कविता – मंडपगमन खंड, पदमावती-वियोग-खंड, सुआ-भेंट-खंड, बसंत खंड – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
राजा बाउर बिरह बियोगी । चेला सहस तीस सँग जोगी॥
पदमावति के दरसन आसा । दँडवत कीन्ह मँडप चहुँ पासा॥
पुरुष बार होइ कै सिर नावा । नावत सीस देव पहँ आवा॥
नमो नमो नारायन देवा । का मैं जोग करौं तोरि सेवा॥
तूँ दयाल सबके उपराहीं । सेवा केरि आस तोहि नाहीं॥
ना मोहि गुन, न जीभ रस बाता । तूँ दयाल, गुन निरगुन दाता॥
पुरवहु मोरि दरस कै आसा । हौं मारग जोवौं धारि साँसा॥
तेहि विधिा विनै न जानौं, जेहि विधिा अस्तुति तोरि।
करहु सुदिस्टि मोहिं पर, हींछा पूजै मोरि॥1॥
कै अस्तुति जब बहुत मनावा । सबद अकूत मँडप महँ आवा॥
मानुष पेम भयउ बैकुंठी । नाहिं त काह, छार भरि मूठी॥
पेमहिं माँह बिरह रस रसा । मैन के घर मधाु अमृत बसा॥
निसत धााइ जौं मरै त काहा । सत जौं करै बैठि तेहि लाहा॥
एक बार जौं मन देइ सेवा । सेवहि फल प्रसन्न होइ सेवा॥
सुनि कै सबद मँडप झनकारा । बैठा आइ पुरुष के बारा॥
पिंड चढ़ाइ छार जति ऑंटी । माटी भयउ अंत जो माटी॥
माटी मोल न किछु लहै, औ माटी सब मोल।
दिस्टि जौं माटी सौं करे, माटी होइ अमोल॥2॥
बैठ सिंघछाला होइ तपा । ‘पदमावति पदमावति’ जपा॥
दीठि समाधिा ओही सौं लागी । जेहि दरसन कारन बैरागी॥
किंगरी गहे बजावै झूरै । भोर साँझ सिंगी निति पूरै॥
कंथा जरै, आगि जनु लाई । विरह धाँधाार जरत न बुझाई॥
नैन रात निसि मारग जागे । चढ़े चकोर जानि ससि लागे॥
कुंडल गहे सीस भुइँ लावा । पाँवरि होउँ जहाँ ओहि पावा॥
जटा छोरि कै बार बहारौं । जेहि पथ आव सीस तहँ वारौं॥
चारिहु चक्र फिरौं मैं, डँड न रहौं थिर मार।
होइ कै भसम पौन संग, (धाावौं) जहाँ परान अधाार॥3॥
(1) निरगुन=बिना गुणवाले का।
(2) अकूत=आपसे आप, अकस्मात्। मैन=मोम। लाह=लाभ। पिंड=शरीर। जेति=जितनी। ऑंटी=ऍंटी, हाथ में समाई। माटी सौ दिस्टि करै=सब कुछ मिट्टी समझे या शरीर मिट्टी में मिलाए। माटी=शरीर।
(3) तपा=तपस्वी। झूरै=व्यर्थ। धाँधाार=लपट। रात=लाल। पाँवरि=जूती। पावा=पैर। बहारौं=झाड़ू लगाऊँ। थिर मार=स्थिर होकर।
पदमावति तेहि जोग सँजोगा । परी पेम बस गहे वियोगा॥
नींद न परै रैनि जौं आवा । सेज केंवाच जानु कोइ लावा॥
दहै चंद औ चंदन चीरू । दगधा करै तन विरह गँभीरू॥
कलप समान रैनि तेहि बाढ़ी । तिल तिल भर जुग जुग जिमिगाढ़ी॥
गहै बीन मकु रैनि बिहाई । ससि बाहन तहँ रहै ओनाई॥
पुनि धानि सिंह उरेहै लागै । ऐसिहि बिथा रैनि सब जागै॥
कहँ वह भौंर कवँल रस लेवा । आइ परै होइ घिरिनि परेवा॥
से धानि विरह पतँग भइ, जरा चहै तेहि दीप।
कंत न आव भिरिंग होइ, का चंदन तन लीप?॥1॥
परी विरह वन जानहुँ घेरी । अगम असूझ जहाँ लगि हेरी॥
चतुर दिसा चितवै जनु भूली । सो वन कहँ जहँ मालति फूली॥
कँवल भौंर ओही वन पावै । को मिलाइ तन तपनि बुझावै?॥
अंग अंग अस कँवल सरीरा । हिय भा पियर कहै पर पीरा॥
चहै दरस, रवि कीन्ह बिगासू । भौंर दीठि मनो लागि अकासू॥
पूँछै धााय बारि! कहु बाता । तुइँ जस कँवल फूल रँग राता॥
केसर बरन हिया भा तोरा । मानहुँ मनहिं भयउ किछु भोरा॥
पौन न पावै सँचरै, भौंर न तहाँ बईठ।
