कविता -नागमती-पदमावती-विवाद खंड, रत्नसेन-संतति खंड, राघवचेतन देशनिकाला खंड, राघवचेतन-दिल्ली-गमन खंड- मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
जाही जूही तेहि फुलवारी । देखि रहस रहि सकी न बारी॥
दूतिन्ह बात न हिये समानी । पदमावति पहँ कहा सो आनी॥
नागमती है आपनि बारी । भँवर मिला रस करै धामारी॥
सखी साथ सब रहसहिं कूदहिं । औं सिंगार हार सब गूँथहिं॥
तुम जो बकावरि तुम सौं भरना । बकुचन गहै चहै जो करना॥
नागमती नागेसरि नारी । कँवल न आछै आपनि बारी॥
जस सेबतीं गुलाल चमेली । तैसि एक जनु बहू अकेली॥
अलि जो सुदरसन कूजा, कित सदबरगै जोग?
मिला भँवर नागेसरिहि, दीन्ह ओहि सुख भोग॥11॥
सुनि पदमावति रिस न सँभारी । सखिन्ह साथ आई फुलवारी॥
दुवौ सबति मिलि पाट बईठी । हिय विरोधा, मुख बातैं मीठी॥
बारी दिस्टि सुरँग सो आई । पदमावति हँसि बात चलाई॥
बारी सुफल अहै तुम रानी । है लाई, पै लाइ न जानी॥
नागेसर औ मालति जहाँ । सँगतराव नहिं चाही तहाँ॥
रहा जो मधाुकर कँवल पिरीता । लाइउ आनि करीलहि रीता॥
जहँ अमिलीं पाकै हिय माहाँ । तहँ न भाव नौरँग के छाहाँ॥
फूल फूल जस फर जहाँ, देखेहु हिये विचारि।
ऑंब लाग जेहि बारी, जाँबु काह तेहि बारि?॥2॥
अनु, तुम कही नीक यह सोभा । पै फल सोइ भँवर जेहि लोभा॥
साम जाँबु कस्तूरी चोवा । ऑंब ऊँच हिरदय तेहि रोवाँ॥
तेहि गुन अस भइ जाँबु पियारी । लाई आनि माँझ कै बारी॥
जल बाढ़े बहि इहाँ जो आई । है पाकी अमिली जेहि ठाई॥
तूँ कस पराई बारी दूखी । तजा पानि धााई मुँह सूखी॥
उठै आगि दुइ डार अभेरा । कौन साथ तहँ बेरी केरा॥
जो देखा नागेसर बारी । लगे मरै सब सूआ सारी॥
जो सरवर जल बाढ़ै, रहै सो अपने ठाँव।
तजि कै सर औ कुंडहि जाइ न पर ऍंवराव॥3॥
तुइँ ऍंबराव लीन्ह का जूरी? । काहे भई नीम विषमूरी॥
भई बैरि कित कुटिल कटैली । तेंदू टेंटी चाहि कसैली॥
दारिउँ दाख तोरि फुलवारी । देखि मरहिं का सूआ सारी?॥
औ न सदाफर तुरँज जँभीरा । लागे कटहर बड़हर खीरा॥
कँवल के हिरदय भीतर केसर । तेहि न सरि पूजै नागेसर॥
जहँ कटहर ऊमर को पूछैं? । बर पीपर का बोलहिं छूँछैं॥
जो फल देखा सोई फीका । गरब न करहिं जानि मन नीका॥
रहु आपनि तू बारी, मो सौं जुझु, न बाजु।
मालति उपम न पूजै, बन कर खूझा खाजु॥4॥
जो कटहर बड़हर झड़बेरी । तोहि असि नाही, कोकाबेरी!॥
साम जाँबु मोर तुरँज जँभीरा । करुई नीम तौ छाँह गँभीरा॥
नरियर दाख ओहि कहँ राखौं । गलगल जाउँ सवति नहिं भाखौं॥
तोरे कहे होइ मोरकाहा? । फरे बिरिछ कोइ ढेल न बाहा॥
नवै सदाफर सदा जो फरई । दारिउँ देखि फाटि हिय मरई॥
जयफर लौग सोपारि छोहारा । मिरिच होइ जो सहै न झारा॥
हौं सो पान रँग पूज न कोई । बिरह जो जरै चून जरि होई॥
लालहिं बूड़ि मरसि नहिं, ऊभि उठावसि बाँह।
