपर लेगा तुम्हारा कौन उद्धार करेगा पादरी ने कहा।

 

‘आप लोगों से सुनकर मुझे यह विश्वास हो गया है कि मसीह एक दयालु महात्मा थे। मैं उनमें श्रद्धा करती हूँ, मुझे उनकी बात सुनकर ठीक भागवत के उस भक्त का स्मरण हो आता है, जिसने भगवान का वरदान पाने को संसार-भर के दुःखों को अपने लिए माँगा था-अहा! वैसा ही हृदय महात्मा ईशा का भी था; परन्तु पिता! इसके लिए धर्म परिवर्तन करना तो दुर्बलता है। हम हिन्दुओं का कर्मवाद में विश्वास है। अपने-अपने कर्मफल तो भोगने ही पड़ेंगे।’

 

पादरी चौंक उठा। उसने कहा, ‘तुमने ठीक नहीं समझा। पापों का पश्चात्ताप द्वारा प्रायश्चित्त होने पर शीघ्र ही उन कर्मों को यीशु क्षमा करता है, और इसके लिए उसने अपना अग्रिम रक्त जमा कर दिया है।’

 

‘पिता! मैं तो यह समझती हूँ कि यदि यह सत्य हो, तो भी इसका प्रचार न होना चाहिए; क्योंकि मनुष्य को पाप करने का आश्रय मिलेगा। वह अपने उत्तरदायित्व से छुट्टी पा जाएगा।’ सरला ने दृढ़ स्वर में कहा।

 

एक क्षण के लिए पादरी चुप रहा। उसका मुँह तमतमा उठा। उसने कहा, ‘अभी नहीं सरला! कभी तुम इस सत्य को समझोगी। तुम मनुष्य के पश्चात्ताप के एक दीर्घ निःश्वास का मूल्य नहीं जानती हो, प्रार्थना से झुकी हुई आँखों के आँसू की एक बूँद का रहस्य तुम नहीं समझती।’

 

‘मैं संसार की सताई हूँ, ठोकर खाकर मारी-मारी फिरती हूँ। पिता! भगवान के क्रोध को, उनके न्याय को मैं आँचल पसारकर लेती हूँ। मुझे इसमें कायरता नहीं सताती। मैं अपने कर्मफल को सहन करने के लिए वज्र के समान सबल, कठोर हूँ। अपनी दुर्बलता के लिए कृतज्ञता का बोझ लेना मेरी नियति ने मुझे नहीं सिखाया। मैं भगवान् से यही प्रार्थना करती हूँ कि यदि तेरी इच्छा पूर्ण हो गयी, इस हाड़-मांस में इस चेतना को रखने के लिए दण्ड की अवधि पूरी हो गयी, तो एक बार हँस दे कि मैंने तुझे उत्पन्न करके भर पाया।’ कहते-कहते सरला के मुख पर एक अलौकिक आत्मविश्वास, एक सतेज दीप्ति नाच उठी। उसे देखकर पादरी भी चुप हो गया। लतिका और बाथम भी स्तब्ध रहे।

 

सरला के मुख पर थोड़े ही समय में पूर्व भाव लौट आया। उसने प्रकृतिस्थ होते हुए विनीत भाव से पूछा, ‘पिता! एक प्याली चाय ले आऊँ!’

 

बाथम ने भी बात बदलने के लिए सहसा कहा, ‘पिता! जब तक आप चाय पियें, तब तक पवित्र कुमारी का एक सुन्दर चित्र, जो संभवतः किसी पुर्तगाली चित्र की, किसी हिन्दुस्तानी मुसव्वर की बनायी प्रतिकृति है, लाकर दिखलाऊँ, सैकड़ों बरस से कम का न होगा।’

 

‘हाँ, यह तो मैं जानता हूँ कि तुम प्राचीन कला-सम्बन्धी भारतीय वस्तुओं का व्यवसाय करते हो। और अमरीका तथा जर्मनी में तुमने इस व्यवसाय में बड़ी ख्याति पायी है; परन्तु आश्चर्य है कि ऐसे चित्र भी तुमको मिल जाते हैं। मैं अवश्य देखूँगा।’ कहकर पादरी कुरसी से टिक गया।

 

सरला चाय लाने गयी और बाथम चित्र। लतिका ने जैसे स्वप्न देखकर आँख खोली। सामने पादरी को देखकर वह एक बार फिर आपे में आयी। बाथम ने चित्र लतिका के हाथ में देकर कहा, ‘मैं लैंप लेता आऊँ!’

 

बूढ़े पादरी ने उत्सुकता दिखलाते हुए संध्या के मलिन आलोक में ही उस चित्र को लतिका के हाथ से लेकर देखना आरम्भ किया था कि बाथम ने एक लैम्प लाकर टेबुल पर रख दिया। वह ईसा की जननी मरियम का चित्र था। उसे देखते ही जॉन की आँखें भक्ति से पूर्ण हो गयीं। वह बड़ी प्रसन्नता से बोला, ‘बाथम! तुम बड़े भाग्यवान हो।’ और बाथम कुछ बोलना ही चाहता था कि रमणी की कातर ध्वनि उन लोगों को सुनाई पड़ी, ‘बचाओ-बचाओ!’

 

बाथम ने देखा-एक स्त्री दौड़ती-हाँफती हुई चली आ रही है, उसके पीछे दो मनुष्य भी। बाथम ने उस स्त्री को दौड़कर अपने पीछे कर लिया और घूँसा तानते हुए कड़ककर कहा, ‘आगे बढ़े तो जान ले लूँगा।’ पीछा करने वालों ने देखा, एक गोरा मुँह! वे उल्टे पैर लौटकर भागे। सरला ने तब तक उस भयभीत युवती को अपनी गोद में ले लिया था। युवती रो रही थी। सरला ने पूछा, ‘क्या हुआ है घबराओ मत, अब तुम्हारा कोई कुछ न कर सकेगा।’

 

युवती ने कहा, ‘विजय बाबू को इन सबों ने मारकर गिरा दिया है।’ वह फिर रोने लगी।

 

अबकी लतिका ने बाथम की ओर देखकर कहा, ‘रामदास को बुलाओ, लालटेन लेकर देखे कि बात क्या है?’

 

बाथम ने पुकारा-‘रामदास!’

 

वह भी इधर ही दौड़ा हुआ आ रहा था। लालटेन उसके हाथ में थी। बाथम उसके साथ चला गया। बँगले से निकलते ही बायीं ओर मोड़ पड़ता था। वहाँ सड़क की नाली तीन फुट गहरी है, उसी में एक युवक गिरा हुआ दिखायी पड़ा। बाथम ने उतरकर देखा कि युवक आँखें खोल रहा है। सिर में चोट आने से वह क्षण भर मे लिए मूर्च्छित हो गया था। विजय पूर्ण स्वस्थ्य युवक था। पीछे की आकस्मिक चोट ने उसे विवश कर दिया, अन्यथा दो के लिए कम न था। बाथम के सहारे वह उठ खड़ा हुआ। अभी उसे चक्कर आ रहा था, फिर भी उसने पूछा, ‘घण्टी कहाँ है

 

‘वह मेरे बँगले में हैं, घबराने की आवश्यकता नहीं। चलो!’

 

विजय धीरे-धीरे बँगले में आया और एक आरामकुर्सी पर बैठ गया। इतने में चर्च का घण्टा बजा। पादरी ने चलने की उत्सुकता प्रकट की, लतिका ने कहा, ‘पिता! बाथम प्रार्थना करने जाएँगे; मुझे आज्ञा हो, तो इस विपन्न मनुष्यों की सहायता करूँ, यह भी तो प्रार्थना से कम नहीं है।’

 

जान ने कुछ न कहकर कुबड़ी उठायी। बाथम उसके साथ-साथ चला।

 

अब लतिका और सरला विजय और घण्टी की सेवा में लगी। सरला ने कहा, ‘चाय ले आऊँ, उसे पीने से स्फूर्ति आ जायेगी।’

 

विजय ने कहाँ, ‘नहीं धन्यवाद। अब हम लोग चले जा सकते हैं।’

 

‘मेरी सम्मति है कि आज की रात आप लोग इसी बँगले पर बितावें, संभव है कि वे दुष्ट फिर कहीं घात में लगे हों।’ लतिका ने कहा।

 

सरला लतिका के इस प्रस्ताव से प्रसन्न होकर घण्टी से बोली, ‘क्यों बेटी! तुम्हारी क्या सम्मति है तुम लोगों का घर यहाँ से कितनी दूर है?’ कहकर रामदास को कुछ संकेत किया।

 

विजय ने कहा, ‘हम लोग परदेशी हैं, यहाँ घर नहीं। अभी यहाँ आये एक सप्ताह से अधिक नहीं हुआ है। आज मैं इनके साथ एक ताँगे पर घूमने निकला। दो-तीन दिन से दो-एक मुसलमान गुण्डे हम लोगों को प्रायः घूम-फिरते देखते थे। मैंने उस पर कुछ ध्यान नहीं दिया था, आज एक ताँगे वाला मेरे कमरे के पास ताँगा रोककर बड़ी देर तक किसी से बातें करता रहा। मैंने देखा, ताँगा अच्छा है। पूछा, किराये पर चलोगे! उसने प्रसन्नता से स्वीकार कर लिया। संध्या हो चली थी। हम लोगों ने घूमने के विचार से चलना निश्चित किया और उस पर जा बैठे।’

 

इतने में रामदास चाय का सामान लेकर आया। विजय ने पीकर कृतज्ञता प्रकट करते हुए फिर कहना आरम्भ किया, ‘हम लोग बहुत दूर-दूर घूमकर एक चर्च के पास पहुँचे। इच्छा हुई कि घर लौट चलें, पर उस ताँगे वाले ने कहा-बाबू साहब, यह चर्च अपने ढंग का एक ही है, इसे देख तो लीजिये। हम लोग कुतूहल से प्रेरित होकर इसे देखने के लिए चले। सहसा अँधेरी झाड़ी में से वे ही दोनों गुण्डे निकल आये और एक ने पीछे से मेरे सिर पर डंडा मारा। मैं आकस्मिक चोट से गिर पड़ा। इसके बाद मैं नहीं जानता कि क्या हुआ, फिर जैसे यहाँ पहुँचा, वह सब तो आप लोग जानती हैं।’

 

घण्टी ने कहा, ‘मैं यह देखते ही भागी। मुझसे जैसे किसी ने कहा कि ये सब मुझे ताँगे पर बिठाकर ले भागेंगे। आप लोगों की कृपा से हम लोगों की रक्षा हो गयी।’

 

सरला घण्टी का हाथ पकड़कर भीतर ले गयी। उसे कपड़ा बदलने को दिया दूसरी धोती पहनकर जब वह बाहर आयी, तब सरला ने पूछा, ‘घण्टी! ये तुम्हारे पति हैं कितने दिन बीते ब्याह हुए?’