भूलि कुरंगिनि कस भई, जानु सिंधा तुइँ डीठ॥2॥
धााय! सिंघ बरु खातेउ मारी । की तसि रहति अही जसिबारी॥
जोबन सुनेउँ की नवल बसंतू । तेहि वन परेउ हस्ति मैमंतू॥
अब जोबन बारी को राखा । कुंजर बिरह बिधांसै साखा॥
मैं जानेउँ जोबन रस भोगू । जोबन कठिन सँताप बियोगू॥
जोबन गरुअ अपेल पहारू । सहि न जाइ जोबन कर भारू॥
जोबन अस मैमंत न कोई । नवैं हस्ति जौं ऑंकुस होई॥
जोबन भर भादौं जस गंगा । लहरैं देइ, समाइ न अंगा॥
परिउ अथाह, धााय! हौं, जोबन उदधिा गँभीर।
तेहि चितवौं चारिहु दिसि, जो गहि लावै तीर॥3॥
पदमावति! तुइँ समुद सयानी । तोहि सर समुद न पूजै रानी॥
नदी समाहिं समुद महँ जाई । समुद डोलि कहु कहाँ समाई॥
अबहीं कवँल करी हिय तोरा । आइहि भौंर जो तो कहँ जोरा॥
जोबन तुरी हाथ गहि लीजिय । जहाँ जाइ तहँ जाइ न दीजिय॥
जोबन जोर मात गज अहै । गहहु ज्ञान ऑंकुस जिमि रहै॥
अबहिं बारि तुइँ पेम न खेला । का जानसि कस होइ दुहेला॥
गगन दीठि करु नाइ तराहीं । सुरुज देखु कर आवै नाहीं॥
जब लगि पीउ मिलै नहिं, साधाु पेम कै पीर।
जैसे सीप सेवाति कहँ, तपै समुद मँझ नीर॥4॥
दहै धााय! जोबन एहि जीऊ । जानहुँ परा अगिनि महँ घीऊ॥
करवत सहौं होत दुइ आधाा । सहि न जाइ जोबन कै दाधाा॥
बिरह समुद्र भरा असँभारा । भौंर मेलि जिउ लहरिन्ह मारा॥
बिरह नाग होइ सिर चढ़ि डसा । होइ अगिनि चंदन महँ बसा॥
जोबन पँखी बिरह बियाधाू । केहरि भयउ कुरंगिनि खाधाू॥
कनक पानि कित जोबन कीन्हा । औटन कठिन बिरह ओहिदीन्हा॥
जोबन जलहि बिरह मसि छूआ । फूलहिं, भौंर, फरहिं भा सूआ॥
जोबन चाँद उआ जस, बिरह भयउ सँग राहु।
घटतहि घटत छीन भइ, कहै न पारौं काहु॥5॥
नैन ज्यों चक्र फिरै चहुँ ओरा । बरजै धााय, समाहिं न कोरा॥
कहेसि पेम जौं उपना, बारी । बाँधाु सत्ता, मन डोल न भारी॥
जेहि जिउ महँ होइ सत्ता पहारू । परै पहार न बाँकै बारू॥
सती जो जरै पेम सत लागी । जौं सत हिये तौ सीतल आगी॥
जोबन चाँद जो चौदस करा । बिरह के चिनगी सो पुनि जरा॥
पौन बाँधा सो जोगी जती । काम बाँधा सो कामिनि सती॥
आव बसंत फूल फुलवारी । देवबार सब जैहैं बारी॥
तुम्ह पुनि जाहु बसंत लेइ, पूजि मनावहु देव।
जीउ पाइ जग जनम है, पीउ पाइ कै सेव॥6॥
जब लगि अवधिा आइ नियराई । दिन जुग जुग बिरहिनि कहँजाई॥
भूख नींद निसि दिन गै दोऊ । हियै मारि जस कलपै कोऊ॥
रोवँ रोवँ जनु लागहि चाँटे । सूत सूत बेधाहिं जनु काँटे॥
दगधिा कराह जरै जस घीऊ । बेगि न आव मलयगिरि पीऊ॥
कौन देव कहँ जाइ कै परसौं । जेहि सुमेरु हिय लाइय कर सौं॥
गुपुति जो फूलि साँस परगटै । अब होइ सुमर दहहि हम्ह घटै॥
भा सँजोग जो रे भा जरना । भोगहि भए भोगि का करना॥
जीवन चंचल, ढीठ है, करै निकाजै काज।
धानि कुलवंति जो कुल धारै, कैं जोबन मन लाज॥7॥
(1) तेहि जोग सँजोगा=राजा के उस योग के संयोग या प्रभाव से। केंबाच=कपिकच्छु जिसके छू जाने से बदन में खुजली होती है। गहै बीन….ओनाई=बीन लेकर बैठती है कि कदाचित् इसी से रात बीते, पर उस बीन के सुर पर मोहित होकर चंद्रमा का वाहन मृग ठहर जाता है जिससे रात और बड़ी हो जाती है। सिंघ उरेहै लागै=सिंह का चित्रा बनाने लगती है जिससे चंद्रमा का मृग डरकर भागे। घिरिनि परेवा=गिरहबाज कबूतर। धानि=धान्या, स्त्राी। कंत न आव भिरिंग होइ=पति रूप भृंग आकर जब मुझे अपने रंग में मिला लेगा तभी जलने से बच सकती हूँ। लीप=लेप करती हो।