हौं रानी, पिय राजा, तो कहँ जोगी नाह॥5॥
हौं पदमावति मानसर केवा । भँवर मराल करहिं मोरि सेवा॥
पूजा जोग दई हम्ह गढ़ी । औ महेस के माथे चढ़ी॥
जानै जगत कँवल के करी । तोहि असि नहिं नागिनि बिष भरी॥
तुइँ सब लिए जगत कै नागा । कोइल भेस न छाँड़ेसि कागा॥
तू भुजइल, हौं हंसिनि भोरी । मोहि तोहि मोति पोति कै जोरी॥
कंचन करी रतन नग बाना । जहाँ पदारथ सोह न आना॥
तू तौ राहु, हौं ससि उजियारी । दिनहि न पूजै निसि ऍंधिायारी॥
ठाढ़ि होसि जेहि ठाईं, मसि लागै तेहि ठावँ्।
तेहि डर राँधा न बैठौं, मकु साँवरि होइ जावँ॥6॥
कँवल सो कौन सोपारी रोठा । जेहि के हिये सहस दस कोठा॥
रहै न झाँपै आपन गटा । सो कित उघेलि चहै परगटा॥
कँवल पत्रा तरदारिउँ चोली । देख सूर देखि है खोली॥
ऊपर राता, भीतर पियरा । जारौं ओहि हरदि अस हियरा॥
इहाँ भँवर मुख बातन्ह लावसि । उहाँ सुरुज कहँ हँसि बहरावसि॥
सब निसि तपि तपि मरसि पियासी । भोर भए पावसि पियबासी॥
सेजवाँ रोइ रोइ निसि भरसी । तू मोसौं का सरवरि करसी?॥
सुरुज किरिन बहरावै, सरवर लहरि न पूज।
भँवर हिया तोर पावै, धाूप देह तोरि भूँज॥7॥
मैं हौं कँवल सुरुज कै जोरी । जौ पिय आपन तौ का चोरी?॥
हौं ओहि आपन दरपन लेखौं । करौं सिंगार भोर मुख देखौं॥
मोर बिगास ओहिक परगासू । तू जरि मरसि निहारि अकासू॥
हौं ओहि सौं, वह मोसौं राता । तिमिर बिलाइ होत परभाता॥
कँवल के हिरदय महँ जो गटा । हरि हर हार कीन्ह का घटा?॥
जाकर दिवस तेहि पहँ आवा । कारि रैनि कित देखै पावा॥
तू ऊमर जेहि भीतर माखी । चाहहिं उड़ै मरन के पाँखी॥
धाूप न देखहि बिषभरी, अमृत सो सर पाव।
जेहि नागिनि डस सो मरै, लहरि सुरुज कै आव॥8॥
फूल न कँवल भानु बिनु ऊए । पानी मैल होइ जरि छूए॥
फिरहिं भँवर तोरे नयनाहाँ । नीर बिसाइँधा तोहि पाहाँ॥
मच्छ कच्छ दादुर कर बासा । बग अस पंखि बसहिं तोहि पासा॥
जे जे पंखि पास तोहि गए । पानी महँ सो बिसाइँधा भए॥
जौ उजियार चाँद होइ ऊआ । बदन कलंक डोम लेइ छूआ॥
मोहि तोहि निसि दिन कर बीचू । राहू के हाथ चाँद कै मीचू॥
सहस बार जौ धाोबै कोई । तौहु बिसाइँधा जाइ न धाोई॥
काह कहौं ओहि पिउ कहँ मोहि सिर धारेसि ऍंगारि।
तेहि के खेल भरोसे, तुइ जीती, मैं हारि॥9॥
तोर अकेल का जीतिउँ हारू । मैं जीतिउँ जग कर सिंगारू॥
बदन जितिउँ सो ससि उजियारी । बेनी जितिउँ भुअंगिनिकारी॥
नैनन्ह जितिउँ मिरिग के नैना । कंठ जितिउँ कोकिल के बैना॥
भौंह जितिउँ अरजुन धानुधाारी । गीउ जितिउँ तमचूर पुछारी॥
नासिक जितिउँ पुहुप तिल सूआ । सूक जितिउँ बेसरि होइ ऊआ॥
दामिनि जितिउँ दसन दमकाहीं । अधार रंग जीतिउँ बिंबाहीं॥
केहरि जितिउँ लंक मैं लीन्हीं । जितिउँ मराल, चाल वै दीन्हीं॥
पुहुप बास मलयागिरि, निरमल अंग बसाइ।
तू नागिनि आसा लुबुधा डससि काहु कहँ जाइ॥10॥
