उपन्यास – मंगल सूत्र – 2 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)
मि.सिन्हा उन आदमियों में हैं जिनका आदर इसलिए होता है कि लोग उनसे डरते हैं उन्हें ेदेखकर सभी आदमी आइए, आइए करते हैं,लेकिन उनके पीठ गेरते ही कहते हैं-बड़ा ही मूजी आदमी है, इसके काटे का मंत्र नहीं उनका पेशा है मुकदमे बनाना जैसे कवि एक कल्पना पर पूरा काव्य लिख डालता है, उसी तरह सिन्हा साहब भी कल्पना पर मुकदमों की सृष्टि कर डालते हैं न जाने वह कवि क्यों नहीं हुए- मगर कवि होकर वह साहित्य की चाहे जितनी वृध्दि कर सकते, अपना कुछ उपकार न कर सकतेब कानून की उपासना करके उन्हें सभी सिध्दियां मिल गई थीं शानदार बंगले में रहते थे, बडे बडे रईसों और हुक्काम से दोस्ताना था, प्रतिष्ठा भी थी। रोब भी था। कलम में ऐसा जादू था। कि मुकदमे में जान डाल देते। ऐसे-ऐसे प्रसंग सोच निकालते, ऐसे-ऐसे चरित्रों की रचना करते कि कल्पना सजीव हो जाती थी। बडे-बडे घाघ जज भी उसकी तह तक न पहुंच सकते सब कुछ इतना स्वाभाविक, इतना संबध्द होता था। कि उस पर मिथ्या का भ्रम तक न हो सकता था। वह सन्तकुमार के साथ के पढै हुए थे दोनों में गहरी दोस्ती थी। सन्तकुमार के मन में एक भावना उठी और सिन्हा ने उसमे रंगरूप भर कर जीता-जागता पुतला खड़ा कर दिया और आज मुकदमा दायर करने का निश्चय किया जा रहा है
नौ बजे होंगे वकील और मुवक्किल कचहरी जाने की तैयारी कर रहे हैं सिन्हा अपने सजे कमरे में मेज पर टांग फैलाए लेटे हुए हैं गोरे-चिक्रे आदमी, उंचा कद, एकहरा बदन, बडे-बडे बाल पीछे को कंघी से ऐंचे हुए, मूंछें साग, आंखों पर ऐनक, ओठों पर सिगार, चेहरे पर प्रतिभा का प्रकाश, आंखों में अभिमान, ऐसा जान पडता है कोई बड़ा रईस है सन्तकुमार नीची अचकन पहने, गेल्ट कैप लगाए कुछ चिंतित से बैठे हैं
सिन्हा ने आश्वासन दिया-तुम नाहक डरते हो मैं कहता हूं हमारी -तेह है ऐसी सैकड़ो नजीरें मौजूद हैं जिसमें बेटों-पोतों ने बैनामे मंसूख कराये हैं पक्की शहादत चाहिए और उसे जमा करना बाएं हाथ का खेल है
सन्तकुमार ने दुविधा में पडकर कहा-लेकिन गादर को भी तो राजी करना होगा उनकी इच्छा के बिना तो कुछ न हो सकेगा
-उन्हें सीधा करना तुम्हारा काम है
-लेकिन उनका सीधा होना मुश्किल है
-तो उन्हें भी गोली मारोब हम साबित करेंगे कि उनके दिमाग मे खलल है
-यह साबित करना आसान नहीं है जिसने बड़ी-बड़ी किताों लिख डालीं, जो सभ्य समाज का नेता समझा जाता है, जिसकी अक्लमंदी को सारा शहर मानता है, उसे दीवाना कैसे साबित करोगे-
सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा-यह सब मैं देख लूंगा किताा लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बातब मैं तो कहता हूं, जितने लेखक हैं, सभी सनकी हैं-पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा मोल लेते हैं अगर यह लोग अपने होश मे हों तो किताों न लिखकर दलाली करें, यह खोंचे लगायें यहां कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा पुस्तकें लिखकर तो बदहजमी, तपेदिक ही हाथ लगता है रूपये का जुगाड तुम करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड दो और हां आज शाम को क्लब में जरूर आना अभी से कैम्पेन (मुहासरा) शुरू देना चाहिए तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो यह समझ लो, वह सब-जज साहब की अकेली लडकी है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल है सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते मैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल हूं मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रेमिका है सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो उस चुडैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो जैसे झुका हुआ सायबान हो गिर भी आपको दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगी औरतों को अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह मैं आज तक न समझ सका जो रूपवान् हैं वह घमंड करें तो वाजिब है, लेकिन जिसकी सूरत देखकर कै आए, वह कैसे अपने को अप्सरा समझ लेती है उसके पीछे-पीछे घूमते और आशिकी करते जी तो जलता है,मगर गहरी रकम हाथ लगने वाली है, कुछ तपस्या तो करनी ही पडेगी तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी जरा मुश्किल से काबू में आयेगी अपनी सारी कला खर्च करनी पडेगी
-यह कला मैं खूब सीख चुका हूं
-तो आज शाम को आना क्लब में
-जरूर आउंगा
-रूपये का प्रबंध भी करना
-वह तो करना ही पडेगा
इस तरह सन्तकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया सन्तकुमार न लंपट था, न रसिक, मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था, जबान का मीठा भी, दोहरा शरीर, हंसमुख और जहीन चेहरा, गोरा चिक्राब जब सूट पहनकर छड़ी घुमाता हुआ निकलता तो आंखों में खूब जाता था। टेनिस, ब्रिज आदि फैशनेबल खेलों में निपुण था। ही, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में थी।, बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिरजवाबब उसे स्वाध्याय का शौक न था, बहुत थोड़ा पढती थी।, मगर संसार की गति से वाकिफ थी।, और अपनी उपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ-न-कुछ आलोचना कर सकती थी।, कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था। और प्रांजल भाषा मेब मिजाज में नगासत इतनी थी। कि सलीके या तमीज की जरा भी कमी उसे असफ्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनंद आता था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी। कि किसी स्त्रीया पुरूष में जरा भी कुरूचि या भोंडापन देखकर वह भौंओं से या ओंठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी। और पुरूष-समाज में उनकी मनोवृत्ति की ओर उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था। और वह अच्छे-से पहनावे से उसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रूचि न थी।, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देखकर उसे हर्ष होता था। दिन में कितनी ही बार वह नये-नये रूप धरती थी। कभी बैतालियों का भेष धारण कर लेती थी।, कभी गुजरियों का, कभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरूषों को आकर्षित करने का जरा भी भाव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी।