(2) हिय भा पियर=कमल के भीतर का छत्ताा पीले रंग का होता है। पर पीरा=दूसरे का दु:ख या वियोग। भौंर दीठि मनो लागि अकासू=कमल पर जैसे भौंरे होते हैं वैसे ही कमल सी पदमावती की काली पुतलियाँ उस सूर्य का विकास देखने को आकाश की ओर लगी हैं। भोरा=भ्रम।
(3) मैमंत=मदमत्ता। अपेल=न ठेलने योग्य।
(4) समुद=समुद्र सी गंभीर। तुरी=घोड़ी। मात=माता हुआ, मतवाला। दुहेला=कठिन खेल। गगन दीठि…तराहीं=पहले कह आए हैं कि ‘भौंर दीठि मनो लागि अकासू’।
(5) दाधाा=दाह, जलन। होइ अगिनि चंदन महँ बसा=वियोगियों को चंदन से भी ताप होना प्रसिध्द है। केहरि भयउ…खाधाू=जैसे हिरनी के लिए सिंह, वैसे ही यौवन के लिए विरह हुआ। औटन=पानी का गरम करके खौलाया जाना। मसि=कालिमा। फूलहिं भौंर…सूआ=जैसे फूल को बिगाड़ने वाला भौंरा और फल को नष्ट करने वाला तोता हुआ, वैसे ही यौवन को नष्ट करने वाला विरह हुआ।
(6) कोरा=कोर, कोना। पहारू=पाहरू, रक्षक।
(7) परसौं=स्पर्श करूँ, पूजन करूँ। जेहि….कर सौं= जिससे उस सुमेरु को हाथ से हृदय में लगाऊँ। होइ सुभर=अधिाक भरकर, उमड़कर। घटै=हमारे शरीर को। निकाजै=निकम्मा ही। जोबन=यौवनावस्था में।
तेहि बियोग हीरामन आवा । पदमावति जानहुँ जिउ पावा॥
कंठ लाइ सूआ सौं रोई । अधिाक मोह जौं मिलैं बिछोई॥
आगि उठे दुख हिये गँभीरू । नैनहिं आइ चुवा होइ नीरू॥
रही रोइ जब पदमिनि रानी । हँसि पूछहिं सब सखी सयानी॥
मिले रहस भा चाहिय दूना । कित रोइय जौं मिलै बिछूना?॥
तेहि क उतर पदमावति कहा । बिछुरन दु:ख जो हिए भरि रहा॥
मिलत हिये आयउ सुख भरा । वह दु:ख नैन नीर होइ ढरा॥
बिछुरंता जब भेंटै, सो जानै जेहि नेह।
सुक्ख सुहेला उग्गवै, दु:ख झरै जिमि मेह॥1॥
पुनि रानी हँसि कूसल पूछा । कित गवनेहु पींजर कै छूँछा॥
रानी! तुम्ह जुग जुग सुख पाटू । छाज न पंखिहि पींजर ठाटू॥
जब भा पंख कहाँ थिर रहना । चाहै उड़ा पंखि जौं डहना॥
पींजर महँ जो परेवा घेरा । आइ मजारि कीन्ह तहँ फेरा॥
दिन एक आइ हाथ पै मेला । तेहि उर बनोबास कहँ खेला॥
तहाँ बियाधा आइ नर साधाा । छूटि न पाव मीचु कर बाँधाा॥
वै धारि बेचा बाम्हन हाथा । जँबूदीप गयउँ तेहि साथा॥
तहाँ चित्रा चितउरगढ़, चित्रासेन कर राज।
टीका दीन्ह पुत्रा कहँ, आपु लीन्ह सर साज॥2॥
बैठ जो राज पिता के ठाऊँ । राजा रतनसेन ओहि नाऊँ॥
बरनौं काह देस मनियारा । जहँ अस नग उपना उजियारा॥
धानि माता औ पिता बखाना । जेहि के बंस अंस अस आना॥
लछन बतीसौ कुल निरमला । बरनि न जाइ रूप औ कला॥
वै हौं लीन्ह, अहा अस भागू । चाहै सोने मिला सोहागू॥
वै सो नग देखि हींछा भइ मोरी । है यह रतन पदारथ जोरी॥
है ससि जोग इहै पै भानू । तहाँ तुम्हार मैं कीन्ह बखानू॥
कहाँ रतन रतनागर, कंचन कहाँ सुमेरु।
दैव जो जोरी दुहुँ लिखी, मिलै सो कौनहु फेरु॥3॥
सुनत बिरह चिनगी ओहि परी । रतन पाव जौं कंचन करी॥
कठिन पेम बिरहा दुख भारी । राज छाँड़ि भा जोगि भिखारी॥
मालति लागि भौंर जस होई । होइ बाउर निसरा बुधिा खोई॥
कहेसि पतंग होइ धानि लेऊँ । सिंघलदीप जाइ जिउ देऊँ॥
