लेख – जंजाल तोड़ो – घुमक्कड़-शास्त्र – (लेखक – राहुल सांकृत्यायन)
दुनिया-भर के साधुओं-संन्यासियों ने ”गृहकारज नाना जंजाला” कह उसे तोड़कर बाहर आने की शिक्षा दी है। यदि घुमक्कड़ के लिए भी उसका तोड़ना आवश्यक है, तो यह न समझना चाहिए कि घुमक्कड़ का ध्येय भी आत्म-सम्मोह या परवंचना है। घुमक्कड़-शास्त्र में जो भी बातें कही जा रही हैं, वह प्रथम या अधिक-से-अधिक द्वितीय श्रेणी के घुमक्कड़ों के लिए हैं। इसका मतलब यह नहीं, कि यदि प्रथम और द्वितीय श्रेणी का घुमक्कड़ नहीं हुआ जा सकता तो उस मार्ग पर पैर रखना ही नहीं चाहिए। वैसे तो गीता को बहुत नई बोतल में पुरानी शराब और दर्शन तथा उच्च धर्माचार के नाम पर लोगों को पथभ्रष्ट करने में ही सफलता मिली है, किंतु उसमें कोई-कोई बात सच्ची भी निकल आती है। ”न चैकमपि सत्त्यं स्यात् पुरुषे बहुभाषिणि” (बहुत बोलने वाले आदमी की एकाधबात सच्ची भी हो जाती है) यह बात गीता पर लागू समझनी चाहिए, और वह सच्ची बात है –
”मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद् यतति सिद्धये।”
इसलिए प्रथम श्रेणी के एक घुमक्कड़ को पैदा करने के लिए हजार द्वितीय श्रेणी के घुमक्कड़ों की आवश्यकता होगी। द्वितीय श्रेणी के एक घुमक्कड़ के लिए हजार तृतीय श्रेणी के। इस प्रकार घुमक्कड़ी के मार्ग पर जब लाखों की संख्या में लोग चलेंगे तो कोई-कोई उनमें आदर्श घुमक्कड़ बन सकेंगे।
हाँ, तो घुमक्कड़ के लिए जंजाल तोड़कर बाहर आना पहली आवश्यकता है। कौन सा तरुण है, जिसे आँख खुलने के समय से दुनिया घूमने की इच्छा न हुई हो। मैं समझता हूँ, जिसकी नसों में गरम खून है, उनमें कम ही ऐसे होंगे, जिन्होंने किसी समय घर की चाहार-दीवारी तोड़कर बाहर निकलने की इच्छा नहीं की हो। उनके रास्ते में बाधाएँ जरूर हैं। बाहरी दुनिया से अधिक बाधाएँ आदमी के दिल में होता है। तरुण अपने गाँव या मुहल्ले की याद करके रोने लगते हैं, वह अपने परिचित घरों और दीवारों, गलियों और सड़कों, नदियों और तालाबों को नजर से दूर करने में बड़ी उदासी अनुभव करने लगते हैं। घुमक्कड़ होने का यह अर्थ नहीं कि अपनी जन्म भूमि उसका प्रेम न हो। ”जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि” बिल्कुल ठीक बात है। बल्कि जन्मभूमि का प्रेम ओर सम्मान पूरी तरह से तभी किया जा सकता है, जब आदमी उससे दूर हो। तभी उसका सुंदर चित्र मानसपटल पर आता है, और हृदय तरह-तरह के मधुर भावों ओत-प्रोत हो जाता है। विघ्नबाधा का भय न रहने पर घुमक्कड़ पाँच-दस साल बाद उसे देख आए, अपने पुराने मित्रों से मिल आए, यह कोई बुरी बात नहीं है; लेकिन प्रेम का अर्थ उसे गाँठ बाँध करके रखना नहीं है। आखिर घुमक्कड़ी जीवन में आदमी जितना दूर-दूर जाता है, उसके हित-मित्रों की संख्या भी उसी तरह बढ़ती है। सभी जगह स्नेह और प्रेम के धागे उसे बाँधने की तैयारी करते हैं। यदि ऐसे फंदे में वह फँसना चाहे, तो भी कैसे सबकी इच्छा को पूरा कर सकता है? जिस भूमि, गाँव या शहर ने हमें जन्म दिया है, उसे शत-शत प्रणाम है; उसकी मधुर स्मृति हमारे लिए प्रियतम निधि है, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन, यदि वह भूमि पैरों को पकड़कर हमे जंगम से स्थावर बनाना चाहे तो यह बुरी बात है। मनुष्य से पशु ही नहीं बल्कि एकाएक वनस्पति जाति में पतन – यह मनुष्य के लिए स्पृहणीय नहीं हो सकता। हरेक मनुष्य का जन्म-स्थान के प्रति एक कर्त्तव्य है, जो मन में उसकी मधुर स्मृति और कार्य से कृतज्ञता प्रकट कर देने मात्र से पूरा हो जाता है।