मगर इसके साथ ही वह सरल न थी। और युवकों के मुख से अनुराग-भरी बातें सुनकर वह वैसी ही ठंडी ही रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महभव न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पाकर निराश हो जाते थे मगर सन्तकुमार की रसिकता में उसे अंतज्र्ञान से कुछ रहस्य, कुछ कुशलता का आभास मिला अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रता,जो विहृलता देखी थी। उसका यहां नाम भी न था। सन्तकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतना थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी। और उनके मनोरहस्यों को पढने की चेष्टा करती थी। सन्तकुमार का संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण्ा अपनी ओर खींचती थी। सन्तकुमार ने उसके सामने अपने को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था। और उसे उनसे कुछ हमदर्दी हो गई थी। पुष्पा के रंग-रूप की उन्होंने इतनी प्रशंसा की थी। जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई, मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने केवल पुष्पा के गूहडपन, बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी।, और तिब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था। कि वह पुष्पा को देख पाती तो सन्तकुमार का पक्ष लेकर उससे लडती
एक दिन उसने सन्तकुमार से कहा-तुम उसे छोड क्यों नहीं देते-
सन्तकुमार ने हसरत के साथ कहा-छोड कैसे दूं मिस त्रिवेणी, समाज में रहकर समाज के कानून तो मानने ही पडेगे फिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर है उसने तो अपने आपको नहीं बनाया ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितियों ने जैसा बनाया वैसी बन गई ।
-मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड गई है मैं चाहती हूं वह ढोल को गले से निकालकर किसी खंदक में फेंक दें मेरा बस चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दूं
सन्तकुमार ने अपना जादू चलते हुए देखकर मन में प्रसन्न होकर कहा-लेकिन उसकी क्या हालत होगी, यह तो सोचो।
तिब्बी अधीर होकर बोली-तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है- अपने घर चली जायगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी।
सन्तकुमार ने कहकहा मारा-तिब्बी यथा।र्थ और कल्पना में भेद भी नहीं समझती, कितनी भोली है
फीर उदारता के भाव से बोले-यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी ृ समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देखकर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन मैं इसी शोक में अपना गला क्यों न काट लूं, लेकिन उसे कुछ नहीं हो सकता, छोडना तो असीव है केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड सकता हूं, यानी उसकी बेवफाई लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों यह दोष नहीं है
संध्या हो गई थी। तिब्बी ने नौकर को बुलाकर बाग में गोल चबूतरे पर कुर्सियां रखने को कहा और बाहर निकल आई नौकर ने कुर्सियां निकालकर रख दीं, और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआ
तिब्बी ने डांटकर कहा-कुर्सियां साग क्यों नहीं कीं- देखता नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है- मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी,मगर तुझे याद ही नहीं रहती बिना जुर्माना किए तुझे याद न आयेगी
नौकर ने कुर्सियां पोंछ-पोंछ कर साग कर दीं और फिर जाने को हुआ
तिब्बी ने गिर डांटा-तू बार-बार भागता क्यों है मेजें रख दीं- टी-टेबल क्यों नहीं लाया- चाय क्या तेरे सिर पर पिएंगे-
उसने बूढे नौकर के दोनो कान गर्मा दिये और धक्का देकर बोली-बिल्कुल गादी है, निरा पोंगा, जैसे दिमाग में गोबर भरा हुआ है
बूढ़ा नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थीं उनके देहांत होने के बाद गोकि उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रूपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी। पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रध्दा थी। वह उसे इस घर से बांधे हुए थी। और यहां अनादर और अपमान सब कुछ सहकर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब भी उसे डांटते रहते थे पर उनके डांटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड के थे लेकिन त्रिवेणी को तो उसने गोद खेलाया था। अब वही तिब्बी उसे डांटती थी।, और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी। उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनो ही घरों में लडकियां भी थीं बहुए भी थीं सब उसका आदर करती थीं बहुएं तो उससे लजाती थीं अगर उससे कोई बात बिगड भी जाती तो मन में रख लेती थीं उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहाब बाबू जी कभी कुछ कहते तो उसका पक्ष लेकर उनसे लडती थी। और यह लडकी बडे-छोटे का जरा भी लिहाज नहीं करती लोग कहते हैं पढने से अक्ल आती है यही है वह अक्ल उसके मन में विद्रोह का भाव उठा-क्यों यह अपमान सहे- जो लडकी उसकी अपनी लडकी से भी छोटी हो, उसके हाथों क्यों अपनी मूंछें नुचवाये- अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभिमान से कम नहीं होता वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पाकर मर्माहत हो जाता है
घूरे ने टी-टेबल लाकर रख दी, पर आंखों में विद्रोह भरे हुए था।
तिब्बी ने कहा-जाकर बैरा से कह दो, दो प्याले चाय दे जाय
घूरे चला गया और बैरा को यह हुक्म सुनाकर अपनी एकांत कुटी में जाकर खूब रोयाब आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों होता
बैरा ने चाय मेज पर रख दी तिब्बी ने प्याली सन्तकुमार को दी और विनोद भाव से बोली-तो अब मालूम हुआ कि औरतें ही पतिव्रता नहीं होतीं, मर्द भी पत्नीव्रत वाले होते हैं
सन्तकुमार ने एक घूंट पीकर कहा-कम-से-कम इसका स्वांग तो करते ही हैं
-मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूं जिस प्यारा कहो, दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाय मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूं, धर्मबंधन या रिवाज बंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाय
-उस पर भी तो पुरूषों पर आक्षेप किये जाते हैं
तिब्बी चौंकी यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा है
अब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पडेगा-तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरूष देवता होते हैं- आप भी जो वगादारी कर रहे हैं वह दिल से नहीं, केवल लोकनिंदा के भय से मैं इसे वगादारी नहीं कहती बिच्छू के डक तोडकर आप उसे बिल्कुल निरीह बना सकते हैं, लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जाता