पुनि ओहि कोउ न छाँड़ अकेला । सोरह सहस कुँवर भए चेला॥
और गनै को संग सहाई? । महादेव मढ़ मेला जाई॥
सूरुज पुरुष दरस के ताईं । चितवै चंद चकोर कै नाईं॥
तुम्ह बारी रस जोग जेहि, कँवलहि जस अरघानि।
तस सूरज परगास कै, भौंर मिलाएउँ आनि॥4॥
हीरामन जो कही यह बाता । सुनिकै रतन पदारथ राता॥
जस सूरुज देखे होइ ओपा । तस भा बिरह कामदल कोपा॥
सुनि कै जोगा केर बखानू । पदमावति मन भा अभिमानू॥
कंचन करा न काँचहि लोभा । जौं नग होइ पाव तब सोभा॥
कंचन जौं कसिए कै ताता । तब जानिय दहुँ पीत कि राता॥
नग कर मरम सो जड़िया जाना । उड़ै जो अस नग देखि बखाना॥
को अब हाथ सिंघ मुख घालै । को यह बात पिता सौं चालै॥
सरग इँद्र डरि काँपै, बासुकि डरै पतार।
कहाँ सो अस बर प्रिथिमी, मोहि जोग संसार॥5॥
तू रानी ससि कंचन करा । वह नग रतन सूर निरमरा॥
बिरह बजागि बीच का कोई । आगि जो छुवै जाइ जरि सोई।
आगि बुझाइ परे जल गाढ़ै । वह न बुझाइ आपु ही बाढ़ै॥
बिरह के आगि सूर जरि काँपा । रातिहि दिवस जरै ओहि तापा॥
खिनहिं सरग, खिन जाइ पतारा । थिर न रहै एहि आगि अपारा॥
धानि सो जोउ दगधा इमि सहै । अकसर जरै, न दूसर कहै॥
सुलगि सुलगि भीतर होइ सावाँ । परगट होइ न कहै दुख नावाँ॥
काह कहौं हौं ओहि सौं, जेइ दुख कीन्ह निमेट।
तेहि दिन आगि करै बह, (बाहर) जेहि दिन होइ सो भेंट॥6॥
सुनि कै धानि ‘जारी अस कया’ । मन भा मयन, हिये भै मया॥
देखौं जाइ जरै कस भानू । कंचन जरै अधिाक होइ बानू॥
अब जो मरै व पेम बियोगी । हत्या मोहि, जेहि कारन जोगी॥
सुनि कै रतन पदारथ राता । हीरामन सौं कह यह बाता॥
जौ वह जोग सँभारै छाला । पाइहि भुगुति, देहुँ जयमाला॥
आय बसंत कुसल जौं पावौं । पूजा मिस मंडप कहँ आवौं॥
गुरु के बैन फूल हौं गाँथे । देखौं नैन, चढ़ावौं माथे॥
कँवल भवर तुम्ह बरना, मैं माना पुनि सोइ॥
चाँद सूर कहँ चाहिए, जौं रे सूर वह होइ॥7॥
हीरामन जो सुना रस बाता । पावा पान भयउ मुख राता॥
चला सुआ, रानी तब कहा । भा जो परावा कैसे रहा॥
जो निति चलै सँवारै पाँखा । आजु जो रहा, काल्हि को राखा॥
न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ । आएहु मिलै, चलेहु मिलि, सूआ॥
मिलि कै बिछुरि मरन कै आना । किस आएहु जौं चलेहु निदाना॥
सुनु रानी हौं रहतेऊँ राँधाा । कैसे रहौं वचन कर बाँधाा॥
ताकर दिस्टि ऐसि तुम्ह सेवा । जैसे कुंज मन रहै परेवा॥
बसै मीन जल धारती, अंबा बसै अकास।
जौ पिरीत पै दुवौ महँ, अंत होहिं एक पास॥8॥
आवा सुआ बैठ जहँ जोगी । मारग नैन, बियोग बियोगी॥
आइ पेम रस कहा सँदेसा । गोरख मिला, मिला उपदेसा॥
तुम्ह कहँ गुरु मया बहु कीन्हा । कीन्ह अदेस, आदि कहि दीन्हा॥
सबद, एक उन्ह कहा अकेला । गुरु जस भिंग फनिंग जस चेला॥
भिंगी ओहि पाँखि पै लेई । एकहि बार छीनि जिउ देई॥
ताकहँ गुरू करै असि माया । नव औतार देइ, नव काया॥
होइ अमर जो मरि के जीया । भौंर कवँल मिल कै मधाु पीया॥
आवै ऋतु बसंत जब, तब मधाुकर तब बासु।
जोगी जोग जो इमि करैं, सिध्दि समापत तासु॥9॥
(1) बिछोई=बिछुड़ा हुआ। रहस=आनद। विछूना=बिछुड़ा हुआ। सुहेला=सुहेल या अगस्त तारा। झरै=छँट जाता है, दूर हो जाता है। मेह=मेघ, बादल।