 

घण्टी ने सिर नीचा कर लिया। सरला के मुँह का भाव क्षण-भर मे परिवर्तित हो गया, पर वह आज के अतिथियों की अभ्यर्थना में कोई अन्तर नहीं पड़ने देना चाहती थी। वह अपनी कोठरी, जो बँगले से हटकर उसी बाग में थोड़ी दूर पर थी, साफ करने लगी। घण्टी दालान में बैठी हुई थी। सरला ने आकर विजय से पूछा, ‘भोजन तो करियेगा, मैं बनाऊँ?’

 

विजय ने कहा, ‘आपकी बड़ी कृपा है। मुझे कोई संकोच नहीं।’

 

इधर सरला को बहुत दिनों पर दो अतिथि मिले।

 

दूसरे दिन प्रभात की किरणों ने जब विजय की कोठरी में प्रवेश किया, तब सरला भी विजय को देख रही थी। वह सोच रही थी-यह भी किसी माँ का पुत्र है-अहा! कैसे स्नेह की सम्पति है। दुलार ने यह डाँटा नहीं गया, अब अपने मन का हो गया।

 

विजय की आँख खुली। अभी सिर में पीड़ा थी। उसने तकिये से सिर उठाकर देखा-सरला का वात्सल्यपूर्ण मुख। उसने नमस्कार किया। बाथम वायु सेवन कर लौटा आ रहा था, उसने भी पूछा, ‘विजय बाबू, अब पीड़ा तो नहीं है?’

 

‘अब वैसी तो नहीं है, इस कृपा के लिए धन्यवाद।’

 

‘धन्यवाद की आवश्यकता नहीं। हाथ-मुँह धोकर आइये, तो कुछ दिखाऊँगा। आपकी आकृति से प्रकट है कि हृदय में कला-सम्बंधी सुरुचि है।’ बाथम ने कहा।

 

‘मैं अभी आता हूँ।’ कहता हुआ विजय कोठरी से बाहर चला आया। सरला ने कहा, ‘देखा, इसी कोठरी के दूसरे भाग में सब सामान मिलेगा। झटपट चाय के समय में आ जाओ।’ विजय उधर गया।

 

पीपल के वृक्ष के नीचे मेज पर एक फूलदान रखा है। उसमें आठ-दस गुलाब के फूल लगे हैं। बाथम, लतिका, घण्टी और विजय बैठे हैं। रामदास चाय ले आया। सब लोगों ने चाय पीकर बातें आरम्भ कीं। विजय और घण्टी के संबंध में प्रश्न हुए और उनका चलता हुआ उत्तर मिला-विजय काशी का एक धनी युवक है और घण्टी उसकी मित्र है। यहाँ दोनों घूमने-फिरने आये हैं।

 

बाथम एक पक्का दुकानदार था। उसने मन में विचारा कि मुझे इससे क्या, सम्भव है कि ये कुछ चित्र खरीद लें, परन्तु लतिका को घण्टी की ओर देखकर आश्चर्य हुआ, उसने पूछा, ‘क्या आप लोग हिन्दू हैं?’

 

विजय ने कहा ‘इसमें भी कोई सन्देह है?’

 

सरला दूर खड़ी इन लोगों की बातें सुन रही थी। उसको एक प्रकार की प्रसन्नता हुई। बाथम ने कमरे में विक्रय के चित्र और कलापूर्ण सामान सजाये हुए थे। वह कमरा छोटी-सी एक प्रदर्शनी थीं। दो-चार चित्रों पर विजय ने अपनी सम्मति प्रकट की, जिसे सुनकर बाथम बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने विजय से कहा, ‘आप तो सचमुच इस कला के मर्मज्ञ हैं, मेरा अनुमान ठीक ही था।’

 

विजय ने हँसते हुए कहा, ‘मैं चित्रकला से बड़ा प्रेम रखता हूँ। मैंने बहुत से चित्र बनाये भी हैं। और महाशय, यदि आप क्षमा करें, तो मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि इनमें से कितने सुन्दर चित्र, जिन्हें आप प्राचीन और बहुमूल्य कहते हैं, वे असली नहीं हैं।’

 

‘बाथम को कुछ क्रोध और आश्चर्य हुआ। पूछा, ‘आप इसका प्रमाण दे सकते हैं?’

 

‘प्रमाण नहीं, मैं एक चित्र की प्रतिलिपि कर दूँगा। आप देखते नहीं, इन चित्रों के रंग ही कह रहे हैं कि वे आजकल के हैं-प्राचीन समय में वे बनते ही कहाँ थे, और सोने की नवीनता कैसी बोल रही है। देखिये न!’ इतना कहकर एक चित्र बाथम के हाथ में उठाकर दिया। बाथम ने ध्यान से देखकर धीरे-धीरे टेबुल पर रख दिया और फिर हँसते हुए विजय के दोनों हाथ पकड़कर हाथ हिला दिया और कहा, ‘आप सच कहते हैं। इस प्रकार से मैं स्वयं ठगा गया और दूसरे को भी ठगता हूँ। क्या कृपा करके आप कुछ दिन और मेरे अतिथि होंगे आप जितने दिन मथुरा में रहें। मेरे ही यहाँ रहें-यह मेरी हार्दिक प्रार्थना है। आपके मित्र को कोई भी असुविधा न होगी। सरला हिन्दुस्तानी रीति से आपके लिए सब प्रबन्ध करेगी।’

 

लतिका आश्चर्य में थी और घण्टी प्रसन्न हो रही थी। उसने संकेत किया। विजय मन में विचारने लगा-क्या उत्तर दूँ, फिर सहसा उसे स्मरण हुआ कि मथुरा में एक निस्सहाय और कंगाल मनुष्य है। जब माता ने छोड़ दिया है, तब उसे कुछ करके ही जीवन बिताना होगा। यदि यह काम कर सका, तो…वह झटपट बोल उठा, ‘आप जैसे सज्जन के साथ रहने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, परन्तु मेरा थोड़ा-सा सामान है, उसे ले आना होगा।’

 

‘धन्यवाद! आपके लिए तो मेरा यही छोटा-सा कमरा आफिस का होगा और आपकी मित्र मेरी स्त्री के साथ रहेगी।’

 

बीच में ही सरला ने कहा, ‘यदि मेरी कोठरी में कष्ट न हो, तो वहीं रह लेंगी।’

 

घण्टी मुस्कराई। विजय ने कहा, ‘हाँ ठीक ही तो होगा।’

 

सहसा इस आश्रय के मिल जाने से उन दोनों को विचार करने का अवसर नहीं मिला।

 

बाथम ने कहा, ‘नहीं-नहीं, इसमें मैं अपना अपमान समझूँगा।’ घण्टी हँसने लगी। बाथम लज्जित हो गया; परन्तु लतिका ने धीरे से बाथम को समझा दिया कि घण्टी को सरला के साथ रहने में विशेष सुविधा होगी।

 

विजय और घण्टी का अब वहीं रहना निश्चित हो गया।

 

बाथम के यहाँ रहते विजय को महीनों बीत गये। उसमे काम करने की स्फूर्ति और परिश्रम ही उत्कण्ठा बढ़ गयी है। चित्र लिए वह दिन भर तूलिका चलाया करता है। घंटों बीतने पर वह एक बार सिर उठाकर खिड़की से मौलसिरी वृक्ष की हरियाली देख लेता। वह नादिरशाह का एक चित्र अंकित कर रहा था, जिसमें नादिरशाह हाथी पर बैठकर उसकी लगाम माँग रहा था। मुगल दरबार के चापलूस चित्रकार ने यद्यपि उसे मूर्ख बनाने के लिए ही यह चित्र बनाया था, परन्तु इस साहसी आक्रमणकारी के मुख से भय नहीं, प्रत्युत पराधीन सवारी पर चढ़ने की एक शंका ही प्रकट हो रही है। चित्रकार ने उसे भयभीत चित्रित करने का साहस नहीं हुआ। संभवतः उस आँधी के चले जाने के बाद मुहम्मदशाह उस चित्र को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ होगा। प्रतिलिपि ठीक-ठीक हो रही थी। बाथम उस चित्र को देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा था। विजय की कला-कुशलता में उसका पूरा विश्वास हो चला था-वैसे ही पुराने रंग-मसाले, वैसी ही अंकन-शैली थी।’

 

कोई भी उसे देखकर यह नहीं कह सकता था कि यह प्राचीन दिल्ली कलम का चित्र नहीं है।

 

आज चित्र पूरा हुआ है। अभी वह तूलिका हाथ से रख ही रहा था कि दूर पर घण्टी दिखाई दी। उसे जैसे उत्तेजना की एक घूँट मिली, थकावट मिट गयी। उसने तर आँखों से घण्टी का अल्हड़ यौवन देखा। वह इतना अपने काम में लवलीन था कि उसे घण्टी का परिचय इन दिनों बहुत साधारण हो गया था। आज उसकी दृष्टि में नवीनता थी। उसने उल्लास से पुकारा, ‘घण्टी!’