माता – घुमक्कड़ी का अंकुर किस आयु में उद्धत होता है, किस आयु में वह परिपूर्णता को प्राप्त होता है, किस समय अभिनिष्क्रमण करना चाहिए, यह किसी अगले अध्याय का विषय है। लेकिन जंजाल तोड़ने की बात कहते हुए भी यह बतला देना है, कि भावी घुमक्कड़ के तरुण-हृदय और मस्तिष्क को बंधन में रखने में किनका अधिक हाथ है। शत्रु आदमी को बाँध नहीं सकता और न उदासीन व्ययक्ति ही। सबसे कड़ा बंधन होता है स्नेह का, और स्नेह में यदि निरीहता सम्मिलित हो जाती है, तो वह और भी मजबूत हो जाता है। घुमक्कड़ों के तजर्बे से मालूम है, कि यदि वह अपनी माँ के स्नेह और आँसुओं की चिंता करते, तो उनमें से एक भी घर से बाहर नहीं निकल सकता था। 15-20 वर्ष की आयु के तरुण-जन के सामने ऐसी युक्तियाँ दी जाती हैं, जो देखने में अकाट्य-सी मालूम होती हैं – ”तुम कैसे कठोर हृदय हो? माता के हृदय की ओर नहीं देखते? उनकी सारी आशाएँ तुम्ही पर केन्द्रित हैं। जिसने नौ महीने कोख में रखा, अपने गीले में रह तुम्हें सूखे में सुलाया, वह माँ तुम्हारे चले जाने पर रो-रो के अन्धी हो जायगी। तुम ही एक उसके अवलंब हो।” यह तर्क और उपदेश घुमक्कड़ के संकल्प तथा उत्साह पर हजारों घड़े पानी ही नहीं डाल देते, बल्कि उससे भी अधिक माँ की यहाँ वर्णित अवस्था उसके मन को निर्बल कर देती है। माता का स्नेह बड़ी अच्छी चीज है; अच्छी ही नहीं कह सकते हैं, उससे मधुर, सुंदर और पवित्र स्नेह और संबंध हो ही नहीं सकता, माँ के उपकार सचमुच ही चुकाए नहीं जा सकते। किंतु उनके चुकाने का यह ढंग नहीं है, कि तरुण पुत्र माँ के अँचले में बैठ जाय, फिर कोख में प्रवेश कर पाँच महीने का गर्भ बन जाय। माँ के सारे उपकारों का प्रत्युपकार यही हो सकता है, कि पुत्र अपनी माँ के नाम को उज्वल करे, अपनी उज्वल कृतियों और कीर्ति से उसका नाम चिरस्थायी करे। घुमक्कड़ ऐसा कर सकता है। कई माताएँ अपने यशस्वी-पुत्रों के कारण अमर हो गईं; घुमक्कड़-राज बुद्ध के ”मायादेवी सुत” के नाम ने अपनी माता माया को अमर किया। सुवर्णाक्षी-पुत्र अश्वघोष ने पूर्व भारत में गंधार तक घूमते, अपने काव्य और ज्ञान से लोगों के हृदयों को पुलकित, अलोकित करते साकेतवासिनी माता सुवर्णाक्षी का नाम अमर किया। माताएँ क्षुद्र तथा तुरन्त के स्वार्थ के कारण अपने भावी घुमक्कड़ पुत्र को नहीं समझ पातीं और चाहती हैं कि वह जन्म-कोठरी में, कम-से-कम उसकी जिंदगी-भर, बैठा रहे। साधारण अशिक्षित माता ही नहीं, शिक्षित माताएँ भी इस बारे में बहुधा अपने को मूढ़ सिद्ध करती हैं, और घुमक्कड़ी यज्ञ में बाधा बनती हैं। जो माताएँ कुछ भी समझने की शक्ति नहीं रखतीं, उनके पुत्रों से इतना ही कहना है, कि आँख मूँद कर, आँख बचा कर घर से निकल पड़ो। पहला घाव पीड़ाप्रद होता है, माँ को जरूर दर्द होगा; लेकिन सारे जीवन-भर माताएँ रोती नहीं रहतीं। कुछ दिन रो-धोकर अपने ही आँखों में आँसू सूख जायँगे, नेत्रों पर चढ़ी लाली दूर हो जायगी। अगस माँ के पास एक से अधिक सन्तान हैं, तो वह दर्द और भी सह्य हो जायगा। सचमुच जो भावी घुमक्कड़ एकपुत्रा माँ के बेटे नहीं हैं, उनको तो कुछ सोचना ही नहीं चाहिए। भला दो अंगुल तक ही देखने वाली माँ को कैसे समझाया जा सकता है?