(2) छाज न=नहीं अच्छा लगता। पींजर ठाटू=पिंजरे का ढाँचा। दिन एक…मेला= किसी दिन अवश्य हाथ डालेगी। नर=नरसल जिसमेंलासा लगाकर बहेलिए चिड़िया फँसाते हैं। चित्रा=विचित्रा। सर साज लीन्ह=चिता पर चढ़ा, मर गया।
(3) मनियारा=रौनक, सुहावना। अंस=अवतार। रतनागर=रत्नाकर, समुद्र।
(4) चिनगी=चिनगारी। कंचन करी=स्वर्णकलिका। लागि=लिये, निमित्ता। मेला=पहुँचा। दरस के ताईं=दर्शन के लिए। (5) राता=अनुरक्त हुआ। ओपदमक। ताता=गरम। पोत कि राता=पीला कि लाल, पीला सोना मधयम और लाल चोखा माना जाता है।
(6) करा=कला, किरन। बजागि=बज्राग्नि। अकसर=अकेला। सावाँ=श्याम, साँवला। काह कहौं हौं‑‑‑निमेट सुआ रानी से पूछता है कि मैं उस राजा के पास जाकर क्या संदेसा (उत्तार) कहूँ जिसने इतना न मिटने वाला दु:ख उठाया है। (7) बानू=वर्ण, रंगत। छाला=मृगचर्म पर। फूल हौं गाथे=तुम्हारे (गुरु से) कहने से उसके लिए प्रेम की माला मैंने गूँथ ली।
(8) पावा पान= विदा होने का बीड़ा पाया। चलै=चलने के लिए। राँधाा=पास, समीप। ताकरि=रतनसेन की। तुम्ह सेवा=तुम्हारी सेवा में। अंबा=आम का फल। बसै मीन…पास=जब मछली पकाई जाती है तब आम की खटाई पड़ जाती है; इस प्रकार आम और मछली का संयोग हो जाता है। जिस प्रकार आम और मछली दोनों का प्रेम एक जल के साथ होने से दोनों में संबंधा होता है उसी प्रकार मेरा और रतनसेन दोनों का प्रेम तुम पर है इससे जब दोनों विवाह के द्वारा एक साथ हो जाएँगे तब मैं भी वहीं रहूँगा। मारग=मार्ग में (लगे हुए)। आदि=प्रेम का मूल मंत्रा। (9) फनिंग=फनगा, फतिंगा। समापत=पूर्ण।
दैउ दैउ कै सो ऋतु गँवाई । सिरी पंचमी पहुँची आई॥
भएउ हुलास नवल ऋतु माहाँ । खिन न सोहाइ धाूप औ छाँहा॥
पदमावति सब सखी हँकारी । जावत सिंहलदीप कै बारी॥
आजु बसंत नवल ऋतु राजा । पंचमि होइ जगत जब साजा॥
नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा । सीस परासहि सेंदुर दीन्हा॥
बिगसि फूल फूले बहु बासा । भौंर आइ लुबुधो चहुँ पासा॥
पियर पात दुख झरे निपाते । सुख पल्लव उपने होइ राते॥
अवधिा आइ सो पूजी, जौं हींछा मन कीन्ह।
चलहु देवगढ़ गोहने, चहहु सो पूजा दीन्ह॥1॥
फिरी आन ऋतु बाजन बाजे । औ सिंगार बारिन्ह सब साजे॥
कवँल कली पदमावती रानी । होइ मालति जानौं बिगसानी॥
तारामँडल पहिरि भल चोला । भरे सीस सब नखत अमोला॥
सखी कुमोद सहस दस संगा । सबै सुगंधा चढ़ाए अंगा॥
सब राजा रायन्ह कै…बारी । बरन बरन पहिरे सब सारी॥
सबै सुरूप, पदमिनी जाती । पान, फूल, सेंदुर सब राती॥
करहिं किलोल सुरंग रँगीली । औ चोवा चंदन सब गीली॥
चहुँ दिसि रही सो बासना, फुलवारी अस फूलि।
वै बसंत सौं भूलीं, गा बसंत उन्ह भूलि॥2॥
भै आहा पदमावति चली । छत्तिास कुरि भइँ गोहन भली॥
भइँ गोरी सँग पहिरि पटोरा । बाम्हनि ठाँव सहस ऍंग मोरा॥
अगरवारि गज गान करेई । बैसिनि पाँव हंसगति देई॥
चंदेलिनि ठमकहिं पगु भारा । चली चौहानि, होइ झनकारा॥
चली सोनारि सोहाग सोहाती । औ कलवारि पेम मधाु माती॥
बानिनि चली सेंदुर दिए माँगा । कयथिनि चलीं समाइ न ऑंगा॥
पटइनि पहिरि सुरँग तन चोला । औ बरइनि मुख खात तमोला॥
चलीं पउनि सब गोहने, फूल डार लेइ हाथ।
बिस्वनाथ कै पूजा, पदमावति के साथ॥3॥
कवँल सहाय चलीं फुलवारी । फर फूलन सब करहिं धामारी॥
