कविता – रत्नसेन साथी खंड, षट्ऋतु वर्णन खंड, नागमती-वियोग खंड,नागमती-संदेश खंड,रत्नसेन-बिदाई खंड – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
रतनसेन गए अपनी सभा । बैठे पाट जहाँ अठख्रभा॥
आइ मिले चितउर के साथी । सबै बिहँसि के दीन्ही हाथी॥
राजा कर भल मानहु भाई । जेइ हम कहँ यह भूमि देखाई॥
हम कहँ आनत जौ न नरेसू । तौ हम कहाँ, कहाँ यह देसू॥
धानि राजा तुइँ राज बिसेखा । जेहि के राज सबै किछु देखा॥
भोग बिलास सबै किछु पावा । कहाँ जीभ जेहि अस्तुति आवा?
अब तुम आइ ऍंतरपट साजा । दरसन कहँ न तपावहु राजा॥
नैन सेराने भूखि गइ, देखे दरस तुम्हार।
नव अवतार आजु भा, जीवन सफल हमार॥1॥
हँसि कै राज रजायसु दीन्हा । मैं दरसन कारन एत कीन्हाँ॥
अपने जोग लागि अस खेला । गुरु भएउँ आपु, कीन्ह तुम्ह चेला॥
अहक मोरि पुरुषारथ देखेहु । गुरु चीन्हि कै जोग बिसेखेहु॥
जौ तुम्ह तप साधाा मोहिं लागी । अब जिनि हिये होहु बैरागी॥
जो जेहि लागि सहै सप जोगू । सो तेहि के सँग मानै भोगू॥
सोरह सहस पदमावति माँगी । सबै दीन्हि, ननहिं काहुहि खाँगी॥
सब कर मंदिर सोने साजा । सब अपने अपने घर राजा॥
हस्ति घोर औ कापर, सबहिं दीन्ह नव साज।
भए गृही औ लखपती, घर घर मानहुँ राज॥2॥
(1) हाथी दीन्ही=हाथ मिलाया। भल मानहु=भला मनाओ, एहसान मानो। ऍंतरपट साजा=ऑंख की ओट में हुए। तपावहु=तरसाओ। सेराने=ठंढे हुए।
पदमावति सब सखी बोलाई । चीर पटोर हार पहिराई॥
सीस सबन्ह के सेंदुर पूरा । औ राते सब अंग सेंदूरा॥
चंदन अगर चित्रा सब भरीं । नए चार जानहु अवतरीं॥
जनहुँ कँवल सँग फूली कूईं । जनहुँ चाँद सँग तरई उईं॥
धानि पदमावति, धानि तोरनाहू । जेहि अभरन पहिरा सब काहू॥
बारह अभरन सोरह सिंगारा । तोहि सौंह नहिं ससि उजियारा॥
ससि सकलंक रहै नहिं पूजा । तू निकलंक, न सरि कोइ दूजा॥
काहू बीन गहा कर, काहू नाद मृदंग।
सबन्ह अनंद मनावा, रहसि कूदि एक संग॥1॥
पदमावति कह सुनहु सहेली । हौं सो कँवल, तुम कुमुदिनि बेली॥
कलस मानि हौं तेहि दिन आई । पूजा चलहु चढ़ावहिं जाई॥
मँझ पदमावति कर जो बेवानू । जनु परभात परै लखि भानू॥
आस-पास बाजत चौडोला । दुँदुभि, झाँझ, तूर, डफ, ढोला॥
एक संग सब सोंधो भरी । देव दुवार उतरि भइ खरी॥
अपने हाथ देव नहवावा । कलस सहस इक घिरित भरावा॥
पोता मँडप अगर औ चंदन । देव भरा अरगज औ बंदन॥
कै प्रनाम आगे भई, विनय कीन्ह बहु भाँति।
रानी कहा चलहु घर, सखी! होति है राति॥2॥
भइ निसि, धानि जस ससि परगसी । राजै देखि भूमि फिर बसी॥
भइ कटकई सरद ससि आवा । फेरि गगन रवि चाहै छावा॥
सुनि धानि भौंह धानुक फिरि फेरा । काम कटाछन्ह कोरहि हेरा॥
जानहु नाहिं पैज, पिय! खाँचौं । पिता सपथ हौं आजु न बाँचौं॥
काल्हि न होइ, रही महि रामा । आजु करहु रावन संग्रामा॥
सेन सिंगार महूँ है सजा । गजगति चाल, ऍंचल गति धाजा॥
नैन समुद औ खड़ग नासिका । सरवरि जूझ को मो सहुँ टिका?॥
हौं रानी पदमावति, मैं जीता रस भोग।
तू सरवरि करु तासौं, जो जोगी तोहि जोग॥3॥
हौं अस जोगि जानि सब कोऊ । बीर सिंगार जिते मैं दोऊ॥
उहाँ सामुहें रिपु दल माहाँ । इहाँ त काम कटक तुम्ह पाहाँ॥
उहाँ त हय चढ़ि कै दल मंडौं । इहाँ त अधार अमिय रस खंडौं॥
उहाँ त खड़ग नरिंदहिं मारौं । इहाँ त बिरह तुम्हार सँघारौ॥
उहाँ त गज पेलौं होइ केहरि । इहवाँ काम कामिनी हिय हरि॥
उहाँ त लूटौं कटक ख्रधाारू । इहाँ त जीतौं तोर सिंगारू॥
उहाँ त कुंभस्थल गज नावौं । इहाँ त कुच कलसहि कर लावौं॥
परै बीच धारहरिया, प्रेम राज को टेक?
मानहिं भोग छवो ऋतु, मिलि दूवौ होइ एक॥4॥
प्रथम बसंत नवल ऋतु आई । सुऋतु चैत बैसाख सोहाई॥
चंदन चीर पहिरि धारि अंगा । सेंदुर दीन्ह बिहँसि भरि मंगा॥
कुसुम हार औ परिमल बासू । मलयागिरि छिरका कबिलासू॥
सौंर सुपेती फूलन डासी । धानि औ कंत मिले सुखबासी॥
पिउ सँजोग धानि जोबन बारी । भौंर पुहुप संँग करहिं धामारी॥
होइ फाग भलि चाँचरि जोरी । बिरह जराइ दीन्ह जस होरी॥
धानि ससि सरिस, तपै पिय सुरू । नखत सिंगार होहिं सब चूरू॥
जिन्ह घर कंता ऋतु भली, आव बसंत जो नित्ता।
सुख भरि आवहिं देवहरै, दु:ख न जानै कित्ता॥5॥
ऋतु ग्रीषम कै तपनि न जहाँ । जेठ असाढ़ कंत घर जहाँ॥
पहिरि सुरंग चीर धानि झीना । परिमल मेद रहा तन भीना॥
पदमावति तन सिअर सुबासा । नैहर राज, कंत घर पासा॥
औ बड़ जूड तहाँ सोवनारा । अगर पोति, सुख तने ओहारा॥
सेज बिछावन सौंर सुपेती । भोग बिलास करहिं सुख सेती॥
अधार तमोर कपुर भिमसेना । चंदन चरचि लाव तन बेना॥
भा अनंद सिंघल सब कहूँ । भागवंत कहँ सुख ऋतु छहूँ॥
दारिउँ दाख लेहिं रस, आम सदाफर डार।
हरियर तन सुअटा कर, जो अस चाखनहार॥6॥
रितु पावस बरसै पिउ पावा । सावन भादौं अधिाक सोहावा॥
पदमावति चाहत ऋतु पाई । गगन सोहावन, भूमि सोहाई॥
कोकिल बैन, पाँति बग छूटी । धानि निसरीं जनु बीरबहूटी॥
चमक बीजु, बरसै जल सोना । दादुर मोर सबद सुठि लोना॥
रँगराती पीतम सँग जागी । गरजै गगन चौंकि गर लागी॥
सीतल बूँद, ऊँच चौपारा । हरियर सब देखाइ संसारा॥
हरियर भूमि कुसुंभी चोला । औ धानि पिउ सँग रचा हिंडोला॥
पवन झकोरे होइ हरषु लागे सीतल बास।
धानि जानै यह पवन है, पवन सो अपने पास॥7॥
आइ सरद ऋतु अधिाक पियारी । आसिन कातिक ऋतु उजियारी॥
पदमावति भइ पूनिउँ कला । चौदसि चाँद उई सिंघला॥
सोरह कला सिंगार बनावा । नखत भरा सूरुज ससि पावा॥
भा निरमल सब धारति अकासू । सेज सँवारि कीन्ह फुलबासू॥
सेत बिछावन औ उजियारी । हँसि हँसि मिलहिं पुरुष औ नारी॥
सोनफूल भइ पुहुमी फूली । पिय धानि सौं, धानि पिय सौं भूली॥
चख अंजन देइ खंजन देखावा । होइ सारस जोरी रस पावा॥
एहि ऋतु कंता पास जेहि, सुख तेहि के हिय माहँ।
धानि हँसि लागै पिउ गरै, धानि गर पिउ कै बाँह॥8॥
ऋतु हेमंत सँग पिएउ पियाला । अगहन पूस सीत सुख काला॥
धानि औ पिउ महँ सीउ सोहागा । दुहुन्ह अंग एकै मिलि लागा॥
मन सौं मन, तन सौं तन गहा । हिय सौं हिय, बिचहार न रहा॥
जानहुँ चंदन लागै अंगा । चंदन रहै न पावै संगा॥
भोग करहिं सुख राजा रानी । उन्ह लेखे सब सिस्टि जुड़ानी॥
जूझ दुवौ जोबन सौं लागा । बिच हुँत सीउ जीउ लेइ भागा॥
दुइ घट मिलि एकै होइ जाहीं । ऐस मिलहिं, तबहूँ न अघाहीं॥
हंसा केलि करहिं जिमि, खूँदहिं कुरलहिं दोउ।
सीउ पुकारि कै पार भा, जस चकई क बिछोउ॥9॥
आइ सिसिर ऋतु, तहाँ न सीऊ । जहाँ माघ फागुन घर पीऊ॥
सौंर सुपेती मंदिर राती । दगल चीर पहिरहिं बहु भाँती॥
घर-घर सिंघल होइ सुख जोजू । रहा न कतहुँ दु:ख कर खोजू॥
जहँ धानि पुरुष सीउ नहिं लागा । जानहुँ काग देखि सर भागा॥
जाइ इंद्र सौं कीन्ह पुकारा । हौं पदमावति देस निसारा॥
एहि ऋतु सदा संग महँ सेवा । अब दरसन तें मोर बिछोवा॥
अब हँसि कै ससि सूरहिं भेंटा । रहा जो सीउ बीच सो मेटा॥
भएउ इंद्र कर आयसु, बड़ सताव यह सोइ।
कबहुँ काहु के पार भइ, कबहूँ काहु के होइ॥10॥