शिक्षिता माताएँ भी अधीर देखी जाती हैं। एक माँ का लड़का मैट्रिक परीक्षा देकर घर से भाग गया। दो-तीन वर्ष से उसका पता नहीं है। माता यह कहकर मेरी सहानुभूति प्राप्त करना चाहती थी – ”हम कितनी अच्छी तरह से उन्हें घर में रखती हैं, फिर भी यह लड़के हमे दु:ख दे कर भाग जाते हैं!” मैंने घुमक्कड़ पुत्र की माता होने के लिए उन्हें बधाई दी -”पुत्रवती युवती जग सोई, जाकर पुत्र घुमक्कड़ होई। आपकी छत्रछाया से दूर होने पर अब वह एक स्वावलंबी पुरुष की तरह कहीं विचर रहा होगा। आपके तीन और बच्चे हैं। पति-पत्नी ने दो की जगह तीन व्यक्ति हमारे देश को दिये हैं। यह एक ही पीढ़ी में डेढ़ गुनी जनसंख्या की वृद्धि! सूद-दर-सूद के साथ पीढ़ियों तक यदि यही बात रही, तो क्या भारत में पैर रखने का भी ठौर रह जायगा?” मेरे तर्क को सुनकर महिला ने बाहर से तो क्षोभ नहीं प्रकट किया, यह उनकी भलमनसाहत समझिए, लेकिन उनको मेरी बातें अच्छी नहीं लगीं। अशिक्षित माता ”घुमक्कड़-शास्त्र” को क्या जानेगी? लेकिन, मुझे विश्वास है, शिक्षित-माताएँ इसे पढ़कर मुझे कोसेंगी, शाप देंगी, नरक और कहाँ-कहाँ भेजेंगी। मैं उनके सभी शापों और दुर्वचनों को सिर-माथे रखने के लिए तैयार है। मैं चाहता हूँ, इस शास्त्र को पढ़कर वर्तमान शताब्दी के अंत तक कम-से-कम एक करोड़ माताएँ अपने लालों से वंचित हो जाएँ। इसके लिए जो भी पाप हो, प्रभु मसीह की भाँति उसको सिर पर उठाकर मैं सूली पर चढ़ने के लिए तैयार हूँ।
माता यदि शिक्षिता ही नहीं समझदार भी है, तो उसे समझना चाहिए, कि पुत्र को घुटने चलने से पैरों पर चलने तक सिखला देने के बाद वह अपने कर्त्तव्य का पालन कर लेती है। चिड़ियाँ अपने बच्चों को अंडे से बाहर कर पंख जमने के समय तक की जिम्मेवार होती है, उसके बाद पक्षिशावक अपने ही विस्तृत दुनिया की उड़ान करने लगता है। कुछ माताएँ समझती हैं कि 15-16 वर्ष का बच कैसे अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। उनको यह मालूम नहीं है कि मनुष्य के बच्चे के पास पक्षियों की अपेक्षा और भी अधिक साधन हैं। जाड़ों में साइबेरिया से हमारे यहाँ आई लालसर और कितनी ही दूसरी चिड़ियाँ अप्रैल में हिमालय की ओर लौटती दिखायी देती हैं। गर्मियों में तिब्बत के सरोवर वाले पहाड़ों परवे अंडे देती हैं। इन अंडों को खाने का इस शरीर को भी सौभाग्य हुआ है। अंडे बच्चों में परिणत होते हैं। सयाने होने पर कितनी ही बार देखा जाता है, कि नए बच्चे अलग ही जमात बना कर उड़ते हैं। ये बच्चे बिना देखे मार्ग से नैसर्गिक बुद्धि के बल पर गर्मियों में उत्तराखंड में उड़ते बैकाल सरोवर तक पहुँचते हैं, और जब वहाँ तापमान गिरने लगता है, हिमपात होना चाहता है, तो वह फिर अनदेखे रास्ते अनदेखे देश भारत की ओर उड़ते, रास्ते में ठहरते, यहाँ पहुँच जाते हैं। स्वावलंबन ने ही उन्हें यह सारी शक्ति दी है। मनुष्य में परावलंबी बनने की जो प्रवृत्ति शिक्षिता माता जागृत करना चाहती हैं, मैं समझता हूँ उसकी शिक्षा बेकार है –
”धिक तां च तं च”
