कविता – सुआ खंड – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
पदमावति तहँ खेल दुलारी । सुआ मँदिर महँ देखि मजारी॥
कहेसि चलौं जौलहि तन पाँखा । जिउ लै उड़ा ताकि बनडाँखा॥
जाइ परा बा खंड जिउ लीन्हें । मिले पंखि, बहु आदर कीन्हें॥
आनि धारेन्हि आगे फरि साखा । भुगुति भेंट जौ लहि विधिा राखा॥
पाइ भुगुति सुख तेहि मन भयऊ । दुख जो अहा बिसरि सबगयऊ॥
ए गुसाइं तू ऐस विधााता । जावत जीव सबन्ह मुकदाता॥
पाहन महँ बहिं पतँग बिसारा । जहँ तोहि सुनिर दीन्ह तुइँ चारा॥
तौ लगि सोग बिछोह कर, भोजन परा न पेट।
पुनि बिसरन भा सुमिरना, जब संपति भै भेंट॥1॥
पदमावति पहँ आइ भँडारी । कहेसि मँदिर महँ परी मजारी॥
सुआ जो उतर देत रह पूछा । उडिगा, पिंजर न बोलै छूंछा॥
रानी सुना सबहिं सुख गयऊ । जनु निसि परी, अस्त दिन भयऊ॥
गहने गही चाँद कै करा । ऑंसु गगन जस नखतन्ह भरा॥
टूट पाल सरवर बहि लागे । कवँल बूड़, मधाुकर उड़ि भागे॥
एहि विधिा ऑंसु नखत होइ चूए । गगन छाँड़ि सरवर महँ ऊए॥
चिहुर चुईं मोतिन कै माला । अब सँकेत बाँधाा चहुँ पाला॥
उड़ि यह सुअटा कहँ बसा, खोजु सखी सो बासु।
दहुँ है धारती की सरग, पौन न पावै तासु॥2॥
चहूँ पास समुझावहिं सखी । कहाँ सो अब पाउब, गा पँखी?॥
जौ लहि पींजर अहा परेवा । रहा बंदि महँ, कीन्हेसि सेवा॥
तेहि बंदि हुति छुटै जो पावा । पुनि फिरि बंदि होइ कित आवा?॥
वै उड़ान फर तहियै खाए । जब भा पंखि, पाँख तन आए॥
पींजर जेहिक सौंपि तेहि गयउ । जो जाकर सो ताकर भयऊ॥
दस दुवार जेहि पींजर माँहा । कैसे बाँच मँजारी पाहाँ॥
यह धारती अस केतन लीला । पेट गाढ़ अस, बहुरि न ढीला॥1
जहाँ न राति न दिवस है, जहाँ न पौन न पानि।
तेहि बन सुअटा चलि बसा, कौन मिलावै आनि॥3॥
सुए तहाँ दिन दस कल काटी । आय बियाधा ढुका लेइ टाटी॥
पैग पैग भुइँ चापत आवा । पंखिन्ह देखि हिए डर खावा॥
देखिय किछु अचरज अनभला । तरिवर एक आवत है चला॥
एहि वन रहत गई हम्म आऊ । तरिवर चलत न देखा काऊ॥
आज तो तरिवर चल, भल नाहीं । आवहु यह वन छाँड़ि पराहीं॥
वै तौ उड़े और वन ताका । पंडित सुआ भूलि मन थाका॥
साखा देखि राजु जनु पावा । बैठ निचिंत चला वह आवा॥
पाँच बान कर खोंचा, लासा भरे सो पाँच।
पाँख भरे तन अरुझा, कित मारे बिनु बाँच॥4॥
बँधिागा सुआ करत सुख केली । चूरि पाँख मेलेसि धारि डेली॥
तहवाँ बहुत पंखि खरभरहीं । आपु आपु मह रोदन करहीं॥
बिखदाना कित होत ऍंगूरा । जेहि भा मरन डहन धारि चूरा॥
जौं न होत चारा कै आसा । कित चिरिहार ढुकत लेइ लासा॥
यह विष चारै सब बुधिा ठगी । औ भा काल हाथ लेइ लगी॥
एहि झूठी माया मन भूला । ज्यों पंखी तैसै तन फूला॥
यह मन कठिन मरै नहिं मारा । काल न देख, देख पै चारा॥
हम तो बुध्दि गँवावा, विष चारा अस खाइ।
तैं सुअटा पंडित होइ, कैसे बाझा आइ॥5॥
सुए कहा हमहूँ अस भूले । टूट हिंडोल गरब जेहि झूले॥
केरा के वन लीन्ह बसेरा । परा साथ तहँ बैरी केरा॥
सुख कुरवारि फरहरी खाना । ओहु विष भा जब ब्याधा तुलाना॥
काहेक भोग बिरिछ अस फरा । आड़ लाइ पंखिन्ह कहँ धारा?॥
सुखी निचिंत जोरि धान करना । यह न चिंत आगे है मरना॥
भूले हमहुँ गरब तेहि माहाँ । सो बिसरा पावा जेहि पाहाँ॥
होइ निचिंत बैठे तेहि आड़ा । तब जाना खोंचा हिए गाड़ा॥
चरत न खुरुक कीन्ह जिउ, तब रे चरा सुख सोइ॥
अब जो फाँद परा गिउ, तब रोए का होइ॥6॥
सुनि के उतर ऑंसु पुनि पोंछे । कौन पंखि बाँधाा बुधिा ओछे॥
पंखिन्ह जौ बुधिा होइ उजारी । पढ़ा सुआ कित धारै मँजारी॥
कित तीतिर वन जीभ उघेला । सो कित हँकरि फाँद गिउ मेला॥
तादिन ब्याधा भए जिउलेवा । उठे पाँख भा नाँव परेवा॥
भै बियाधिा तिसना सँग खाधाू । सूझै भुगुति, न सूझ बियाधाू॥
हमहिं लोभवै मेला चारा । हमहिं गर्बवै चाहै मारा॥
हम निचिंत वह आव छिपाना । कौन बियाधाहिं दोष अपाना॥
सो औगुन कित कीजिए, जिउ दीजै जेहि काज।
अब कहना है किछु नहीं, मस्ट भली पँखिराज॥7॥
(1) बनढाँख=ढाक का जंगल, जंगल। अहा=था।
(2) पाल=बाँधा, भीटा, किनारा। चिहुर=चिकुर, केश। सँकेत=सँकरा, तंग।
(3) हुति=से।
(4) ढुका=छिपकर बैठा। आऊ=आयु। काऊ=कभी। खोंचा=चिड़िया फँसाने का बाँस।
(5) डेली=डली, झाबा। डहन=डैना, पर। चिरिहार=बहेलिया। ढुकत=छिपता। लगी=लग्गी, बाँस की छड़। फूला=हर्ष और गर्व से इतराया। ऍंगूरा=अंकुर।
1. पाठांतर-असुमति, गजपति भूधार कीला।
(6) कुरवारि=खोद खोदकर, चोंच मार मारकर, जैसे-धारनी नख चरनन कुरवारति-सूर। बुलाना=आ पहुँचा। जेहि पाहाँ=जिस (ईश्वर) से। गिउ=ग्रीवा, गला।
(7)खाधाू=खाद्य।लौभवै=लोभहीने।मस्ट=मौन।
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