 

घण्टी की उदासी पलभर में चली गयी। वह एक गुलाब का फूल तोड़ती हुई उस खिड़की के पास आ पहुँची। विजय ने कहा, ‘मेरा चित्र पूरा हो गया।’

 

‘ओह! मैं तो घबरा गयी थी कि चित्र कब तक बनेगा। ऐसा भी कोई काम करता है। न न विजय बाबू, अब आप दूसरा चित्र न बनाना-मुझे यहाँ लाकर अच्छे बन्दीगृह में रख दिया! कभी खोज तो लेते, एक-दो बात भी तो पूछ लेते!’ घण्टी ने उलाहनों की झड़ी लगा दी। विजय ने अपनी भूल का अनुभव किया। यह निश्चित नहीं है कि सौन्दर्य हमें सब समय आकृष्ट कर ले। आज विजय ने एक क्षण के लिए आँखें खोलकर घण्टी को देखा-उस बालिका में कुतूहल छलक रहा है। सौन्दर्य का उन्माद है। आकर्षण है!

 

विजय ने कहा, ‘तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ, घण्टी!’

 

घण्टी ने कहा, ‘आशा है, अब कष्ट न दोगे!’

 

पीछे से बाथम ने प्रवेश करते हुए कहा, ‘विजय बाबू, बहुत सुन्दर ‘मॉडल’ है। देखिये, यदि आप नादिरशाह का चित्र पूरा कर चुके हो तो एक मौलिक चित्र बनाइये।’

 

विजय ने देखा, यह सत्य है। एक कुशल शिल्पी की बनायी हुई प्रतिमा-घण्टी खड़ी रही। बाथम चित्र देखने लगा। फिर दोनों चित्रों को मिलाकर देखा। उसने सहसा कहा, ‘आश्चर्य! इस सफलता के लिए बधाई।’

 

विजय प्रसन्न हो रहा था। उसी समय बाथम ने फिर कहा, ‘विजय बाबू, मैं घोषणा करता हूँ कि आप भारत के एक प्रमुख चित्रकार होंगे! क्या आप मुझे आज्ञा देंगे कि मैं इस अवसर पर आपके मित्र को कुछ उपहार दूँ?’

 

विजय हँसने लगा। बाथम ने अपनी उँगली से हीरे की अँगूठी निकाली और घण्टी की ओर बढ़ानी चाही। वह हिचक रहा था। घण्टी हँस रही थी। विजय ने देखा, चंचल घण्टी की आँखों में हीरे का पानी चमकने लगा था। उसने समझा, यह बालिका प्रसन्न होगी। सचमुच दोनों हाथों में सोने की एक-एक पतली चूड़ियों के अतिरिक्त और कोई आभूषण घण्टी के पास न था। विजय ने कहा, ‘तुम्हारी इच्छा हो तो पहन सकती हो।’ घण्टी ने हाथ फैलाकर ले ली।

 

व्यापारी बाथम ने फिर गला साफ करते हुए कहा, ‘विजय बाबू, स्वतन्त्र व्यवसाय और स्वावलम्बन का महत्त्व आप लोग कम समझते हैं, यही कारण है कि भारतीयों के उत्तम गुण दबे रह जाते हैं। मैं आज आप से यह अनुरोध करता हूँ कि आपके माता-पिता चाहे जितने धनवान हों, परन्तु उस कला को व्यवसाय की दृष्टि से कीजिये। आप सफल होंगे, मैं इसमें आपका सहायक हूँ। क्या आप इस नये मॉडल पर एक मौलिक चित्र बनायेंगे?’

 

विजय ने कहा, ‘आज विश्राम करूँगा, कल आपसे कहूँगा।’

 

(4)

 

आज कितने दिनों बाद विजय सरला की कोठरी में बैठा है। घण्टी लतिका के साथ बातें करने चली गयी। विजय को सरला ने अकेले पाकर कहा, ‘बेटा, तुम्हारी भी माँ होगी, उसको तुम एक बारगी भूलकर इस छोकरी के लिए इधर-उधर मारे-मारे क्यों फिर रहे हो आह, वह कितनी दुखी होगी!’

 

विजय सिर नीचा किये चुप रहा। सरला फिर कहने लगी, ‘विजय! कलेजा रोने लगता है। हृदय कचोटने लगता है, आँखें छटपटाकर उसे देखने के लिए बाहर निकलने लगती हैं, उत्कण्ठा साँस बनकर दौड़ने लगती है। पुत्र का स्नेह बड़ा पागल स्नेह है, विजय! स्त्रियाँ ही स्नेह की विचारक हैं। पति के प्रेम और पुत्र के स्नेह में क्या अंतर है, यह उनको ही विदित है। अहा, तुम निष्ठुर लड़के क्या जानोगे! लौट जाओ मेरे बच्चे! अपनी माँ की सूनी गोद में लौट जाओ।’ सरला का गम्भीर मुख किसी व्याकुल आकांक्षा में इस समय विकृत हो रहा था।

 

विजय को आश्चर्य हुआ। उसने कहा, ‘क्या आप के भी कोई पुत्र था?’

 

‘था विजय, बहुत सुन्दर था। परमात्मा के वरदान के समान शीतल, शान्तिपूर्ण था। हृदय की अकांक्षा के सदृश गर्म। मलय-पवन के समान कोमल सुखद स्पर्श। वह मेरी निधि, मेरा सर्वस्व था। नहीं, मैं कहती हूँ कि कहीं है! वह अमर है, वह सुन्दर है, वही मेरा सत्य है। आह विजय! पचीस बरस हो गये उसे देखे हुए पचीस बरस! दो युग से कुछ ऊपर! पर मैं उसे देखकर मरूँगी।’ कहते-कहते सरला की आँखों से आँसू गिरने लगे।

 

इतने में एक अन्धा लाठी टेकते हुए सरला के द्वार पर आया। उसे देखते ही सरला गरज उठी, ‘आ गया! विजय, यही है उसे ले भागने वाला! पूछो इसी से पूछो!’

 

उस अन्धे ने लकड़ी रखकर अपना मस्तक पृथ्वी पर टेक दिया, फिर सिर ऊँचा कर बोला, ‘माता! भीख दो! तुमसे भीख लेकर जो पेट भरता हूँ, वही मेरा प्रायश्चित्त है। मैं अपने कर्म का फल भोगने के लिए भगवान की आज्ञा से तुम्हारी ठोकर खाता हूँ। क्या मुझे और कहीं भीख नहीं मिलती नहीं, यही मेरा प्रायश्चित्त है। माता, अब क्षमा की भीख दो, देखती नहीं हो, नियति ने इस अन्धे को तुम्हारे पास तक पहुँचा दिया! क्या वही तुमको-आँखों वाली को-तुम्हारे पुत्र तक न पहुँचा देगा?’

 

विजय विस्मय देख रहा था कि अंधे की फूटी आँखों से आँसू बह रहे हैं। उसने कहा, ‘भाई, मुझे अपनी राम कहानी तो सुनाओ।’

 

घण्टी वहीं आ गयी थी। अब अन्धा सावधान होकर बैठ गया।

 

उसने कहना तो आरम्भ किया-‘हमारा घराना एक प्रतिष्ठित धर्मगुरुओं का था। बीसों गाँव के लोग हमारे यहाँ आते-जाते थे। हमारे पूर्वजों की तपस्या और त्याग से, यह मर्यादा मुझे उत्तराधिकार में मिली थी। वंशानुक्रम से हम लोग मंत्रोपदेष्टा होते आये थे। हमारे शिष्य सम्प्रदाय में यह विश्वास था कि सांसारिक आपदाएँ निवारण करने की हम लोगों की बहुत बड़ी रहस्यपूर्ण शक्ति है। रही होगी मेरे पूर्वजों में, परन्तु मैं उन सब गुणों से रहित था। मैं परले सिरे का धूर्त था। मुझे मंत्रों पर विश्वास न था, जितना अपने चुटकुलों पर। मैं चालाकी से भूत उतार देता, रोग अच्छे कर देता। वन्ध्या को संतान देता, ग्रहों की आकाश गति में परिवर्तन कर देता, व्यवसाय में लक्ष्मी की वर्षा कर देता। चाहे सफलता एक-दो को ही मिलती रही हो, परन्तु धाक में कमी नहीं थी। मैं कैसे क्या-क्या करता, उन सब घृणित बातों को न कहकर, केवल सरला के पुत्र की बात सुनाता हूँ-पाली गाँव में मेरा एक शिष्य था। उसने एक महीने की लड़की और अपनी युवती विधवा को छोड़कर अकाल में ही स्वर्ग यात्रा की। वह विधवा धनी थी, उसे पुत्र की बड़ी लालसा थी; परन्तु पति थे नहीं, पुनर्विवाह असम्भव था। उसके मन में किसी तरह यह बात बैठ गयी कि बाबाजी चाहे तो यही पुत्री पुत्र बन जायेगी। अपने इस प्रस्ताव को लेकर बड़े प्रलोभन के साथ वह मेरे पास आयी। मैंने देखा कि सुयोग है। उसने कहा-तुम किसी से कहना मत, एक महीने बाद मकर-संक्रांति के योग में यह किया जा सकता है। वहीं पर गंगा समुद्र हो जाती है, फिर लड़की से लड़का क्यों नहीं होगा, उसके मन में यह बात बैठ गयी। हम लोग ठीक समय पर गंगा सागर पहुँचे। मैंने अपना लक्ष्य ढूँढ़ना आरम्भ किया। उसे मन ही मन में ठीक कर लिया। उस विधवा से लड़की लेकर मैं सिद्धि के लिए एकांत में गया-वन में किनारे पर जा पहुँच गया। पुलिस उधर लोगों को जाने नहीं देती। उसकी आँखों से बचकर मै जंगल की हरियाली में चला गया। थोड़ी देर में दौड़ता हुआ मेले की ओर आया और उस समय में बराबर चिल्ला रहा था, ‘बाघ! बाघ! लोग भयभीत होकर भागने लगे। मैंने देखा कि मेरा निश्चित बालक वहीं पड़ा है। उसकी माँ अपने साथियों को उसे दिखाकर किसी आवश्यक काम से दो चार मिनट के लिए हट गयी थी। उसी क्षण भगदड़ का प्रारम्भ हुआ था। मैंने झट उस लडकी को वहीं रखकर लड़के को उठा लिया और फिर कहने लगा-देखो, यह किसकी लड़की है। पर उस भीड़ में कौन किसकी सुनता था। मैं एक ही साँस में अपनी झोंपड़ी की ओर आया-और हँसते-हँसते विधवा की गोद में लड़की के बदले लड़का देकर अपने को सिद्ध प्रमाण्ति कर सका। यहाँ पर कहने की आवश्यकता नहीं कि वह स्त्री किस प्रकार उस लड़के को ले आयी। बच्चा भी छोटा था, ढँककर किसी प्रकार हम लोग निर्विघ्न लौट आये। विधवा को मैंने समझा दिया था कि तीन दिन तक कोई इसका मुँह न देख सके, नहीं तो फिर लड़की बन जाने की संभावना है। मैं बराबर उस मेले मे घूमता रहा और अब उस लड़की की खोज मे लग गया। पुलिस ने भी खोज की; पर उसका कोई लेने वाला नहीं मिला। मैंने देखा कि एक निस्संतान चौबे की विधवा ने उस लड़की को पुलिस वालों से पालने के लिए माँग लिया। और अब मैं इसके साथ चला, उसे दूसरे स्टीमर में बिठाकर ही मैंने साँस ली। सन्तान-प्राप्ति में मैं उसका सहायक था। मैंने देखा कि यही सरला, जो आज मुझे भिक्षा दे रही है, लड़के के लिए बराबर रोती रही; पर मेरा हृदय पत्थर था, न पिघला। लोगों ने बहुत कहा कि तू उस लड़की को पाल-पोस, पर उसे तो गोविन्दी चौबाइन की गोद में रहना था।

