कविता – जोगी खंड – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )

RamChandraShukla_243172तजा राज, राजा भा जोगी । औ किंगरी कर गहेउ बियोगी॥

तन बिसँभर मन बाउर लटा । अरुझा पेम, परी सिर जटा॥

 

चंद्र बदन औ चंदन देहा । भसम चढ़ाइ कीन्ह तन खेहा॥

 

मेखल, सिंघी, चक्र धाँधाारी । जोगबाट रुदराछ, अधाारी॥

 

कंथा पहिरि दंड कर गहा । सिध्द होइ कहँ गोरख कहा॥

 

मुद्रा स्रवन, कंठ जपमाला । कर उदपान, काँधा बघछाला॥

 

पाँवरि पाँव, दीन्ह सिर छाता । खप्पर लीन्ह भेस करि राता॥

 

चला भुगुति माँगै कहँ, साधिा कथा तप जोग।

 

सिध्द होइ पदमावति, जेहि कर हिये वियोग॥1॥

 

गनक कहहिं गनि गौन न आजू । दिन लेइ चलहु, होइ सिधाकाजू॥

 

पेम पंथ दिन घरी न देखा । तब देखै जब होइ सरेखा॥

 

जेहि तन पेम कहाँ तेहि माँसू । कथा न रकत, नैन नहिं ऑंसू॥

 

पंडित भूल, न जानै चालू । जीउ लेत दिन पूछ न कालू॥

 

सती कि बौरी पूछिहि पाँड़े । औ घर पैठि कि सैंतै भाँड़े॥

 

मरै जो चलै गंग गति लेई । तेहि दिन कहाँ घरी को देई?॥

 

मैं घर बार कहाँ कर पावा । धारी के आपन, अंत परावा॥

 

हौं रे पथिक पखेरू, जेहि वन मोर निवाहु।

 

खेलि चला तेहि वन कहँ, तुम अपने घर जाहु॥2॥

 

चहुँ दिसि आन साँटिया फरी । भै कटकाई राजा केरी॥

 

जावत अहहिं सकल अरकाना । साँभर लेहु, दूरि है जाना॥

 

सिंघलदीप जाइ अब चाहा । मोल न पाउब जहाँ बेसाहा॥

 

सब निबहै तहँ आपनि साँठी । साँठि बिना सो रह मुख माँटी॥

 

राजा चला साजि कै जोगू । साजहु बेगि चलहु सब लोगू॥

 

गरब जो चढ़े तुरय कै पीठी । अब भुइँ चलहु सरग कै डीठी॥

 

मंतर लेहु होहु अंग लागू । गुदर जाइ सब होइहि आगू॥

 

का निचिंत रे मानुस, आपन चीते आछु।

 

लेहि सजग होइ अगमन, मन पछिताब न पाछु॥3॥

 

बिनवै रतनसेन कै माया । माथे छात, पाट निति पाया॥

 

बिलसहु नौ लख लच्छि पियारी । राज छाँड़ि जिनि होहु भिखारी॥

 

निति चंदन लागै जेहि देहा । सो तन देख भरत अब खेहा॥

 

सब दिन रहेउ करत तुम भोगू । सो कैसे साधाव तप जोगू॥

 

कैसे धाूप सहब बिनु छाहाँ । कैसे नींद परिहि भुइ माहाँ?॥

 

कैसे ओढ़ब काथरि कंथा । कैसे पाँव चलब तुम पंथा?॥

 

कैसे सहब खिनहि खिन भूखा । कैसे खाब कुरकुटा रूखा॥

 

राजपाट, दर परिगह, तुम्ह ही सौं उजियार।

 

बैठि भोग रस मानहु, कै न चलहु ऍंधिायार॥4॥

 

मोहि यह लोभ सुनाव न माया । काकर सुख काकर यह काया॥

 

जो निआन तन होइहि छारा । माटिहि पोखि मरै को भारा?॥

 

का भूलौं एहि चंदन चोवा । बैरी जहाँ अंग कर रोवाँ॥

 

हाथ, पाँव, सरवन औ ऑंखी । ए सब उहाँ भरहिं मिलि साखी॥

 

सूत सूत तन बोलहिं दोखू । कहु कैसे होइहि गति मोखू॥

 

जौ भल होत राज औ भोगू । गोपीचँद नहिं साधात जोगू॥

 