आपु आपु महँ करहिं जोहारू । यह बसंत सब कर तिबहारू॥
चहै मनोरा झूमक होई । फर औ फूल लिएउ सब कोई॥
फागु खेलि पुनि दाहद होरी । सैंतब खेह उड़ाउब झोरी॥
आजु साज पुनि दिवस न पूजा । खेलि बसंत लेहू कै पूजा॥
भा आयसु पदमावति केरा । बहुरि न आइ करब हम फेरा॥
तस हम कहँ होइहि रखवारी । पुनि हम कहाँ, कहाँ यह बारी॥
पुनि रे चलब घर आपने, पूजि बिसेसर देव।
जेहि काहुहि होइ खेलना, आजु खैलि हँसि लेव॥4॥
काहू गही ऑंब कै डारा । काहू जाँबु बिरह अति झारा॥
कोइ नारँग कोइ झाड़ चिरौंजी । कोइ कटहर, बड़हर, कोइ न्यौजी॥
कोइ दारिउँ कोई दाख औ खीरी । कोइ सदाफर, तुरंज जँभीरी॥
कोइ जाइफर, लौंग, सुपारी । कोइ नरियर, कोइ गुवा, छोहारी॥
कोइ बिजौंर, करौंदा जूरी । कोइ अमिली, कोइ महुअ, खजूरी॥
काहू हरफारेवरि कसौंदा । कोइ ऍंवरा, कोइ राय करौंदा॥
काहु गही केरा कै घौरी । काहू हाथ परी निंबकौरी॥
काहू पाई नीयरे, कोउ गए किछु दूरि।
काहू खेल भएउ विष, काहू अमृत मूरि॥5॥
पुनि बीनहिं सब फूल सहेली । खोजहिं आस-पास सब बेली॥
कोइ केवड़ा, कोइ चंप नेवारी । कोइ केतकि मालति फुलवारी॥
कोइ सदबरग, कुंद, कोइ करना । कोइ चमेलि, नागसेर बरना॥
कोइ मौलसिरि, पुहुप बकौरी । कोई रूपमंजरी गौरी॥
कोइ सिंगारहार तेहि पाँहा । कोइ सेवती, कदम के छाँहा॥
कोई चंदन फूलहिं जनु फूली । कोइ अजान-बीरो तर भूली॥
(कोइ) फूल पाव, कोइ पाती, जेहि के हाथ जो ऑंट।
(कोइ) हार चीर अरुझाना, जहाँ छुवै तहँ काँट॥6॥
फर फूलन्ह सब डार ओढ़ाई । झूँड बाँधिा के पंचम गाई॥
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी । मादर, तूर, झाँझ चहु फेरी॥
सिंगि संख, डफ बाजन बाजे । बंसी महुअर सुर सँग साजे॥
और कहिय जो बाअन भले । भाँति भाँति सब बाजत चले॥
रथहिं चढ़ी सब रूप सोहाई । लेइ बसंत मठ मँडप सिधााई॥
नवल बसंत नवल सब बारी । सेंदुर बुक्का होइ धामारी॥
खिनहिं चलहिं खिन चाँचरि होई । नाच कूद भूला सब कोई॥
सेंदुर खेह उड़ा अस, गगन भएउ सब रात।
राती सगरिउ धारती, राते बिरिछन्ह पात॥7॥
एहि बिधिा खेलति सिंघलरानी । महादेव मढ़ जाइ तुलानी॥
सकल देवता देखै लागे । दिस्टि पाप सब ततछन भागे॥
एइ कविलास इंद्र कै अछरी । को कहुँ तें आईं परमेसरी॥
कोई कहै पदमावति आई । कोइ कहै ससि नखत तराई॥
कोइ कहै फूली फुलवारी । फूल ऐसि देखहु सब बारी॥
एक सुरूप औ सुंक्षरि सारी । जानहु दिया सकल महि बारी॥
मुरुछि परै जोई मुख जोहै । जानहु मिरिग दियारहि मोहै॥
कोई परा भौंर होइ, बास लीन्ह जनु चाँप।
कोई पतंग भा दीपक, कोई अधाजर तन काँप॥8॥
पदमावति ठौ देव दुवारा । भीतर मँडप कीन्ह पैसारा॥
देवहि संसै भा जिउ केरा । भागौं केहि दिसि मंडप घेरा॥
एक जोहार कीन्ह औ दूजा । सिसरे आइ चढ़ाएसि पूजा॥
फल फूलन्ह सब मँडप भरावा । चंदन अगर देव नहवावा॥
लेइ सेंदुर आगे भैं खरी । परसि देव पुनि पायन्ह परी॥
‘और सहेली सबै बियाहीं । मो कहँ देव! कतहुँ बर नाहीं॥
हौं निरगुन जेइ कीन्ह न सेवा । गुनि निरगुनि दाता तुम देवा॥
बर सौं जोग मोहिं मेरवहु, कलस जाति हौं मानि।
जेहि दिन हीछा पूजै, बेगि चढ़ावहुँ आनि’॥9॥
हींछि हींछि बिनवा जस बानी । पुनि कर जोरि ठाढ़ि भइ रानी॥