सन्तकुमार ने अपनी हार मानते हुए कहा-अगर मैं भी यही कहूं कि अधिकतर नारियों का पातिव्रत भी लोकनिंदा का भय है तो आप क्या कहेंगी-
तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा-मैं इसे कभी न स्वीकार करूंगी
-क्यों-
-इसलिए कि मर्दो ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं पतिव्रत उनके अंदर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं वह केवल पुरूष के आधार पर जी सकती है उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं बिन ब्याहा पुरूष चैन से खाता है, विहार करता है और मूंछों पर ताव देता है बिन ब्याही स्त्रीरोती है, कलपती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझती है यह सारा मदोऊ का अपराध है आप भी पुष्पा को नहीं छोड रहे हैं इसीलिए न कि आप पुरूष हैं जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहता
सन्तकुमार ने कातर स्वर में कहा-आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं मैं पुष्पा को इसलिए नहीं छोड रहा हूं कि मैं उसका जीवन नष्ट नहीं करना चाहता अगर मैं आज उसे छोड दूं तो शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगी
तिब्बी मुस्कराई-मेरी तरफ से आप निश्ंचित रहिए मगर एक ही क्षण के बाद उसने ग़ीाीर होकर कहा-लेकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूं
-मुझे आपके मुंह से ये शब्द सुनकर कितना संतोष हुआ मैं वास्तव में आपकी दया का पात्र हूं और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पडे
आपके उपर मुझे सचमुच दया आती है क्यों न एक दिन उनसे किसी तरह मेरी मुलाकात करा दीजिए शायद मैं उन्हे रास्ते पर ला सकूं
सन्तकुमार ने ऐसा लंबा मुंह बनाया जैसे इस प्रस्ताव से उनके मर्म पर चोट लगी है
-उनका रास्ते पर आना असीव है मिस त्रिवेणी वह उलटे आप ही के उपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुष्कल्पनाएं कर बैठेगी और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जायेगा
तिब्बी का साहसिक मन गर्म हो उठा-तब तो मैं उससे जरूर मिलूंगी
-तो शायद आप यहां भी मेरे लिए दरवाजा बंद कर देंगी
-ऐसा क्यों-
-बहुत मुमकिन है वह आपकी साहनुभूति पा जाय और आप उसकी हिमायत करने लगें
-तो क्या आप चाहते हैं मैं आपको एकतर्फा डिग्री दे दूं-
-मैं केवल आपकी दया और हमदर्दी चाहता हूं आपसे अपनी मनोव्यथा। कहकर दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूं उसे मालूम हो जाय कि मैं आपके यहां आता-जाता हूं तो एक नया किस्सा खड़ा कर दे।
तिब्बी ने सीधे व्यंग्य किया-तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं- डरना तो मुझे चाहिए
सन्तकुमार ने और गहरे में जाकर कहा-मै आपके लिए ही डरता हूं, अपने लिए नहीं
तिब्बी निर्भयता से बोली-जी नहीं, आप मेरे लिए न डरिए
-मेरे जीते जी, मेरे पीछे, आप पर कोई शुबहा हो यह मैं नहीं देख सकता
-आपको मालूम है मुझे भावुकता पसंद नहीं-
-यह भावुकता नहीं, मन के सच्चे भाव हैं
-मैंने सच्चे भाववाले युवक बहुत कम देखे
-दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं
-अधिकतर शिकारी किस्म केब स्त्रियों में तो वेश्याएं ही शिकारी होती हैं पुरूषों में तो सिरे से सभी शिकारी होते हैं
-जी नहीं, उनमें अपवाद भी बहुत हैं
-स्त्रीरूप नहीं देखती पुरूष जब गिरेगा रूप पर इसीलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता मेरे यहां कितने ही रूप के उपासक आते हैं शायद इस वक्त भी कोई साहब आ रहे हों मैं रूपवती हूं, इसमें नम्रता का कोई प्रश्न नहीं मगर मैं नहीं चाहती कोई मुझे केवल रूप के लिए चाहे
सन्तकुमार ने धडकते हुए मन से कहा-आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं-
तिब्बी ने तत्परता के साथ कहा-आपको तो मैं अपने चाहने वालों में समझती ही नहीं
सन्तकुमार ने माथा। झुकाकर कहा-यह मेरा दुर्भाग्य है
-आप दिल से नहीं कह रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आपका मन नहीं पाती आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं
-यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूं
-मैं रहस्य नहीं हूं मैं तो साग कहती हूं मैं ऐसे मनुष्य की खोज में हूं, जो मेरे हृदय में सोये हुए पे्रेम को जगा दे हां, वह बहुत नीचे गहराई में है, और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो आपमें मैंने कभी उसके लिए बैचेनी नहीं पाई मैंने अब तक जीवन का रोशन पहलू ही देखा है और उससे उब गई हूं अब जीवन का अंधेरा पहलू देखना चाहती हूं जहां त्याग है, रूदन है, उत्सर्ग है सीव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाय, लेकिन मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी उफंचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखेधड़ी या व्यापार के नाम से की जाने वाली लूट को अपने जीवन का आधार बनाए श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पडता है आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूं बाबू जी को एक हजार रूपये अपने छोटे-से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे-काम-धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है- मगर यह सब समझकर भी मुझमें कर्म करने की शक्ति नहीं है इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है और मेरे मिजाज में अमीरी कितनी है यह भी आपने देखा होगा मेरे मुंह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाय तो मैं बावली हो जाती हूं बुध्दि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है जैसे शराबी बार-बार हराम करने पर शराब नहीं छोड सकता वही दशा मेरी है उसी की भांति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।
तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्राय: चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता, क्योंकि शंका होती थी। कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फबतिया कसने लगेगी पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है उसकी आंखें आर्द्र हो गई थीं मुख पर एक निश्ंचित नम्रता और कोमलता खिल उठी थी। सन्तकुमार ने देखा उनका संयम फिसलता जा रहा है जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।
बोला-कितनी ही बार बिल्कुल यही मेरे विचार हैं मैं आपसे उससे बहुत निकट हूं, जितना समझता था।।
तिब्बी प्रसन्न होकर बोली-आपने मुझे कभी बताया नहीं
-आप भी तो आज ही खुली हैं