का तोहि गरब सिंगार पराए । अबहीं लैहिं लूट सब ठाए॥
हौं साँवरि सलोन मोर नैना । सेत चीर, मुख चातक बैंना॥
नासिक खरग, फूल धाुव तारा । भौंहैं धानुक गगन गा हारा॥
हीरा दसन सेत औ सामा । छपै बीजु जौ बिहँसै बामा॥
बिद्रुम अधार रंग रस राते । जूड़ अमिय अस, रवि नहिं ताते॥
चाल गयंद गरब अति भरी । बसा लंक, नागेसर करी॥
साँवरि जहाँ लोनि सुठि नीकी । का सरवरि तू करसि जो फीकी॥
पुहुप बास औ पवन अघारी, कवँल मोर तरहेल।
चहौं केस धारि नावौं, तोर मरन मोर खेल॥11॥
पदमावति सुनि उतर न सही । नागमती नागिनि जिमि गही॥
वह ओहि कहँ, वह ओहि कहँ गहा । काह कहौं तस जाइ नकहा॥
दुवौ नवल भरि जोबन गाजैं । अछरी जनहुँ अखारे बाजैं॥
भा बाहुँन बाहुँन सौं जोरा । हिय सौं हिय, कोइ बाग न मोरा॥
कुच सों कुच भइ सौंहैं अनी । नवहिं न नाए, टूटहिं तनी॥
कुंभस्थल जिमि गज मैमंता । दूवौ आइ भिरे चौदंता॥
देवलोक देखत हुत ठाढ़े । लगे बान हिय जाहिं न काढ़े॥
जनहुँ दीन्ह ठगलाडू देखि आइ तस मीचु।
रहा न कोइ धारहरिया करै दुहुँन्ह महँ बीचु॥12॥
पवन स्रवन राजा के लागा । कहेसि लड़हि पदमावति औं नागा॥
दूनौ सवति साम औ गोरी । मरहिं तौ कहँ पावसि असि जोरी॥
चलि राजा आवा तेहि बारी । जरत बुझाई दूनौ नारी॥
एक बार जेइ पिय मन बूझा । सो दुसरे सौं काहे क जूझा?॥
अस गियान मन आव न कोई । कबहूँ राति, कबहुँ दिन होई॥
धाूप छाँह दोउ पिय के रंगा । दूनौ मिली रह एक संगा॥
जूझ छाँड़ि अब बूझहु दोऊ । सेवा करहु सेव फल होऊ॥
गंग जमुन तुम नारि दोउ, लिखा मुहम्मद जोग।
सेव करहु मिलि दूनौ, तौ मानहु सुख भोग॥13॥
अस कहि दूनौ नारि मनाई । बिहँसि दोउ तब कंठ लगाई॥
लेइ दोउ संग मँदिर महँ आए । सोन पलँग जहँ रहे बिछाए॥
सीझी पाँच अमृत जेवनारा । औ भोजन छप्पन परकारा॥
हुलसीं सरस खजहजा खाई । भोग करत बिहँसीं रसनाई॥
सोन मँदिर नगमति कहँ दीन्हा । रूप मँदिर पदमावति लीन्हा॥
मंदिर रतन रतन के खंभा । बैठा राज जोहारै सभा॥
सभा सो सबै सुभर मन कहा । सोई अस जो गुरु भल कहा॥
बहु सुगंधा, बहु भोग सुख, कुरलहिं केलि कराहिं।
दुहुँ सौं केलि नित मानै, रहस अनँद दिन जाहिं॥14॥
(1) धामारी करै=होली की सी धामार या क्रीड़ा करता है। तुम जो बकावरि…भर ना=तुम जो बकावली फूल हो, क्या तुमसे राजा को जो नहीं भरता? बकुचन गहै…करना=जो वह करना फूल को पकड़ना या आलिंगन करना चाहता है। नागेसरि=नागकेसर। कँवल न आपनि बारी=कँवल (पदमावती)अपनी बारी (बगीचा, जल) या घर में नहीं है अर्थात् घर नागमती का जान पड़ता है। जस सेवतीं…चमेली=जैसे सेवती और गुलाला आदि (स्त्रिायाँ) नागमती की सेवा करती हैं वैसे ही एक पदमावती भी है। अलि जो…सदबरगै जोग=जो भँवरा सुदरसन फूल पर गूँजैगा वह सदबर्ग (गेंदा) के योग्य कैसे रह जाएगा?