उन्ह हिय दीठि जो देख परेवा । तजा राज कजरी बन सेवा॥

 

देखि अंत अस होइहि, गुरू दीन्ह उपदेस।

 

सिंघल दीप जाब इम, माता! देहु अदेस॥5॥

 

रोवहिं नागमती रनिवासू । केइ तुम्ह कंत दीन्ह बनबासू॥

 

अब को हमहिं करिहिं भोगिनी । हमहूँ साथ होव जोगिनी॥

 

की हम्ह लावहु अपने साथा । की अब मारि चलहु एहि हाथा॥

 

तुम्ह अस बिछुरै पीउ पिरीता । जहँवाँ राम तहाँ सँग सीता॥

 

जौ लहि जिउ सँग छाड़ न काया । करिहौं सेव, पखरिहौं पाया॥

 

भलेहि पदमिनी रूप अनूपा । हमतें कोइ न आगरि रूपा॥

 

भँवै भलेहि पुरुखन कै डीठी । जिनहिं जान तिन्ह दीन्ही पीठी॥

 

देहिं असीस सबै मिलि, तुम्ह माथे निति छात।

 

राज करहु चितउरगढ़, राखउ पिय! अहिवात॥6॥

 

तुम्ह तिरिया मति हीन तुम्हारी । मुरुख सो जो मतै घर नारी॥

 

राघव जो सीता सँग लाई । रावन हरी, कवन सिधिा पाई?॥

 

यह संसार सपन कर लेखा । बिछुरि गए जानौं नहिं देखा॥

 

राजा भरथरि सुना जो ज्ञानी । जेहि के घर सोरह सै रानी॥

 

कुच लीन्हे तरवा सहराई । भा जोगी, कोउ संग न लाई॥

 

जोगिहिकाह भोग सौं काजू । चहै न धान घरनी औ राजू॥

 

जूड़ कुरकुटा भीखहि चाहा । जोगी तात भात कर काहा॥

 

कहा न मानै राजा, तजी सबाईं भीर।

 

चला छाँड़ि कै रोवत, फिरि कै देइ न धाीर॥7॥

 

रोवत माय, न बहुरत बारा । रतन चला घर भा ऍंधिायारा॥

 

बार मोर जो राजहि रता । सो लै चला, सुआ परबता॥

 

रोवहिं रानी, तजहिं पराना । नोचहिं बार करहिं खरिहाना॥

 

चूरहिं गिउ अभरन, उर हारा । अब कापर हम करब सिंगारा॥

 

जा कहँ कहहिं रहसि कै पीऊ । सोइ चला, काकर यह जीऊ॥

 

मरै चहहिं, पै मरै न पावहिं । उठै आगि, सब लोग बुझावहिं॥

 

घरी एक सुठि भएउ ऍंदोरा । पुनि पाछे बीता होइ रोरा॥

 

टूटे मन नौ मोती, फूटे मन दस काँच।

 

लीन्ह समेटि सब अभरन, होइगा दुख कर नाच॥8॥

 

निकसा राजा सिंगी पूरी । छाँड़ा नगर मेलि कै धाूरी॥

 

राय रान सब भए बियोगी । सोरह सहस कुँवर भए जोगी॥

 

माया मोह हरा सेइ हाथा । देखिन्ह बूझि निआन न साथा॥

 

छाँड़ेन्हि लोग कुटुँब सब कोऊ । भए निनार सुख दुख तजि दोऊ॥

 

सँवरैं राजा सोइ अकेला । जेहि के पंथ चले होइ चेला॥

 

नगर नगर औ गाँवहिं गाँवाँ । छाँड़ि चले सब ठाँवहिं ठाँवाँ॥

 

काकर मढ़, काकर घर माया । ताकर सब जाकर जिउ काया॥

 

चला कटक जोगिन्ह कर कै गेरुआ सब भेसु।

 

कोस बीस चारिहु दिसि जानौं फूला टेसु॥9॥

 

आगे सगुन सगुनियै ताका । दहिने माछ रूप के टाँका॥

 

भरे कलस तरुनी जल आई । ‘दहिउ लेहु’ ग्वालिनि गोहराई॥

 

मालिनि आव मौर लिए गाँथे । खंजन बैठ नाग के माथे॥

 