अगर वह अच्छी माता है, दूरदर्शी माता है, जो उसको मूढ़माता न बन समझदार माता बनना चाहिए। जिस लड़के में घुमक्कड़ी का अंकुर दीख पड़े, उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। घूमने की रुचि देख कर उसे क्षमता के अनुसार दो-चार सौ रुपये देकर कहना चाहिए – ”बेटा, जा, दो-चार महीने सारे भारत की सैर कर आ”। मैं समझता हूँ, ऐसा करके वह फायदे में ही रहेगी। यदि उसका लड़का घुमक्कड़ी के योग्य नहीं है, तो घूम-फिरकर अपने खूँटे पर आ खड़ा हो जायगा, उसकी झूठी प्यास बुझ जायगी। यदि घुमक्कड़ी का बीज सचमुच ही उसमें है, तो वह ऐसी माता का दर्शन करने से कभी नहीं कतरायगा, क्योंकि वह जानता है कि, उसवकी माता कभी बंधन नहीं बनेगी। माता को यह भी सोचना चाहिए, कि तरुणाई में एक महान उद्देश्य के लिए जिस संतान के प्रयाण करने में वह बाधक हो रही है, वही पुत्र बड़ा होने पर पत्नी के घर आने तथा कुछ संतानों के हो जाने पर, क्या विश्वास कि, माता के प्रति वही भाव रखेगा। सास-बहू का झगड़ा और पुत्र का बहू के पक्ष में होना कितना देखा जाता है? माता के लिए यही अच्छा है कि पुत्र के साधु-संकल्प में बाधक न हो, पुत्र के लिए यही अच्छा है, कि दुराग्रही मूढ़ माता का बिलकुल ख्याल न करके अपने को महान पथ पर डाल दे।
पिता – माता के बाद पिता घुमक्कड़ी संकल्प के तोड़ने का सबसे अधिक प्रयत्न करते हैं। यदि लड़का छोटा अर्थात् 15-16 वर्ष से कम का है, तो वह उसे छोटे-मोटे साहस करने पर डंडे के सहारे ठीक करना चाहते हैं। घुमक्कड़ी का अंकुर क्या डंडे से पीटकर नष्ट किया जा सकता है? कभी कोई पिता ताड़ना के बल पर सफल नहीं हुआ, तो भी नए पिता उसी हथियार को इस्तेमाल करते हैं। घुमक्कड़ तरुण के लिए अच्छा भी है, क्योंकि वह ऐसे पिता के प्रति अपनी सद्भावना को खो बैठता है और आँख बचाकर निकल भागने में सफल होते ही उसे भूल जाता है। लेकिन सभी पिता ऐसे मूढ़ नहीं होते, मूढ़ भी दंड का प्रयोग पंद्रह ही वर्ष तक करते हैं। उन्होंने शायद नीति-शास्त्र में पढ़ लिया होता है-
”लालयेत् पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्रास्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रत्वमाचरेत्॥”
पुत्र के भागने पर खोजने की दौड़-धूप पिता के ऊपर होती है, माँ बेचारी तो घर के भीतर ही रोती-धोती रह जाती है। कुछ चिंताएँ माता-पिता की समान होती हैं। चाहे और पुत्र मौजूद हों, तब भी एक पुत्र के भागने पर पिता समझता है, वंश निर्वश हो जायगा, हमारा नाम नहीं चलेगा। वंश-निर्वश की बात देखनी है तो कोई भी व्यक्ति अपने गोत्र और जाति की संख्या गिन के देख ले, संख्या लाखों पर पहुँचेगी। सौ-पचास लोगों ने यदि अपना वंश न चला पाया, तो वंश-निर्वंश की बात कहाँ आती है? पुत्र के भाग-जाने, संतति वृद्धि न करने पर नाम बुझ जायगा, यह भली कही। मैंने तो अच्छे पढ़े-लिखे लोगों से पूछ कर देखा है, कोई परदादा के पिता का नाम नहीं बतला सकता। जब लोग अपनी चौथी पीढ़ी का नाम भूल जाते हैं, तो नाम चलाने की बात मूढ़-धारणा नहीं तो क्या है? पुराने जमाने में ”अपुत्रस्य