(2) संगतराव=(क) सँगतरा नींबू, (ख) संगत राव, राजा का साथ। अमिलीं=(क) इमली; (ख) न मिली हुई; विरहिणी। नौरँग=(क) नारंगी, (ख) नए आमोद-प्रमोद।
(3) अनु=और। तजा पानि=सरोवर का जल छोड़ा। अभेरा=भिडंत, रगड़ा। सारी=सारिका, मैना। सरवर जल=सरोवर के जल में। बाढ़ै=बढ़ता है।
(4) तुइँ ऍंवराव…जूरी=तूने अपने अमराव में इकट्ठा ही क्या किया है? ऊमर=गूलर। न बाजु=न लड़। खूझा खाजु=खर-पतवार, नीरस फल।
(5) झड़बेरी=झड़बेर, जंगली बेर। कोकाबेरी=कमलिनी। गलगल जाऊँ (क) चाहे गल जाऊँ; (ख) गलगल नींबू। सवति नहिं भाखौं=सपत्नी का नाम न लूँ। कोई ढेल न बाहा=कोई ढेला न फेंके (उससे क्या होता है)। ऊभि=उठाकर।
(6) केवा=कमल। कागा=कौआपन। भुजइल=भुजंगा पक्षी। पोत=काँच या पत्थर की गुरिया। मसि=स्याही। राँधा=पासु समीप।
(7) रीठा=रोड़ा, टुकड़ा। जेहि के हिये…कोठा= कँवलगट्टे के भीतर बहुत से बीजकोश होते हैं। गटा=कँवलगट्टा। उघेलि=खोलकर। दारिउँ=अनार के समान कँवलगट्टा जो तेरा स्तन है। निसि भरसी=रात बिताती है तू। करसी=तू करती है। सरवर…पूज=ताल की लहर उसके पास तक नहीं पहुँचती, वह जल के ऊपर उठा रहता है। भूँज=भूनती है।
(8) हरि हर हारकीन्ह=कमल की माला विष्णु और शिव पहनते हैं। मरन के पाँखी=कीड़ों को जो पंख अंत समय में निकलते हैं।
(9) जरि=जड़, मूल। डोम छुआ=प्रवाद है कि चंद्रमा डोमों के ऋणी हैं; वे जब घेरते हैं तब ग्रहण होता है।
(10) आसा लुबुध=सुगंध की आशा से साँप चंदन में लिपटे रहते हैं।
(11) सिंगार पराए=दूसरों से लिया सिंगार जैसा कि ऊपर कहा है। जूड़ अमिय=ताते=उन अधारों में बालसूर्य की ललाई है पर वे अमृत के समान शीतल हैं, गरम नहीं। नागेसर करी=नागेसर फूल की कली। तरहेल=नीचे पड़ा हुआ, अधाीन।
(12) बाजैं लड़ती है। बाग न मोरा=बाग नहीं मोड़तीं, अर्थात् लड़ाई से हटतीं नहीं। अनी=नोक।तनी=चोली के बंद। चौदंत स्याम देश का एक प्रकार का हाथी, अथवा थोड़ी अवस्था का उद्दंड पशु (बैल, घोड़े आदि के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है)। ठगलाडू=ठगों के लड्डू जिन्हें खिलाकर वे मुसाफिरों को बेहोश करते हैं। धारहरिया=झगड़ा छुड़ानेवाला। बीचु करै=दोनों को अलग करे, झगड़ा मिटाए।
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जाएउ नागमती नगसेनहि । ऊँच भाग ऊँचै दिन रैनहि॥
कवँलसेन पदमावति जाएउ । जानहुँ चंद धारति महँ आएउ॥
पंडित बहु बुधिावंत बोलाए । रासि बरग औ गरह गनाए॥
कहेन्हि बड़े दोउ राजा होहीं । ऐसे पूत होहिं सब तोही॥
नवौ खंड के राजन्ह जाहीं । औ किछु दुंद होइ दल माहीं॥
खोलि भँडारहि दान देवावा । दुखी सुखी करि आन बढ़ावा॥
जाचक लोग, गुनीजन आए । औ अनंद के बाज बधााए॥
बहु किछु पावा जोतिसिन्ह औ देइ चले असीस।
पुत्रा, कलत्रा, कुटुंब सब, जीयहिं, कोटि बरीस॥1॥
(1) जाएउ=उत्पन्न किया, जना। ऊँचे दिन रैनहि=दिन-रात में वैसा ही बढ़ता गया। दुंद=झगड़ा, लड़ाई।
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राघवचेतन चेतन महा । आऊ सरि राजा पहँ रहा॥
चित चेता जानै बहु भेऊ । कवि बियास पंडित सहदेऊ॥
बरनी आइ राज कै कथा । पिंगल महँ सब सिंघल मथा॥
जो कबि सुनै सीस जो धाुना । सरवन नाद बेद सो सुना॥
दिस्टि सो धारम पंथ जेहि सूझा । ज्ञान सो जो परमारथ बूझा॥