(1) चार=ढंग, चाल, प्रकार। जेहि=जिसकी बदौलत। सौंह=सामने। पूजा=पूरा।
(2) चौडोल=पालकी (के आस-आस)। सोंधो=सुगंधा। बंदन=सिंदूर या रोली।
(3) कटकई=चढ़ाई, सेना का साज। कोरहि हेरा=कोने से ताका। पैज खाँचौं=प्रतिज्ञा करती हूँ। हौं=मुझसे। रही महि=पृथ्वी पर पड़ी रही। धाजा=धवजा, पताका। सहुँ=सामने।
(4) मंडौं=शोभित करता हूँ। इहवाँ काम… …हिय हरि=यहाँ कामिनी के हृदय से कामताप को हर कर ठेलता हूँ। ख्रधाारू=स्कंधाावार, तंबू, छावनी। धारहरिया=बीचबचाव करने वाला।
(5) सार=चादर। डासी=बिछाई हुई। देवहरै=देवमंदिर में।
(6) झीना=महीन। सिअर=शीतल। सोवनार=शयनागार। ओहारा=परदे। सुख सेंती=सुख से।
(7) चाहति=मनचाही। बरसै जल सोना=कौंधो की चमक में पानी की बूँदें सोने की बूँदों सी लगती हैं। कुसुंभी=कुसुम के (लाल) रंग का। चोला=पहनावा। धानि जानै…पास=स्त्राी समझती है कि वह हर्ष और शीतल वास पवन में है पर वह उस प्रिय में है (उसके कारण है) जो उसके पास है।
(8) नखत भरा ससि=आभूषणों के सहित पदमावती। फुलबासू=फूलों से सुगंधिात।
(9) धानि… धानि सोहागा=शीत दोनों के बीच सोहागे के समान है जो सोने के दो टुकड़ों को मिलाकर एक करता है। उन्ह लेखे=उनकी समझ में। बिच हुँत बीच से। खूँदहिं कुरलहिं=उमंग में क्रीड़ा करते हैं। बिछोउ=बिछोह, वियोग।
(10) सौंर=चादर। राती=रात में। दगल=दगला, एक प्रकार का ऍंगरखा या चोला। जोजू=भोगू। खोजू=निशान, चिद्द, पता। सर=बाण, तीर। जानहु काग=यहाँ इंद्र के पुत्रा जयंत की ओर लक्ष्य है। आयसु भएउ=(इंद्र ने) कहा। बड़ सताव यह सोइ=यह वही है जो लोगों को बहुत सताया करता है।
नागमती चितउर पथ हेरा । पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा॥
नागर काहु नारि बस परा । तेइ मोर पिउ मोसौं हरा॥
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ । पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ॥
भएउ नरायन बाबँन करा । राज करत राजा बलि छरा॥
करन पास लीन्हेउ कै छंदू । बिप्र रूप धारि झिलमिल इंदू॥
मानत भोग गोपिचँद भोगी । लेइ अपसवा जलंधार जोगी॥
लेइगा कृस्नहि गरुड़ अलोपी । कठिन बिछोह, जियहिं किमि गोपी?
सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधाा लीन्ह?
झुरि झुरि पींजर हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह॥1॥
पिउ बियोग अस बाउर जीऊ । पपिहा निति बोले ‘पिउ पीऊ॥’
अधिाक काम दाधो सो रामा । हरि लेइ सुवा गएउ पिउ नामा॥
बिरह बान तस लाग न डोली । रक्त पसीज, भीजि गई चोली॥
सूखा हिया, हार भा भारी । हरे हरे प्रान तजहिं सब नारी॥
खन एक आव पेट महँ! सांसा । खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा॥
पवन डोलावहिं सींचहिं चोला । पहर एक समुझहिं मुख बोला॥
प्रान पयान होत को राखा ? को सुनाव पीतम कै भाखा?
आजि जो मारै बिरह कै, आगि उठै तेहि लागि।
हंस जो रहा सरीर महँ, पाँख जरा, गा भागि॥2॥
पाट महादेइ! हिये न हारू । समुझि जीउ, चित चेतु सँभारू॥
भौंर कँवल सँग होइ मेरावा । सँवरि नेह मालति पहँ आवा॥
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियास, बाँधाु मन थीती॥
धारतिहि जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव बरषा ऋतु मेहा॥
पुनि बसंत ऋतु आव नवेली । सो रस, सो मधाुकर, सो बेली॥
जिनि अस जीव करसि तू बारी । यह तरिवर पुनि उठिहि सवारी॥
दिन दस बिनु जल सूखि बिधांसा । पुनि सोइ सरवर सोई हंसा॥
मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकम भेंटि अहंत।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत॥3॥
चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा । साजा बिरह दुंद दल बाजा॥
धाूम, साम, धाौरे घन घाए । सेत धाजा बग पाँति देखाए॥
खड़ग बीजु चमकै चहुँ ओरा । बुंद बान बरसहिं घन घोरा॥
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी । कंत! उबारु मदन हौं घेरी॥
दादुर मोर कोकिला, पीऊ । गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ॥
पुष्य नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिनु नाह, मँदिर को छावा?
अद्रा लाग लागि भुइँ लेई । मोहिं बिनु पिउ को आदर देई॥
जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब॥4॥
सावन बरस मेह अति पानी । भरनि परी, हौं बिरह झुरानी॥
लाग पुनरबसु पीउ न देखा । भइ बाउरि, कहँ कंत सरेखा॥
रकत कै ऑंसु परहिं भुइँ टूटी । रेंगि चलीं जस बीरबहूटी॥
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हरियरि भूमि, कुसुंभी चोला॥
हिय हिंडोल अस डोलै मोरा । बिरह झुलाइ देइ झकझोरा॥
बाट असूझ अथाह गँभीरी । जिउ बाउर, भा फिरै भँभीरी॥
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी । मोरि नाव खेवक बिनु थाकी॥
परबत समुद अगम बिच, बीहड़ वन बनढाँख।
किमि कै भेंटौं कंत तुम्ह? ना मोहि पाँव न पाँख॥5॥
भा भादों दूभर अति भारी । कैसे भरौं रैनि ऍंधिायारी॥
मँदिर सून पिउ अनतै बसा । सेज नागिनी फिरि फिरि डसा॥
रहौं अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी॥
चमकि बीजु घन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीउ गरासा॥
बरसै मघा झकोरि झकोरी । मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी॥
धानि सूखै भरे भादौं माहा । अबहुँ न आएन्हि सींचेन्हि नाहा॥
पुरबा लाग भूमि जल पूरी । आग जवास भई तस झूरी॥
थल जल भरे अपूर सब, धारति गगन मिलि एक।
धानि जोबन अवगाह महँ, दे बूड़त, पिउ! टेक॥6॥
लाग कुवार, नीर जग घटा । अबहुँ आउ कंत तन लटा॥
तोहि देखे पिउ! पलुहै कया । उतरा चीतु बहुरि करु मया॥
चित्राा मित्रा मीन कर आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा॥
उआ अगस्त, हस्ति घन गाजा । तुरय पलानि चढ़े रन राजा॥
स्वाति बूँद चातक मुखपरे । समुद सीप मोती सब भरे॥
सरवर सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहिं, खंजन देखाए॥
भा परगास, काँस बन फूले । कंत न फिरे बिदेसहि भूले॥
बिरह हस्ति तन सालै, धााय करै चित चूर।
बेगि आइ, पिउ! बाजहु, गाजहु होइ सदूर॥7॥
कातिक सरद चंद उजियारी । जग सीतल, हौं बिरहै जारी॥
चौदह करा चाँद परगासा । जनहुँ जरै सब धारति अकासा॥
तन मन सेज करै अगिदाहू । सब कहँ चंद, भएउ मोहि राहू॥
चहूँ खंड लागै ऍंधिायारा । जौं घर नाही कंत पियारा॥
अबहूँ निठुर! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा॥
सखि झूमक गावैं ऍंग मोरी । हौं झुरावँ, बिछुरी मोरि जोरी॥
जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा । मो कहँ बिरह, सवति दुख दूजा॥
सखि मानैं तिउहार सब, गाइ देवारी खेलि।
हौं का गावौं कंत बिनु रही छार सिर मेलि॥8॥
अगहन दिवस घटा निसि बाढ़ी । दूभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी?