गर्तिनास्ति” भले ही ठीक रही हो, क्योंकि दो हजार वर्ष पहले हमारे देश में जंगल अधिक थे, आबादी कम थी, जंगल में हिंस्र पशु भरे हुए थे। उस समय मनुष्यों की कोशिश यही होती थी, कि हम बहुत हो जायँ, संख्या-बल से शत्रुओं को दबा सकें, अधिक भोग-सामग्री उपजा सकें। लेकिन आज संख्या-बल देश में इतना है कि और अधिक बढ़ने पर हमारे लिए वह काल होने जा रहा है। सोलिए, 1949 में हमारे यहाँ के लोगों को रूखा-सूखा खाना देने के लिए भी 40 लाख टन अनाज बाहर से मँगाने की आवश्यकता है। अभी तक तो लड़ाई के वक्त जमा हो गये पौंड और कुछ इधर-उधर करके पैसा दे अन्न खरीदते-मँगाते रहे, लेकिन अब यदि अनाज की उपज देश में बढ़ाते, तो पैसे के अभाव में बाहर से अन्न नहीं आयगा, फिर हम लाखों की संख्या में कुत्तों की मौत मरेंगे। एक तरफ यह भारी जनसंख्या परेशानी का कारण है, ऊपर से हर साल पचास लाख मुँह और बढ़ते-सूद-दर-सूद के साथ बढ़ते-जा रहे हैं। इस समय तो कहना चाहिए – ”सपुत्रस्य गर्तिनास्ति”। आज जितने नर-नारी नया मुँह लाने से हाथ खींचते हैं, वह सभी परम पुणय के भागी हैं। पुणय पर विश्वास न हो तो श्रद्धा-सम्मान के भागी हैं। वह देश का भार उतारते हैं। हमें आशा है, समझदार पिता पुत्रोत्पत्ति करके पितृ से उऋण होने की कोशिश नहीं करेंगे। उन्हें पिंडदान के बिना नरक में जाने की चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्वर्ग-नरक जिस सुमेध-पर्वत के शिखर और पाताल में थे, आज के भूगोल ने उस भूगोल को ही झूठा साबित कर दिया है। उनकी यदि यश और नाम का ख्याल है, तो हो सकता है उनका घुमक्कड़ पुत्र उसे देने में समर्थ हो। पिता का प्रेम और उसके अति श्रद्धा सदा उनके पास रहने से ही नहीं होती, बल्कि सदा पिता के साथ रहने पर तो पिता-पुत्र का मधुर संबंध फीका होते-होते कितनी ही बार कटु रूप धारण कर लेता है। पिता के लिए यही अच्छा है कि पुत्र के संकल्प में बाधक न हो, और न बुढ़ापे की बड़ी-बड़ी आशाओं के बिफल होने के ख्याल से हाय-तोबा करें। आखिर तरुण पुत्र भी मर जाते हैं, तब पिता को कैसे सहारा मिलता है? महान लक्ष्य को लेकर चलने वाले पुत्र को दुराग्रही पिता की कोई पर्वाह नहीं करनी चाहिए और सब छोड़कर घर से भाग जाना चाहिए।
घुमक्कड़ी के पथ पर पैर रखने वालों के सामने का जंजाल इतने तक ही सीमित नहीं है। शारदा-कानून के बनने पर भी उसे ताक पर रखकर लोगों ने अपने-बच्चों का ब्याह किया है। कभी-कभी ऐसा भी देखने में आयगा, कि 15-16 वर्ष का घुमक्कड़ जब अपने पथ पर पैर रखना चाहता है, तो उसके पैरों में किसी लड़की की बेड़ी बाँध रखी गई होती है। ऐसी गैरकानूनी बेड़ी को तोड़ फेंकने का हरेक को अधिकार है। फिर लोगों का कहना बकवास है – ”तुम्हारे चले जाने पर स्त्री क्या करेगी?” हमारे नए संविधान में 21 वर्ष के बाद आदमी को मत देने का अधिकार माना गया है, अर्थात् 21 वर्ष से पहले तक अपने-भले-बुरे की बात वह नहीं समझता, न अपनी जिम्मेवारी को ठीक से पहचान सकता है। जब यह बात है, तो 21 साल से पहले तरुण या तरुणी पर