 

घण्टी अकस्मात् चौक उठी, ‘क्या कहा! गोविन्दी चौबाइन?’

 

‘हाँ गोविन्दी, उस चौबाइन का नाम गोविन्दी था! जिसने उस लड़की को अपनी गोद में लिया।’ अंधे ने कहा।

 

घण्टी चुप हो गयी। विजय ने पूछा, ‘क्या है घण्टी?’

 

घण्टी ने कहा, ‘गोविन्दी तो मेरी माँ का नाम था। और वह यह कहा करती तुझे मैंने अपनी ही लड़की-सा पाला है।’

 

सरला ने कहा, ‘क्या तुमको गोविन्दी से कहीं से पाकर ही पाल-पोसकर बड़ा किया, वह तुम्हारी माँ नहीं थी।’

 

घण्टी-‘नहीं वह आप भी यजमानों की भीख पर जीवन व्यतीत करती रही और मुझे भी दरिद्र छोड़ गयी।’

 

विजय ने कौतुक से कहा, ‘तब तो घण्टी तुम्हारी माँ का पता लग सकता है क्यों जी बुड्ढे! तुम यदि इसको वही लड़की समझो, जिसका तुमने बदला किया था, तो क्या इसकी माँ का पता बता सकते हो?’

 

‘ओह! मैं उसे भली-भाँति जानता हूँ; पर अब वह कहाँ है, कह नहीं सकता। क्योंकि उस लड़के को पाकर भी वह खुशी नहीं रह सकी। उसे राह से ही सन्देह हो गया कि यह मेरी लड़की से लड़का नहीं बना, वस्तुतः कोई दूसरा लड़का है; पर मैंने उसे डाँटकर समझा दिया कि अब अगर किसी से कहेगी, तो लड़का चुराने के अभियोग में सजा पावेगी। वह लड़का रोते हुए दिन बिताता। कुछ दिन बाद हरद्वार का एक पंडा गाँव में आया। वह उसी विधवा के घर में ठहरा। उन दोनों में गुप्त प्रेम हो गया। अकस्मात् वह एक दिन लड़के को लिए मेरे पास आयी और बोली-इसे नगर के किसी अनाथालय में रख दो, मैं अब हरद्वार जाती हूँ। मैंने कुछ प्रतिवाद न किया, क्योंकि उसका अपने गाँव के पास से टल जाना ही अच्छा समझता था। मैं सहमत हुआ। और वह विधवा उस पंडे के साथ ही हरद्वार चली गयी। उसका नाम था नन्दा।’

 

अंधा कहकर चुप हुआ।

 

विजय ने कहा, ‘बुड्ढे! तुम्हारी यह दशा कैसे हुई?’

 

‘वह सुनकर क्या करोगे। अपनी करनी का फल भोग रहा हूँ, इसिलिए मैं अपनी पाप कथा सबसे कहता फिरता हूँ, तभी तो इनसे भेंट हुई। भीख दो माता, अब हम जायें।’ अंधे ने कहा।

 

सरला ने कहा, ‘अच्छा एक बात बताओगे?’

 

‘क्या?’

 

‘उस बालक के गले में एक सोने का बड़ा-सा यंत्र था, उसे भी तुमने उतार लिया होगा सरला ने उत्कण्ठा से पूछा।

 

‘न, न, न। वह बालक तो उसे बहुत दिनों तक पहने था, और मुझे स्मरण है, वह तब तक न था जब मैंने उसे अनाथालय में सौंपा था। ठीक स्मरण है, वहाँ के अधिकारी से मैंने कहा था-इसे सुरक्षित रखिए, सम्भव है कि इसकी यही पहचान हो, क्योंकि उस बालक पर मुझे दया आयी; परन्तु वह दया पिशाच की दया थी।’

 

सहसा विजय ने पूछा, ‘क्या आप बता सकती हैं-वह कैसा यंत्र था?’

 

वह यंत्र हम लोगों के वंश का प्राचीन रक्षा-कवच था, न जाने कब से मेरे कुल के सब लड़कों को वह एक बरस की अवस्था तक पहनाया जाता था। वह एक त्रिकोण स्वर्ण-यंत्र था।’ कहते-कहते सरला के आँसू बहने लगे।

 

अन्धे को भीख मिली। वह चला गया। सरला उठकर एकांत में चली गयी। घण्टी कुछ काल तक विजय को अपनी ओर आकर्षित करने के चुटकुले छोड़ती रही; परन्तु विजय एकान्त चिंता-निमग्न बना रहा।

 

(5)

 

विचार सागर में डूबती-उतराती हुई घण्टी आज मौलसिरी के नीचे एक शिला-खण्ड पर बैठी है। वह अपने मन से पूछती थी-विजय कौन है, जो मैं उसे रसालवृक्ष समझकर लता के समान लिपटी हूँ। फिर उसे आप ही आप उत्तर मिलता-तो और दूसरा कौन है मेरा लता का तो यही धर्म है कि जो समीप अवलम्ब मिले, उसे पकड़ ले और इस सृष्टि में सिर ऊँचा करके खड़ी हो जाये। अहा! क्या मेरी माँ जीवित है

 

पर विजय तो चित्र बनाने में लगा है। वह मेरा ही तो चित्र बनाता है, तो भी मैं उसके लिए निर्जीव प्रतिमा हूँ, कभी-कभी वह सिर उठाकर मेरी भौंहों के झुकाव को, कपोलों के गहरे रंग को देख लेता है और फिर तूलिका की मार्जनी से उसे हृदय के बाहर निकाल देता है। यह मेरी आराधना तो नहीं है। सहसा उसके विचारों में बाधा पड़ी। बाथम ने आकर घण्टी से कहा, ‘क्या मैं पूछ सकता हूँ?’

 

‘कहिए।’ सिर का कपड़ा सम्हालते हुए घण्टी ने कहा।

 

‘विजय से आपकी कितने दिनों की जान-पहचान है?’

 

‘बहुत थोड़े दिनों की-यही वृदावन से।’

 

‘तभी वह कहता था…’

 

‘कौन क्या कहता था?’

 

‘दरोगा, यद्यपि उसका साहस नहीं था कि मुझसे कुछ अधिक कहे; पर इसका अनुमान है कि आपको विजय कहीं से भगा लाया है।’

 

‘घण्टी किसी की कोई नहीं है; जो उसकी इच्छा होगी वही करेगी! मैं आज ही विजय बाबू से कहूँगी कि वह मुझे लेकर कहीं दूसरे घर में चलें।’

 

‘बाथम ने देखा कि वह स्वतन्त्र युवती तनकर खड़ी हो गयी। उसकी नसें फूल रही थीं। इसी समय लतिका ने वहाँ पहुँचकर एक काण्ड उपस्थित कर दिया। उसने बाथम की ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हुए पूछा, ‘तुम्हारा क्या अभिप्राय था?’

 

सहसा आक्रान्त होकर बाथम ने कहा, ‘कुछ नहीं। मैं चाहता था कि यह ईसाई होकर अपनी रक्षा कर लें, क्योकि इसके…’

 

बात काटकर लतिका ने कहा, ‘और यदि मैं हिन्दू हो जाऊँ?’

 

बाथम ने फँसे हुए गले से कहा, ‘दोनों हो सकते हैं। पर तुम मुझे क्षमा करोगी लतिका?’