अब यहि बिरह दिवस भा राती । जरौं बिरह जस दीपक बाती॥
काँपे हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ॥
घर घर चीर रचे सब काहू । मोर रूप रँग लेइगा नाहू॥
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई । अबहूँ फिरै फिरै रँग सोई॥
बज्र अगिनि बिरहिनि हिय जारा । सुलुगि सुलुगि दगधौ होइ छारा॥
यह दुख दगधा न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू॥
पिउ सौं कहेउ सँदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग!
सो धानि बिरहै जरि मुई, तेहि क धाुवाँ हम्ह लाग॥9॥
पूस जाड़ थर थर तन काँपा । सुरुज जाइ लंका दिसि चाँपा॥
बिरह बाढ़, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ॥
कंत कहाँ लागौं औहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे॥
सौंर सपेती आवै जूड़ी । जानहु सेज हिवंचल बूड़ी॥
चकई निसि बिछुरै दिन मिला । हौं दिन राति बिरह कोकिला॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी । कैसे जियै बिछोही पखी॥
बिरह सचान भएउ तन जाड़ा । जियत खाइ औ मुए न छाँड़ा॥
रकत ढुरा माँसू गरा, हाड़ भएउ सब संख।
धानि सारस होइ ररि मुई, पीउ समेटहि पंख॥10॥
लागेउ माघ परै अब पाला । बिरहा काल भएउ जड़काला॥
पहल पहल तन रूई झाँपै । हहरि हहरि अधिाकौ हिय काँपै॥
आइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिनु जाड़ न छूटै माहा॥
एहि माह उपजै रसमूलू । तूँ सौ भौंर मोर जोबन फूलू॥
नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिनु अंग लाग सर चीरू॥
टप टप बूँद परहिं अस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला॥
केहि क सिंगार, को पहिरु पटोरा। गीउ न हार, रही होइ डोरा॥
तुम बिनु काँपे धानि हिया, तन तिनउर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उड़ावा झोल॥11॥
फागुन पवन झकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा॥
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा॥
तरिवर झरहिं, झरहिं बन ढाखा । भइ ओनंत फूलि फरि साखा॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू॥
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहिं तन लाइ दीन्ह जस होरी॥
जो पै पीउ जरत अस पावा । जरत मरत मोहिं रोष न आवा॥
राति दिवस बस यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे॥
यह तन जारौं छार कै, कहौं कि ‘पवन! उड़ाव’।
मकु तेहि मारग उड़ि परै, कंत धारै जहँ पाव॥12॥
चैत बसंता होइ धामारी । मोहिं लेखे संसार उजारी॥
पंचम बिरह पंच सर मारै । रकत रोइ सगरौं बन ढारै॥
बूड़ि उठे सब तरिवर पाता । भीजि मजीठ, टेसु बन राता॥
बौरे आम फरै अब लागे । अबहुँ आउ घर, कंत सभागे॥
सहस भाव फूलीं बनसपती । मधाुकर घूमहिं सँवरि मालती॥
मोकहँ फूल भए सब काँटे । दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे॥
फरि जोबन भए नारँग साखा । सुआ बिरह अब जाइ न राखा॥
घिरिनि परेवा होइ पिउ! आउ बेगि परु टूटि।
नारि पराए हाथ है, तोहि बिनु पाव न छूटि॥13॥
भा बैसाख तपनि अति लागी । चोआ चीर चँदन भा आगी॥
सूरुज जरत हिवंचल ताका । बिरह बजागि सौंह रथ हाँका॥
जरत बजागिनि करु, पिउ छाहाँ । आइ बुझाउ, ऍंगारन्ह माहाँ॥
तोहि दरसन होइ सीतल नारी । आइ आगि तें करु फुलवारी॥
लागिउँ जरै जरै जस भारू । फिरि फिरि भूँजेसि, तजिउँन बारू॥
सरवर हिया घटत निति जाई । टूक टूक होइकै बिहराई॥
बिहरत हिया करहु पिउ! टेका । दीठि दवँगरा मेरवहु एका॥
कँवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गएउ सुखाइ।
कबहुँ बेलि फिरि पलुहै, जौ पिउ सींचै आइ॥14॥
जेठ जरै जग, चलै लुवारा । उठहिं बवंडर परहिं ऍंगारा॥
बिरह गाजि हनुबँत होइ जागा । लंकादाह करै तनु लागा॥
चारिहु पवन झकोरै आगी । लंका दाहि पलंका लागी॥
दहि भइ साम नदी कालिंदी । बिरह क आगि कठिन अति मंदी॥
उठै आगि औ आवै ऑंधाी । नैन न सूझ, मरौं दु:ख बाँधाी॥
अधाजर भइउँ, माँसु तनु सूखा । लागेउ बिरह काल होइ भूखा॥
माँस खाइ सब हाड़न्ह लागै । अबहुँ आउ, आवत सुनि भागै॥
गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रवि, सहि न सकहिं वह आगि।
मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि॥15॥
तपै लागि अब जेठ असाढ़ी । तोहि पिउ बिनु छाजनि भइ गाढ़ी॥
तन तिनउर भा, झूरौं खरी । भइ बरखा, दुख आगरि जरी॥
बंधा नाहिं औ कंधा न कोई । बात न आव कहौं का रोई?॥
साँठि नाठि, जग बात को पूछा ? बिनु जिउ फिरै मूँज तनु छूँछा॥
भई दुहेली टेक बिहूनी । थाँम नाहिं उठि सकै न थूनी॥
बरसै मेघ चुवहिं नैनाहा । छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा॥
कोरौं कहाँ ठाट नव साजा ? तुम बिनु कंत न छाजनि छाजा॥
अबहुँ मया दिस्टि करि, नाह निठुर! घर आउ।
मँदिर उजार होत है, नव कै आइ बसाउ॥16॥
रोइ गँवाए बारह मासा । सहस सहस दुख एक एक साँसा॥
तिल तिल बरख बरख पर जाई । पहर पहर जुग जुग न सेराई॥
सो नहिं आवै रूप मुरारी । जासौं पाव सोहाग सुनारी॥
साँझ भए झुरि झुरि पथ हेरा । कौनि सो घरी करै पिउ फेरा?
दहि कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसु रही नहिं देहा॥
रकत न रहा बिरह तन गरा । रती रती होइ नैनन्ह ढरा॥
पाय लागि जोरै घनि हाथा । जारा नेह, जुड़ावहु, नाथा॥
बरस दिवस धानि रोइ कै, हारि परी चित झंखि।
मानसु घर घर बूझि कै, बूझै निसरी पंखि॥17॥
भई पुछार, लीन्ह बनबासू । बैरिनि सवति दीन्ह चिलबाँसू॥
होइ खर बान बिरह तनु लागा । जौ पिउ आवै उड़हि तौ कागा॥
हारिल भई पंथ मैं सेवा । अब तहँ पठवौं कौन परेवा॥
धाौरी पंडुक कहु पिउ नाऊँ । जौं चितरोख न दूसर ठाऊँ॥
जाहि बया होइ पिउ कँठ लवा । करै मेराव सोइ गौरवा॥
कोइल भई पुकारति रही । महरि पुकारै ‘लेइ लेइ दही’॥
पेड़ तिलोरी औ जल हंसा । हिरदय पैठि बिरह कटनंसा॥
जेहि पंखी के निअर होइ, कहै बिरह कै बात।
सोइ पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात॥18॥
कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई । रकत ऑंसु घुघुची बन बोई॥
भइ करमुखी नैनतन राती । को सेराव? बिरहा दुख ताती॥
जहँ जहँ ठाढ़ि होइबनबासी । तहँ तहँ होइ घुँघुचि कै रासी॥
बूँद बूँद महँ जानहुँ जीऊ । गुंजा गूँजि करै ‘पिउ पीऊ’॥
तेहि दुख भए परास निपाते । लोहू बूड़ि उठे होइ राते॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहूँ॥
देखौं जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता?
