कहानी – खजुराहो की दो मूर्तियाँ – (लेखक – वृंदावनलाल वर्मा)
चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजुराहो के निवासियों और मंदिरों में चहल-पहल थी।
जो बैठा था, उससे एक श्रमिक ने कहा, ‘बीसल, महोबे से जो कारीगर आज आया है, कहता था कि मंदिर के गर्भगृह के चारों ओर दीवार में बारीक जाली का काम किया जाए तो कैसा रहे?’
बीसल बोला, ‘कठिन नहीं है। कोमल जाति के पत्थर में बारीक-से-बारीक जाली छेदी जा सकती है; परंतु अपने यहाँ प्रथा नहीं है।’
‘हाँ, मंदिर में देखी तो हमने भी नहीं है, परंतु महोबेवाले ने क्यों कहा? मंत्री ने कहा होगा।’
‘मंत्री ने कहा हो या न कहा हो, मुल्तान से जो कारीगर लौटे हैं वे जाली, बेलबूट और पत्तियों के काम को ही बहुत कुछ समझने लगे हैं। उस काम में परिश्रम अधिक है, पर मन की उड़ान के लिए अवकाश कम है; और फिर गुरु लोगों ने जो नाप-तौल, आकार-प्रकार मंदिरों के बनाने और सजाने के लिए सतयुग से निश्चित कर रखे हैं, उनकी अवहेलना कैसे की जा सकती है! पत्थर में जालियाँ और बेलबूटे लगाने में विवेक ही कितना लगाना पड़ता है!’
‘बहुत सीधी भी नहीं है। उसमें जो पच्चीकारी की जाती है, वह तो बहुत परिश्रम लेती है।’
बीसल की बात आक्षेप करनेवाले की समझ में नहीं आई। बीसल पढ़ा-लिखा था और अन्य शिल्पी उसको गुरु मानते थे। गूढ़ बात को समझ न पाने पर ‘हाँ’ मिलाने और स्थगित अवसर की ताक में लगे रहने की कुछ परंपरा-सी थी। पर उस श्रमिक ने फिर नम्रता से पूछा, ‘बीसल, आदर्श का मूर्त करना क्या?’
उत्तर मिला, ‘अपने वहाँ आँखों के सामने नित्य आनेवाले स्त्री-पुरुषों की आकृति को पत्थर पर या पत्र पर नहीं उतारते; श्रद्धा, भक्ति, वासना, लालसा, मोह, विशालता के भावों को हृदय में मथकर फिर उनको लक्षणों के अनुसार सुंदरता की लचकों और लोचों में बिठलाते हैं। मेरा प्रयोजन इसी से था।’
‘पर… पर गर्भगृह के चारों ओर जालीदार पत्थर लगा देने से तो गुरुओं की बतलाई गई परिपाटी का बिगाड़ कहाँ होता है! निषेध तो सुना नहीं है; परंतु तुम हम सबसे बहुत अधिक पढ़े-लिखे और जानकार हो, यदि हो तो बतलाओ?’
‘यह तो सोचो कि गर्भगृह में स्थित देवता को कुछ समय के लिए विश्राम भी मिलना चाहिए या वह जाली में निरंतर देखता ही रहे!’
गर्भगृह के द्वार के पट खुलने और बंद होने का समय तय था। यह बात प्रश्न करनेवाले को मालूम थी और तुरंत ध्यान में आ गई। उसने हामी भी भर दी। परंतु उसके भीतर किसी ने कहा, ‘देवता तो सर्वदा और सर्वत्र सजग रहता है और मंदिर के भीतर तथा बाहर स्त्री-पुरुष के नंगे व अश्लील प्रतिबिंब हैं। क्या देवता उनको न देखता होगा?’ और आगे सोचने का साहस उसमें न था। बीसल ने भी कुछ सोचा।
परंपराजन्य श्रद्धा और अंधभक्ति भी मन के भीतर की ठेस को पूरे प्रकार से न दबा सकी – न तो उस शिल्पी की और कम-से-कम थोड़े से अंशों में, न बीसल की।
मंदिर बन चुका था। कालंजर से चंदेल नरेश गंड का मंत्री देखने के लिए आया। निरीक्षण के उपरांत उसने बीसल और उसके सहयोगी शिल्पियों और श्रमिकों की सराहना की, पुरस्कार बाँटे।
दूर-दूर के नर-नारी उत्सव देखने के लिए आए थे। अश्लील मूर्तियों को देखकर थोड़े-बहुतों ने नाक-भौंह सिकोड़ी। उनके विचार ने सांत्वना दी – शिवजी को ठगने के लिए कामदेव ने जो जाल फैलाया था, उसकी प्रतिमाएँ ही तो मूर्तियाँ हैं और शिव जैसे अडिग, निश्चल और स्थिर रहे, उसके प्रतीक मंदिर के भीतर हैं।
यह सांत्वना कहीं खुले रूप में, कहीं मन-ही-मन खजुराहो के उन मंदिरों के निकट आने वाले सभी जनों के भीतर उभार पा रही थी। वसंत पंचमी से लेकर चैत्र की अमावस्या तक यह उत्सव कम-बढ़ रूप में चलता रहा।
एक दिन बीसल के उस सहयोगी ने कहा, ‘गुरु, बहुत से लोग कहते हैं कि यह संसार निस्सार है, केवल माया है; परंतु बाह्य भाग की इन मूर्तियों को देखकर जिनको पत्थर से हमीं लोगों ने गढ़ा है, यह बात तो मन में नहीं रमती। लगता है जैसे वासना का फूल ही सब कुछ हो, जैसे इस प्रकार का जीवन ही सुखदायक हो।’
बीसल बोला, ‘भाई, इन मूर्तियों की अश्लीलता मोहक नहीं है। इनका सुडौलापन ही आकर्षक है। माया अश्लील और वीभत्स है; माया रचनेवाला सुडौल है। सुडौलपने का स्मरण रखो और वीभत्स को मन में न बसने दो। बस!’
