लेख – मनुष्यता की उच्च भूमि – (लेखक – रामचंद्र शुक्ल )
मनुष्य की चेष्टा और कर्मकलाप से भावों का मूल संबंध निरूपित हो चुका है और यह भी दिखाया जा चुका है कि कविता इन भावों या मनोविकारों के क्षेत्र को विस्तृत करती हुई उनका प्रसार करती है। पशुत्व से मनुष्यत्व में जिस प्रकार अधिक ज्ञान प्रसार की विशेषता है उसी प्रकार अधिक भाव प्रसार की भी। पशुओं के प्रेम की पहुँच प्राय: अपने जोड़े, बच्चों या खिलाने पिलानेवालों तक ही होती है; इसी प्रकार उनका क्रोध भी अपने सतानेवालों तक ही जाता है, स्ववर्ग या पशुमात्र को सतानेवालों तक नहीं पहुँचता। पर मनुष्य में ज्ञान प्रसार के साथ साथ भाव प्रसार भी क्रमश: बढ़ता गया है। अपने परिजनों, अपने सम्बन्धियों, अपने पड़ोसियों, अपने देशवासियों, क्या मनुष्य और प्राणिमात्र तक से प्रेम करने भर की जगह उसके हृदय में बन गई। मनुष्य की त्योरी मनुष्य को ही सतानेवाले पर नहीं चढ़ती; गाय, बैल और कुत्तोंब, बिल्ली को सतानेवाले पर भी चढ़ती है। पशु की वेदना देखकर भी उसके नेत्र सजल होते हैं। बंदर को शायद बँदरिया के मुँह में ही सौंदर्य दिखाई पड़ता होगा, पर मनुष्य पशु पक्षी, फूल पत्तेप और रेत-पत्थर में भी सौंदर्य पाकर मुग्धड़ होता है। इस हृदय प्रसार का स्मारक स्तंभ काव्य है जिसकी उत्तेजना से हमारे जीवन में एक नया जीवन आ जाता है। हम सृष्टि के सौंदर्य को देखकर रसमग्न होने लगते हैं, कोई निष्ठुर कार्य हमें असह्य होने लगता है, हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना बढ़कर सारे संसार में व्याप्त हो गया है।
कविवाणी के प्रसाद से हम संसार के सुख दु:ख, आनंद, क्लेश आदि का शुद्ध स्वार्थमुक्त रूप में अनुभव करते हैं। इस प्रकार के अनुभव के अभ्यास से हृदय का बंधन खुलता है और मनुष्यता की उच्च भूमि की प्राप्ति होती है। किसी अर्थपिशाच कृपण को देखिए, जिसने केवल अर्थलोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, श्रद्धा, भक्ति आत्माभिमान आदि भावों को एकदम दबा दिया है और संसार के मार्मिक पक्ष से मुँह मोड़ लिया है। न सृष्टि के किसी रूप माधुर्य को देख वह पैसों का हिसाब किताब भूल कभी मुग्ध होता है, न किसी दीन दुखिया को देख कभी करुणा से द्रवीभूत होता है, न कोई अपमानसूचक बात सुनकर क्रुद्ध या क्षुब्ध होता है। यदि उससे किसी लोमहर्षण अत्याचार की बात कही जाय तो वह मनुष्य धार्मानुसार क्रोध या घृणा प्रकट करने के स्थान पर रूखाई के साथ कहेगा कि ‘जाने दो, हमसे क्या मतलब; चलो अपना काम देखें।’ यह महा भयानक मानसिक रोग है। इससे मनुष्य मर जाता है। इसी प्रकार किसी महाक्रूर पुलिस कर्मचारी को जाकर देखिए जिसका हृदय पत्थर के समान जड़ और कठोर हो गया है, जिसे दूसरे के दु:ख और क्लेश की भावना स्वप्न में भी नहीं होती। ऐसों को सामने पाकर स्वभावत: यह मन में आता है कि क्या इनकी भी कोई दवा है? इनकी दवा कविता है।
कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमश: उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है। भावयोग की सबसे उच्च कक्षा पर पहुँचे हुए मनुष्य का जगत् के साथ पूर्ण तादात्म्य हो जाता है, उसकी अलग भाव सत्ता नहीं रह जाती, उसका हृदय विश्व हृदय हो जाता है। उसकी अश्रुधारा में जगत् की अश्रुधारा का, उसके हास विलास में जगत् के आनंदनृत्य का, उसके गर्जन तर्जन में जगत् के गर्जन तर्जन का आभास मिलता है।
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