नहिं पावस ओहि देसरा, नहिं हेवंत बसंत।
ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत॥19॥
(1) पथ हेरा=रास्ता देखती है। नागर=नायक। बाबँन करा=वामन रूप। छरा=छला। करन=राजा कर्ण। छंदू=छलछंद, धाूर्तता। झिलमिल=कवच (सीकड़ों का)। अपसवा=चल दिया। पींजर=पंजर, ठठरी।
(2) बाउर=बावला। हरे-हरे=धाीरे-धाीरे। नारी=नाड़ी। चोला=शरीर। पहर एक…बोला=इतना अस्पष्ट बोल निकलता है कि मतलब समझने में पहरों लग जाते हैं। हंस=हंस और जीव।
(3) पाट महादेइ=पट्टमहादेवी, पटरानी। मेरावा=मिलाप। टेकु पियास=प्यास सह। बाँधाु मन थीती=मन में स्थिरता बाँधा। जिनि=मत। पलुहंत=पल्लवित होते हैं, पनते हैं।
(4) गाजा=गरजा। धाूम=धाूमले रंग के। धाौरे=धावल, सफेद। ओनई=झुकी। लेई लागि=खेतों में लेवा लगा, खेत में पानी भर गया। गारौ=गौरव, अभिमान (प्राकृत-गारव, ‘आ च गौरवे’)।
(5) मेह=मेघ। भरनि परी=खेतों में भरनी लगी। सरेख=चतुर। भँभीरी=एक प्रकार का फतिंगा जो संधया के समय बरसात में आकाश में उड़ता दिखाई पड़ता है।
(6) दूभर=भारी कठिन। भरौं=काटूँ, बिताऊँ; जैसे-नैहर जनम भरब बरु जाई-तुलसी। अनतै=अन्यत्रा। तरासा=डराता है। ओरी=ओलती। पुरबा=एक नक्षत्रा।
(7) लटा=शिथिल हुआ। पलुहै=पनपती है। उतरा चीतु=चित्ता से उतरी या भूली बात धयान में ला। चित्राा=एक नक्षत्रा। तुरय=घोड़ा। पलानि=जीन कसकर। घाय=घाव। बाजहु=लड़ो। गाजहु=गरजो। सदूर=शार्दूल, सिंह।
(8) झूमक=मनोरा झूमक नाम का गीत। झुरावँ=सूखती हूँ। जनम=जीवन।
(9) दूभर=भारी, कठिन। नाहू=नाथ। सो धानि बिरहै…लाग=अर्थात् वही धाुऑं लगने के कारण मानो भौंरे और कौए काले हो गए।
(10) लंका दिसि=दक्षिण दिशा को। चाँपा जाइ=दबा जाता है। कोकिला=जलकर कोयल (काली) हो गई। सचान=बाज। जाड़ा=जाड़े में। ररि मुई=रटकर मर गई। पीउ…पंख=प्रिय आकर अब पर समेटे।
(11) जड़काला=जाड़े के मौसम में। माहा=माघ में। महवट=मघवट, माघ की झड़ी। चीरू=चीर, घाव। सर=बाण। झोला मारना=बात के प्रकोप से अंग का सुन्न हो जाना। केहि क सिंगार?=किसका शृंगार? कहाँ का शृंगार करना? पटोरा=एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। डोरा=क्षीण होकर डोरे के समान पतली। तिनउर=तिनके का समूह। झोल=राख, भस्म; जैसे-‘आगि जो लागी समुद में टुटि टुटि खसै जो झोल’-कबीर।
(12) ओनंत=झुकी हुई। निहोर लगौं=यह शरीर तुम्हारे निहोरे लग जाए, तुम्हारे काम आ जाए।
(13) पंचम=कोकिल का स्वर या पंचम राग। (वसंत पंचमी माघ में ही हो जाती है इससे ‘पंचमी’ अर्थ नहीं ले सकते) सगरौं=सारे। बूड़ि उठे…पाता=नए पत्ताों मेें ललाई मानो रक्त में भीगने के कारण है। घिरिनि परेवा=गिरहबाज कबूतर या कौड़िल्ला पक्षी। नारि=(क) नाड़ी, (ख) स्त्राी।
(14) हिवंचल ताका=उत्तारायण हुआ। बिरह बजागि…हाँका=सूर्य तो सामने से हटकर उत्तार की ओर खिसका हुआ चलता है, उसके स्थान पर विरहाग्नि से सीधो मेरी ओर रथ हाँका। भारू=भाड़। सरवर हिया…बिहराई=तालों का पानी जब सूखने लगता है तब पानी सूखे हुए स्थान में बहुत सी दरारें पड़ जाती हैं जिससे बहुत से खाने कटे दिखाई पड़ते हैं। दवँगरा=वर्षा के आरंभ की झड़ी। मेरवहु एका=दरारें पड़ने के कारण जो खंड-खंड हो गए हैं उन्हें मिलाकर फिर एक कर दो। बड़ी सुंदर उक्ति है।
(15) लूवार=लू। गाजि=गरजकर। पलंका=पलँग। मंदी=धाीरे-धाीरे जलानेवाली।
(16) तिनउर=तिनकों का ठाट। झूरौं=सूखती हूँ। बंधा=ठाट बाँधाने के लिए रस्सी। कंधा न कोई=अपने ऊपर (सहायक) भी कोई नहीं है। साँठि नाठि=पूँजी नष्ट हुई। मूँज तनु छूँछा=बिना बंधान की मूँज के ऐसा शरीर। थाँम=खंभा। थूनी=लकड़ी की टेक। छपर छपर=तराबोर। कोरौं=छाजन की ठाट में लगे बाँस या लकड़ी। नव कै=नए सिरे से।
(17) सहस सहस साँस=एक एक दीर्घ नि:श्वास सहस्रों दु:खों से भरा था, फिर बारह महीने कितने दु:खों से भरे बीते होंगे। तिल तिल…परि जाई=तिल भर समय एक-एक वर्ष के इतना पड़ जाता है। सेराई=समाप्त होता है। सोहाग=(क) सौभाग्य; (ख) सोहागा। सुनारी=(क) वह स्त्राी, (ख) सुनारिन। झूरि=सूखकर।
(18) पुछार=(क) पूछने वाली, (ख) मयूर। चिलवाँस=चिड़िया फँसाने का एक फंदा। कागा=स्त्रिायाँ बैठे कौए को देखकर कहती हैं कि ‘प्रिय आता हो तो उड़ जा।’ हारिल=(क) थकी हुई, (ख) एक पक्षी। धाौरी=(क) सफेद, (ख) एक चिड़िया। पंडुक=(क) पीली, (ख) एक चिड़िया। चितरोख=(क) हृदय में रोष, (ख) एक पक्षी। जाहि बया=संदेश लेकर जा और फिर आ (बया=आ-फारसी)। कँठलवा=गले में लगाने वाला। गौरवा=(क) गौरवयुक्त, बड़ा, (ख) गौरा पक्षी। दही=(क) दधिा; जलाई। पेड़=पेड़ पर। जल=जल में। तिलोरी=तेलिया मैना। कटनंसा=(क) काटता और नष्ट करता है; (ख) कटनास या नीलकंठ। निपात=पत्राहीन।
(19) घुँघुची=गुंजा। सेराव=ठंढा करे। बिंब=बिंबाफल।
फिरि फिरि रोव कोइ नहिं डोला । आधाी राति बिहंगम बोला॥
‘तू फिरि फिरि दाहै सब पाँखी । केहि दुख रैनि न लावसि ऑंखी’॥
नागमती कारन कै रोई । का सोवै जो कंत बिछोई॥
मनचित हुँते न उतरै मोरे । नैन क जल चुकि रहा न मोरे॥
कोइ न जाइओहि सिंघलदीपा । जेहि सेवाति कहँ नैना सीपा॥
जोगी होइ निसरा सो नाहू । तब हुँत कहा सँदेस न काहू॥
निति पूछौं सब जोगी जंगम । कोइ न कहै निज बात बिहंगम॥
चारिउ चक्र उजार भए, कोइ न सँदेसा टेक।
कहौं बिरह दुख आपन, बैठि सुनहु दँड एक॥1॥
तासौं दुख कहिए, हो बीरा । जेहि सुनि कै लागै पर पीरा॥
को होइ भिउँ ऍंगवै परदाहा । को सिंघल पहुँचावै चाहा?