‘माया को रचनेवाला सुडौल! समझा नहीं?’
‘इन मूर्तियों की अश्लीलता को मोह का रूप देनेवाला उनका सुडौलपन ही है न! अंग-उपांग उनके बेडौल कर दो, फिर वे सब पैशाचिक और भयावनी हो जाएँगी। पुष्पधन्वा का काम मोहमय है, परंतु वह स्वयं सुंदर और सुरूप है।’
बीसल के सहयोगी का मन नहीं भरा; परंतु किसी कुंठा ने उसकी जिज्ञासा का दमन कर दिया। फिर भी वह दूसरे रूप में प्रकट हुई।
‘संसार में कितनी दुर्बलता है! अपनी आँखों के सामने कितने जर्जर और अस्थि-पंजरवाले नर-नारी नित्य आते-जाते हैं – कितने वृद्ध और रोगग्रस्त! जीवन की निस्सारता का क्या यही वास्तविक रूप नहीं?’
‘उसके अनंतर अवसान का? मृत्यु का?’
‘हाँ, मैं भी यही कहना चाहता था।’
‘परंतु समय तो बाल्य, मध्याह्न, अपराह्न, अस्त और रात्रि में बँटा हुआ है। उसके एक ही अंग पर सबसे अधिक ध्यान क्यों लगाया जाए ?’
‘कामवासना के भिन्न-भिन्न दृश्य रूपों के साथ ही, उनकी बराबरी यदि जर्जर और अस्थि-पंजर नर-नारियों की कुछ मूर्तियाँ भी रखी जाएँ तो कैसा रहे?’ लोग स्मरण रखेंगे कि किसी दिन यह अवस्था भी सुडौल देह की हो जाएगी, इसलिए बहुत पहले से ही उसका सामना करने के लिए जीवन को सुधरे हुए रूप में चलाया जाए।’
बीसल विचार करने लगा। कुछ क्षण बाद बोला, ‘बनाऊँगा। बनाकर मंत्री महाशय के सामने रखूँगा। यदि उन्होंने मान लिया तो जैसा तुमने कहा है, उसी भाँति उनको रखवा दिया जाएगा। साथ-साथ और बराबरी पर तो वे मूर्तियाँ न रह सकेंगी, परंतु उनके ठीक नीचे रख दी जाएँगी। लोग सहज ही उनको निरख सकेंगे।’
बीसल और उसके सहयोगी शिल्पी मनुष्य देह के सारे अंगों से परिचित थे, उसके निरे ढाँचे से भी। उत्सव की समाप्ति के पहले ही उन लोगों ने बड़े श्रम और कौशल के साथ एक वृद्ध और वृद्धा की मूर्तियाँ बनाईं। मूर्तियों की हड्डी पसलियों पर पत्थर में ही खाल उढ़ाई; सिर पर गंज, आँखों में अभिव्यक्ति विहीनता – सब राई-रत्ती स्पष्ट और सम्यक।
बीसल और उसके सहयोगियों ने उन मूर्तियों को शिव मंदिर के बाह्य कक्ष में अश्लील मूर्तियों के नीचे जा रखा। जनता ने देखा और मंत्रियों ने भी।
अस्थि-पंजर की मूर्तियों को देखते ही मंत्री को एक धक्का-सा लगा। अंत में इस देह का यह होगा! बार-बार यह भाव मंत्री के मन में उठा। फिर उसकी आँख उत्सव के प्रमोदों में मग्न, रंग-बिरंगे वस्त्र पहने हुए हँसते-खेलते नर-नारियों पर घूमी। क्या ये सब इन मूर्तियों को देखकर इसी प्रकार को अपने मानस में अंकित कर सकेंगे? अंकित करने के बाद फिर? मंत्री के मन में प्रश्न उठे। उसकी दृष्टि अश्लील मूर्तियों की ओर गई। ये प्रसून परिमल के उन्माद हैं, प्रमाद हैं और कदाचित् प्रलाप – ये भी अवहेलना, उपेक्षा और ग्लानि दे सकती हैं; संभव है विरक्ति भी – मंत्री ने सोचा। क्या दोनों को एक ही स्थान पर रहने दिया जाए? एक के प्रभाव का मर्दन दूसरी मूर्ति करेगी? अथवा दोनों प्रकार की मूर्तियाँ परस्पर सहयोग से एक ही परिणाम पर मानव को पहुँचाते रहने का क्रम स्थापित करेंगी विरक्ति पर? मंत्री का विवेक निर्णय न कर सका। उत्सव के उल्लास के साथ आँख मिचौली सी खेलती हुई जनता के एक भाग ने भी उन मूर्तियों को नेत्रों से टटोला।