-मैं डरती हूं कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं तो मैं उसे जरूर काम में लाती इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए
सन्तकुमार ने रसिक भाव से कहा-मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्मभरी आंखों से देखा
तिब्बी ने आंखें नीची नहीं कीं उनका हाथ पकडकर बोली-आप तो दिल्लगी करते हैं मुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूं मुझे बार-बार खटकता है अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता
और जैसे वह आज सन्तकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती मानो वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूंढ रही थी। वह यकायक मिल गया है
सन्तकुमार ने रूखाई भरे स्वर में कहा-स्त्रियां पुरूषों से ज्यादा दिलेर होती हैं मिस त्रिवेणी
-अच्छा आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डालें-
इस विशुध्द मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए सन्तकुमार का हृदय कांप उठा।
-कुछ न पूछो बस आदमी एक आह खींचकर रह जाता है
-मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूं और वही स्वप्न देखती हूं देखिए दुनिया वाले कितने खुदगर्ज हैं जिस व्यवस्था से सारे समाज का उध्दार हो सकता है वह थोडे से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुई है
सन्तकुमार ने उतरे हुए मुख से कहा-उसका समय आ रहा है और उठ खडे हुए यहां की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था। जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो
तिब्बी ने आग्रह किया-कुछ देर और बैठिए न-
-आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आउंगा
-कब आइएगा-
-जल्द ही आउंगा
-काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती
सन्तकुमार बरामदे से कूदकर नीचे उतरे और तेजी से हाते के बाहर चले गए तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही वह कठोर थी।, चंचल थी।, दुर्लभ थी।, रूपगर्विता थी।, चतुर थी।, किसी को कुछ समझती न थी।, न कोई उसे प्रेम का स्वांग भरकर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियों के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सारे अविश्वास के बीच में कोमल, सहमा हुआ, विश्वास छिपा बैठा था। और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था। उस कोमल भाग का स्पर्श होते ही वह सीधी-सादी, सरल विश्वासमयी, कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से सन्तकुमार ने वह आसन पा लिया था। और अब वह जिस तरफ चाहे उसे ले जा सकता है, मानो वह मेस्मराइज हो गई थी। सन्तकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता अभागिनी पुष्पा इस सत्यपुरूष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है इन्हें तो ऐसी संगिनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे, हमेशा इनके पीछे-पीछे रहे पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बनकर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है और इतने पर भी सन्तकुमार का उसे गले बांधे रखना देवत्व से कम नहीं उनकी वह कौन-सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे
सन्तकुमार यहां से चले तो उनका हृदय आकाश में था। इतनी जल्द देवी से उन्हें वरदान मिलेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ तकदीर ने ही जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे-अच्छों को डफलियों पर नचाती है, उन पर क्यों इतनी भक्ति करती अब उन्हें विलंब न करना चाहिए कौन जाने कब तिब्बी विरूध्द हो जाय और यह दो ही चार मुलाकातों में होने वाला है तिब्बी उन्हें कार्य-क्षेत्र में आगे बढने की प्रेरणा करेगी और वह पीछे हटेंगे वहीं मतभेद हो जाएगा यहां से वह सीधे मिृ सिन्हा के घर पहुंचे शाम हो गई थी। कुहरा पडना शुरू हो गया था। मि. सिन्हा सजे-सजाए कहीं जाने को तैयार खडे थे इन्हें देखते ही पूछाµ
-किधर से-
-वहीं से आज तो रंग जम गया
-सच
-हां जी उस पर तो जैसे मैंने जादू की लकड़ी गेर दी हो
-गिर क्या, बाजी मार ली है अपने गादर से आज ही जिद्र छेड़ो
-आपको भी मेरे साथ चलना पडेगा
-हां, हां( मैं तो चलूंगा ही मगर तुम तो बडे खुशनसीब निकले-यह मिस कामत तो मुझसे सचमुच आशिकी कराना चाहती है मैं तो स्वांग रचता हूं और वह समझती है, मैं उसका सच्चा प्रेमी हूं जरा आजकल उसे देखो, मारे गरूर के जमीन पर पांव ही नहीं रखती मगर एक बात है, औरत समझदार है उसे बराबर यह चिंता रहती है मैं उसके हाथ से निकल न जाउं, इसलिए मेरी बड़ी खातिरदारी करती है,और बनाव-सिंगार से कुदरत की कमी जितनी पूरी हो सकती है उतनी करती है और अगर कोई अच्छी रकम मिल जाय तो शादी कर लेने ही में क्या हरज है
सन्तकुमार को आश्चर्य हुआ-तुम तो उसकी सूरत से बेजार थे
-हां, अब भी हूं, लेकिन रूपये की जो शर्त है डाक्टर साहब बीस-पच्चीस हजार मेरी नजर कर दें, शादी कर लूं शादी कर लेने से में उसके हाथ में बिका तो नहीं जाता
दूसरे दिन दोनों मित्रों ने देवकुमार के सामने सारे मंसूबे रख दिए देवकुमार को एक क्षण तक तो अपने कानों पर विश्वास न हुआ उन्होंने स्वच्छंद, निर्भीक, निष्कपट जिंदगी व्यतीत की थी। कलाकारों में एक तरह का जो आत्माभिमान होता है ,उसने सदैव उनको ढारस दिया था। उन्होंने तकलीफें उठाई थीं, फाके भी किए थे, अपमान सहे थे लेकिन कभी अपनी आत्मा को कलुषित न किया था। जिंदगी में कभी अदालत के द्वार तक ही नहीं गए बोले-मुझे खेद होता है कि तुम मुझसे यह प्रस्ताव कैसे कर सके और इससे ज्यादा दुख इस बात का है कि ऐसी कुटिल चाल तुम्हारे मन में आई क्योंकर
सन्तकुमार ने निस्संकोच भाव से कहा-जरूरत सब कुछ सिखा देती है स्वरक्षा प्रकृति का पहला नियम है वह जायदाद जो आपने बीस हजार में दे दी, आज दो लाख से कम की नहीं है
-वह दो लाख की नहीं, दस लाख की हो मेरे लिए वह आत्मा को बेचने का प्रश्न है मैं थोडे से रूपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता
दोनों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराए कितनी पुरानी दलील है और कितनी लचर आत्मा जैसी चीज है कहां- और जब सारा संसार धोखेधड़ी पर चल रहा है तो आत्मा कहां रही- अगर सौ रूपये कर्ज देकर एक हजार वसूल करना अधर्म नहीं है, अगर एक लाख नीमजान, गाकेकश मजदूरों की कमाई पर एक सेठ का चैन करना अधर्म नहीं है तो एक पुरानी कागजी कार्रवाई को रद कराने का प्रयत्न क्यों अधर्म हो-