जहँवाँ कंत गए होइ जोगी । हौ किंगरी भइ झूरि बियोगी॥
वै सिंगी पूरी, गुरु भेंटा । हौं भइ भसम, न आइ समेटा॥
कथा जो कहै आइ ओहि केरी । पाँवरि होउँ, जनम भर चेरी॥
ओहि के गुन सँवरत भइ माला । अबहुँ न बहुरा उड़िगा छाला॥
बिरह गुरु, खप्पर कै हीया । पवन अधाार रहै सो जीया॥
हाड़ भए सब किंगरी, नसै भईं सब ताँति।
रोवँ रोवँ ते धाुनि उठै, कहौं बिथा केहि भाँति?॥2॥
पदमावति सौं कहेउ बिहंगम । कंत लोभाइ रही करि संगम॥
तू घर घरनि भइ पिउ हरता । मोहि तन दीन्हेसि जप औ बरता॥
रावट कनक सो तोकहँ भएउ । रावट लंक मोहि कै गएऊ॥
तोहि चैन सुख मिलै सरीरा । मो कहँ हिये दुंद दुख पूरा॥
हमहुँ बियाही संँग ओहि पीऊ । आपुहि पाइ जानु पर जीऊ॥
हमहुँ मया करु, करु जिउ फेरा । मोहिं जियाउ कंत देइ मेरा॥
मोहिं भोग सौं काज न बारी । सौंह दीठि कै चाहनहारी॥
सवति न होहि तू बैरिनि, मोर कंत जेहि हाथ।
आनि मिलाव एक बेर, तोर पाँय मोर माथ॥3॥
रतनसेन कै माइ सुरसती । गोपीचंद जसि मैनावती॥
ऑंधारि बूढ़ि होइ दुख रोवा । जीवन रतन कहाँ दहुँ खोवा॥
जीवन अहा लीन्हसौ काढ़ी । भइ बिनु टेक, करै को ठाढ़ी?
बिनु जीवन भइ आस पराई । कहाँ सो पूत खंभ होइ आई॥
नैन दीठ नहिं दिया बराहीं । घर ऍंधिायार पूत जौ नाहीं॥
को रे चलै सरवन के ठाऊँ । टेक देह औ टेकै पाऊँ॥
तुम सरवन होइ काँवरि सजा । डार लाइ अब काहे तजा?
‘सरवन! सरवन!’ ररि मुई, माता काँवरि लागि।
तुम्ह बिनु पानि न पावै, दसरथ लावै आगि॥4॥
लेइ सो सँदेस बिहंगम चला । उठी आगि सगरौं सिंघला॥
बिरह बजागि बीच को ठेघा? । धाूम सो उठा साम भए मेघा॥
भरिगा गगन लूक अस छूटे । होइ सब नखत आइ भुइँ टूटे॥
जहँ जहँ भूमि जरी भा रेहू । बिरह के दाघ भई जनु खेहू॥
राहु केतु, जब लंका जारी । चिनगी उड़ी चाँद महँ परी॥
जाइ बिहंगम समुद डफारा । जरे मच्छ पानी भा खारा॥
दाधो बन बीहड़, जड़, सीपा । जाइ निअर भा सिंघलदीपा॥
समुद्र तीर एक तरिवर, जाइ बैठ तेहि रूख।
जौ लगि कहा सँदेस नहिं, नहिं पियास, नहिं भूख॥5॥
रतनसेन बन करत अहेरा । कीन्ह ओही तरिवर तर फेरा॥
सीतल बिरिछ समुद के तीरा । अति उतंग औ छाँह गँभीरा॥
तुरय बाँधिा कै बैठ अकेला । साथी और करहिं सब खेला॥
देखत फिरै सो तरिवर साखा । लाग सुनै पंखिन्ह कै भाखा॥
पंखिन महँ सो बिहंगम अहा । नागमती जासौं दुख कहा॥
पूछहिं सबै बिहंगम नामा । आहो मीत! काहे तुम सामा?॥
कहेसि मीत! मासक दुह भए । जंबूदीप तहाँ हम गए॥
नगर एक हम देखा, गढ़ चितउर ओहि नाँव।
सो दुख कहौं कहाँ लगि, हम दाढ़े तेहि ठाँव॥6॥
जोगी होइ निसरा सो राजा । सून नगर जानहु धाुँधा बाजा॥
नागमती है ताकरि रानी । जरी बिरह भइ कोइल बानी॥
अब लगि जरि भइ होइहि छारा । कही न जाइ बिरह कै झारा॥
हिया फाट वह जबहीं कूकी । परै ऑंसु अब होइ होइ लूकी॥
चहँ खंड छिटकी वह आगी । धारती जरति गगन कहँ लागी॥
बिरह दवा को जरत बुझावा । जेहि लागै सो सौहैं भावा॥
हौं पुनि तहाँ सो दाढ़ै लागा । तन भा साम जीउ लेइ भागा॥
का तुम हँसहु गरब कै, करहु समुद महँ केलि।
मति ओहि बिरहा बस परै, दहै अगिनि जो मेलि’॥7॥
सुनि चितउर राजा मन गुना । बिधिा सँदेस मैं कासौं सुना॥
को तरिवरि पर पंखी बेसा । नागमती कर कहै सँदेसा?
को तुँ मीत मन-चित्ता-बसेरू । देब कि दानव पवन पखेरू?
ब्रह्म बिस्नु बाचा है तोही । सो निज बात कहै तू मोही॥
कहाँ सो नागमती तैं देखी । कहेसि बिरह जग मनहिं बिसेखी॥
हौं सोई राजा भा जोगी । जेहि कारन वह ऐसि बियोगी॥
जस तूँ पंखि महूँ दिन भरौं । चाहौं कबहि जाइ उड़ि परौं॥
पंखि! ऑंखि तेहि मारग, लागी सदा रहाहिं।
कोइ न सँदेसी आवहि, तेहि क सँदेस कहाँहि॥8॥
पूछसि कहा सँदेस बियोगू । जोगी भए न जानसि भोगू॥
दहिने संख न, सिंगी पूरै । बाएँ पूरि राति दिन झूरै॥
तेलि बैल जस बावँ फिराई । परा भँवर महँ सो न तिराई॥
तुरय, नाव, दहिने रथ हाँका । बाएँ फिरै कोहाँर क चाका॥
तोहिं अस नाहीं पंखि भुलाना । उड़ै सो आव जगत महँ जाना॥
एक दीप का आएउँ तोरे । सब संसार पाँय तर मोरे॥
दहिने फिरै सो अस उजियारा । जस जग चाँद सुरुज मनियारा॥
मुहमद बाइँ दिसि तजा, एक स्रवन एक ऑंखि।
जब तें दाहिन होइ मिला, बोल पपीहा पाँखि॥9॥
हौं धाुव अचल सौं दाहिनि लावा । फिरि सुमेरु चितउर गढ़ आवा॥
देखेउँ तोरे मँदिर घमोई । मातु तारि ऑंधारि भइ रोई॥
जस सरवन बिनु अंधाी अंधाा । तस ररि मुई तोहि चित बंधाा॥
कहेसि मरौं, को काँवरि लेई ? पूत नाहिं, पानी को देई?
गई पियास लागि तेहि साथा । पानि दीन्ह दसरथ कै हाथा॥
पानि नि पियै, आगि पै चाहा । तोहि अस सुत जनमे अस लाहा॥
होइ भगीरथ करु तहँ फेरा । जाहि सवार, मरन कै बेरा॥
तू सपूत माता कर, अस परदेस न लेहि।
अब ताइँ मुइ होइहि, मुए जाइ गति देहि॥10॥
नागमती दुख बिरह अपारा । धारती सरग जरै तेहि झारा॥
नगर कोट घर बाहर सूना । नौजि होइ घर पुरुष बिहूना॥
तू काँवरू परा बस टोना । भूला जोग, छरा तोहि लोना॥
वह तोहि कारन मरि भइ छारा । रही नाग होइ पवन अधाारा॥
कहुँ बोलहि ‘मो कहँ लेइ खाहूँ’ । मांसु न, काया रचै जो काहू॥
बिरह मयूर नाग, वह नारी । तू मजार करु बेगि गोहारी॥
माँसु गिरा, पाँजर होइ परी । जोगी! अबहुँ पहुँच लेइ जरी॥
देखि बिरह दुख ताकर, मैं सो तजा बनबास।
आएउँ भागि समुद्रतट, तबहुँ न छाड़ै पास॥11॥
अस परजरा बिरह कर गठा । मेघ साम भए धाूम जो उठा॥
दाढ़ा राहु, केतु गा दाधाा । सूरज जरा चाँद जरि आधाा॥
औ सब नखत तराईं जरहीं । टूटहिं लूक धारति महँ परहीं॥
जरै सो धारती ठावहिं ठाऊँ । दहकि पलास जरै तेहि दाऊँ॥
बिरह साँस तस निकसै झारा । दहि दहि परबत होहिं ऍंगारा॥
भँवर पतंग जरैं औ नागा । कोइल, भुजइल, डोमा कागा॥
बन पंखी सब जिउ लेइ उड़े । जल महँ मच्छ दुखी होइ बुड़े॥
महूँ जरत तहँ निकसा, समुद बुझाएउँ आइ।
समुद पानि जरि खर भा, धाुऑं रहा जग छाइ॥12॥
राजै कहा, रे सरग,सँदेसी । उतरि आउ मोहि मिलु रे बिदेसी॥
पाय टेकि तोहि लायौं हियरे । प्रेम सँदेस कहहु होइ नियरे॥
कहा बिहंगम जो बनबासी । कित गिरही तं होइ उदासी?