जोगि, जो रहै समाधिा समाना । भोगि सो, गुनी केर गुन जाना॥
बीर जो रिस मारै, मन गहा । सोइ सिंगार कंत जो चहा॥
बेद भेद जस बररुचि, चित चेता तस चेत।
राजा भोज चतुरदस, भा चेतन सौं हेत॥1॥
होइ अचेत घरी जौ आई । चेतन कै सब चेत भुलाई॥
भा दिन एक अमावस सोई । राजै कहा ‘दुइज कब होई!’॥
राघव के मुख निकसा ‘आजू’ । पँडितन्ह कहा ‘काल्हि, महराजू’॥
राजै दुवौ दिसा फिरि देखा । इन महँ को बाउर, को सरेखा॥
भुजा टेकि पंडित तब बोला । ‘छाँड़हिं देस बचन जौ डोला’॥
राघव करै जाखिनी पूजा । चहै सो भाव देखावै दूजा॥
तेहि ऊपर राघव बर खाँचा । ‘दुइज आजु तौ पंडित साँचा’॥
राघव पूजि जाखिनी, दुइज देखाएसि साँझ।
बेद पंथ जे नहिं चलहिं, ते भूलहिं बन माँझ1 ॥2॥
पँडितन्ह कहा परा नहिं धाोखा । कौन अगस्त समुद जेइ सोखा॥
सो दिन गएउ साँझ भइ दूजी । देखी दुइज घरी वह पूजी॥
पँडितन्ह राजहि दीन्ह असीसा । अब कस यह कंचन औ सीसा॥
जौ यह दुइज काल्हि कै होती । आजु तेज देखत ससि जोती॥
राघव दिस्टिबंधा कल्हि खेला । सभा माँझ चेटक अस मेला1॥
एहि कर गुरु चमारिनि लोना । सिखा काँवरू पाढ़न टोना॥
दुइज अमावस कहँ जो देखावै । एक दिन राहु चाँद कहँ लावै॥
राज वार अस गुनी न चाहिय जेहि टोना कै खोज।
ऐहि चेटक औ विद्या छला सो राजा भोज॥3॥
राघव बैन जो कंचन रेखा । कसे बानि पीतर अस देखा॥
अज्ञा भई, रिसान, नरेसू । मारहु नाहिं, निसारहु देसू॥
झूठ बोलि थिर रहै न राँचा । पंडित सोइ बेद मत साँचा॥
बेद बचन मुख साँच जो कहा । सो जुग जुग अहथिर होइ रहा॥
खोट रतन सोई फटकरै । केहि घर रतन जो दारिद हरै?॥
चहै लच्छि बाउर कवि सोई । जहँ सुरसती लच्छि कित होई?॥
कविता संग दारिद मतिभंगी । काँटै कूटै पुहुप कै संगी॥
कवि तौ चेला, विधिा गुरु, सीप सेवाती वुंद।
तेहि मानुष कै आस का, जो मरजिया समुंद॥4॥
एहि रे वात पदमावति सुनी । देस निसारा राघव गुनी॥
ज्ञान दिस्टि धानि अगम विचारा । भल न कीन्ह अस गुनी निसारा॥
जेइ जाखिनी पूजि ससि काढ़ा । सूर के ठावँ करै पुनि ठाढ़ा॥
कवि कै जीभ खड़ग हरद्वानी । एक दिसि आगि, दुसर दिसिपानी॥
जिन अजुगुति काढ़े मुख भोरे । जस बहुते अपजस होइ थोरे॥
रानी राघव बेगि हँकारा । सूर गहन भा लेहु उतारा॥
बाम्हन जहाँ दच्छिना पावा । सरग जाइ जौ होइ बोलावा॥
आवा राघवचेतन, धाौराहर के पास।
ऐस न जाना ते हियै, बिजुरी बसै अकास॥5॥
पदमावति जो झरोखे आई । निहकलंक ससि दीन्ह दिखाई॥
ततखन राघव दीन्ह असीसा । भएउ चकोर चंदमुख दीसा॥
पहिरे ससि नखतन्ह कै मारा । धारती सरग भएउ उजियारा॥
औ पहिरे कर कंकन जोरी । नग लागे जेहि महँ नौ कोरी॥
कंकन एक कर काढ़ि पवारा । काढ़त हार टूट औ मारा॥
जानहुँ चाँद टूट लेइ तारा । छुटी अकास काल कै धाारा॥
जानहु टूटि बीजु भुइँ परी । उठा चौंधिा राघव चित हरी॥
परा आइ भुइँ कंकन, जगत भएउ उजियार।
राघव बिजुरी मारा, बिसँभर किछु न सँभार॥6॥
पदमावति हँसि दीन्ह झरोखा । जौ यह गुनी मरै, मोहि दोखा॥
सबै सहेली देखै धााईं । ‘चेतन चेतु’ जगावहिं आई॥
चेतन परा, न आवै चेतू । सबै कहा ‘एहि लाग परेतू’॥
कोई कहै, आहि सनिपातू । कोई कहै, कि मिरगी बातू॥
कोइ कह, लाग पवन झर झोला । कैसेहु समुझि न चेतन बोला॥
पुनि उठाइ बैठाएन्हि छाहाँ । पूछहिं कौन पीर हिय माहाँ?॥
दहुँ काहू के दरसन हरा । की ठग धाूत भूत तोहि छरा॥