दहिने मिरिग आइ बन धााएँ । प्रतीहार बोला खर बाएँ॥

 

बिरिख सँवरिया दहिने बोला । बाएँ दिसा चाषु चरि डोला॥

 

बाएँ अकासी धाौरी आई । लोवा दरस आइ दिखराई॥

 

बाएँ कुररी, दहिने कूचा । पहुँचे भुगुति जैस मन रूचा॥

 

जा कहँ सगुन होहिं असु, औ गवनै जेहि आस।

 

अस्ट महासिधिा तेहि कहँ, जस कवि कहा बियास॥10॥

 

भएउ पयान चला पुनि राजा । सिंगि नाद जोगिन कर बाजा॥

 

कहेन्हि आजु किछु थोर पयाना । काल्हि पयान दूरि है जाना॥

 

ओहि मिलान जौ पहुँचै कोई । तब हम कहब पुरुष भल सोई॥

 

है आगे परबत कै बाटा । बिषम पहार अगम सुठि घाटा॥

 

बिच बिच नदी खोह औ नारा । ठावहिं ठाँव बैठ बटपारा॥

 

हनुवँत केर सुनुब पुनि हाँका । दहुँ को पार होइ को थाका॥

 

अस मन जानि सँभारहु आगू । अगुआ केर होहु पछलागू॥

 

करहिं पयान भोर उठि, पंथ कोस दस जाहिं।

 

पंथी पंथा जे चलहिं, ते का रहहिं ओठाहिं॥11॥

 

करहु दीठि थिर होइ बटाऊ । आगे देखि धारहु भुइँ पाऊ॥

 

जो रे उवट होइ परे भुलाने । गए मारि, पथ चलै न जाने॥

 

पाँयन पहिरि लेहु सब पौरी । काँट धासैं, न गड़ै ऍंकरौरी॥

 

परे आइ बन परबत माहाँ । दंडाकरन बीझ बन जाहाँ॥

 

सघन ढाँख बन चहुँदिसि फूला । बहु दुख पाव उहाँ कर भूला॥

 

झाँखर जहाँ सो छाँड़हु पंथा । हिलगि मकोइ न फारहु कंथा॥

 

दहिने बिदर, चँदेरी बाएँ । दहुँ कहँ होइ बाट दुइ ठाएँ॥

 

एक बाट गइ सिंघल, दूसरि लंक समीप।

 

हैं आगे पथ दूओ, दहुँ गौनब केहि दीप॥12॥

 

ततखन बोला सुआ सरेखा । अगुआ सोइ पंथ जेहि देखा॥

 

सो का उड़ै न जेहि तन पाँखू । लेइ सो परासहि बूड़त साखू॥

 

जस अंधाा अंधौ कर संगी । पंथ न पाव होइ सहलंगी॥

 

सुनु मत, काजचहसि जौंसाजा । बीजानगर बिजयगिरि राजा॥

 

पहुँचौ जहाँ गोंड औ कोला । तजि बाएँ ऍंधिायार खटोला॥

 

दक्खिन दहिने रहहि तिलंगा । उत्तार बाएँ गढ़ काटंगा॥

 

माँझ रतनपुर सिंघदुवारा । झारखंड देइ बाँव पहारा॥

 

आगे पाव उड़ैसा, बाएँ दिए सो बाट।

 

दहिनावरत देइ कै, उतरु समुद कै घाट॥13॥

 

होत पयान जाइ दिन केरा । मिरिगारन महँ भएउ बसेरा॥

 

कुस साँथरि भइ सौंर सुपेती । करवट आइ बनी भुइँ सेंती॥

 

चलि दस कोस ओस तन भीजा । काया मिलि तेहिं भसम मलीजा॥

 

ठाँव ठाँव सब सोअहिं चेला । राजा जागै आपु अकेला॥

 

जेहि के हिये पेम-रँग जामा । का तेहि भूख नींद बिसरामा॥

 

बन ऍंधिायार रैनि ऍंधिायारी । भादों बिरह भएउ अति भारी॥

 

किंगरी हाथ गहे बैरागी । पाँच तंतु धाुन ओही लागी॥

 

नैन लाग तेहि मारग, पदमावति जेहि दीप।

 

जैस सेवातिहि सेवै, बन चातक, जल सीप॥14॥

 