उतरु का देह, देव मरि गएउ । सबद अकूत मँडप महँ भएउ॥
काटि पवारा जैस परेवा । सोएउ ईस, और को देवा॥
भा बिनु जिउ नहिं आवत ओझा । विष भइ पूरि काला भा गोझा॥
जो देखै जनु बिसहर डसा । देखि चरित पदमावति हँसा॥
भल हम आइ मनावा देवा । गा जनु सोह, को मानै सेवा?॥
को हींछा पूरै, दुख खोवा । जेहि मानै आए सोइ सोवा॥
जेहि धारि सखी उठावहिं, सीस बिकल नहिं डोल।
धार कोइ जीव न जानौं, मुख रे बकत कुबोल॥10॥
ततखन एक सखी बिहँसानी । कौतुक आइ न देखहु रानी॥
पुरुब द्वार मढ़ जोगी छाए । न जनो कौन देस ते आए॥
जनु उन्ह जोग तंत तन खेला । सिध्द होइ निसर सब चेला॥
उन्ह महँ एक गुरु जो कहावा । जनु गुड़ दइ काहु बोरावा॥
कुँवर बतीसौ लच्छन राता । दसएँं लछन कहत एक बाता॥
जनौं आहि गोपीचंद जोगी । का सो आहि भरथरी बियोगी॥
वै पिंगला गए कजरी आरन । ए सिंघल आए कहि कारन?॥
यह मूरति यह मुद्रा, हम न देख अवधाूत।
जानौं होहिं न जोगी, कोइ राजा कर पूत॥11॥
सुनि सो बात रानी रथ चढ़ी । कहँ अस जोगी देखौं मढ़ी॥
लेइ सँग सखी कीन्ह तहँ फेरा । जागिन्ह आहि अपछरन्ह घेरा॥
नयन चकोर पेममद भरे । भइ सुदिस्ट जोगा सहुँ ढरे॥
जोगी दिस्टि दिस्टि सौं लीन्हा । नैन रापि नैनहिं जिउ दीन्हा॥
जेहि मद चढ़ा परा तेहि पाल । सुधिा न रहा आहि एक सियाल॥
परा माति गोरख कर चेला । जिउ तन छाँड़ सरग कहँ खेला॥
किंगरी गहे जो हुत बैरागा । मरतिहुँ बार उहै धाुनि लागा॥
जेहि धांधाा जाकर मन लागै, सपनेहु सूझ सा धांधा।
तेहि कारन तपसी तप साधाहिं, करहिं पेम मन बंधा॥12॥
पदमावति जस सुना बखानू । सहस करा देखेसि तस भानू॥
मेलेसि चंदन मकु खिन जागा । अधिाकौ सूत, सोर तन लागा॥
तब चंदन आखर हिय लिखे । भीख लेइ तुइ जोग न सिखे॥
घरी आइ तब गा तू सोई । कैसे भुगुति परापति होई॥
अब जौं सूर अहौ ससि राता । आएउ चढ़ि सो गगन पुनि साता॥
लिखि कै बात सखिन सौं कही । इहै ठाँव हौं बारति रही॥
परगट होहुँ त होइ अस भंगू । जगत दिया कर होइ पतंगू॥
जा सहुँ हौं चख हेरौं, सोइ ठाँव जिउ देइ।
एहि दुख कतहुँ न निसरौं, को हत्या असि लेइ?॥13॥
कीन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका । परवत छाड़ि सिंघलगढ़ ताका॥
बलि भए सबै देवता बली । हत्यारिन हत्या लेइ चली॥
को अस हितू मुए गह बाहीं । जो पै जिउ अपने घट नाहीं॥
जौ लहि जिउ आपन सब कोई । बिनु जिउ कोइ न आपन होई॥
भाइ बंधाु औ मीत पियारा । बिनु जिउ घरी न राखै पारा॥
बिनु जिउ पिंड छार कर कूरा । छार मिलावे सो हित पूरा॥
तेहि जिउ बिनु अब मरि भा राजा । को उठि बैठि गरब सौं गाजा॥
परी कया भुइ लोटै, कहाँ रे जिउ बलि भीउँ।
को उठाइ बैठारै, बाज पियारे जीउ॥14॥
पदमावति सो मँदिर पईठी । हँसत सिंघासन जाइ बईठी॥
निसि सूती सुनि कथा बिहारी । भा बिहान कह सखी हकारी॥
देव पूजि जस आइउँ काली । सपन एक निसि देखेउँ आली॥
जनु ससि उदय पुरुब दिसि लीन्हा। औरबिउदयपछिउँदिसिकीन्हा॥
पुनि चलि सूर चाँद पहँ आवा। चाँद सुरुज दुहुँ भएउ मेरावा॥
दिन औ राति भए जनु एका। राम आइ रावन गढ़ छेंका॥
तस किछु कहा न जाइ निखेधाा। अरजुन बान राहु गा बेधाा॥
जनहुँ लंक सब लूटी, हनुव बिधांसी बारि।
जागि उठिउँ अस देखत, सखि! कछु सपन बिचारि ॥15॥