की तोहि दीन्ह काहु किछु, की रे डसा तोहि साँप?।
कहु सचेत होइ चेतन, देह तोरि कस काँप॥7॥
भउए चेत चेतन चित चेता । नैन झरोखे, जीउ सँकेता॥
पुनि जो बोला मति बुधिा खोवा । नैन झरोखा लाए रोवा॥
बाउर बहिर सीस पै धाुना । आपनि कहै, पराइ न सुना॥
जानहु लाई काहु ठगौरी । खन पुकार खन बातैं बौरी॥
हौं रे ठगा एहि चितउर माहाँ । कासौं कहौं, जाउँ केहि पाहाँ॥
यह राजा सठ बड़ हत्यारा । जेइ राखा अस ठग बटपारा॥
ना कोइ बरज, न लाग गोहारी । अस एहि अगर होइ बटपारी॥
दिस्टि दीन्ह ठगलाड़ई, अलक फाँस परे गीउ।
जहाँ भिखारि न बाँचै, तहाँ बाँच को जीउ?॥8॥
कित धाोराहर आइ झरोखे? । लेइ गइ जीउ दच्छिना धाोखे॥
सरग ऊइ ससि करै ऍंजोरी । तेहि ते अधिाक देहुँ केहि जोरी?॥
तहाँ ससिहि जौ होति वह जोती । दिन होइ राति, रैनि कसहोती?॥
तेइ हँकारि मोहिं कंकन दीन्हा । दिस्टि जो परी जीउ हरि लीन्हा॥
नैन भिखारि ढीठ सतछँड़ा । लागै तहाँ बान होइ गड़ा॥
नैनहिं नैन जो बेधिा समाने । सीस धाुनै निसरहिं नहिं ताने॥
नवहिं न नाएनिलज भिखारी । तबहिं न लागि रही मुख कारी॥
कित करमुहें नैन भए, जीउ हरा जेहि बाट।
सरवर नीर निछोह जिमि दरकि दरकि हिय फाट॥9॥
सखिन्ह कहा चेतसि बिसँभारा । हिये चेतु जेहि जासि न मारा॥
जौ कोइ पावै आपन माँगा । ना कोइ मरै, न काहू खाँगा॥
वह पदमावति आहि अनूपा । बरनि न जाइ काहु के रूपा॥
जो देखा सो गुपुत चलि गएउ । परगट कहाँ जीउ बिनु भएऊ॥
तुम्ह अस बहुत बिमोहित भए । धाुनि धाुनि सीस जीउ देइ गए॥
बहुतन्ह दीन्ह नाइ कै गीवा । उतर देह नहिं, मारै जीवा॥
तुइँ पै मरहिं होइ जरि भूई । अबहुँ उघेलु कान कै रूई॥
कोइ माँगै नहिं पावै, कोइ माँगे बिनु पाव।
तू चेतन औरहि समुझावै, तो कहँ को समुझाव?॥10॥
भएउ चेत, चित चेतन चेता । बहुरि न आइ सहौं दुख एता॥
रोवत आइ परे हम जहाँ । रोवत चले, कौन सुख तहाँ?॥
जहाँ रहे संसौ जिउ केरा । कौन रहनि? चलि चलै सबेरा॥
अब यह भीख तहाँ होइ माँगौं । देइ एत जेहि जनम न खाँगौं॥
अस कंकन जौ पावौं दूजा । दारिद हरै आस मन पूजा॥
दिल्ली नगर आदि तुरकानू । जहाँ अलाउदीन सुलतानू॥
सोन ढरै जेहि के टकसारा । बारह बानी चलै दिनारा॥
कँवल बखानौं जाइ तहँ, जहँ अलि अलाउदीन।
सुनि कै चढ़ै भानु होइ, रतन जो होइ मलीन॥11॥
(1) आऊ सरी=आयु पर्यन्त, जन्म भर। चेता=ज्ञानप्राप्त। भेऊ=भेद, मर्म। पिंगल=छंद या कविता में। सिंघल मथा=सिंघलदीप की सारी कथा मथकर वर्णन की। मन गहा=मन को वश में किया। राजा भोज चतुरदस=चौदहों विद्याओं में राजा भोज के समान।
(2) होइ अचेत…जौ आई=जब संयोग आ जाता है तब चेतन भी अचेत हो जाता है; बुध्दिमान् भी बुध्दि खो बैठता है। भुजा टेकि=हाथ मारकर, जोर देकर। जाखिनी=यक्षिणी। बर खाँदा=रेखा खींचकर कहा, जो देकर कहा।
1. पाठांतर-पँडितहि पँडित न देखै, भएउ बैर तिन्ह माँझ।
(3) कौन अगस्त….सोखा=अर्थात् इतनी अधिाक प्रत्यक्ष बात को कौन पी जा सकता है? काल्हि कै=कल को। दिस्टिबंधा=इंद्रजाल, जादू। चेटक=माया। चमारिनि लोना=कामरूप की प्रसिध्द जादूगरनी लोना चमारिन। एक दिन राहु चाँद कहँ लावै= (क) जब चाहे चंद्रग्रहण कर दे; (ख) पदमावती के कारण बादशाह की चढ़ाई का संकेत भी मिलता है।
(4) फटकरै=फटक दे। मतिभंगी=बुध्दि भ्रष्ट करने वाला। तेहि मानुष कै आस का=उसको मनुष्य की क्या आशा करनी चाहिए?