सन्तकुमार ने तीखे स्वर में कहा-अगर आप इसे आत्मा का बेचना कहते हैं तो बेचना पडेगा इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है और आप इस दृष्टि से इस मामले को देखते ही क्यों है- धर्म वह है जिससे समाज का हित हो अधर्म वह है जिससे समाज का अहित हो इससे समाज का कौन-सा अहित हो जायगा, यह आप बता सकते हैं-
देवकुमार ने सतर्क होकर कहा-समाज अपनी मर्यादाओं पर टिका हुआ है उन मर्यादाओं को तोड दो और समाज का अंत हो जाएगा
दोनों तरफ से शास्त्रार्थ होने लगे देवकुमार मर्यादाओं और सिध्दांतों और धर्म-बंधनों की आड ले रहे थे, पर इन दोनों नौजवानों की दलीलों के सामने उनकी एक न चलती थी। वह अपनी सुफेद दाढ़ी पर हाथ फेर-फेरकर और खल्वाट सिर खुजा-खुजा कर जो प्रमाण देते थे उसको यह दोनों युवक चुटकी बजाते तून डालते थे, धुनककर उड़ा देते थे
सिन्हा ने निर्दयता के साथ कहा-बाबूजी, आप न जाने किस जमाने की बातें कर रहे हैं कानून से हम जितना फायदा उठा सकें, हमें उठाना चाहिए उन दफों का मंशा ही यह है कि उनसे फायदा उठाया जाय अभी आपने देखा जमींदारों की जान महाजनों से बचाने के लिए सरकार ने कानून बना दिया है और कितनी मिल्कियतें जमींदारों को वापस मिल गई क्या आप इसे अधर्म कहेंगे- व्यावहारिकता का अर्थ यही है कि हम जिन कानूनी साधनों से अपना काम निकाल सकें, निकालें मुझे कुछ लेना-देना नहीं, न मेरा कोई स्वार्थ है सन्तकुमार मेरे मित्र हैं और इसी वास्ते मैं आपसे यह निवेदन कर रहा हूं मानें या न मानें, आपको अख्तियार है
देवकुमार ने लाचार होकर कहा-तो आखिर तुम लोग मुझे क्या करने को कहते हो-
-कुछ नहीं, केवल इतना ही कि हम जो कुछ करें आप उसके विरूध्द कोई कार्रवाई न करें
मैं सत्य की हत्या होते नहीं देख सकता
सन्तकुमार ने आंखें निकाल कर उत्तेजित स्वर में कहा-तो फिर आपको मेरी हत्या देखनी पडेगी
सिन्हा ने सन्तकुमार को डांटा-क्या फजूल की बातें करते हो सन्तकुमार बाबू जी को दो-चार दिन सोचने का मौका दो तुम अभी किसी बच्चे के बाप नहीं हो तुम क्या जानो बाप को बेटा कितना प्यारा होता है वह अभी कितना ही विरोध करें, लेकिन जब नालिश दायर हो जायगी तो देखना वह क्या करते हैं हमारा दावा यही होगा कि जिस वक्त आपने यह बैनामा लिखा, आपके होश-हवास ठीक न थे और अब भी आपको कभी-कभी जुनून का दौरा हो जाता है हिन्दुस्तान जैसे फार्म मुल्क में यह मरज बहुतों को होता है, और आपको भी हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं हम सिविल सर्जन से इसकी तसदीक करा देंगे
देवकुमार ने हिकारत के साथ कहा-मेरे जीते-जी यह धांधली नहीं हो सकती हरगिज नहीं मैंने जो कुछ किया सोच-समझकर और परिस्थितियों के दबाव से किया मुझे उसका बिल्कुल अफसोस नहीं है अगर तुमने इस तरह का कोई दावा किया तो उसका सबसे बड़ा विरोध मेरी ओर से होगा, मैं कहे देता हूं
और वह आवेश में आकर कमरे में टहलने लगे
सन्तकुमार ने भी खडे होकर धमकाते हुए कहा-तो मेरा भी आपको चेलेंज है या तो आप अपने धर्म ही की रक्षा करेंगे या मेरी आप फिर मेरी सूरत न देखेंगे
-मुझे अपना धर्म, पत्नी और पुत्र सबसे प्यारा है
सिन्हा ने सन्तकुमार को आदेश किया-तुम आज दर्खास्त दे दो कि आपके होश-हवास में फर्क आ गया और मालूम नहीं आप क्या कर बैठें आपको हिरासत में ले लिया जाय
देवकुमार ने मुट्ठी तानकर द्रोध के आवेश में पूछा-मैं पागल हूं-
-जी हां, आप पागल हैं आपके होश बजा नहीं हैं ऐसी बातें पागल ही किया करते हैं पागल वही नहीं है जो किसी को काटने दौडे आम आदमी जो व्यवहार करते हों उसके विरूध्द व्यवहार करना भी पागलपन है
-तुम दोनों खुद पागल हो
-इसका फैसला तो डाक्टर करेगा
-मैंने बीसों पुस्तकें लिख डालीं, हजारों व्याख्यान दे डाले, यह पागलों का काम है-
-जी हां, यह पक्के सिरफिरों का काम है कल ही आप इस घर में रस्सियों से बांध लिये जायंगे
-तुम मेरे घर से निकल जाओ नहीं तो मैं गोली मार दूंगा
-बिल्कुल पागलों की-सी धमकी सन्तकुमार उस दर्खास्त में यह भी लिख देना कि आपकी बंदूक छीन ली जाय, वरना जान का खतरा है
और दोनों मित्र उठ खडे हुए देवकुमार कभी कानून के जाल में न फंसे थे प्रकाशकों और बुकसेलरों ने उन्हें बारहा धोखे दिए, मगर उन्होंने कभी कानून की शरण न लीब उनके जीवन की नीति थी।-आप भला तो जग भला, और उन्होंने हमेशा इस नीति का पालन किया था। मगर वह दब्बू या डरपोक न थे खासकर सिध्दांत के मुआमले में तो वह समझौता करना जानते ही न थे वह इस षडयंत्र में कभी शरीक न होंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय मगर क्या यह सब सचमुच उन्हें पागल साबित कर देंगे- जिस दृढता से सिन्हा ने धमकी दी थी। वह उपेक्षा के योग्य न थी। उसकी ध्वनि से तो ऐसा मालूम होता था। कि वह इस तरह के दांव-पेंच में अभ्यस्त है, और शायद डाक्टरों को मिलाकर सचमुच उन्हें सनकी साबित कर दे उनका आत्माभिमान गरज उठा-नहीं, वह असत्य की शरण न लेंगे चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी सहना पड़े डाक्टर भी क्या अंधा है- उनसे कुछ पूछेगा, कुछ बातचीत करेगा या योंही कलम उठाकर उन्हें पागल लिख देगा मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनके होश-हवास में फितूर पड गया हो हुश वह भी इन छोकरों की बातों में आए जाते हैं उन्हें अपने व्यवहार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता उनकी बुध्दि सूर्य के प्रकाश की भाति निर्मल है कभी नहीं वह इन लौंडों के धौंस में न आयेंगे
लेकिन यह विचार उनके हृदय को मथ रहा था। कि सन्तकुमार की यह मनोवृत्ति कैसे हो गई उन्हें अपने पिता की याद आती थी। वह कितने सौम्य, कितने सत्यनिष्ठ थे उनके ससुर वकील जरूर थे, पर कितने धर्मात्मा पुरूष थे अकेले कमाते थे और सारी गृहस्थी का पालन करते थे पांच भाइयों और उनके बाल-बच्चों का बोझा खूद सीले हुए थे क्या मजाल कि अपने बेटे-बेटियों के साथ उन्होंने किसी तरह का पक्षपात किया हो जब तक बडे भाई को भोजन न करा लें खुद न खाते थे ऐसे खानदान में सन्तकुमार जैसा दगाबाज कहां से धंस पड़ा- उन्हें कभी ऐसी कोई बात याद न आती थी। जब उन्होंने अपनी नीयत बिगाड़ी हो
लेकिन यह बदनामी कैसे सही जायगी वह अपने ही घर में जब जागृति न ला सके तो एक प्रकार से उनका सारा जीवन नष्ट हो गया जो लोग उनके निकटतम संसर्ग में थे, जब उन्हें वह आदमी न बना सके तो जीवन-पर्यन्त की साहित्य-सेवा से किसका कल्याण हुआ- और जब यह मुकदमा दायर होगा उस वक्त वह किसे मुंह दिखा सकेंगे- उन्होंने धन न कमाया, पर यश तो संचय किया ही क्या वह भी उनके हाथ से छिन जायगा- उनको अपने संतोष के लिए इतना भी न मिलेगा ऐसी आत्मवेदना उन्हें कभी न हुई थी।