जेहि तरिवर तर तुम अस कोऊ । कोकिल काग बराबर दोऊ॥
धारती महँ विषचारा परा । हारिल जानि भूमि परिहरा॥
फिरौं बियोगी डारहिं डारा । करौं चलै कहँ पंख सँवारा॥
जियै क घरी घटति निति जाहीं । साँझहिं जीउ रहै, दिन नाहीं॥
जौ लहि फिरौ। मुकुत होइ, परौं न पींजर माँह।
जाऊँ बेगि थल आपने, है जेहि बीच निबाह॥13॥
कहि संदेस बिहंगम चला । आगि लागि सगरौं सिंघला॥
घरी एक राजा गोहरावा । भा अलोप, पुनि दिस्टि न आवा॥
पंखी नाव न देखा पाँखा । राजा होइ फिरा कै साँखा॥
जस हेरत वह पंखि हेराना । दिन एक हमहूँ करब पयाना॥
जौ लगि प्रान पिंडएक ठाऊँ । एक बार चितउर गढ़ जाऊँ॥
आवा भँवर मँदिर महँ केवा । जीउ साथ लेइ गएउ परेवा॥
तन सिंघल मन चितउर बसा । जिउ बिसँभर नागिनि जिमि डसा॥
जेति नारि हँसि पूँछहीं, अमिय बचन जिउ तंत।
रस उतरा बिष चढ़ि रहा, ना ओहि तंत न मंत॥14॥
बरिस एक तेहि सिंघल भएऊ । भोग बिलास करत दिन गयऊ॥
भा उदास जौ सुना सँदेसू । सँबरि चला मन चितउर देसू॥
कँवल उदास जो देखा भँवरा । थिर न रहै अब मालति सँवरा॥
जोगी, भँवरा, पवन परावा । कित सो रहै जो चित्ता उठावा॥
जौ पै काढ़ि देइ जिउ कोई । जोगी भँवर न आपन होई॥
तजा कँवल मालति हिय घाली । अब हित थिर आछै अलि, आली॥
गंधा्रबसेन आव सुनि बारा । कस जिउ भएउ उदास तुम्हारा?
मैं तुम्हही जिउ लावा, दीन्ह नैन महँ वास।
जौ तुम होहु उदास तौ, यह काकर कविलास?॥15॥
(1) कारन कै=करुणा करके (अवधा)। तब हुँत=तब से। टेक=ऊपर लेता है।
(2) बीरा=भाई। भिउँ=भीम। ऍंगवै=अंग पर सहे। चाहा=खबर। पाँवरि=जूती।
(3) घर=अपने घर में ही। घरनि=घरवाली, गृहिणी। रावट=महल। लंक=जलती हुई लंका। चाहनहारी=देखनेवाली।
(4) खंभ=सहारा। बराहीं=जलते हैं। सरवन=’श्रवणकुमार’ जिसकी कथा उत्तारापथ में घर-घर प्रसिध्द है। एक प्रकार के भिखमंगे सरवन की मातृ-पितृ-भक्ति की कथा करताल बजाकर गाते फिरते हैं। यह कथा वाल्मीकि रामायण में दशरथ ने अपने मरने से पहले कौशल्या से कही है। दशरथ ने युवावस्था में शिकार खेलते समय एक वृध्द तपस्वी केपुत्राकोहाथी के धाोखे में मार डाला था। वह मुनिपुत्रा अंधो वृध्द माता-पिता के लिए पानी लेने आया था। वृध्द मुनि ने दशरथ को शाप दिया कि तुम भी पुत्रावियोग में मरोगे। दशरथ का नाम न देकर यही कथा बौध्दों के ‘सामजातक’ में भी आई है। पर उसमें अंधो मुनि बुध्द के पूर्ण उपासक कहे गएहैं और उनके जी उठने की बात है। रामायण में ‘श्रवणकुमार’ शब्द नहीं आया है, केवल मुनिपुत्रा लिखा है। पर इस कथा का प्रचार बौध्दों में अधिाक हुआ, इसी से यह ‘सरवन’ अर्थात् श्रमण (बौध्द भिक्षु) की कथा के नाम से ही देश में प्रसिध्द है। ‘सरवन’ के गीत गानेवाले आरंभ में एक प्रकार के बौध्द भिक्षु ही थे। इसका आभास इस बात से मिलता है कि सरवन के गीत गानेवालोंके लिए अभी थोड़े दिन पहले तक यह नियम था कि वे दिन निकलने के पीछे न माँगा करें, मुँहऍंधोरे ही माँग लिया करें। काँवरि=बाँस के डंडे के दोनों छोरों पर बँधो हुए झाबे, जिनमें तीर्थयात्राी लोग गंगाजल आदि लेकर चला करते हैं (सरवन अपने माता-पिता को काँवरि में बैठाकर ढोया करते थे)।
(5) ठेघा=टिका, ठहरा। डफारा=चिल्लाया।
(7) धाुँधा बाजा=धाुंधा या अंधाकार छाया। बानी=वर्ण की। भइ होइहि= हुई होगी। झारा=ज्वाला। लूकी=लुक। दवा=दावाग्नि।
(8) बसेरू=बसनेवाला। दिन भरौं=दिन बिताता हूँ। महूँ=मैं भी।
(9) दहिने संख=दक्षिणावर्त शंख नहीं फूँकता। झूरै=सूखता है। तिराई=पानी के ऊपर आता है। तोहिं पास…भुलाना=पक्षी तेरे ऐसा नहीं भूले हैं, वे जानते हैं कि हम उड़ने के लिए इस संसार में आए हैं। मनियार=रौनक, चमकता हुआ। मुहमद बाईं…ऑंखि=मुहम्मद कवि ने बाईं ओर ऑंख और कान करना छोड़ दिया (जायसी काने थे भी) अर्थात् वाम मार्ग छोड़कर दक्षिण मार्ग का अनुसरण किया। बोल=कहलाता है।
(10) दाहिन लावा=प्रदक्षिणा की। घमोई=सत्यानासी सा भँड़भाँड़ नामक कँटीला पौधाा जो खंडहरों या उजड़े मकानों में प्राय: उगता है। सवार=जल्दी।
(11) नौजि=न, ईश्वर न करे (अवधा)। काँवरू=कामरूप में, जो जादू के लिए प्रसिध्द है। लोना=लोना चमारी जो जादू में एक थी। मजार=बिल्ली। जरी=जड़ी-बूटी।
(12) परजरा=प्रज्वलित हुआ, जला। गठा=गट्ठा, ढेर। दाऊँ=दावाग्नि। भुजइल=भुजंगा नाम का काला पक्षी। डोमा कागा=बड़ा कौआ जो सर्वांग काला होता है।
(13) सरग सँदेसी=स्वर्ग से (ऊपर से) सँदेसा कहने वाला। गिरही=गृह। हारिल…परिहरा=कहते हैं, हारिल भूमि पर पैर नहीं रखता, चंगुल में सदा लकड़ी लिये रहता है जिससे पैर भूमि पर न पड़े। चलै कहाँ=चलने के लिए।
(14) गोहरावा=पुकारा। साँखा=शंका चिंता। पिंड=शरीर। मंदिर महँ केवा=कमल (पदमावती) के घर में। विसंभर=बेसँभाल, सुधा, बुधा भूला हुआ। जेति नारि=जितनी स्त्रिायाँ हैं सब। जिउ तंत=जी की बात (तत्तव)।
(15) परावा=पराए, अपने नहीं। चित्ता उठावा=जाने का संकल्प या विचार किया। हिय घाली=हृदय में लाकर।
रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति जोग जीभ नहिं मोरी॥
सहस जीभ जौ होहिं गोसाईं । कहि न जाइ अस्तुति जहँ ताईं॥