किसी ने क्षण के एक अंश में अश्लील मूर्तियों पर आँख को घुमाकर हड्डी-पसलीवाली मूर्तियों पर देर तक ध्यान को ठहराया। ओठ बिदराए और चल दिया। कोई दोनों प्रकार पर एक साथ दृष्टि डालता हुआ आगे बढ़ गया – ध्यान उसका एक पत्थर पर भी स्थिर न हुआ। कुछ लोग मंत्री के व्यक्तित्व और व्यक्तित्व को ढकेलनेवाले वस्त्रों और आभूषणों को देखते रहे। एक सुंदरी वहाँ होकर निकली। अश्लील मूर्तियों को देखते ही उसका चेहरा लाल हो गया। बीसल को देखकर वह लजाई। अस्थि-पंजरवाली मूर्तियों पर जैसी ही उसकी आँख गई, वह काँप गई और फिर भ्रू संकुचित करके वहाँ से तुरंत चली गई।
बीसल ने यह सब परखा।
मंत्री कोई भी निर्णय न कर सका।
उसने बीसल से कहा, ‘तुम्हारी छेनी-हथौड़ी के सूक्ष्म शिल्प पर सारे पुरुषकार न्योछावर हैं। तुम इन दो मूर्तियों को जहाँ चाहो रखो, तुम्हारे ही निर्णय पर छोड़ता हूँ।’
मंत्री चला गया। बीसल निश्चय-अनिश्चय के द्वंद्व में झूलने लगा।
बीसल के मन में किसी ने कहा, ‘तुम्हारी दोनों कृतियों में शिल्प कौशल की पराकाष्ठा है। दोनों एक ही जीवन के भिन्न भिन्न रूप हैं… परंतु….’ किसी ने भीतर-ही-भीतर टोका।
‘पर क्या सौंदर्य अश्लीलता से अलग नहीं किया जा सकता? क्या सुरूप की रेखाएँ, लोचें, लचकें वीभत्स की बाहुओं में भर देनी चाहिए?’
बीसल ने सोचा, ‘तो क्या तांत्रिक भ्रम में है?’
एक क्षण उपरांत वह एक निर्णय पर पहुँचा हो या न पहुँचा हो, परंतु बहुजन उनकी बातों को मानते हैं। उनकी अंतर्निहित वासनाओं को संतोष देने के लिए हम लोगों ने शिल्प का उपयोग किया है। हम कर भी क्या सकते थे?
अश्लील मूर्तियों के वीभत्स से ध्यान हटाकर बीसल ने उनके अंग-सौंदर्य और रचना-कौशल पर जमाया, फिर अस्थि-पंजरवाली मूर्तियों को देखा।
बीसल ने जर्जरता की उन मूर्तियों को मंदिर से हटा दिया। मंदिर के कुछ दूर एक घेरे में खंडित, अनगढ़ और अस्वीकृत मूर्तियों का संग्रह था। उन्हीं में बीसल ने उन दोनों मूर्तियों को रख दिया। उनकी रचना पर उसको हर्ष था और रचना के परिणाम पर विषाद।
‘क्या जीवन यह नहीं है? और क्या वह भी जीवन नहीं है? यदि जीवन का अंत इन हड्डी-पसलियों में ही है और उसका विकास उन मूर्तियों में ही, तो फिर जीवन के किस अंग की मूर्तियाँ बनाया करूँ?’
किसी ने बीसल के भीतर से उत्तर दिया, ‘पसीना बहाते और हँसते-खेलते हुए यदि भ्रम से अस्थि-पंजर भी बनाओ तो चाहे तांत्रिक कुछ कहें और चाहे श्रमण-श्रावक कुछ, तो बुरा भी क्या है?’
खजुराहों के मंदिर समूह के निकट ही हड्डी-पसलियों और झुर्रीदार काल वाली वे दोनों मूर्तियाँ एक घेरे में रखी हुई हैं। खजुराहो के मेले में सम्मिलित होने वाले लोग इनको भी देखते हैं; परंतु क्या वे कुछ वैसा ही सोचते होंगे जैसा बीसल ने सोचा था?
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