1. पाठांतर-पंडित न होइ, काँवरू चेला।
(5) अगम=आगम, परिणाम। जाखिनी=यक्षिणी। सूर के ठाँव…ठाढ़ा=सूर्य की जगह दूसरा सूर्य खड़ा कर दे। (राजा पर बादशाह को चढ़ा लाने का इशारा है)। हरद्वानी=हरद्वान की तलवार प्रसिध्द थी। अजुगुति=अनहोनी बात, अयुक्त बात। भोरे=भूलकर। जस बहुते…थोरे=यश बहुत करने से मिलता है, अपयश थोड़े ही में मिलता है। उतारा=निछावर किया हुआ दान।
(6) कोरी=बीस की संख्या। पवारा=फेंका। चौंधिा उठा=ऑंखों में चकाचौंधा हो गई।
(7) सनिपातू=सन्निपात, त्रिादोष।
(8) सँकेता=संकट में। ठगोरी लाई=ठग लिया; सुधाबुधा नष्ट करके ठक कर दिया। बौरी=बावलों की सी। बरज=मना करता है। गोहारि लगना=पुकार सुनकर सहायता के लिए आना।
(9) दच्छिना धाोखे=दक्षिणा का धाोखा देकर। जोरी=पटतर, उपमा। दिन होइ राति=तो रात में भी दिन होता और रात न होती। हँकारि=बुलाकर। सतछँड़ा= सत्य छोड़नेवाला। ताने=खींचने से। तबहिं न कारी=तभी न (उसी कारण से) ऑंखों के मुँह में कालिमा (काली पुतली) लग रही है। सरवर नीर…फाट=तालाब के सूखने पर उसकी जमीन में चारों ओर दरारें सी पड़ जाती हैं।
(10) बरनि न जाइ रूपा= किसी के साथ उसकी उपमा नहीं दी जा सकती। भुई=सरकंडे का धाुऑं। उघेलु… रूई=सुन और चेतकर, कान की रूई खोल।
(11) एता=इतना। संसौ=संशय। कौन रहनि=वहाँ का रहना क्या? देइ एत…खाँगौं=इतना दो कि फिर मुझे कमी न हो। सोन ढरै=सोना ढलता है, सोने के सिक्के ढाले जाते हैं। बारह बानी=चोखा। दिनारा=दीनार नाम का प्रचलित सोने का सिक्का। अलि=भौंरा।
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राघवचेतन कीन्ह पयाना । दिल्ली नगर जाइ नियराना॥
आइ साह के बार पहूँचा । देखा राज जगत पर ऊँचा॥
छत्तिास लाख तुरुक असवारा । तीस सहस हस्ती दरबारा॥
जहँ लगि तपै जगत पर भानू । तहँ लगि राज करै सुलतानू॥
चहूँ खंड के राजा आवहिं । ठाढ़ झुराहिं, जोहार न पावहिं॥
मन तेवान कै राघव झूरा । नाहिं उबार, जीउ डर पूरा॥
जहँ झुराहिं दीन्हे सिर छाता । तहँ हमार को चालै बाता॥
वार पार नहिं सूझै, लाखन उमर अमीर?
अब खुर खेह जाहुँ मिलि, आइ परेउँ एहि भीर॥1॥
बादशाह सब जाना बूझा । सरग पतार हिये महँ सूझा॥
जौ राजा अस सजग न होई । काकर राज, कहाँ कर कोई॥
जगत भार उन्ह एक सँभारा । तौ थिर रहै सकल संसारा॥
औ अस ओहिक सिंघासन ऊँचा । सब काहू पर दिस्टि पहूँचा॥
सब दिन राजकाज सुख भोगी । रैनि फिरै घर घर होइ जोगी॥
राव रंक जावत सब जाती । सब कै चाह लेइ दिन राती॥
पंथी परदेसी जत आवहिं । सब कै चाह दूत पहुँचावहिं॥
एहू बात तहँ पहुँची, सदा छत्रा सुख छाँह!