काँच रहा तुम कंचन कीन्हा । तब भा रतन जोति तुम दीन्हा॥
गंग जो निरमल नीर कुलीना । नार मिले जल होइ मलीना॥
पानि समुद्र मिला होइ सोती । पाप हरा, निरमल भा मोती॥
तस हौं अहा मलीनी कला । मिला आइ तुम्ह, भा निरमला॥
तुम्ह मन आवा सिंघलपुरी । तुम्ह तैं चढ़ा राज औ कुरी॥
सात समुद तुम राजा, सरि न पाव कोइ खाट।
सबै आइ सिर नावहिं, जहँ तुम साजा पाट॥1॥
अब बिनती एक करौं गोसाईं । तौ लगि कथा जीव जब ताईं॥
आवा आजु हमार परेबा । पाती आनि दीन्ह मोहिं देवा!॥
राज काज औ भुइँ उपराहीं । सत्राु भाइ सम कोई नाहीं॥
आपन आपन करहिं सो लीका । एकहि मारि एक चह टीका॥
भए अमावस नखतन्ह राजू । हम्ह कै चंद चलावहु आजू॥
राज हमार जहाँ चलि आवा । लिखि पठइनि अब होइ परावा॥
उहाँ नियर दिल्ली सुलतानू । होइ जो भोर उठै जिमि भानू॥
रहहु अमर महि गगन लगि, तुम महि लेइ हम्ह आउ।
सीस हमार तहाँ निति, जहाँ तुम्हारा पाउ॥2॥
राजसभा पुनि उठी सवारी । अनु, बिनती राखिय पति भारी॥
भाइन्ह माहँ होइ जिनि फूटी । घर के भेद लंक अस टूटी॥
बिरवा लाइ न सूखै दीजै । पावै पानि दिस्टि सो कीजै॥
आनि रखा तुम दीपक लेसी । पै न रहै पाहुन परदेसी॥
जाकर राज जहाँ चलि आवा । उहै देस पै ताकहँ भावा॥
हम तुम नैन घालि कै राखे । ऐसि भाख एहि जीभ न भाखै॥
दिवस देहु सह कुसल सिधाावहिं । दीरघ आइ होइ, पुनि आवहिं॥
सबहि बिचार परा अस, भा गवने कर साज।
सिध्दि गनेस मनावहिं, बिधिा पुरवहु सब काज॥3॥
बिनय करै पदमावति बारी । हौं पिउ! जैसी कुंद नेवारी॥
मोहि असि कहाँ सो मालति बेली । कदम सेवती चंप चमेली॥
हौ सिंगारहार जस तागा । पुहुप कली अस हिरदय लागा॥
हौं सो बसंत करौ निति पूजा । कुसुम गुलाल सुदरसन कूजा॥
बकुचन बिनवौं रोस न मोही । सुनु बकाउ तजि चाहु न चूही॥
नागेसर जो है मन तोरे । पूजि न सकै बोल सरि मोरे॥
होइ सदबरग लीन्ह मैं सरना । आगे करु जो, कंत! तोहि करना॥
केत बारि समुझावै, भँवर न काँटै बेधा।
कहै मरौं पै चितउर, जज्ञ करौं असुमेधा॥4॥
गवनचार पदमावति सुना । उठा धासकि जिउ औ सिर धाुना॥
गहबर नैन आए भरि ऑंसू । छाँड़व यह सिंघल कबिलासू॥
छाँड़िउ नैहर, चलिउँ बिछोई । एहि रे दिवस कहँ हौं तब रोई॥
छाँड़िउ आपन सखी सहेली । दूरि गवन, तजि चलिउँ अकेली॥
जहाँ न रहन भएउ बिनु चालू । होतहि कस न तहाँ भा कालू॥
नैहर आइ काह सुख देखा ? जनु होइगा सपने कर लेखा॥
राखत बारि सो पिता निछोहा। कित बियाहि अस दीन्ह बिछोहा॥
हिये आइ दुख बाजा, जिउ जानहु गा छेंकि।
मन तेवान कै रोवै, हर मंदिर कर टेकि॥5॥
पुनि पदमावति सखी बोलाईं । सुनि कै गवन मिलै सब आईं॥
मिलहु, सखी! हम तहँवाँ जाहीं । जहाँ जाइ पुनि आउब नाहीं॥
सात समुद्र पार वह देसा । कित रे मिलन, कित आव सँदेसा॥
अगम पंथ परदेस सिधाारी । न जनौं कुसल कि बिथा हमारी॥
पितै न छोह कीन्ह हिय माहाँ । तहँ को हमहिं राख गहि बाहाँ?
हम तुम मिलि एकै सँग खेला । अंत बिछोह आनि गिउ मेला॥
तुम्ह अस हित संघती पियारी । जियत जीउ नहिं करौं निनारी॥
कंत चलाई का करौं, आयसु जाइ न मेटि।
पुनि हम मिलहिं कि ना मिलहिं, लेहु सहेली भेंटि॥6॥
धानि रोबत रोबहिं सब सखी । हम तुम्ह देखि आपु कहँ झ्रखी॥
तुम्ह ऐसी जौ रहै न पाई । पुनि हम काह जो आहिं पराई॥
आदि अंत जो पिता हमारा । ओहु न यह दिन हिये बिचारा॥
छोह न कीन्ह निछोही ओहू । का हम्ह दोष लाग एक गोहूँ॥
मकु गोहूँ कर हिया चिराना । पै सो पिता न हिये छोहाना॥
औ हम देखा सखी सरेखा । एहि नैहर पाहुन के लेखा॥
तब तेइ नैहर नाहीं चाहा । जौ ससुरारि होइ अति लाहा॥
चालन कहँ हम अवतरीं, चलन सिखा नहिं आय।
अब सो चलन चलावै, को राखैं गहि पाय?॥7॥
तुम बारी पिउ दुहुँ जग राजा । गरब किरोधा ओहि पै छाजा॥
सब फर फूल ओहि के साखा । चहै सो तूरै, चाहै राखा॥
आयसु लिहे रहिहु निति हाथा । सेवा करिहु लाइ भुइँ माथा॥
बर पीपर सिर ऊभ जो कीन्हा । पाकरि तिन्हहिं छीन फर दीन्हा॥
बौरि जो पीढ़ि सीस भुइँ लावा । बड़ फल सुफल ओहि जगपावा॥
आम जो फरि कै नवै तराहीं । फल अमृत भा सब उपराहीं॥
सोइ पियारी पियहि पिरीती । रहै जो आयसु सेवा जीती॥
पत्राा काढ़ि गवन दिन देखहि, कौन दिवस दहुँ चाल।
दिसासूल चक जोगिनी, सौंह न चलिए, काल॥8॥
अदित सूक पच्छिउँ दिसि राहू । बीफै दखिन लंकदिसि दाहू॥
सोम सनीचर पुरुब न चालू । मंगल बुध्द उत्तार दिसि कालू॥
अवसि चला चाहै जौ कोई । ओषद कहौं रोग नहिं होई॥
मंगल चलत मेल मुख धानिया । चलत सोम देखै दरपनिया।
सूकहि चलत मेल मुख राई । बीफै चलै दखिन गुड़ खाई॥
अदित तँबोल मेलि मुख मंडै । बायबिरंग सनीचर खंडै॥
बुध्दहि दही चलहु करि भोजन । ओषद इहै और नहिं खोजन॥
अब सुनु चक्र जोगिनी, ते पुनि थिर न रहाहिं।
तीसौ दिवस चंद्रमा, आठौ दिसा फिराहिं॥9॥
बारह ओनइस चारि सताइस । जोगिनि पच्छिउँ दिसा गनाइस॥
नौ सोरह चौबिस औ एका । दक्खिन पुरब कोन तेइ टेका।
तीन इगारह छबिस अठारहु । जोगनि दक्खिन दिसा बिचारहु॥
दुइ पचीस सत्राह औ दसा । दक्खिन पछिउँ…कान बिच बसा॥
तेइस तीस आठ पंद्रहा । जोगिनि होहिं पुरुब सामुहा॥
चौदह बाइस ओनतिस साता । जोगिनि उत्तार दिस कहँ जाता॥
बीस अठाइस तेरह पाँचा । उत्तार पछिउँ कोन तेइ नाचा॥
एकइस औ छ जोगिनी उतर पुरुब के कोन!