शैव्या से कहकर वह उसे भी क्यों दुखी करें- उसके कोमल हृदय को क्यों चोट पहुंचावें- वह सब कुछ खुद झेल लेंगे और दुखी होने की बात भी क्यों हो- जीवन तो अनुभूतियों का नाम है यह भी एक अनुभव होगा जरा इसकी भी सैर कर लें
यह भाव आते ही उनका मन हल्का हो गया घर में जाकर पंकजा से चाय बनाने को कहा
शैव्या ने पूछा-सन्तकुमार क्या कहता था।-
उन्होंने सहज मुस्कान के साथ कहा-कुछ नहीं, वही पुराना खत
-तुमने तो हामी नहीं भरी न-
देवकुमार स्त्रीसे एकात्मता का अनुभव करके बोले-कभी नहीं
-न जाने इसके सिर यह भूत कैसे सवार हो गया
-सामाजिक संस्कार हैं और क्या-
-इसके यह संस्कार क्यों ऐसे हो गए- साधु भी तो है, पंकज भी तो है, दुनिया में क्या धर्म ही नहीं-
-मगर कसरत ऐसे ही आदमियों की है, यह समझ लो
उस दिन से देवकुमार ने सैर करने जाना छोड दिया दिन-रात घर में मुंह छिपाए बैठे रहते जैसे सारा कलंक उनके माथे पर लगा हो नगर और प्रांत के सभी प्रतिष्ठित, विचारवान आदमियों से उनका दोस्ताना था, सब उनकी सज्जनता का आदर करते थे मानो वह मुकदमा दायर होने पर भी शायद कुछ न कहेंगे लेकिन उनके अंतर में जैसे चोर-सा बैठा हुआ था। वह अपने अहंकार में अपने को आत्मीयों की भलाई-बुराई का जिम्मेदार समझते थे पिछले दिनों जब सूर्यग्रहण के अवसर पर साधुकुमार ने बढ़ी हुई नदी में कूदकर एक डूबते हुए आदमी की जान बचाई थी।, उस वक्त उन्हें उससे कहीं ज्यादा खुशी हुई थी। जितनी खुद सारा यश पाने से होतीब उनकी आंखों में आंसू भर आए थे, ऐसा लगा था। मानो उनका मस्तक कुछ उंचा हो गया है, मानो मुख पर तेज आ गया है वही लोग जब सन्तकुमार की चितकबरी आलोचना करेंगे तो वह कैसे सुनेंगे-
इस तरह एक महीना गुजर गया और सन्तकुमार ने मुकदमा दायर न किया उधर सिविल सर्जन को गांठना था, इधर मिृ मलिक को शहादतें भी तैयार करनी थीं इन्हीं तैयारियों में सारा दिन गुजर जाता था। और रूपये का इंतजाम भी करना ही था। देवकुमार सहयोग करते तो यह सबसे बड़ी बाधा हट जाती पर उनके विरोध ने समस्या को और जटिल कर दिया था। सन्तकुमार कभी-कभी निराश हो जाता कुछ समझ में न आता क्या करे दोनों मित्र देवकुमार पर दांत पीस-पीसकर रह जाते
सन्तकुमार कहता-जी चाहता है इन्हें गोली मार दूं मैं इन्हें अपना बाप नहीं, शत्रु समझता हूं।
सिन्हा समझाता-मेरे दिल में तो भई, उनकी इज्जत होती है अपने स्वार्थ के लिए आदमी नीचे से नीचा काम कर बैठता है, पर त्यागियों और सत्यवादियों का आदर तो दिल में होता ही है न जाने तुम्हें उन पर कैसे गुस्सा आता है जो व्यक्ति सत्य के लिए बडे से बड़ा कष्ट सहने को तैयार हो वह पूजने के लायक है
-ऐसी बातों से मेरा जी न जलाओ सिन्हा तुम चाहते तो वह हजरत अब तक पागलखाने में होते मैं न जानता था। तुम इतने भावुक हो
-उन्हें पागलखाने भेजना इतना आसान नहीं जितना तुम समझते हो और इसकी कोई जरूरत भी तो नहीं हम यह साबित करना चाहते हैं कि जिस वक्त बैनामा हुआ वह अपने होश-हवास में न थे इसके लिए शहादतों की जरूरत है वह अब भी उसी दशा में हैं इसे साबित करने के लिए डाक्टर चाहिए और मि. कामत भी यह लिखने का साहस नहीं रखते
पृं देवकुमार को धमकियों से झुकाना तो असीव था। मगर तर्क के सामने उनकी गर्दन आप-ही-आप झुक जाती थी। इन दिनों वह यही सोचते रहते थे कि संसार की कुव्यवस्था क्यों हैं- कर्म और संस्कार का आश्रय लेकर वह कहीं न पहुंच पाते थे सर्वात्मवाद से भी उनकी गुत्थी न सुलझती थी। अगर सारा विश्व एकात्म है तो गिर यह भेद क्यों है- क्यों एक आदमी जिंदगी-भर बड़ी-से-बड़ी मेहनत करके भी भूखों मरता है, और दूसरा आदमी हाथ-पांव न हिलाने पर भी गूलों की सेज पर सोता है यह सर्वात्म है या घोर अनात्म- बुध्दि जवाब देती-यहां सभी स्वाधीन हैं, सभी को अपनी शक्ति और साधना के हिसाब से उन्नति करने का अवसर है मगर शंका पूछती-सबको समान अवसर कहां है- बाजार लगा हुआ है जो चाहे वहां से अपनी इच्छा की चीज खरीद सकता है मगर खरीदेगा तो वही जिसके पास पैसे हैं और जब सबके पास पैसे नहीं हैं तो सबका बराबर का अधिकार कैसे माना जाय- इस तरह का आत्ममंथन उनके जीवन में कभी न हुआ था। उनकी साहित्यिक बुध्दि ऐसी व्यवस्था से संतुष्ट तो हो ही न सकती थी।, पर उनके सामने ऐसी कोई गुत्थी न पड़ी थी। जो इस प्रश्न को वैयक्तिक अंत तक ले जाती इस वक्त उनकी दशा उस आदमी की-सी थी। जो रोज मार्ग में ईटें पडे देखता है और बचकर निकल जाता है रात को कितने लोगों को ठोकर लगती होगी, कितनों के हाथ-पैर टूटते होंगे, इसका ध्यान उसे नहीं आता मगर एक दिन जब वह खुद रात को ठोकर खाकर अपने घुटने फोड लेता है तो उसकी निवारण-शक्ति हठ करने लगती है और वह उस सारे ढेर को मार्ग से हटाने पर तैयार हो जाता है देवकुमार को वही ठोकर लगी थी। कहां है न्याय- कहां हैं- एक गरीब आदमी किसी खेत से बालें नोचकर खा लेता है, कानून उसे सजा देता है दूसरा अमीर आदमी दिन-दहाडे दूसरों को लूटता है और उसे पदवी मिलती है, सम्मान मिलता है कुछ आदमी तरह-तरह के हथियार बांधकर आते हैं और निरीह, दुर्बल मजदूरों पर आतंक जमाकर अपना गुलाम बना लेते हैं लगान और टैक्स और महसूल और कितने ही नामों से उसे लूटना शुरू करते हैं, और आप लंबा-लंबा वेतन उड़ाते हैं, शिकार खेलते हैं, नाचते हैं, रंग-रेलियां मनाते हैं यही है ईश्वर का रचा हुआ संसार- यही न्याय है-
हां, देवता हमेशा रहेंगे और हमेशा रहे हैं उन्हें अब भी संसार धर्म और नीति पर चलता हुआ नजर आता है वे अपने जीवन की आहुति देकर संसार से विदा हो जाते हैं लेकिन उन्हें देवता क्यों कहो- कायर कहो, स्वार्थी कहो, आत्मसेवी कहो देवता वह है जो न्याय की रक्षा करे और उसके लिए प्राण दे देब अगर वह जानकर अनजान बनता है तो धर्म से गिरता है अगर उसकी आंखों में यह कुव्यवस्था खटकती ही नहीं तो वह अंधा भी है और मूर्ख भी, देवता किसी तरह नहीं और यहां देवता बनने की जरूरत भी नहीं देवताओं ने ही भाग्य और ईश्वर और भक्ति का मिथ्याएं गैलाकर इस अनीति को अमर बनाया है मनुष्य ने अब तक इसका अंत कर दिया होता या समाज का ही अंत कर दिया होता जो इस दशा में जिंदा रहने से कहीं अच्छा होता नहीं, मनुष्यों में मनुष्य बनना पडेगा दरिंदों के बीच में उनसे लडने के लिए हथियार बांधना पडेगा उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं, जडता है आज जो इतने ताल्लुकेदार और राजे हैं वह अपने पूर्वजों की लूट का ही आनंद तो उठा रहे हैं और क्या उन्होंने वह जायदाद बेच कर पागलपन नहीं किया- पितरों को पिंडा देने के लिए गया जाकर पिंडा देना और यहां आकर हजारों रूपये खर्च करना क्या जरूरी था।- और रातों को मित्रों के साथ मुजरे सुनना, और नाटक-मंडली खोलकर हजारों रूपये उसमें डुबाना अनिवार्य था।- वह अवश्य पागलपन था। उन्हें क्यों अपने बाल-बच्चों की चिन्ता नहीं हुई- अगर उन्हें मुर्ति की संपत्ति मिली और उन्होंने उड़ाया तो उनके लडके क्यों न मुर्ति की संपत्ति भोगें- अगर वह जवानी की उमंगों को नहीं रोक सके तो उनके लडके क्यों तपस्या करें-