 

बाथम के चले जाने पर लतिका ने देखा कि अकस्मात् अन्धड़ के समान यह बातों का झोंका आया और निकल गया।

 

घण्टी रो रही थी। लतिका उसके आँसू पूछती थी। बाथम के हाथ की हीरे की अँगूठी सहसा घण्टी की उँगलियों में लतिका ने देखी, वह चौंक उठी। लतिका का कोमल हृदय कठोर कल्पनाओं से भर गया। वह उसे छोड़कर चली गयी।

 

चाँदनी निकलने पर घण्टी आपे में आयी। अब उसकी निस्सहाय अवस्था सपष्ट हो गयी। वृदावन की गलियों में यों ही फिरने वाली घण्टी कई महीनों की निश्चित जीवनचर्या में एक नागरिक महिला बन गयी थी। उसके रहन-सहन बदल गये थे। हाँ, एक बात और उसके मन में खटकने लगी थी-वह अन्धे की कथा। क्या सचमुच उसकी माँ जीवित है उसका मुक्त हृदय चिंताओं की उमस वाली संध्या में पवन के समान निरुद्ध हो उठा। वह निरीह बालिका के समान फूट-फूटकर रोने लगी।

 

सरला ने आकर उसे पुकारा, ‘घण्टी क्या यहीं बैठी रहोगी उसने सिर नीचा किए हुए उत्तर दिया, ‘अभी आती हूँ।’ सरला चली गयी। कुछ काल तक वह बैठी रही, फिर उसी पत्थर पर अपने पैर समेटकर वह लेट गयी। उसकी इच्छा हुई-आज ही यह घर छोड़ दे। पर वह वैसा नहीं कर सकी। विजय को एक बार अपनी मनोव्यथा सुना देने की उसे बड़ी लालसा थी। वह चिंता करते-करते सो गयी।

 

विजय अपने चित्रों को रखकर आज बहुत दिनों पर मदिरा सेवन कर रहा था। शीशे के एक बड़े गिलास में सोडा और बरफ से मिली हुई मदिरा सामने मेज से उठाकर वह कभी-कभी दो घूँट पी लेता है। धीरे-धीरे नशा गहरा हो चला, मुँह पर लाली दौड़ गयी। वह अपनी सफलताओं से उत्तेजित था। अकस्मात् उठकर बँगले से बाहर आया; बगीचे में टहलने लगा, घूमता हुआ घण्टी के पास जा पहुँचा। अनाथ-सी घण्टी अपने दुःखों में लिपटी हुई दोनों हाथों से अपने घुटने लपेटे हुए पड़ी थी। वह दीनता की प्रतिमा थी। कला वाली आँखों ने चाँदनी रात में यह देखा। वह उसके ऊपर झुक गया। उसे प्यार करने की इच्छा हुई, किसी वासना से नहीं, वरन् एक सहृदयता से। वह धीरे-धीरे अपने होंठ उसके कपोल के पास तक ले गया। उसकी गरम साँसों की अनुभूति घण्टी को हुई। वह पल भर के लिए पुलकित हो गयी, पर आँखें बंद किये रही। विजय ने प्रमोद से एक दिन उसके रंग डालने के अवसर पर उसका आलिंगन करके घण्टी के हृदय में नवीन भावों की सृष्टि कर दी थी। वह उसी प्रमोद का आँख बंद करके आह्वान करने लगी; परन्तु नशे में चूर विजय ने जाने क्यों सचेत हो गया। उसके मुँह से धीरे से निकल पड़ा, ‘यमुना!’ और वह हटकर खड़ा हो गया।

 

विजय चिन्तित भाव से लौट पड़ा। वह घूमते-घूमते बँगले से बाहर निकल आया और सड़क पर यों ही चलने लगा। आधे घन्टे तक वह चलता गया, फिर उसी सड़क से लौटने लगा। बड़े-बड़े वृक्षों की छाया ने सड़क पर चाँदनी को कहीं-कहीं छिपा लिया है। विजय उसी अन्धकार में से चलना चाहता है। यह चाँदनी से यमुना और अँधेरी से घण्टी की तुलना करता हुआ अपने मन के विनोद का उपकरण जुटा रहा है। सहसा उसके कानों में कुछ परिचित स्वर सुनाई पड़े। उसे स्मरण हो आया-उसी इक्के वाले का शब्द। हाँ ठीक है, वही तो है। विजय ठिठककर खड़ा हो गया। साइकिल पकड़े एक सब-इंस्पेक्टर और साथ में वही ताँगे वाला, दोनों बातें करते हुए आ रहे है-सब-इस्पेक्टर, ‘क्यों नवाब! आजकल कोई मामला नहीं देते हो?’

 

ताँगेवाला-‘इतने मामले दिये, मेरी भी खबर आप ने ली?’

 

सब-इस्पेक्टर-‘तो तुम रुपया चाहते हो न?’

 

ताँगेवाला-‘पर यह इनाम रुपयों में न होगा!’

 

सब-इस्पेक्टर-‘फिर क्या?’

 

ताँगेवाला-‘रुपया आप ले लीजिए, मुझे तो वह बुत मिल जाना चाहिए। इतना ही करना होगा।’

 

सब-इस्पेक्टर-‘ओह! तुमने फिर बड़ी बात छेड़ी, तुम नहीं जानते हो, यह बाथम एक अग्रेज है और उसकी उन लोगों पर मेहरबानी है। हाँ, इतना हो सकता है कि तुम उसको अपने हाथों में कर लो, फिर मैं तुमको फँसने न दूँगा।’

 

ताँगेवाला-‘यह तो जान जोखिम का सौदा है।’

 

सब-इन्स्पेक्टर-‘फिर मैं क्या करूँ पीछे लगे रहो, कभी तो हाथ लग जायेगी। मैं सम्हाल लूँगा। हाँ, यह तो बताओ, उस चौबाइन का क्या हुआ, जिसे तुम बिन्दरावन की बता रहे थे। मुझे नहीं दिखलाया, क्यों?’

 

ताँगेवाला-‘वही तो वहाँ है! यह परदेसी न जाने कहाँ से कूद पड़ा। नहीं तो अब तक…’

 

दोनों बातें करते अब आगे बढ़ गये। विजय ने पीछा करके बातों को सुनना अनुचित समझा। वह बँगले की ओर शीघ्रता से चल पड़ा।

 

कुरसी पर बैठे वह सोचने लगा-सचमुच घण्टी एक निस्सहाय युवती है, उसकी रक्षा करनी ही चाहिए। उसी दिन से विजय ने घण्टी से पूर्ववत् मित्रता का बर्ताव प्रारम्भ कर दिया-वही हँसना-बोलना, वही साथ घूमना-फिरना।

 

विजय एक दिन हैण्डबैग की सफाई कर रहा था। अकस्मात् उसी मंगल का वह यन्त्र और सोना मिल गया। उसने एकान्त में बैठकर उसे फिर बनाने का प्रयत्न किया और यह कृतकार्य भी हुआ-सचमुच वह एक त्रिकोण स्वर्ण-यन्त्र बन गया। विजय के मन में लड़ाई खड़ी हो गयी-उसने सोचा कि सरला से उसके पुत्र को मिला दूँ, फिर उसे शंका हुई, सम्भव है कि मंगल उसका पुत्र न हो! उसने असावधानता से उस प्रश्न को टाल दिया। नहीं कहा जा सकता कि इस विचार में मंगल के प्रति विद्वेष ने भी कुछ सहायता की थी या नहीं।

 

बहुत दिनों की पड़ी हुई एक सुन्दर बाँसुरी भी उसके बैग में मिल गयी, वह उसे लेकर बजाने लगा। विजय की दिनचर्या नियमित हो चली। चित्र बनाना, वंशी बजाना और कभी-कभी घण्टी के साथ बैठकर ताँगे पर घूमने चले जाना, इन्हीं कामों में उसका दिन सुख से बीतने लगा।

 

(6)

 

वृन्दावन से दूर एक हरा-भरा टीला है, यमुना उसी से टकराकर बहती है। बड़े-बड़े वृक्षों की इतनी बहुतायत है कि वह टीला दूर से देखने पर एक बड़ा छायादार निकुंज मालूम पड़ता है। एक ओर पत्थर की सीढ़ियाँ हैं, जिनमें चढ़कर ऊपर जाने पर श्रीकृष्ण का एक छोटा-सा मन्दिर है और उसके चारों ओर कोठरी तथा दालानें हैं।

 

गोस्वामी श्रीकृष्ण उस मन्दिर के अध्यक्ष एक साठ-पैंसठ बरस के तपस्वी पुरुष हैं। उनका स्वच्छ वस्त्र, धवल केश, मुखमंडल की अरुणिमा और भक्ति से भरी आँखें अलौकिक प्रभा का सृजन करती हैं। मूर्ति के सामने ही दालान में वे प्रातः बैठे रहते हैं। कोठरियों में कुछ वृद्ध साधु और वयस्का स्त्रियाँ रहती हैं। सब भगवान का सात्त्विक प्रसाद पाकर सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं। यमुना भी यहीं रहती है।

 

एक दिन कृष्ण शरण बैठे हुए कुछ लिख कहे थे। उनके कुशासन पर लेखन सामग्री पड़ी थी। एक साधु बैठा हुआ उन पत्रों को एकत्र कर रहा था। प्रभात अभी तरुण नहीं हुआ था, बसन्त का शीतल पवन कुछ वस्त्रों की आवश्यकता उत्पन्न कर रहा था। यमुना उस प्रांगण में झाड़ू दे रही थी। गोस्वामी ने लिखना बन्द करके साधु से कहा, ‘इन्हें समेटकर रख दो।’ साधु ने लिपिपत्रों को बाँधते हुए पूछा, ‘आज तो एकादशी है, भारत का पाठ न होगा?’

 

‘नहीं।’

 

साधु चला गया। यमुना अभी झाड़ू लगा रही थी। गोस्वामी ने सस्नेह पुकारा, ‘यमुने!’

 

यमुना झाड़ू रखकर, हाथ जोड़कर सामने आयी। कृष्णशरण ने पूछा-

 

‘बेटी! तुझे कोई कष्ट तो नहीं है?’

 

‘नहीं महाराज!’

 

‘यमुने! भगवान दुखियों से अत्यंत स्नेह करते हैं। दुःख भगवान का सात्त्विक दान है-मंगलमय उपहार है। इसे पाकर एक बार अन्तःकरण के सच्चे स्वर से पुकारने का, सुख अनुभव करने का अभ्यास करो। विश्राम का निःश्वास केवल भगवान् के नाम के साथ ही निकलता है बेटी!’