उसके ब्याह की जिम्मेदारी नहीं होती। ऐसे ब्याह को न्याय और बुद्धि गैरकानूनी मानती है। तरुण या तरुणी को ऐसे बंधन की जरा भी पर्वाह नहीं करनी चाहिए। यह कहने पर फिर कहा जायगा – ”जिम्मेवारी न सही, लेकिन अब तो वह तुम्हारे साथ बँध गई है, तुम्हारे छोड़ने पर किस घाट लगेगी?” यह फंदा भारी है, यहाँ मस्तिष्क से नहीं दिल से अपील की जा रही है। दया दिखलाने के लिए मक्खी की तरह गुड़ पर बैठकर सदा के पंखों को कटवा दो। दुनिया में दु:ख है, चिंताएँ हैं, उन्हें जड़ से न काट कर पत्तों में पानी डाल वृक्ष को हरा नहीं किया जा सकता। यदि सयानों ने जिम्मेवारी नहीं समझी और एक अबोध व्यक्ति को फंदे में फँसा दिया, तो यह आशा रखनी कहाँ तक उचित है, कि शिकार फंदे को उसी तरह पैर में डाले पड़ा रहेगा। घुमक्कड़ यदि ऐसी मिथ्या परिणीता को छोड़ता है, तो वह घर और संपत्ति को तो कंधे पर उठाये नहीं ले जाता। जिसने अपनी लड़की दी है, उसने पहले व्यक्ति का नहीं, घर का ख्याल करके ही ब्याह किया था। घर वहाँ मौजूद है, रहे वहाँ पर। यदि वह समझती है, कि उस पर अन्याय हुआ है, तो समाज से बदला ले, वह अपना रास्ता लेने के लिए स्वतंत्र है। ऐसे समय पुराने समय में विवाह-विच्छेद का नियम था, पति के गुम होने के तीन वर्ष बाद स्त्री फिर से विवाह कर सकती थी, आज भी सत्तर सैकड़ा हिंदू करते हैं। हिंदू-कोड-बिल में यह बात रखी गई है, जिस पर सारे पुरान-पंथी हाय-तोबा मचा रहे हैं। अच्छी बात है, विवाह-विच्छेद न माना जाय, घर में ही बैठा रखो। करोड़ों की संख्या में वयस्क विधवाएँ मौजूद ही है, यदि घुमक्कड़ के कारण कुछ हजार और बढ़ जाती हैं, तो कौनसा आसमान टूट जायगा? बल्कि उससे तो कहना होगा, कि विधवा के रूप में या परिव्रजित की स्त्री के रूप में जितनी ही अधिक स्त्रियाँ संतान-वृद्धि रोकें, उतना ही देश का कल्याण है। घुमक्कड़ होश या बेहोश किसी अवस्था में भी ब्याही पत्नी को छोड़ जाता है, तो उससे राष्ट्रीय दृष्टि से कोई हानि नहीं बल्कि लाभ है।
पत्नी से प्रेम रहने पर सुविधा में पड़े घुमक्कड़ तरुण के मन में ख्याल आ सकता है – अखंड ब्रह्मचर्य के द्वारा सूर्यमंडल बेधकर ब्रह्म-लोक जीतने का मेरा मंसूबा नहीं, फिर ऐसी पिया पत्नी को छोड़ने से क्या फायदा? इसका अर्थ हुआ – न छोड़ने में फायदा होगा। विशेष अवस्था में चतुष्पाद होना – स्त्री-पुरुष का साथ रहना – घुमक्कड़ी में भारी बाधा नहीं उपस्थित करता, लेकिन मुश्किल है कि आप चतुष्पाद तक ही अपने को सीमित नहीं रख सकते चतुष्पाद से, षटपद्, अष्टपद और बहुपद तक पहुँच कर रहेंगे। हाँ, यदि घुमक्कड़ की पत्नी भी सौभाग्य से उन्हीं भावनाओं को रखती है, दोनों पुत्रैषणा से विरत हैं, तो मैं कहूँगा – ”कोई पर्वाह नहीं, एक न शुद, दो शुद।” लेकिन अब एक ही जगह दो का बोझा होगा। साथ रहने पर भी दोनों को अपने पैरों पर चलना होगा, न कि एक दूसरे के कंधे पर। साथ ही यह भी निश्चय कर रखना होगा, कि यात्रा में आगे जाने पर कहीं यदि एक ने दूसरे के अग्रसर होने में बाधा डाली तो – ”मन माने तो मेला, नहीं तो सबसे भला अकेला।” लेकिन ऐसा बहुत कम होगा, जब कि घुमक्कड़ होने योग्य व्यक्ति चतुष्पाद भी हो।