सखी सो बोली सपन बिचारू । काल्हि जो गइहु देव के बारू॥
पूजि मनाइहु बहुतै भाँती । परसन आइ भए तुम्ह राती॥
सूरज पुरुष चाँद तुम रानी । अस वर दैउ मेरावै आनी॥
पच्छिउँ ख्रड कर राजा कोई । सो आवा बर तुम्ह कहँ होई॥
किछु पुनि जूझ लागि तुम रामा । रावन सौं होइहि सँगरामा॥
चाँद सुरुज सौं होइ बियाहू । बारि बिधासब बेधाब राहू॥
जस ऊषा कहँ अनिरुधा मिला । मेटि न जाइ लिखा पुरबिला॥
सुख सोहाग जो तुम्ह कहँ, पान फूल रस भोग।
आजु काल्हि भा चाहै, अस सपने क सँजोग॥ 16॥
(1) दैउ दैउ कै=किसी किसी प्रकार से, आसरा देखते-देखते। हँकारी=बुलाया। बारी=कुमारियाँ। गोहने=साथ में, सेवा में।
(2) आन=राजा की आज्ञा, डौंडी। होइ मालति=श्वेत हास द्वारा मालती के समान होकर। तारा मंडल=एक वस्त्रा का नाम, चाँदातारा। कुमोद=कुमुदिनी।
(3) आहा=वाह वाह, धान्य धान्य। छत्तिास कुरि=क्षत्रिायों के छत्ताीसों कुलों की। बैंसिनि=बैस क्षत्रिायों की स्त्रिायाँ। बानिनि=बनियाइन। पउनि=पानेवाली, आश्रित, पौनी=परजा। डार=डला।
(4) धामारि=होली की क्रीड़ा। जोहार=प्रण्ााम आदि। मनोरा झूमक=एक प्रकार के गीत जिसे स्त्रिायाँ झुंड बाँधाकर गाती हैं; इसके प्रत्येक पद में ‘मनोरा झूमक हो’ यह वाक्य आता है। सैतब=समेटकर इकट्ठा करेंगी।
(5) जाँबु…झारा=जामुन जो विरह की ज्वाला से झुलसी सी दिखाई देती है। न्यौजी=चिलगोजा। खीरी=खिरनी। गुवा=गुवांक, दक्खिनी सुपारी।
(6) कूजा=कुब्जक, सफेद जंगली गुलाब। गोरी=श्वेत मल्लिका। अजानबीरो=एक बड़ा पेड़ जिसके संबंधा में कहा जाता है कि उसके नीचे जाने से आदमी की सुधा बुधा भूल जाती है।
(7) पंचम=पंचम स्वर में। मादर=मर्दल, एक प्रकार का मृदंग।
(8) जाइ तुलानी=जा पहुँची। दियारा=लुक जो गीले कछारों में दिखाई पड़ता है; अथवा मृगतृष्णा। चाँप=चंपा, चंपे की महक भौंरा नहीं सह सकता।
(9) एक…दूजा=दो बार प्रणाम किया।
(10) हींछि=इच्छा करके। अकूत=परोक्ष, आकाशवाणी। ओझा=उपाधयाय, पुजारी (प्रा. उवज्झाओ)। पूरि=पूरी। गोझा=एक पकवान, पिराक। खोवा=खोब, खोवे। धार=शरीर।
(11) तंत=तत्तव। दसएँ लछन=योगियों के बत्ताीस लक्षणों में दसवाँ लक्षण ‘सत्य’ है। पिंगला=पिंगला नाड़ी साधने के लिए अथवा पिंगला नाम की अपनी रानी के कारण। कजरी आरन=कदलीवन।
(12) कवार=कटारा। जोगी सहुँ=जोगी के सामने, जोगी की ओर। नैन रोपि…दीन्हा=ऑंखों में ही पदमावती के नेत्राों के मद को लेकर बेसुधा हो गया।
(13) मकु=कदाचित्। सूत=सोया। सीर=शीतल, ठंढा (प्रा. सीयड, सीयर)। आखर=अक्षर। ठाँव=अवसर, मौका। बारति रही=बचाती रही। भंग=रंग में भंग, उपद्रव।
(14) ताका=उस ओर बढ़ा। मरि भा=मर गया, मर चुका। बलि भीउँ=बलि और भीम कहलानेवाले। बाज=बिना, बगैर, छोड़कर।
(15) बिहार=विहार या सैर की। मेरावा=मिलन। निखेधाा=वह ऐसी निषिध्द या बुरी बात है। राहु=रोहू मछली। राहु गा बेधाा=मत्स्यबेधा हुआ।
(16) जूझ….रामा=हे बाला! तुम्हारे लिए राम कुछ लड़ेंगे (राम=रत्नसेन, रावण=गंधार्वसेन)। बारि बिधांसव=संभोग के समय शृंगार के अस्तव्यस्त होने का संकेत। बगीचा। पुरबिला=पूर्व जन्म का। संजोग=फल या व्यवस्था।
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