कविता – राजा-सुआ संवाद खंड – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
राजै कहा सत्य कहु सूआ । बिनु सत जस सेंवर कर भूआ॥
होइ मुख रात सत्य के बाता । जहाँ सत्य तहँ धारम सँघाता॥
बाँधाो सिहिटि अहै सत केरी । लछिमी अहै सत्य कै चेरी॥
सत्य जहाँ साहस सिधिा पावा । औ सतवादी पुरुष कहावा॥
सत कहँ सती सँवारै सरा । आगि लाइ चहुँ दिसि सत जरा॥
दुइ जग तरा सत्य जेइ राखा । और पियार दइहि सत भाखा॥
सो सत छाँड़ि जो धारम बिनासा । भा मतिहीन धारम करि नासा।
तुम्ह सयान औ पंडित, असत न भाखहु काउ।
सत्य कहहु तुम मोसौं, दहुँ काकर अनियाउ॥1॥
सत्य कहत राजा जिउ जाऊ । पै मुख असत न भाखौं काऊ॥
हौं सत लेइ निसरेउँ एहि बूते । सिंघलदीप राजघर हूँते॥
पदमावति राजा कै बारी । पदुम गंधा ससि विधिा औतारी॥
समि मुख, अंग मलयगिरि रानी । कनक सुगंधा दुआदस बानी॥
अहैं जो पदमिनि सिंघल माहाँ । सुगँधा रूप सब तिन्हकै छाहाँ॥
हीरामन हौं तेहिक परेवा । कंठा फूट करत तेहि सेवा॥
औ पाएउँ मानुष कै भाषा । नाहिं त पंखि मूठि भर पाँखा॥
जौ लहि जिऔं रात दिन, सँवरौं ओहि कर नावँ।
मुख राता, तत हरियर, दुहूँ जगत लेइ जावँ॥2॥
हीरामन जो कँवल बखाना । सुनि राजा होइ भँवर भुलाना॥
आगे आव, पंखि उजियारा । कहँ सो दीप पतँग कै मारा॥
अहा जो कनक सुबासित ठाऊँ । कस न होइ हीरामन नाऊँ॥
को राजा, कस दीप उतंगू । जेहि रे सुनत मन भयउ पतंगू॥
सुनि समुद्र भा चख किलकिला । कवँलहि चहौं भँवर होइ मिला॥
कहु सुगंधा कस धानि निरमली । भा अलि संग कि अबहीं कली॥
औ कहु तहँ जहँ पदमिनिलोनी । घर घर सब के होइ जो होनी॥
सबै बखान तहाँ कर, कहत सो मोसौं आव।
चहौं दीप वह देखा, सुनत उठा अस चाव॥3॥
का राजा हौं बरनौं तासू । सिंघलदीप आहि कैलासू॥
जो गा तहाँ भुलाना सोई । गा जुग बीति न बहुरा कोई॥
घर घर पदमिनि छतिसौ जाती । सदा बसंत दिवस औ राती॥
जेहि जेहि बरन फूल फुलवारी । तेहि तेहि बरन सुगंधा सो नारी॥
गंधा्रबसेन तहाँ बड़ राजा । अछरिन्ह महँ इंद्रासन साजा॥
सो पदमावति तेहि कर बारी । जो सब दीप माँह उजियारी॥
चहूँ खंड के वर जो ओनाहीं । गरबहि राजा बोलै नाहीं॥
उअत सूर जस देखिय, चाँद छपै तेहि धाूप।
ऐसै सबै जाहिं छपि, पदमावति के रूप॥4॥
सुनि रवि नावँ रतन भा राता । पंडित फेरि उहै कहु बाता॥
तैं सुरंग मूरति वह कही । चित महँ लागि चित्रा होइ रही॥
जनु होइ सुरुज, आइमन बसी । सब घट पूरि हिये परगसी॥
अब हौं सुरुज, चाँद वह छाया । जल बिनु मीन, रकत बिनुकाया॥
किरिन करा भा प्रेम ऍंकूरू । जौं ससि सरग, मिलौं होइ सूरू॥
सहसौ करा रूप मन भूला । जहँ जहँ दीठ कँवल जनु फूला॥
तहाँ भवँर जिउ कँवला गंधाी । भइ ससि राहु केलि रिनि बंधाी॥
तीनि लोक चौदह ख्रड, सबै परै मोहिं सूझि।
पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु, जो देखा मन बूझि॥5॥
पेम सुनत मन भूल न राजा । कठिन पेम, सिर देइ तौ छाजा1॥
पेम फाँद जो परा न छूटा । जीउ दीन्ह पै फाँद न टूटा॥
गिरगिट छंद धारै दुख तेता । खन खन पीत, रात, खन सेता॥
जान पुछार जो भा वनबासी । रोंव रोंव परे फँद नगवासी॥
पाँखन्ह फिरि फिरि परा सो फाँदू । उड़ि न सकै, अरुझा भा बाँदू॥
‘मुयो, मुयो’ अहनिसि चिल्लाई । ओही रोस नागन्ह धौ खाई॥
पँडुक, सुआ, कंक बह चीन्हा । जेहिं गिउ परा चाहि जिउ दीन्हा॥
तीतिर गिउ जो फाँद है, नित्तिा पुकारै दोख॥
सो कित हँकरि फाँद गिउ, मेलै कित मारे होइ मोख॥6॥
राजै लीन्ह ऊबि कै साँसा । ऐस बोल जिनि बोलु निरासा॥
भलेहि पेम है कठिन दुहेला । दुइ जग तरा पेम जेइ खेला॥
दुख भीतर जो पेम मधाु राखा । जग नहिं मरन सहै जो चाखा॥
जो नहिं सीस पेम पथ लावा । सो प्रिथिमी महँ काहे क आवा॥
अब मैं पंथ पेम सिर मेला । पाँव न ठेलु, राखु कै चेला॥
पेम बार सो कहै जो देखा । जो न देख का जान बिसेखा॥
तौ लगि दुख पीतम नहि भेंटा । मिलै, तौ जाइ जनम दुख मेटा॥
जस अनूप, तू बरनेसि, नखसिख बरनु सिंगार।
है मोहिं आस मिलै कै, जौं मेरवै करता॥7॥
(1) भूआ=सेमल की रूई। मुख रात होइ=सुर्खरू होता है। सरा=चिता।
(2) घर हँते=घर से (प्रा. पंचमी विभक्ति ‘हिंतो’)। दुवादस बानी=बारह बानी, चोखा (द्वादश वर्ण अर्थात् द्वादश आदित्य के समान)। कंठा फूट=गले में कंठे की लकीर प्रकट हुई, सयाना हुआ।
(3) पतंग कै मारा=जिसने पतंग बनाकर मारा। उतंगू=उत्ताुंग, ऊँचा। किलकिला=जल के ऊपर मछली के लिए मँडराने वाला एक जलपक्षी। होनी=बात, व्यवहार।
(4) अछरी=अप्सरा। ओनाहीं=झुकते हैं।
(5) करा=कला। लोन=सुंदर।
. यह पद एशियाटिक सोसाइटी बंगाल से प्रकाशित पदमावती में है।
(6) छंद=रूपरचना। पुछार=मयूर, मोर। नगवासी=नागों का फंदा अर्थात् नागपाश। धौ=धारकर। चीन्हा=चिद्द, लकीर, रेखा।
(7) ऊबि कै साँस लीन्ह=लंबी साँस ली। दुहेला=कठिन खेल। पाँव न ठेलु=पैर से न ठुकरा, तिरस्कार न कर। बिसेखा=मर्म।
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