 

यमुना गद्गद हो रही थी। एक दिन भी ऐसा नहीं बीतता, जिस दिन गोस्वामी आश्रमवासियों को अपनी सान्त्वनामयी वाणी से सन्तुष्ट न करते। यमुना ने कहा, ‘महाराज, और कोई सेवा हो तो आज्ञा दीजिए।’

 

‘मंगल इत्यादि ने मुझसे अनुरोध किया है कि मैं सर्वसाधारण के लाभ के लिए आश्रम में कई दिनों तक सार्वजनिक प्रवचन करूँ। यद्यपि मैं इसे अस्वीकार करता रहा, किन्तु बाध्य होकर मुझे करना ही पड़ेगा। यहाँ पूरी स्वच्छता रहनी चाहिए, कुछ बाहरी लोगों के आने की संभावना है।’

 

यमुना नमस्कार करके चली गयी।

 

कृष्णशरण चुपचाप बैठे रहे। वे एकटक कृष्णचन्द्र की मूर्ति की ओर देख रहे थे। यह मूर्ति वृन्दावन की और मूर्तियों से विलक्षण थी। एक श्याम, ऊर्जस्वित, वयस्क और प्रसन्न गंभीर मूर्ति खड़ी थी। बायें हाथ से कटि से आबद्ध नन्दक खड्ग की मूड पर बल दिये दाहिने हाथ की अभय मुद्रा से आश्वासन की घोषणा करते हुए कृष्णचन्द्र की यह मूर्ति हृदय की हलचलों को शान्त कर देती थी। शिल्पी की कला सफल थी।’

 

कृष्णशरण एकटक मूर्ति को देख रहे थे। गोस्वामी की आँखों से उस समय बिजली निकल रही थी, जो प्रतिमा को सजीव बना रही थी। कुछ देर बाद उसकी आँखों से जलधारा बहने लगी। और वे आप-ही-आप कहने लगे, ‘तुम्हीं ने प्रण किया था कि जब-जब धर्म की ग्लानि होगी, हम उसका उद्धार करने के लिए आवेंगे! तो क्या अभी विलम्ब है तुम्हारे बाद एक शान्ति का दूत आया था, वह दुःख को अधिक स्पष्ट बनाकर चला गया। विरागी होकर रहने का उपदेश दे गया; परन्तु उस शक्ति को स्थिर रखने के लिए शक्ति कहाँ रही फिर से बर्बरता और हिंसा ताण्डव-नृत्य करने लगी है, क्या अब भी विलम्ब है?’

 

जैसे मूर्ति विचलित हो उठी।

 

एक ब्रह्मचारी ने आकर नमस्कार किया। वे भी आशीर्वाद देकर उसकी ओर घूम पड़े। पूछा, ‘मंगल देव! तुम्हारे ब्रह्मचारी कहाँ हैं?’

 

‘आ गये हैं गुरुदेव!’

 

‘उन सबों को काम बाँट दो और कर्र्तव्य समझा दो। आज प्रायः बहुत से लोग आवेंगे।’

 

‘जैसी आज्ञा हो, परन्तु गुरुदेव! मेरी एक शंका है।’

 

‘मंगल, एक प्रवचन में अपनी अनुभूति सुनाऊँगा, घबराओ मत। तुम्हारी सब शंकाओं का उत्तर मिलेगा।’

 

मंगलदेव ने सन्तोष से फिर झुका दिया। वह लौटकर अपने ब्रह्मचारियों के पास चला आया।

 

आश्रम में दो दिनों से कृष्ण-कथा हो रही थी। गोस्वामी जी बाल चरित्र कहकर उसका उपसंहार करते हुए बोले-‘धर्म और राजनीति से पीड़ित यादव-जनता का उद्धार करके भी श्रीकृष्ण ने देखा कि यादवों को ब्रज में शांति न मिलेगी।

 

प्राचीनतंत्र के पक्षपाती नृशंस राजन्य-वर्ग मन्वन्तर को मानने के लिए प्रस्तुत न थे; वह मनन की विचारधारा सामूहिक परिवर्तन करने वाली थी। क्रमागत रूढ़ियाँ और अधिकार उसके सामने काँप रहे थे। इन्द्र पूजा बन्द हुई, धर्म का अपमान! राजा कंस मारा गया, राजनीतिक उलट-फेर!! ब्रज पर प्रलय के बादल उमड़े। भूखे भेड़ियों के समान, प्राचीनता के समर्थक यादवों पर टूट पड़े। बार-बार शत्रुओं को पराजित करके भी श्रीकृष्ण ने निश्चय किया कि ब्रज को छोड़ देना चाहिए।

 

वे यदुकुल को लेकर नवीन उपनिवेश की खोज में पश्चिम की ओर चल पड़े। गोपाल ने ब्रज छोड़ दिया। यही ब्रज है। अत्याचारियों की नृशंसता से यदुकुल के अभिजात-वर्ग ने ब्रज को सूना कर दिया। पिछले दिनों में ब्रज में बसी हुई पशुपालन करने वाली गोपियाँ, जिनके साथ गोपाल खेले थे, जिनके सुख को सुख और दुःख समझा, जिनके साथ जिये, बड़े हुए, जिनके पशुओं के साथ वे कड़ी धूप में घनी अमराइयों में करील के कुंजों में विश्राम करते थे-वे गोपियाँ, वे भोली-भाली सरल हृदय अकपट स्नेह वाली गोपियाँ, रक्त-मांस के हृदय वाली गोपियाँ, जिनके हृदय में दया थी, आशा थी, विश्वास था, प्रेम का आदान-प्रदान था, इसी यमुना के कछारों में वृक्षों के नीचे, बसन्त की चाँदनी में, जेठ की धूप में छाँह लेती हुई, गोरस बेचकर लौटती हुई, गोपाल की कहानियाँ कहतीं। निर्वासित गोपाल की सहानुभूति से उस क्रीड़ा के स्मरण से, उन प्रकाशपूर्ण आँखों की ज्योति से, गोरियों की स्मृति इन्द्रधनुष-सी रंग जाती। वे कहानियाँ प्रेम से अतिरंजित थीं, स्नेह से परिप्लुत थीं, आदर से आर्द्र थीं, सबको मिलाकर उनमें एक आत्मीयता थी, हृदय की वेदना थी, आँखों का आँसू था! उन्हीं को सुनकर, इस छोड़े हुए ब्रज में उसी दुःख-सुख की अतीत सहानुभूति से लिपटी हुई कहानियों को सुनकर आज भी हम-तुम आँसू बहा देते हैं! क्यों वे प्रेम करके, प्रेम सिखलाकर, निर्मल स्वार्थ पर हृदयों में मानव-प्रेम को विकसित करके ब्रज को छोड़कर चले गये चिरकाल के लिए। बाल्यकाल की लीलाभूमि ब्रज का आज भी इसलिए गौरव है। यह वही ब्रज है। वही यमुना का किनारा है!’

 

कहते-कहते गोस्वामी की आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। श्रोता भी रो रहे थे।

 

गोस्वामी चुप होकर बैठ गये। श्रोताओं ने इधर-उधर होना आरम्भ किया। मंगल देव आश्रम में ठहरे हुए लोगों के प्रबन्ध में लग गया। परन्तु यमुना वह दूर एक मौलसिरी के वृक्ष की नीचे चुपचाप बैठी थी। वह सोचती थी-ऐसे भगवान भी बाल्यकाल में अपनी माता से अलग कर दिये गये थे! उसका हृदय व्याकुल हो उठा। वह विस्मृत हो गयी कि उसे शान्ति की आवश्यकता है। डेढ़ सप्ताह के अपने हृदय के टुकड़े के लिए वह मचल उठी-वह अब कहाँ है क्या जीवित है उसका पालन कौन करता होगा वह जियेगा अवश्य, ऐसे बिना यत्न के बालक जीते हैं, इसका तो इतना प्रमाण मिल गया है! हाँ, और वह एक नर रत्न होगा, वह महान होगा! क्षण-भर में माता का हृदय मंगल-कामना से भर उठा। इस समय उसकी आँखों में आँसू न थे। वह शान्त बैठी थी। चाँदनी निखर रही थी! मौलसिरी के पत्तों के अन्तराल से चन्द्रमा का आलोक उसके बदन पर पड़ रहा था! स्निग्ध मातृ-भावना से उसका मन उल्लास से परिपूर्ण था। भगवान की कथा के छल से गोस्वामी ने उसके मन के एक सन्देह, एक असंतोष को शान्त कर दिया था।

 

मंगलदेव को आगन्तुकों के लिए किसी वस्तु की आवश्यकता थी। गोस्वामी जी ने कहा, ‘जाओ यमुना से कहो।’ मंगल यमुना का नाम सुनते ही एक बार चौंक उठा। कुतहूल हुआ, फिर आवश्यकता से प्रेरित होकर किसी अज्ञात यमुना को खोजने के लिए आश्रम के विस्तृत प्रांगण में घूमने लगा।

 

मौलसिरी के वृक्ष के नीचे यमुना निश्चल बैठी थी। मंगलदेव ने देखा एक स्त्री है, यही यमुना होगी। समीप पहुँचकर देखा, तो वही यमुना थी!

 

पवित्र देव-मन्दिर की दीप-शिखा सी वह ज्योर्तिमयी मूर्ति थी। मंगलदेव ने उसे पुकारा-‘यमुना!’

 

वात्सल्य-विभूति के काल्पनिक आनन्द से पूर्व उसके हृदय में मंगल के शब्द ने तीव्र घृणा का संचार कर दिया। वह विरक्त होकर अपरिचित-सी बोल उठी, ‘कौन है?’

 

‘गोस्वामी जी की आज्ञा है कि…’ आगे कुछ कहने में मंगल असमर्थ हो गया, उसका गला भर्राने लगा।

 

‘जो वस्तु चाहिए, उसे भण्डारी जी से जाकर कहिए, मैं कुछ नहीं जानती।’ यमुना अपने काल्पनिक सुख में भी बाधा होते देखकर अधीर हो उठी।

 

मंगल ने फिर संयत स्वर में कहा, ‘तुम्हीं से कहने की आज्ञा हुई है।’

 

अबकी यमुना ने स्वर पहचान और सिर उठाकर मंगल को देखा। दारुण पीड़ा से वह कलेजा थामकर बैठ गयी। विद्युद्वेग से उसके मन में यह विचार नाच उठा कि मंगल के अत्याचार के कारण मैं वात्सल्य-सुख से वंचित हूँ। इधर मंगल ने समझा कि मुझे पहचानकर ही वह तिरस्कार कर रही है। आगे कुछ न कह वह लौट पड़ा।

 

गोस्वामी जी वहाँ पहुँचे तो देखते हैं, मंगल लौटा जा रहा है और यमुना बैठी रो रही है। उन्होंने पूछा, ‘क्या है बेटी?’

 

यमुना हिचकियाँ लेकर रोने लगी। गोस्वामी जी बड़े सन्देह में पड़े कुछ काल तक खड़े रहने पर वे इतना कहते हुए चले गये-किंचित् सावधान करके मेरे पास आकर सब बात कह जाना!

 

यमुना गोस्वामी जी की संदिग्ध आज्ञा से मर्माहत हुई और अपने को सम्हालने को प्रयत्न करने लगी।

 

रात-भर उसे नींद न आयी।

 

(7)

 

उत्सव का समारोह था। गोस्वामी जी व्यासपीठ पर बैठे हुए थे। व्याख्यान प्रारम्भ होने वाला ही था; उसी साहबी ठाट से घण्टी को साथ लिये सभा में आया आज यमुना दुःखी होकर और मंगल ज्वर में, अपने-अपने कक्ष में पड़े थे। विजय सन्नद्ध था-गोस्वामी जी का विरोध करने की प्रतिज्ञा, अवहेलना और परिहास उसकी आकृति से प्रकट थे।

 

गोस्वामी जी सरल भाव से कहने लगे-‘उस समय आर्यावर्त्त में एकान्त शासन का प्रचण्ड ताण्डव चल रहा था। सुदूर सौराष्ट में श्रीकृष्ण के साथ यादव अपने लोकतंत्र की रक्षा में लगे थे। यद्यपि सम्पन्न यादवों की विलासिता और षड्यत्रों से गोपाल को भी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं, फिर भी उन्होंने सुधर्मा के सम्मान की रक्षा की। पांचाल में कृष्ण का स्वयम्बर था। कृष्ण के बल पर पाडण्व उसमें अपना बल-विक्रम लेकर प्रकट हुए। पराभूत होकर कौरवों ने भी उन्हें इन्द्रप्रस्थ दिया। कृष्ण ने धर्म राज्य स्थापना का दृढ़ संकल्प किया था, अतः आततायियों के दमन की आवश्यकता थी। मागध जरासन्ध मारा गया। सम्पूर्ण भारत में पाण्डवों की, कृष्ण की संरक्षता में धाक जम गयी। नृशंस यज्ञों की समाप्ति हुई। बन्दी राजवर्ग तथा बलिपशु मुक्त होते ही कृष्ण की शरण में हुए। महान हर्ष के साथ राजसूय यज्ञ हुआ। राजे-महाराजे काँप उठे। अत्याचारी शासकों को शीत-ज्वर हुआ। उस समय धर्मराज की प्रतिष्ठा में साधारण कर्मकारों के समान नतमस्तक होकर काम करते रहे। और भी एक बात हुई। आर्यावर्त्त ने उसी निर्वासित गोपाल को आश्चर्य से देखा, समवेत महाजनों में अग्रपूजा और अर्घ्य का अधिकारी! इतना बड़ा परिवर्तन! सब दाँतों तले उँगली दाबे हुए देखते रहे। उसी दिन भारत ने स्वीकार किया-गोपाल पुरुषोत्तम है। प्रसाद से युधिष्ठिर से धर्म-साम्राज्य को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझ ली, इससे कुचक्रियों का मनोरथ सफल हुआ धर्मराज विशृंखल हुआ; परन्तु पुरुषोत्तम ने उसका जैसे उद्धार किया, वह तुम लोगों ने सुना होगा-महाभारत की युद्धकथा से। भयानक जनक्षय करके भी सात्त्विक विचारों की रक्षा हुई और भी सुदृढ़ महाभारत की स्थापना हुई, जिनमें नृशंस राजन्यवर्ग नष्ट किये गये। पुरुषोत्तम ने वेदों की अतिवाद और उनके नाम पर होने वाले अत्याचारों का उच्छेद किया। बुद्धिवाद का प्रचार हुआ। गीता द्वारा धर्म की, विश्वास की, विराट की, आत्मवाद की विमल व्याख्या हुई। स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि कहकर जो धर्माचरण का अधिकार मिला। साम्य की महिमा उद्घोषित हुई। धर्म में, राजनीति में, समाज-नीति में सर्वत्र विकास हुआ। वह मानवजाति के इतिहास में महापर्व था। पशु और मनुष्य के भी साम्य की घोषणा हुई। वह पूर्ण संस्कृति थी। उसके पहले भी वैसा नही हुआ और उसके बाद भी पूर्णता ग्रहण करने के लिए मानव शिक्षित न हो सके, क्योंकि सत्य को इतना समष्टि से ग्रहण करने के लिए दूसरा पुरुषोत्तम नहीं हुआ। मानवता का सामंजस्य बने रहने की जो व्यवस्था उन्होंने की, वह आगामी अनन्त दिवसों तक अक्षुण्ण रहेगी।

 

तस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य;

 

——————————————————

 

जो लोक से न घबराये और जिससे लोक न उद्विग्न हो, वही पुरुषोत्तम का प्रिय मानव है, जो सृष्टि को सफल बनाता है।

 

विजय ने प्रश्न करने की चेष्टा की; परन्तु उसका साहस न हुआ।

 

गोस्वामी ने व्यासपीठ से हटते हुए चारों ओर दृष्टि घुमाई, यमुना और मंगल नहीं दिखाई पड़े। वे उन्हें खोजते हुए चल पड़े। श्रोतागण भी चले गये थे। कृष्णशरण ने यमुना को पुकारा। वह उठकर आयी। उसकी आँखें तरुण, मुख विवर्ण, रसना अवाक् और हृदय धड़कनों से पूर्ण था। गोस्वामी जी ने उससे पूछा। उसे साथ आने का संकेत करके वे मंगल की कोठरी की ओर बढ़े। मंगल अपने बिछावन पर पड़ा था। गोस्वामी जी को देखते ही उठ खड़ा हुआ। वह अभी भी ज्वर मे आक्रांत था। गोस्वामी जी ने पूछा, ‘मंगल! तुमने इस अबला का अपमान किया था?’

 

मंगल चुप रहा।

 

‘बोलो, क्या तुम्हारा हृदय पाप से भर गया था?’

 

मंगल अब भी चुप रहा। अब गोस्वामी जी से रहा न गया।

 

‘तो तुम मौन रहकर अपना अपराध स्वीकार करते हो?’

 

वह बोला, नहीं।

 

‘तुम्हे चित्त-शुद्धि की आवश्यकता है। जाओ सेवा में लगो, समाज-सेवा करके अपना हृदय शुद्ध बनाओ। जहाँ स्त्रियाँ सताई जाएँ, मनुष्य अपमानित हो, वहाँ तुमको अपना दम्भ छोड़कर कर्त्तव्य करना होगा। इसे दण्ड न समझो। यही तुम्हारा क्रियामाण कर्म है। पुरुषोत्तम ने लोक-संग्रह किया था, वे मानवता के हित में लगे रहे, अन्यथा अत्याचार के विरुद्ध सदैव युद्ध करते रहे। अपने किए हुए अन्याय के विरुद्ध तुम्हें अपने से लड़ना होगा। उस असुर को परास्त करना होगा। गुरुकुल यहाँ भेज दो; तुम अबलाओं की सेवा में लगो। भगवान् की भूमि भारत में जंगलों में अभी पशु-जीवन बिता रहे हैं। स्त्रियाँ विपथ पर जाने के लिए बाध्य की जाती हैं, तुमको उनका पक्ष लेना पड़ेगा।

 

उठो!

 

मंगल ने गोस्वामी जी के चरण छुए। वह सिर झुकाये चला गया। गोस्वामी ने घूमकर यमुना की ओर देखा। वह सिर नीचा किये रो रही थी। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कृष्णशरण ने कहा, ‘भूल जाओ यमुना, उसके अपराध को भूल जाओ।’

 

परन्तु यमुना मंगल को और उसके अपराध को कैसे भूल जाती?’

 

(8)

 

घण्टी और विजय बाथम के बँगले पर लौटकर गोस्वामी जी के सम्बन्ध में काफी देर तक बातचीत करते रहे। विजय ने अंत में कहा, ‘मुझे तो गोस्वामी की बातें कुछ जँचती नहीं। कल फिर चलूँगा। तुम्हारी क्या सम्मति है, घण्टी?’

 

‘मैं भी चलूँगी।’

 

वे दोनों उठकर सरला की कोठरी की ओर चले गये। अब दोनों वहीं रहते हैं। लतिका ने कुछ दिनों से बाथम से बोलना छोड़ दिया है। बाथम भी पादरी के साथ दिन बिताता है आजकल उसकी धार्मिक भावना प्रबल हो गयी है।

 

मूर्तिमती चिंता-सी लतिका यंत्र चलित पाद-विपक्ष करती हुई दालान में आकर बैठ गयी। पलकों के परदे गिरे हैं। भावनाएँ अस्फुट होकर विलीन हो जाती हैं-मैं हिन्दू थी…हाँ फिर…सहसा आर्थिक कारणों से पिता…माता ईसाई….यमुना के पुल पर से रेलगाड़ी आती थी…झक…झक…झक आलोक माला का हार पहने सन्ध्या में…हाँ यमुनी की आरती भी होती थी…अरे वे कछुए…मैं उन्हें चने खिलाती थी…पर मुझे रेलगाड़ी का संगीत उन घण्टों से अच्छा लगता…फिर एक दिन हम लोग गिरजाघर जा पहुँचे। इसके बाद…गिरजाघर का घण्टा सुनने लगी…ओह। मैं लता-सी आगे बढ़ने लगी…बाथम एक सुन्दर हृदय की आंकाक्षा-सा सुरुचिपूर्ण यौवन का उन्माद…प्रेरणा का पवन…मैं लिपट गयी…क्रूर…निर्दय…मनुष्य के रूप में पिशाच….मेरे धन का पुजारी…व्यापारी…चापलूसी बेचने वाला। और यह कौन ज्वाला घण्टी…बाथम अहसनीय…ओह!