बाम्हन एक बार है, कँकन जराऊ बाँह॥2॥
मया साह मन सुनत भिखारी । परदेसी को? पूछु हँकारी॥
हम्ह पुनि जाना है परदेसा । कौन पंथ गवनब, केहि भेसा?॥
दिल्ली राज चिंत मन गाढ़ी । यह जग जैस दूधा कै साढ़ी॥
सैंति बिलोव कीन्ह बहु फेरा । मथि कै लीन्ह घीउ महि केरा॥
एहि दहि लेइ का रहै ढिलाई । साढ़ी काढ़, दही जब ताईं॥
एहि दहि लेइ कित होइ होइ गए । कै कै गरब खेह मिलि गए॥
रावन रंक जारि सब तापा । रहा न जोबन, आव बुढ़ापा॥
भीख भिखारी दीजिए, का बाम्हन का भाँट।
अज्ञा भई हँकारहु, धारती धारै लिलाट॥3॥
राघवचेतन हुत जोनिरासा । ततखन बेगि बोलावा पासा॥
सीस नाइ कै दीन्ह असीसा । चमकत नग कंकन कर दीसा॥
अज्ञा भइ पुनि राघव पाहाँ । तू मंगन कंगन का बाहाँ॥
राघव फरि सीस भुइँ धारा । जुग जुग राज भानु कै करा॥
पदमिनिसिंघलदीप क रानी । रतनसेन चितउरगढ़ आनी॥
कवँल न सरि पूजै तेहि बासा । रूप न पूजै चंद अकासा॥
जहाँ कँवल ससि सूर न पूजा । केहि सरि देउँ, और को दूजा?॥
सोइ रानी संसार मनि, दछिना कंकन दीन्ह।
अछरी रूप देखाइ कै जीउ झरोखे लीन्ह॥4॥
सुनि कै उतर सहि मन हँसा । जानहु बीजु चमकि परगसा॥
काँच जोग जेहि कंचन पावा । मंगन ताहि सुमेरु चढ़ावा॥
नावँ भिखारि जीभ मुख बाँची । अबहुँ सँभारि बात कहु साँची॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं । जेहि के सरि सूरुज ससि नाहीं?॥
जो पदमिनि सो मंदिर मोरे । सातौ दीप जहाँ कर जोरे॥
सात दीप महँ चुनि चुनि आनी । सो मोरे सोरह सै रानी॥
जौ उन्ह कै देखसि एक दासी । देखि लोन होइ लोन बिलासी॥
चहूँ खंड हौं चक्कवै, जस रबि तपै अकास।
जौ पदमावति तौ मोरे, अछरी तौ कबिलास॥5॥
तुम बड़ राज छत्रापति भारी । अनु बाम्हन मैं अहौं भिखारी॥
चारिउ खंड भीख कहँ बाजा । उदय अस्त तुम्ह ऐस न राजा॥
धारमराज औ सत कलि माहाँ । झूठ जो कहै जीभ केहि पाहाँ?॥
किछु जो चारि सब किछु उपराहीं । ते एहि जंबूदीपहि नाहीं॥
पदमावति, अमृत, हंस, सदूरू । सिंघलदीप मिलहिं पै मूरू॥
सातौ दीप देखि हौं आवा । तब राघवचेतन कहवावा॥
अज्ञा होइ, न राखौं धाोखा । कहौं सबै नारिन्ह गुन दोषा॥
इहाँ हस्तिनी, संखिनी, औ चित्रिानि बहु बास।
कहाँ पदमावति पदुम सरि, भँवर फिरै जेहि पास?॥6॥
(1) बार=द्वार। ठाढ़ झुराहिं=खड़े-खड़े सूखते हैं। जोहार=सलाम। तेवान=चिंता, सोच। झूरा=व्याकुल होता है, सूखता है। नाहिं उबार=यहाँ गुजर नहीं। दीन्हे सिर छाता=छत्रापति राजा लोग। उमर=उमरा, सरदार। खुर खेह=घोड़ों की टापों से उठी धाूल में।
(2) सजग=होशियार। रैनि फिरै…जोगी=रात को जोगी के भेस में प्रजा की दशा देखने को घूमता है। चाह=खबर।
(3) मया साह मन=बादशाह के मन में दया हुई। सैंति=संचित करके। बिलोव कीन्ह=मथा। महि=(क) पृथ्वी, (ख) मही, मट्ठा। दहि लेइ=(क) दिल्ली में; (ख) दही लेकर। खेह=धाूल मिट्टी।
(4) हुत=था। संसार मनि=जगत् में मणि के समान।
(5) जेहि कंचन पावा=जिससे सोना पाया। नावँ भिखारि….बाँची=भिखारी के नाम पर अर्थात् भिखारी समझकर तेरे मुँह में जीभ बची हुई है, खींच नहीं ली गई। लोन=लावण्य, सौंदर्य। होइ लोन बिलासी=तू नमक की तरह गल जाय। चक्कवै=चक्रवर्ती।
(6) अनु=और, फिर। भीख कहँ=भिक्षा के लिए। बाजा=पहुँचता है, डटता है। उदय अस्त=उदयाचल से अस्ताचल तक। किछु जो चारि…उपराहीं=जो चार चीजें सबसे ऊपर हैं। मूरू=मूल, असल। बहु बास=बहुत सी रहती हैं।
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