बंधु-बांधवों के स्नेह-बंधन के बारे में भी वही बात है। हजारों तरह की जिम्मेवारियों के बारे में इतना ही समझ लेना चाहिए, कि घुमक्कड़-पथ सबसे परे, सबसे ऊपर हैं। इसलिए –
”निस्त्रैगुण्ये पथि विचरत: को विधि: को निषेध:,” को फिर यहाँ दुहराना होगा।
बाहरी जंजालो के अतिरिक्त एक भीतरी भारी जंजाल है – मन की निर्बलता। आरंभ में घुमक्कड़ी पथ पर चलने की इच्छा रखनेवाले को अनजान होने से कुछ भय लगता है। आस्तिक होने पर तो यह भी मन में आता है –
”का चिंता मम जीवने यदि हरिर्विश्वम्भरो गीयते।” (विश्व का भरण करने वाला मौजूद है, तो जीवन की क्या चिंता?) कितने ही घुमक्कड़ों ने विश्वम्भर के बल पर अँधेरे में छलाँग मारी, लेकिन मेधावी और प्रथम श्रेणी के तरुणों में ऐसे कितने ही होंगे, जो विश्वंभर पर अंधा-धुंध विश्वास नहीं रखते। तो भी मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ, कि अँधेरे में छलाँग मारने से जरा भी भय नहीं खाना चाहिए। आदमी हर रोज ऐसी छलाँग मार रहा है। दिल्ली और कलकत्ता की सड़कों पर कितने आदमी हर साल मोटर और ट्राम के नीचे मरते हैं? उसे देखकर कहना ही होगा, कि अपने घर से सड़क पर निकलना अँधेरे में कूदना ही है। घर के भीतर ही क्या ठिकाना है? भूकम्प में हजारों बलिदान घर की छतें और दीवारें लेती हैं। रेल चढ़ने वाले रेल-दुर्घटनाओं के कारण क्या यात्रा करना छोड़ देते हैं?
उस दिन सिलीगोड़ी से कलकत्ता विमान द्वारा जाने की बात सुन कर मेरे साथ मोटर में यात्रा करते सज्जन ने कहा – ”मेरी भी इच्छा तो कहती है किंतु डर लगता है।” मैंने कहा – ”डर काहे का? विमान से गिरने वाले योगी की मौत मरते है, कोई अंग-भंग होकर जीने के लिए नहीं बचता, और मृत्यु बात-की-बात में हो जाती है।” मेरे साथी योगी की मृत्यु के लिए तैयार नहीं थे। फिर मैंने बतलाया – ”क्या सभी विमान गिरने से मर जाते हैं? मरने वालों की संख्या बहुत कम, शायद एक लाख में एक, होती है। जब एक लाख में एक को ही मरने की नौबत आती है तो आप 99999 को छोड़ क्यों एक के साथ रहना चाहते हैं?” बात काम कर गई और बागडोगरा के अड्डे से हम दोनों एक ही साथ उड़कर पौने दो घंटे में कलकत्ता पहुँच गये। विमान पर बगल की खिड़की से दुनिया देखने पर संतोष न कर उन्होंने यह भी कोशिश की, कि वैमानिक के पास जाकर देखा जाए। विमान में चढ़ने के बाद उनका भय न जाने कहाँ चला गया? इसी तरह घुमक्कड़ी के पथ पर पैर रखने से पहले दिल का भय अनुभवहीनता के कारण होता है। घर छोड़कर भागनेवाले लाखों में एक मुश्किल से एक ऐसा मिलेगा, जिसे भोजन के बिना मरना पड़ा हो। कभी कष्ट भी हो जाता है, ”परदेश कलेश नरेशहु को,” किंतु वह तो घुमक्कड़ी रसोई में नमक का काम देता है। घुमक्कड़ को यह समझ लेना चाहिए, कि उसका रास्ता चाहे फूलों का न हो, और का रास्ता भी क्या कोई रास्ता है, किंतु उसे अवलंब देने वाले हाथ हर जगह मौजूद हैं। ये हाथ विश्वंभर के नहीं मानवता के हाथ हैं। मानव की आजकल की स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों को देखकर निराशावाद का प्रचार करने लगे हैं, लेकिन यह मानव की मानवता ही है, जो विश्वंभर बनकर अपरिचित जितना ही अधिक अपरिचित होता है, उसके प्रति उतनी ही अधिक सहानुभूति होती है। यदि भाषा नहीं सकझता, तो वहाँ के आदमी उसकी हर तरह से सहायता करना अपना कर्त्तव्य समझने लगते हैं। सचमुच हमारी यह भूल है, यदि हम अपने जीवन को अत्यंत भंगुर समझ लेते हैं। मनुष्य का जीवन सबसे अधिक दुर्भर है। समुद्र में पोतभग्न होने पर टूटे फलक को लेकर लोग बच जाते हैं, कितनों की सहायता के लिए पाते पहुँच जाते हैं। घोर जंगल में भी मनुष्य की सहायता के लिए अपनी बुद्धि के अतिरिक्त भी दूसरे हाथ आ पहुँचते हैं। वस्तुत: मानवता जितनी उन्नत हुई है, उसके कारण मनुष्य के लिए प्राण-संकट की नौबत मुश्किल से आती है। आप अपना शहर छोड़िए, हजारों शहर आपको अपनाने को तैयार मिलेंगे। आप अपना गाँव छोड़िए, हजारों गाँव स्वागत के लिए तत्पर मिलेंगे। एक मित्र और बंधु की जगह हजारों बंधु-बांधव आपके आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप एकाकी नहीं है। यहाँ फिर मैं हजार असत्य और दो-चार सत्य बोलने वाली गीता के श्लोक को उद्धृत करूँगा –
”क्षुद्रं हृदय-दौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप”। तुम अपने हृदय की दुर्बलता को छोड़ो, फिर दुनिया को विजय कर सकते हो, उसके किसी भी भाग में जा सकते हो, बिना पैसा-कौड़ी के जा सकते हो, केवल साहस की आवश्यकता है, बाहर निकलने की आवश्यकता है और वीर की तरह मृत्यु पर हँसने की आवश्यकता है। मृत्यु ही आ गई तो कौन बड़ी बात हो गई? वह कहीं भी आ सकती थी। मनुष्य को कभी-कभी कष्ट का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन जो सिंह का शिकार करने चला है, अगर वह डरता रहे, तो उसे आगे बढ़ने का क्या आवश्यकता थी? यदि भावी घुमक्कड़ आयु में और अनुभव में भी कम हैं, तो वह पहले छोटी-छोटी उड़ान कर सकता है। नए पंख वाले बच्चे छोटी ही उड़ान करते हैं।
आरंभिक उड़ानों में, मैं नहीं कहूँगा, कि यदि कुछ पैसा घर से मिल सकता हो, तो वैराग्य के मद में चूर हो काक-विष्टा समझकर छोड़ कर चल दें। गाँठ का पैसा अपना महत्व रखता है, इसीलिए वह किसी तरह अगर घर में से मिल जाय, तो कुछ ले लेने में हरज नहीं है। पिता-माता का सौ-पचास ले लेना किसी धर्मशास्त्र में चोरी नहीं कही जायेगी, और होशियार तरुण कितनी ही सावधानी से रखे पैसे में से कुछ प्राप्त कर ही लेते हैं। आखिर जो सारी संपत्ति से त्याग-पत्र दे रहा है उसके लिए उसमें से थोड़ा-सा ले लेना कौन से अपराध की बात है? लेकिन यह समझ लेना चाहिए,कि घर के पैसे के बल पर प्रथम या दूसरी श्रेणी का घुमक्कड़ नहीं बना जा सकता। घुमक्कड़ को जेब पर नहीं, अपनी बुद्धि, बाहु और साहस का भरोसा रखना चाहिए। घर का पैसा कितने दिनों तक चलेगा? अंत में तो फिर अपनी बुद्धि और बल पर भरोसा रखना होगा।
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