(1) किंगरी=छोटी सारंगी या चिकारा। लटा=शिथिल, क्षीण। मेखल=मेखला। सिंघी=सींग का बाजा जो फूँकने से बजता है। धाँधाारी=एक में गुछी हुई लोहे की पतली कड़ियाँ जिनमें उलझे हुए डोरे या कौड़ी को गोरखपंथी साधाु अद्भुत रीति से निकाला करते हैं, गोरखधांधाा। अधाारी=झोला जो दोहरा होता है। मुद्रा=स्फटिक का कुंडल जिसे गोरखपंथी कान में बहुत बड़ा छेद करके पहनते हैं। उदपान=कमंडलु। पाँवरि=खड़ाऊँ। राता=गेरुआ।

 

(2) तब देखै=तब तो देखे, तब न देख सकता है। सरेखा=चतुर, होशवाला। सैंतै=सँभालती या सहेजती है।

 

(3) आन=आज्ञा, घोषणा (प्रा. आण्ण)। साँटिया=डौड़ीवाला। कटकाई=दलबल के साथ चलने की तैयारी। अरकाना=अरकान दौलत सरदार। साँभर=संबल, कलेऊ। साँठि=पूँजी। तुरय=तुरग। गुदर होइहि=पेश होइए, हाजिर होइए। आपनि चीते आछु=अपने चेत या होश में रह। अगमन=आगे, पहले से।

 

(4) माया=माता। लच्छि=लक्ष्मी। कंथा=गुदड़ी। कुरकुटा=मोटा कुटा अन्न। दर=दल या राजद्वार। परिगह=परिग्रह, परिजन, परिवार के लोग।

 

(5) निआन=निदान, अंत में। पोखि=पोषण करके। साखी भरहिं=साक्ष्य या गवाही देते हैं। देख परेवा=पक्षी की सी अपनी दशा देखी। कजरी बन=कदलीवन।

 

(6) भँवै=इधार-उधार घूमती है। जिनहि…पीठी=जिनसे जान पहचान हो जाती है उन्हें छोड़ नए के लिए दौड़ा करती है।

 

(7) मतै=सलाह ले। तात भात=गरम ताजा भात।

 

(8) बारा=बालक, बेटा। खरिहान करहिं=ढेर लगाती हैं। ऍंदोरा=हलचल, कोलाहल (सं. आंदोलन)

 

(9) पूरी=बजाकर। मेलि कै=लगाकर। निनार=न्यारे, अलग। मढ़=मठ।

 

(10) सगुनिया=शकुन जानने वाला। माछ=मछली। रूप=रूपा, चाँदी। टाँका-बरतन। मौर=फूलों का मुकुट जो विवाह में दूल्हे को पहनाया जाता है (सं. मुकुट, प्रा. मउड़)। गाँथे=गूथे हुए। बिरिख=वृष, बैल। सँवरिया=साँवला, काला। चाषु=चाष, नीलकंठ। अकासी धाौरी=क्षेमकरी चील जिसका सिर सफेद और सब अंग लाल या खैरा होता है। लोवा=लोमड़ी। कुररी=टिटिहरी। कूचा=क्रौंच, कराकुल, कूज।

 

(11) मिलान=टिकान, पड़ाव। ओठाहिं=उस जगह।

 

(12) बटाऊ=पथिक। उबट=ऊबड़ खाबड़, कठिन मार्ग। दंडाकरन=दंडकारण्य। बीझबन=सघन वन। झाँखर= कँटीली झाड़ियाँ। हिलगि=सटकर।

 

(13) सरेख=सयाना, श्रेष्ठ, चतुर। लेइ सो…साखू=शाखा डूबते समय पत्तो को ही पकड़ता है। परास=पलास, पत्ताा। सहलंगी=सँगलगा साथी। बीजानगर=विजयानगरम्। गोंड़ और कोल=जंगली जातियाँ। ऍंधिायार=ऍंजारी जो बीजापुर का एक महल था। खटोला=गढ़मंडला का पश्चिम भाग। गढ़ काटंगा=गढ़ कटंग, जबलपुर के आस-पास का प्रदेश। रतनपुर बिलासपुर के जिले में आजकल है। सिंघदुआरा=छिंदवाड़ा। झारखंड=छत्ताीसगढ़ और गोंडवाने का उत्तार भाग।

 

(14) सौंर=चादर। सेंती=से।

 

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