यह गनि चक्र जोगिन बीचु जो चह सिंधा होन॥10॥
परिवा, नवमी पुरुब न भाएँ । दूइज दसमी उतर अदाएँ॥
तीज एकादसि अगनिउ मारै । चौथि, दुवादसि नैऋत वारै॥
पाँचइँ तेरसि दखिन रमेसरी । छठि चौदसि पच्छिउँ परमेसरी॥
सतमी पूनिउँ बायब आछी । अठइँ अमावस ईसन लाछी॥
तिथि नछत्रा पुनि बार कहीजै । सुदिन साथ प्रस्थान धारीजै॥
सगुन दुधारिया लगन साधाना । भद्रा औ दिकसूल बाँचना॥
चक्र जोगिनी गनै जो जानै । पर घर जीति लच्छि घर आनै॥
सुख समाधिा आनंद घर, कीन्ह पयाना पीउ।
थरथराइ तन काँपै, धारकि धारकि उठि जीउ॥11॥
मेष, सिंह, धान पूरुब बसै । बिरिख, मकर कन्या जम दिसै॥
मिथुन तुला औ कुंभ पछाहाँ । करक, मीन, बिरछिक उतराहाँ॥
गवन करै कहँ उगरै कोई । सनमुख सोम लाभ बहु होई॥
दहिन चंद्रमा सुखसरबदा । बाएँ चंद त दुख आपदा॥
अदित होइ उत्तार कहँ कालू । सोम काल बायब नहिं चालू॥
भौम काल पच्छिउँ बुधा निऋता । गुरु दक्खिन औ सुक अगनइता॥
पूरुब काल सनीचर बसै । पीठि काल देइ चलै त हँसै॥
धान नछत्रा औ चंद्रमा, औ तारा बल सोइ।
सभय एक दिन गवनै, लछमी केतिक होइ॥12॥
पहिले चाँद पुरुब दिसि तारा । दूजे बसै इसान बिचारा॥
तीजे उतर औ चौथे बायब । पँचएँ पच्छिउँ दिसा गनाइब॥
छठएँ नैऋत, दक्खिन सतएँ । बसै जाइ अगनिउँ सो अठएँ॥
नवएँ चंद्र सो पृथिबी बासा । दसएँ चंद जो रहै अकासा॥
ग्यरहें चंद पुरुब फिरि जाई । बहु कलेस सौं दिवस बिहाई॥
असुनी, भरनि, रेवती भली । मृगसिर, मूल, पुनरबसु बली॥
पुष्य ज्येष्ठा, हस्त, अनुराधाा । जो सुख चाहे पूजै साधाा॥
तिथि, नछत्रा औ बार एक, अस्ट सात ख्रड भाग।
आदि अंत बुधा सो एहि, दुख सुख अंकम लाग॥13॥
परिवा, छट्ठि, एकादसि नंदा । दुइज, सत्तामी, द्वादसि मंदा॥
तीज, अस्टमी, तेरसि जया । चौथि चतुरदसि नवमी खया॥
पूरन पूनिउँ दसमी, पाँचै । सुक्रै नंदै, बुधा भए नाचै॥
अदित सौं हस्त नखत सिधिा लहिए । बीफै पुष्य स्रबन ससिकहिए॥
भरनि रेवती बुधा अनुराधाा । भए अमावस रोहिनि साधाा॥
राहु चंद्र भू संपति आए । चंद गहन तब लाग सजाए॥
सनि रिकता कुज अज्ञा लीजै । सिध्दि जोग गुरु परिवा कीजै॥
छठे नछत्रा होइ रवि, ओहि अमावस होइ।
बीचहि परिवा जौ मिलै, सुरुज गहन तब होइ॥14॥
‘चलहु चलहु’ भा पिउ कर चालू । घरी न देख लेत जिउ कालू॥
समदि लोग पुनि चढ़ी बिवाना । जेहि दिन डरी सो आइ तुलाना॥
रोवहिं मात पिता औ भाई । कोउ न टेक जौ कंत चलाई॥
रोवहिं सब नैहर सिंघला । लेइ बजाइ कै राजा चला॥
तजा राज रावन का केहू ? छाँड़ा लंक बिभीषन लेहू॥
भरीं सखी सब भेंटत फेरा । अंत कंत सौं भएउ गुरेरा॥
कोउ काहू कर नाहिं निआना । मया मोह बाँधाा अरुझाना॥
कंचन कया सो रानी, रहा न तोला माँसु।
कंत कसौटी घालि कै, चूरा गढ़ै कि हाँसु॥15॥
जब पहुँचाइ फिरा सब कोऊ । चला साथ गुन अवगुन दोऊ॥
औ सँग चला गवन सब साजा । उहै देह अस पारै राजा॥
डोली सहस चली सँगचेरी । सबै पदमावती सिंघल केरी॥
भले पटोर जराव सँवारे । लाख चारि एक भरे पेटारे॥
रतन पदारथ मानिक मोती । काढ़ि भँडार दीन्ह रथ जोती॥
परखि सो रतन पारखिन्ह कहा । एक एक दीप एक एक लहा॥
सहसन पाँति तुरय कै चली । औ सौ पाँति हस्ति सिंघली॥
लिखनी लागि जौ लेखै, न पारै जोरि।
अरब, खरब दस, नील, संख औ अरबुद पदम करोरि॥16॥
देखि दरब राजा गरबाना । दिस्टि माहँ कोइ और न आना॥
जो मैं होहुँ समुद केपारा । को है मोहिं सरिस संसारा॥
दरब तें गरब, लोभ बिष मूरी । दत्ता न रहै, सत्ता होइ दूरी॥
दत्ता सत्ता हैं दूनौ भाई । दत्ता न रहै, सत्ता पै जाई॥
जहाँ लोभ तहँ पाप सँघाती । सँचि कै मरै आनि के थाती॥
सिध्द जो दरब आगि कै थापा । कोई जार, जारि कोइ तापा॥
काहू चाँद काहु भा राहु । काहू अमृत, बिष भा काहू॥
तस भुलान मन राजा, लोभ पाप ऍंधाकूप।
आइ समुद्र ठाढ़ भा, कै दानी कर रूप॥17॥
(1) कुरी=कुल, कुलीनता। खाट=खटाता है, ठहरता है। सरि न पाव…खाट=बराबरी करने में कोई नहीं ठहर सकता।
(2) देवा=हे देव! उपराहीं=ऊपर। लीका करहिं=अपना सिक्का जमाते हैं। लीका=थाप। हम्ह कै चाँद आजू उन नक्षत्राों के बीच चंद्रमा (उनका स्वामी) बनाकर हमें भेजिए। भोर=(क) प्रभात, (ख) भूला हुआ, असावधाान। महि लेइ…आउ=पृथ्वी पर हमारी आयु लेकर।
(3) राजसभा=रत्नसेन के साथियों की सभा। सवारी=सब। अनु=हाँ, यही बात है। फूटी=फूट। दीपक लेसी=पदमावती ऐसा दीपक प्रज्वलित करके। पाहुन=अतिथि।
(4) मालति=अर्थात् नागमती। कदम सेवती=(क) चरणसेवा करती है, (ख) कदंब और सफेद गुलाब। हौ सिंगारहार तागा=हारके बीच पड़े हुए डोरे के समान तुम हो। पुहुप कली…लागा=कली के हृदय के भीतर इस प्रकारपैठेहुएहो। बकुचन=(क) बध्दांजलि, जुड़ा हुआ हाथ; (ख) गुच्छा। बकाउ=बकावली। नागेसर=(क) नागमती, (ख) एक फूल। बोल=एक झाड़ी जो अरब, शाम की ओर होती है। केत बारि=(क) केतकी रूपवाला, (ख) कितना ही वह स्त्राी।
(5) धासकि उठा=दहल उठा। गहबर=गीले। होतहि…कालू=जन्म लेते ही क्यों न मर गई। बाजा=पड़ा। तेवान=सोच, चिंता। हर मंदिर=प्रत्येक घर में।
(6) बिथा=दु:ख। गिउ मेला=गले पड़ा।
(7) झंखी=झीखी, पछताई। का हम्ह दोष…गोहूँ=हम लोगों को एक गेहूँ के कारण क्या ऐसा दोष लगा (मुसलमानों के अनुसार जिस पौधो के फल को खुदा के मना करने पर भी हौवा ने आदम को खिलाया था वह गेहूँ था। इसी निषिध्द फल के कारण खुदा ने हौवा को शाप दिया और दोनों को बहिश्त से निकाल दिया)। चिराना=बीच से चिर गया। छोहाना=दया की। सरेखा=चतुर।
(8) तूरै=तोड़े। ऊभ=ऊँचा, उठा हुआ। बौरि=लता। पौढ़ि=लेटकर। तराहा=नीचे। सेवा जीता=सेवा में सबसे जीती हुई अर्थात् बढ़कर रहे।
(9) अदित=आदित्यवार। सूक=शूक्र। खंडै=चबाय।
(10) दसा=दस। सामुहा=सामने। बाँचु=तू बच।
(11) न भए=नहीं अच्छा है। अदाएँ=वाम, बुरा। अगनिउ=आग्नेय दिशा। मारै=घातक है। बारैं=बचावे। रमेसरी=लक्ष्मी। परमेसरी=देवी। बायब=वायव्य। ईसन=ईशान कोण। लाछी= लक्ष्मी। सगुन दुधारिया=दुधारिया महूर्त जो होरा के अनुसार निकाला जाता है और जिसमें दिन का विचार नहीं किया जाता, रात-दिन को दो-दो घड़ियों में विभक्त करके राशि के अनुसार शुभाशुभ का विचार किया जाता है।
(12) बिरछिक=वृश्चिक राशि। उगरै=निकले। अगनइता=आग्नेय दिशा।
(14) नंदा=आनंददायिनी, शुभ। मंदा=अशुभ। जया=विजय देनेवाली। खया=क्षय करनेवाली। सनि रिकता=शनि रिक्ता, शनिवार रिक्ता तिथि या खाली दिन।
(15) समदि=विदा के समय मिलकर (समदन=बिदाई, जैसे पितृ-समदन-अमावस्या)। आइ तुलाना=आ पहुँचा। टेक=पकड़ता है। का केहू=और कोई क्या है? गुरेरा=देखा देखी, साक्षात्कार। निआना= निदान, अंत में। चूरा=कड़ा। हाँसु=हँसली नाम का गले का गहना।
(16) जराव=जड़ाऊ। एक-एक दीप…लहा=एक-एक रत्न का मोल एक-एक द्वीप था।
(17) दत्ता=दान। सत्ता=सत्य। साँचि कै=संचित करके। सिध्द जो…थापा=जो सिध्द हैं वे द्रव्य को अग्नि ठहराते हैं। थापा=थापते हैं, ठहराते हैं। दानी=दान लेनेवाला, भिक्षुक। कै दानी कर रूप=मंगन का रूप धारकर।
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