 

लतिका रोने लगी। रूमाल से उसने मुँह ढक लिया। वह रोती रही। जब सरला ने आकर उसके सिर पर हाथ फेरा, तब वह चैतन्य हुई-सपने से चौंककर उठ बैठी। लैंप का मंद प्रकाश सामने था। उसने कहा-

 

‘सरला, मैं दुःस्वप्न देख रही थी।’

 

‘मेरी सम्मति है कि इन दोनों अतिथियों को बिदा कर दिया जाये। प्यारी मारगरेट, तुमको बड़ा दुःख है।’ सरला ने कहा।

 

‘नहीं, नहीं, बाथम को दुःख होगा!’ घबराकर लतिका ने कहा।

 

उसी समय बाथम ने आकर दोनों को चकित कर दिया। उसने कहा, ‘लतिका! मुझे तुमसे कुछ पूछना है।’

 

‘मैं कल सुनूँगी फिर कभी…मेरा सिर दुख रहा है।’ बाथम चला गया। लतिका सोचने लगी-कैसी भयानक बात-उसी को स्वीकार करके क्षमा माँगना। बाथम! कितनी निर्लज्जता है। मैं फिर क्षमा क्यों न करूँगी। परन्तु कह नहीं सकती। आह, बिच्छू के डंक-सी वे बातें! वह विवाद! मैंने ऐसा नहीं किया, तुम्हारा भ्रम था, तुम भूलती हो-यानी न कहना है कितनी झूठी बात! वह झूठ कहने में संकोच नहीं कर सकता-कितना पतित! ‘लतिका, चलो सो रहो।’ सरला ने कहा।

 

लतिका ने आँख खोलकर देखा-अँधेरा चाँदनी को पिये जाता है! अस्त-व्यस्त नक्षत्र, शवरी रजनी की टूटी हुई काँचमाला के टुकड़े हैं, उनमें लतिका अपने हृदय का प्रतिबिम्ब देखने की चेष्टा करने लगी। सब नक्षत्रों में विकृत प्रतिबिम्ब वह डर गयी! काँपती हुई उसने सरला का हाथ पकड़ लिया।

 

सरला ने उसे धीरे-धीरे पलंग तक पहुँचाया। वह जाकर पड़ रही, आँखें बन्द किये थी, वह डर से खोलती न थी। उसने मेष-शावक और शिशु उसको प्यार कर रहा है; परन्तु यह क्या-यह क्या-वह त्रिशूल-सी कौन विभीषिका उसके पीछे खड़ी है! ओह, उसकी छाया मेष-शावक और शिशु दोनों पर पड़ रही है।

 

लतिका ने अपने पलकों पर बल दिया, उन्हें दबाया, वह सो जाने की चेष्टा करने लगी। पलकों पर अत्यंत बल देने से मुँदी आँखों के सामने एक आलोक-चक्र घूमने लगा। आँखें फटने लगीं। ओह चक्र! क्रमशः यह प्रखर उज्ज्वल आलोक नील हो चला, मेघों के जल में यह शीतल नील हो चला, देखने योग्य-सुदर्शन आँखें ठंडी हुईं, नींद आ गयी।

 

समारोह का तीसरा दिन था। आज गोस्वामी जी अधिक गम्भीर थे। आज श्रोता लोग भी अच्छी संख्या में उपस्थित थे। विजय भी घण्टी के साथ ही आया था। हाँ, एक आश्चर्यजनक बात थी-उसके साथ आज सरला और लतिका भी थीं। बुड्ढा पादरी भी आया था।

 

गोस्वामी जी का व्याख्यान आरम्भ हुआ-

 

‘पिछले दिनों में मैंने पुरुषोत्तम की प्रारम्भिक जीवनी सुनाई थी, आज सुनाऊँगा उनका संदेश। उनका संदेश था-आत्मा की स्वतन्त्रता का, साम्य का, कर्मयोग का और बुद्धिवाद का। आज हम धर्म के जिस ढाँचे को-शव को-घेरकर रो रहे हैं, वह उनका धर्म नहीं था। धर्म को वे बड़ी दूर की पवित्र या डरने की वस्तु नहीं बतलाते थे। उन्होंने स्वर्ग का लालच छोड़कर रूढ़ियों के धर्म को पाप कहकर घोषणा की। उन्होंने जीवनमुक्त होने का प्रचार किया। निःस्वार्थ भाव से कर्म की महत्ता बतायी और उदाहरणों से भी उसे सिद्ध किया। राजा नहीं थे; पर अनायास ही वे महाभारत के सम्राट हो सकते थे, पर हुए नहीं। सौन्दर्य, बल, विद्या, वैभव, महत्ता, त्याग कोई भी ऐसे पदार्थ नहीं थे, जो अप्राप्य रहे हों। वे पूर्ण काम होने पर भी समाज के एक तटस्थ उपकारी रहे। जंगल के कोने में बैठकर उन्होंने धर्म का उपदेश काषाय ओढ़कर नहीं दिया; वे जीवन-युद्ध के सारथी थे। उसकी उपासना-प्रणाली थी-किसी भी प्रकार चिंता का अभाव होकर अन्तःकरण का निर्मल हो जाना, विकल्प और संकल्प में शुद्ध-बुद्धि की शरण जानकर कर्तव्य निश्चय करना। कर्म-कुशलता उसका योग है। निष्काम कर्म करना शान्ति है। जीवन-मरण में निर्भय रहना, लोक-सेवा करते कहना, उनका संदेश है। वे आर्य संस्कृति के शुद्ध भारतीय संस्करण है। गोपालों के संग वे पले, दीनता की गोद में दुलारे गये। अत्याचारी राजाओं के सिंहासन उलटे-करोड़ों बलोन्मत्त नृशंसों के मरण-यज्ञ में वे हँसने वाले अध्वर्यु थे। इस आर्यावर्त्त को महाभारत बनाने वाले थे। वे धर्मराज के संस्थापक थे। सबकी आत्मा स्वतंत्र हो, इसलिए समाज की व्यावहारिक बातों को वे शरीर-कर्म कहकर व्याख्या करते थे-क्या यह पथ सरल नहीं, क्या हमारे वर्तमान दुःखों में यह अवलम्बन न होगा सब प्राणियों से निर्वेर रखने वाला शान्तिपूर्ण शक्ति-संवलित मानवता का ऋतु पथ, क्या हम लोगों के चलने योग्य नहीं है?’

 

समवेत जनमण्डली ने कहा, ‘है, अवश्य है!’

 

‘हाँ, और उसमें कोई आडम्बर नहीं। उपासना के लिए एकांत निश्चिंत अवस्था, और स्वाध्याय के लिए चुने हुए श्रुतियों के सार-भाग का संग्रह, गुणकर्मों से विशेषता और पूर्ण आत्मनिष्ठा, सबकी साधारण समता-इतनी ही तो चाहिए। कार्यालय मत बनाइये, मित्रों के सदृश एक-दूसरे को समझाइये, किसी गुरुडम की आवश्यकता नहीं। आर्य-संस्कृति अपना तामस त्याग, झूठा विराग छोड़कर जागेगी। भूपृष्ठ के भौतिक देहात्मवादी चौंक उठेंगे, यान्त्रित सभ्यता के पतनकाल में वही मानवजाति का अवलम्बन होगी।’

 

‘पुरुषोत्तम की जय!’ की ध्वनि से वह स्थान गूँज उठा। बहुत से लोग चले गये।

 

विजय ने हाथ जोड़कर कहा, ‘महाराज! मैं कुछ पूछना चाहता हूँ। मैं इस समाज से उपेक्षिता, अज्ञातकुलशीला घण्टी से ब्याह करना चाहता हूँ। इसमें आपकी क्या अनुमति है?’

 

‘मेरा तो एक ही आदर्श है। तुम्हें जानना चाहिए कि परस्पर प्रेम का विश्वास कर लेने पर यादवों के विरुद्ध रहते भी सुभद्रा और अर्जुन के परिणय को पुरुषोत्तम ने सहायता दी, यदि तुम दोनों में परस्पर प्रेम है, तो भगवान् को साक्षी देकर तुम परिणय के पवित्र बन्धन में बँध सकते हो।’ कृष्णशरण ने कहा।

 

विजय बड़े उत्साह से घण्टी का हाथ पकड़े देव-विग्रह के सामने आया और वह कुछ बोलना ही चाहता था कि यमुना आकर खड़ी हो गयी। वह कहने लगी, ‘विजय बाबू, यह ब्याह आप केवल अहंकार से करने जा रहे हैं, आपका प्रेम घण्टी पर नहीं है।’

 

बुड्ढ़ा पादरी हँसने लगा। उसने कहा, ‘लौट जाओ बेटी! विजय, चलो! सब लोग चलें।’

 

विजय ने हतबुद्धि के समान एक बार यमुना को देखा। घण्टी गड़ी जा रही थी। विजय का गला पकड़कर जैसे किसी ने धक्का दिया। वह सरला के पास लौट आया। लतिका घबराकर सबसे पहले ही चली। सब ताँगों पर आ बैठे। गोस्वामी जी के मुख पर स्मित-रेखा झलक उठी।

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