और अंत में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्कीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, आत्मघात है और जुआ खेलकर या दूसरों के लोभ और आसक्ति से फायदा उठाकर संपत्ति खड़ी करना उतना ही बुरा या अच्छा है जितना कानूनी दांव-पेंच से बेशक वह महाजन के बीस हजार के कर्जदार हैं नीति कहती है कि उस जायदाद को बेचकर उसके बीस हजार दे दिये जायं बाकी उन्हें मिल जाय अगर कानून कर्जदारों के साथ इतना न्याय भी नहीं करता तो कर्जदार भी कानून में जितनी खींचतान हो सके करके महाजन से अपनी जायदाद वापस लेने की चेष्टा करने में किसी अधर्म का दोषी नहीं ठहर सकता इस निष्कर्ष पर उन्होंने शास्त्र और नीति के हरेक पहलू से विचार किया और वह उनके मन में जम गया अब किसी तरह नहीं हिल सकता और यद्यपि इससे उनके चिर-संचित संस्कारों को आघात लगता था, पर वह ऐसे प्रसन्न और गूले हुए थे मानो उन्हें कोई नया जीवन मंत्र मिल गया हो ।
एक दिन उन्होंने सेठ गिरधर दास के पास जाकर साग-साग कह दिया-अगर आप मेरी जायदाद वापस न करेंगे तो मेरे लडके आपके उपर दावा करेंगे।
गिरधर दास नये जमाने के आदमी थे, अंग्रेजी में कुशल, कानून में चतुर, राजनीति में भाग लेने वाले, कंपनियों में हिस्से लेते थे,और बाजार अच्छा देखकर बेच देते थे, एक शक्कर का मिल खुद चलाते थे सारा कारोबर अंग्रेजी ढग से करते थे उनके पिता सेठ मक्कूलाल भी यही सब करते थे, पर पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा से प्रायश्चित्त करते रहते थे, गिरधर दास पक्के जडवादी थे, हरेक काम व्यापार के कायदे से करते थे कर्मचारियों का वेतन पहली तारीख को देते थे, मगर बीच में किसी को जरूरत पडे तो सूद पर रूपए देते थे,मक्कूलाल जी साल साल भर वेतन न देते थे, पर कर्मचारियों को बराबर पेशगी देते रहते थे हिसाब होने पर उनको कुछ देने के बदले कुछ मिल जाता था। मक्कूलाल साल में दो-चार बार अफसरों को सलाम करने जाते थे, डालियां देते थे, जूते उतार कर कमरे में जाते थे और हाथ बांधे खडे रहते थे चलते वक्त आदमियों को दो-चार रूपए इनाम दे आते थे गिरधर दास म्युनिसिपल कमिश्नर थे, सूट-बूट पहन कर अफसरों के पास जाते थे और बराबरी का व्यवहार करते थे, और आदमियों के साथ केवल इतनी रिआयत करते थे कि त्योहारों में त्योहारी दे देते थे, वह भी खूब खुशामद करा के अपने हकों के लिए लडना और आंदोलन करना जानते थे, मगर उन्हें ठगना असंभव था।।
देवकुमार का यह कथन सुनकर चकरा गये उनकी बड़ी इज्जत करते थे उनकी कई पुस्तकें पढ़ी थीं, और उनकी रचनाओं का पूरा सेट उनके पुस्तकालय में था। हिंदी भाषा के प्रेमी थे और नागरी-प्रचार सभा को कई बार अच्छी रकमें दान दे चुके थे पंडा-पुजारियों के नाम से चिढते थे, दूषित दान प्रथा। पर एक पैम्लेट भी छपवाया था। लिबरल विचारों के लिए नगर में उनकी ख्याति थी। मक्कूलाल मारे मोटापे के जगह से हिल न सकते थे, गिरधर दास गठीले आदमी थे और नगर-व्यायामशाला के प्रधान ही न थे, अच्छे शहसवार और निशानेबाज थे।
एक क्षण तो वह देवकुमार के मुंह की ओर देखते रहै उनका आशय क्या है, यह समझ में ही न आयाब गिर ख्याल आया बेचारे आर्थिक संकट में होंगे, इससे बुध्दि भ्रष्ट हो गई है बेतुकी बातें कर रहे हैं देवकुमार के मुख पर विजय का गर्व देखकर उनका यह ख़याल और मजबूत हो गया
सुनहरी ऐनक उतारकर मेज पर रखकर विनोद भाव से बोले-कहिए, घर में तो सब कुशल तो है-
देवकुमार ने विद्रोह के भव से कहा-जी हां, सब आपकी कृपा है
-बड़ा लडका तो वकालत कर रहा है न-
-जी हां
-मगर चलती न होगी और आप की पुस्तकें भी आजकल कम बिकती होंगी यह देश का दुर्भाग्य है कि आप जैसे सरस्वती के पुत्रें का यह अनादर आप यूरोप में होते तो आज लाखों के स्वामी होते
-आप जानते हैं, मैं लक्ष्मी के उपासकों में नहीं हूं
-धन-संकट में तो होंगे ही मुझ से जो कुछ सेवा आप कहें, उसके लिए तैयार हूं मुझे तो गर्व है कि आप जैसे प्रतिभाशाली पुरूष से मेरा परिचय है आप की कुछ सेवा करना मेरे लिए गौरव की बात होगी
देवकुमार ऐसे अवसरों पर नम्रता के पुतले बन जाते थे भक्ति और प्रशंसा देकर कोई उनका सर्वस्व ले सकता था। एक लखपती आदमी और वह भी साहित्य का प्रेमी जब उनका इतना सम्मान करता है तो उससे जायदाद या लेन-देन की बात करना उन्हें लज्जाजनक मालूम हुआ बोले-आप की उदारता है जो मुझे इस योग्य समझते हैं
्मैंने समझा नहीं आप किस जायदाद की बात कह रहे थे
देवकुमार सकुचाते हुए बोले-अजी वही, जो सेठ मक्कूलाल ने मुझसे लिखाई थी।
-अच्छा तो उसके विषय में कोई नयी बात है-
-उसी मामले में लडके आपके उपर कोई दावा करने वाले हैं मैंने बहुत समझाया, मगर मानते नहीं आपके पास इसीलिए आया था। कि कुछ ले-देकर समझौता कर लीजिए, मामला अदालत में क्यों जाय- नाहक दोनों जेरबार होंगे
गिरधर दास का जहीन, मुरौवतदार चेहरा कठोर हो गया जिन महाजनी नखों को उन्होंने भद्रता की नर्म गप्री में छिपा रखा था, वह यह खटका पाते ही पैने और उग्र होकर बाहर निकल आये
द्रोध को दबाते हुए बोले-आपको मुझे समझाने के लिए यहां आने की तकलीफ उठाने की कोई जरूरत न थी। उन लडकों ही को समझाना चाहिए था।
-उन्हें तो मैं समझा चुका।
-तो जाकर शांत बैठिए मैं अपने हकों के लिए लडना जानता हूं अगर उन लोगों के दिमाग में कानून की गर्मी का असर हो गया है तो उसकी दवा मेरे पास है
अब देवकुमार की साहित्यिक नम्रता भी अविचलित न रह सकीब जैसे लड़ाई का पैगाम स्वीकार करते हुए बोले-मगर आपको मालूम होना चाहिए वह मिल्कियत आज दो लाख से कम की नहीं है
-दो लाख नहीं, दस लाख की हो, आपसे सरोकार नहीं
-आपने मुझे बीस हजार ही तो दिये थे
-आपको इतना कानून तो मालूम ही होगा, हालांकि कभी आप अदालत में नहीं गए, कि जो चीज बिक जाती है वह कानूनन किसी दाम पर भी वापस नहीं की जाती अगर इस नये कायदे को मान लिया जाय तो इस शहर में महाजन न नजर आयें
कुछ देर तक सवाल-जवाब होता रहा और लडने वाले कुत्तों की तरह दोनों भले आदमी गुर्राते, दांत निकालते, खौंखियाते रहै आखिर दोनों लड ही गए
गिरधर दास ने प्रचंड होकर कहा-मुझे आपसे ऐसी आशा नहीं थी।
देवकुमार ने भी छड़ी उठाकर कहा-मुझे भी न मालूम था। कि आपके स्वार्थ का पेट इतना गहरा है
