वंदना
{निम्नलिखित 4 कवितायें मूर्धन्य लेखिका श्रीमती उषा त्रिपाठी जी द्वारा रचित हैं जिनकी कई पुस्तकें (जैसे- नागफनी, अँधा मोह, सिंदूरी बादल, सांध्य दीप, पिंजरे का पंक्षी, कल्पना आदि) प्रकाशित हो चुकीं हैं ! श्रीमती उषा त्रिपाठी जी एम्. ए., साहित्य रत्न विशारद व संगीत शास्त्र की ज्ञाता भी हैं और इनके द्वारा लिखी हुई कहानियों व कविताओं को कई प्रसिद्ध अखबारों व मैगजीन्स द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है तथा रेडियो आदि की कवि गोष्ठियों में भी सराहा जा चुका है ! श्रीमति त्रिपाठी जी की लेखन क्षमता शुरू से ही अद्भुत रही है जिसकी वजह से मात्र 15 साल की उम्र में ही उनके द्वारा, सन 1962 में हुई भारत – चीन के युध्द में भारतीय वीर सैनिकों के समर्थन में लिखी हुई कविता को, प्रमुख अखबारों द्वारा प्रकाशित व पुरस्कृत किया गया था ! श्रीमती उषा जी के पूर्व प्रकाशित आर्टिकल पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें- अधूरी कल्पना}

श्रीमती उषा त्रिपाठी जी
वंदना
स्वीकार करो आरती
माँ भारती
बंधे हुए सुत माँ तेरे आज
घुट रहे दरिद्रता की जंजीरों में
विस्मृत कर बीते युग को
तड़प रहे ममतामयी तेरे आंचल में
शस्य श्यामला मृदुता माँ भारती
स्वीकार करो आरती
माँ भारती
राम कृष्ण की जन्मभूमि यह
गूँजी थी गरिमा गीता की
बिखरा था जगती का वैभव
वृष्टि हुई थी स्वप्न – सुधा की
शत-शत कंठों की ध्वनि पुकारती
स्वीकार करो आरती
माँ भारती
दीप नहीं, स्नेह नहीं, करुणामयि
करूँ केसे आज तेरा अर्चन?
सुषुप्त हैं भावनायें अन्तर की
ले लो माँ! मानसी-पूजन की
क्षुधित जीवन की सर्द आहें गुनगुनाती
स्वीकार करो आरती
माँ भारती
सूख गया है स्त्रोत प्रेम का
देवि! तेरी ही इस वसुधा पर
हो रहा है नग्न नृत्य
पाप, हिंसा का तेरे निर्मित पथ पर
जिंदगी पर विवशतायें मुस्कराती
स्वीकार करो भारती
माँ भारती
माँ जन-जन के अन्तर में
फिर पुनीत भावों को भर दे
निर्देशित कर दे विस्मृत पथ को
ज्योति जगा, अभावों को भर दे
दूर कहीं से सुखद भावनायें आ-आ टकरातीं
स्वीकार करो आरती
माँ भारती
उपेक्षित हृदय
ओ मेरे उपेक्षित हृदय
अब कितनी खुशियाँ
लुटाकर, आँसू
स्वीकार करोगे
रहने दो अब
यह सब निःसार है
कुछ भी नहीं है
बहुत कुछ है
देखा-सुना-किया
एक मधुर स्वप्न था
बर्फ सी तरावट अब नहीं है उनमें
(जिंदगी का सार न रहा)
उनको
लोरियां सुना-सुना कर
थपकियाँ दे दे कर
सुला दो
सब कुछ व्यर्थ है
शून्य है
फिर, शून्य में ही खो जायेगा
रहने भी दो अब
क्या होगा मन को
बहलाने से
मेरे व्यथित हृदय
यदि चाहे तो
यदि चाहे तो धरती भी स्वर्ग बन सकती है
कल्पनायें भी सत्य हो मुस्करा सकती है
फूँक दो जन-जन के अन्तर में
गीत – चेतना के
लहरा उठे कोने-कोने
गीत हमारी प्रेरणा के
सूने मन भरी अंखियों में
जीवन के स्वप्न जगा दो
मुरझाये होंठो, क्षीण काया पर
खुशी गागर ढरका दो
अन्तस की ज्योति पतझड़ को मधुमास बना सकती है
कल्पनायें भी सत्य होकर मुस्करा सकती है
प्रवाहित कर दो प्रेम अहिंसा की
मनहर – सरिता
अधूरे स्वप्न पूरे हों
रहे कुछ भी न रीता
होये विजय सत्य की
धरती के अणु-अणु में
समरसता की गंगा बहे
जीवन के कण-कण में
भूखे नंगे लोगों में भी प्रतिभा जागृत हो सकती है
कल्पनायें भी सत्य होकर मुस्करा सकती है
स्मृतियाँ जागृत करा दो
विस्मृत हुए गौरव की
जले दीप हृदय में
अरमान भरे सपनों की
गुजरित हो विश्व-प्रेम का
मधुर रागिनी
साकार हो बीते युग की
अमर कहानी
धरती के मैले अंचल पर हरितिमा भी झूम सकती है
कल्पनायें भी सत्य होकर मुस्करा सकती है
मेरे भाव
मेरे भाव कहो कैसे तुझको आज सजाऊँ
उमड़ते मन में भावों के बादल
पुष्पों में अलियों के ज्यों मृदु-दल
पर जीवन अभिलाष विहीन है मेरा
छाये मन में तिमिर के गहन परत
कैसे मैं फिर अपने जीवन के गीत बनाऊँ ?
आँसुओं से भीगा है प्रतिपल मन
मन के कटु-उद्गारों से पूरित – तन
इस विश्व-संघर्ष में कौन है किसका
इन्हीं द्वन्द्वों से बिंधा है जीवन
कैसे मैं फिर प्रकृति उपादानों को अपनाऊँ?
मेरे भावों में माधुर्य नहीं है
कविता में हृदय का सार नहीं है
मेरे अन्तस् में केवल पीड़ा है
जिन्हें संजो लूँ ऐसी कला नहीं है
कैसे मैं फिर निज जीवन को सफल बनाऊँ ?
लेखिका –
श्रीमती उषा त्रिपाठी
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