-आप अपना सर्वनाश करने जा रहे हैं
-कुछ परवाह नहीं
देवकुमार वहां से चले तो माघ की उस अंधेरी रात की निर्दय ठंड में भी उन्हें पसीना हो रहा था। विजय का ऐसा गर्व अपने जीवन में उन्हें कभी न हुआ था। उन्होंने तर्क में तो बहुतों पर विजय पाई थी। यह विजय थी। जीवन में एक नई प्रेरणा, एक नई शक्ति का उदय
उसी रात को सिन्हा और सन्तकुमार ने एक बार गिर देवकुमार पर जोर डालने का निश्चय किया दोनों आकर खडे ही थे कि देवकुमार ने प्रोत्साहन भरे हुए भाव से कहा-तुम लोगों ने अभी तक मुआमला दायर नहीं किया नाहक क्यों देर कर रहे हो-
सन्तकुमार के सूखे हुए निराश मन में उल्लास की आंधी-सी आ गई क्या सचमुच कहीं ईश्वर है जिस पर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ- जरूर कोई दैवी शक्ति है भीख मांगने आए थे, वरदान मिल गया
बोला-आप ही की अनुमति का इंतजार था।
-मैं बड़ी खुशी से अनुमति देता हूं मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं
उन्होंने गिरधर दास से जो बातें हुई वह कह सुनाई
सिन्हा ने नाक गुलाकर कहा-जब आपकी दुआ है तो हमारी -तह है उन्हें अपने धन का घमंड होगा, मगर यहां भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं
सन्तकुमार ऐसा खुश था। गोया आधी मंजिल तय हो गई बोला-आपने खूब उचित जवाब दिया
सिन्हा ने तनी हुई ढोल की-सी आवाज में चोट मारी-ऐसे-ऐसे सेठों को डफलियों पर नचाते हैं यहां
सन्तकुमार स्वप्न देखने लगे-यहीं हम दोनो के बंगले बनेंगे दोस्त
-यहां क्यों, सिविल लाइन्स में बनवायेंगे
-अंदाज से कितने दिन में गैसला हो जायगा-
-छ: महीने के अंदर
-बाबू जी के नाम से सरस्वती मंदिर बनवायेंगे
मगर समस्या थी।, रूपये कहां से आवें देवकुमार निस्पृह आदमी थे धन की कभी उपासना नहीं की कभी इतना ज्यादा मिला ही नहीं कि संचय करतेब किसी महीने में पचास जमा होते तो दूसरे महीने में खर्च हो जाते अपनी सारी पुस्तकों का कॉपीराइट बेचकर उन्हें पांच हजार मिले थे वह उन्होंने पंकजा के विवाह के लिए रख दिए थे अब ऐसी कोई सूरत नहीं थी। जहां से कोई बड़ी रकम मिलती उन्होंने समझा था। सन्तकुमार घर का खर्च उठा लेगा और वह कुछ दिन आराम से बैठेंगे या घूमेंगे लेकिन इतना बड़ा मंसूबा बांधकर वह अब शांत कैसे बैठ सकते हैं- उनके भक्तों की कागी तादाद थी। दो-चार राजे भी उनके भक्तों में थे जिनकी यह पुरानी लालसा थी। कि देवकुमार जी उनके घर को अपने चरणों से पवित्र करें और वह अपनी श्रध्दा उनके चरणों में अर्पण करेंब मगर देवकुमार थे कि कभी किसी दरबार में कदम नहीं रक्खा, अब अपने प्रेमियों और भक्तों से आर्थिक संकट का रोना रो रहे थे और खुले शब्दों में सहायता की याचना कर रहे थे वह आत्मगौरव जैसे किसी कब्र में सो गया हो
और शीघ्र ही इसका परिणाम निकला एक भक्त ने प्रस्ताव किया कि देवकुमार जी की साठवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई जाय और उन्हें साहित्य-प्रेमियों की ओर से एक थैली भेंट की जाय क्या यह लज्जा और दुख की बात नहीं है कि जिस महारथी। ने अपने जीवन के चालीस वर्ष साहित्य-सेवा पर अर्पण कर दिए, वह इस वृध्दावस्था में भी आर्थिक-चिंताओं से मुक्त न हो- साहित्य यों नहीं फल-फूल सकता जब तक हम अपने साहित्य-सेवियों का ठोस सत्कार करना न सीखेंगे, साहित्य कभी उन्नति न करेगा( और दूसरे समाचारपत्रों ने मुक्त कंठ से इसका समर्थन किया अचरज की बात यह थी। कि वह महानुभाव भी जिनका देवकुमार से पुराना साहित्यिक वैमनस्य था, वे भी इस अवसर पर उदारता का परिचय देने लगे बात चल पड़ी एक कमेटी बन गई एक राजा साहब उसके प्रधान बन गये मि.सिन्हा ने कभी देवकुमार की कोई पुस्तक न पढ़ी थी।, पर वह इस आंदोलन में प्रमुख भाग लेते थे मिस कामत और मिस मलिक की ओर से भी समर्थन हो गया महिलाओं को पुरूषों से पीछे न रहना चाहिए जेठ में तिथि निश्चित हुई नगर के इंटरमीडिएट कॉलेज में इस उत्सव की तैयारियां होने लगीं ।
आखिर वह तिथि आ गयी आज शाम को वह उत्सव होगा दूर-दूर से साहित्य-प्रेमी आए हैं सोरांव के कुंअर साहब वह थैली भेंट करेंगे आशा से ज्यादा सज्जन जमा हो गए हैं व्याख्यान होंगे, गाना होगा, ड’ामा खेला जायगा, प्रीति-भोज होगा, कवि-सम्मेलन होगा शहर में दीवारों पर पोस्टर लगे हुए हैं सभ्य-समाज में अच्छी हलचल है राजा साहब सभापति हैं
देवकुमार को तमाशा बनने से नफरत थी। पब्लिक जलसों में भी कम आते-जाते थे लेकिन आज तो बरात का दूल्हा बनना ही पडा ज्यों-ज्यों सभा में जाने का समय समीप आता था। उनके मन पर एक तरह का अवसाद छाया जाता था। जिस वक्त थैली उनको की जायगी और वह हाथ बढ़ाकर लेंगे वह दृश्य कैसा लज्जाजनक होगा जिसने कभी धन के लिए हाथ नहीं गैलाया वह इस आखिरी वक्त में दूसरों का दान ले- यह दान ही है, और कुछ नहीं एक क्षण के लिए उनका आत्मसम्मान विद्रोही बन गया इस अवसर पर उनके लिए शोभा यही देता है कि वह थैली पाते ही उसी जगह किसी सार्वजनिक संस्था को दे दें उनके जीवन के आदर्श के लिए यही अनुकूल होगा,लोग उनसे यही आशा रखते हैं, इसी में उनका गौरव है वह पंडाल में पहुंचे तो उनके मुख पर उल्लास की झलक न थी। वह कुछ खिसियाय से लगते थे नेकनामी की लालसा एक ओर खींचती थी।, लोभ दूसरी ओर मन को कैसे समझाएं कि यह दान दान नहीं, उनका हक है लोग हंसेंगे, आखिर पैसे पर टूट पडा उना जीवन बौध्दिक था, और बुध्दि जो कुछ करती है नीति पर कसकर करती है नीति का सहारा मिल जाए तो गिर वह दुनिया की परवाह नहीं करती वह पहुंचे तो स्वागत हुआ, मंगल-गान हुआ, व्याख्यान होने लगे जिनमें उनकी कीर्ति गाई गई मगर उनकी दशा उस आदमी की-सी हो रही थी। जिसके सिर में दर्द हो रहा हो उन्हें इस वक्त इस दर्द की दवा चाहिए कुछ अच्छा नहीं लग रहा है सभी विद्वान् हैं, मगर उनकी आलोचना कितनी उथली, उपरी है जैसे कोई उनके संदेशों को समझा ही नहीं, जैसे यह सारी वाह-वाह और सारा यशगान अंध-भक्ति के सिवा और कुछ न था। कोई भी उन्हें नहीं समझा-किस प्रेरणा ने चालीस साल तक उन्हें संभाले रक्खा, वह कौन-सा प्रकाश था। जिसकी ज्योति कभी मंद नहीं हुई।
सहसा उन्हें एक आश्रय मिल गया और उनके विचारशील, पीले मुख पर हल्की सी सुर्खी दौड गई यह दान नहीं प्राविडेंट गंड है जो आज तक उनकी आमदनी से कटता जा रहा है, क्या वह दान है- उन्होंने जनता की सेवा की है, तन-मन से की है, इस धुन से की है, जो बडे-से-बडे वेतन से भी न आ सकती थी। पेंशन लेने में क्या लाज आये?
राजा साहब ने जब थैली भेंट की तो देवकुमार के मुंह पर गर्व था, हर्ष था, विजय थी।
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