लेख – स्वावलंबन – घुमक्कड़-शास्त्र – (लेखक – राहुल सांकृत्यायन)
घुमक्कड़ी का अंकुर किसी देश, जाति या वर्ग में सीमित नहीं रहता। धनाढ्य कुल में भी घुमक्कड़ पैदा हो सकता है, लेकिन तभी जब कि उस देश का जातीय जीवन उन्मुख हो। पतनशील जाति में धनाढ्य होने का मतलब है, उसके व्यक्तियों का सब तरह से पतनोन्मुख होना। तो भी, जैसा कि हमने पहले बतलाया है, घुमक्कड़ी का बीजांकुर कहीं भी उद्भूत हो सकता है। लेकिन चाहे धनी कुल में पैदा हो या निर्धन कुल में, अथवा मेरी तरह न धनी और न निर्धन कुल में, तो भी घुमक्कड़ में और गुणों के अतिरिक्त स्वावलंबन की मात्रा अधिक होनी चाहिए। सोने और चाँदी के कटोरों के साथ पैदा हुआ घुमक्कड़ी की परीक्षा में बिलकुल अनुत्तीर्ण हो जायगा, यदि उसने अपने सोने-चाँदी के भरोसे घुमक्कड़ी करनी चाही। वस्तुत: संपत्ति और धन घुमक्कड़ी के मार्ग में बाधक हो सकते हैं। धन-संपत्ति को समझा जाता है, कि वह आदमी की सब जगह गति करा सकती है। लेकिन यह बिलकुल झूठा ख्याल है। धन-संपत्ति रेल, जहाज और विमान तक पहुँचा सकती है, विलास-होटलों, काफी-भवनों तक की सैर करा सकती है। घुमक्कड़ दृढ़-संकल्पी न हो तो इन स्थानों से उसके मनोबल को क्षति पहुँच सकती है। इसीलिए पाठकों में यदि कोई धनी तरुण घुमक्कड़ी-धर्म को ग्रहण करना चाहता है, तो उसे अपनी उस धन-संपत्ति से संबंध-विच्छेद कर लेना चाहिए, अर्थात् समय-समय पर केवल उतना ही पैसा पाकेट में लेकर घूमना चाहिए, जिसमें भीख माँगने की नौबत नहीं आए और साथ ही भव्य होटलों और पाठशालाओं में रहने को स्थान न मिल सके। इसका अर्थ यह है कि भिन्न-भिन्न वर्ग में उत्पन्न घुमक्कड़ों को एक साधारण तल पर आना चाहिए।
घुमक्कड़ धर्म किसी जात-पांत को नहीं मानता, न किसी धर्म या वर्ण के आधार पर अवस्थित वर्ग ही को। यह सबसे आवश्यक है कि एक घुमक्कड़ दूसरे को देखकर बिलकुल आत्मीयता अनुभव करने लगे – वस्तुत: घुमक्कड़ों के विकास के उच्चतल की यह कसौटी है। जितने ही उच्च श्रेणी के घुमक्कड़ होंगे, उतना ही वह आपस में बंधुता अनुभव करेंगे और उनके भीतर मेरा-तेरा का भाव बहुत-कुछ लोप हो जायगा। चीनी घुमक्कड़, फाहियान और स्वेन-चांग की यात्राओं को देखने से मालूम होगा, कि वह नए मिले यायावरों के साथ कितना स्नेह का भाव रखते थे। इतिहास के लिए विस्तृत किंतु कठोर साधनाओं के साथ घुमक्कड़ी किए व्यक्तियों का उन्होंने कितना सम्मान और सद्भाव के साथ स्मरण किया है।
घुमक्कड़ी एक रस है, जो काव्य के रस से किसी तरह भी कम नहीं है। कठिन मार्गों को तय करने के बाद नए स्थानों में पहुँचने पर हृदय में जो भावोद्रेक पैदा होता है, वह एक अनुपम चीज है। उसे कविता के रस से हम तुलना कर सकते हैं, और यदि कोई ब्रह्म पर विश्वास रखता हो, तो वह उसे ब्रह्म-रस समझेगा – ‘रसो वैस: रसंहि लब्ध्वा आनंदी भवति।” इतना जरूर कहना होगा कि उस रस का भागी वह व्यक्ति नहीं हो सकता, जो सोने-चाँदी में लिपटा हुआ यात्रा करना चाहता है। सोने-चाँदी के बल पर बढ़िया-से-बढ़िया होटलों में ठहरने, बढ़िया से-बढ़िया विमानों पर सैर करने वालों को घुमक्कड़ कहना इस महान शब्द के प्रति भारी अन्याय करना है। इसलिए यह समझने में कठिनाई नहीं हो सकती कि सोने के कटोरे को मुँह में लिए पैदा होना घुमक्कड़ के लिए तारीफ की बात नहीं है। यह ऐसी बाधा है, जिसको हटाने में काफी परिश्रम की आवश्यकता होती है।
प्रश्न हो सकता है – क्या सभी वस्तुओं से विरत हो, सभी चीजों को छोड़कर, कुछ भी हाथ में न रख निकल पड़ना ही एकमात्र घुमक्कड़ का रास्ता है? जहाँ घुमक्कड़ के लिए संपत्ति बाधक और हानिकारक है, वहाँ साथ ही घुमक्कड़ के लिए आत्मसम्मान की भी भारी आवश्यकता है। जिसमें आत्मसम्मान का भाव नहीं, वह कभी अच्छे दर्जे का घुमक्कड़ नहीं हो सकता। अच्छी श्रेणी के घुमक्कड़ का कर्त्तव्य है कि अपनी जाति, अपने पंथ, अपने बंधु-बांधवों पर – जिनमें केवल घुमक्कड़ ही शामिल हैं – कोई लांछन नहीं आने दे। यदि घुमक्कड़ उच्चादर्श और सम्माननीय व्यवहार को कायम रखेगा, तो उससे वर्तमान और भविष्य के, एक देश और सारे देशों के घुमक्कड़ों को लाभ पहुँचेगा। इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि हजारों घुमक्कड़ों में कुछ बुरे निकलेंगे और उनकी वजह से घुमक्कड़-पंथ कलंकित होगा। हरेक आदमी के सामने घुमक्कड़ के असली रूप को रखा न भी जा सके तो भी गुणग्राही, संस्कृत, बहुश्रुत, दूरदूर्शी नर-नारियों के हृदय में घुमक्कड़ों के प्रति विशेष आदरभाव पैदा करना हरेक घुमक्कड़ का कर्त्तव्य है। उसे अपना ही रास्ता ठीक नहीं रखना है, बल्कि यदि रास्ते में काँटे पड़े हों, तो उन्हें हटा देना है, जिसमें भविष्य में आने वालों के पैर में वह न चुभें। इन सबका ध्यान वही रख सकता है, जिसमें आत्म-सम्मान की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। घुमक्कड़ चापलूसी से घृणा करता है, लेकिन इसका अर्थ अक्खड़, उजड्ड होना नहीं है, और न सांस्कृतिक सद्व्यवहार से हाथ धो लेना। वस्तुत: घुमक्कड़ को अपने आचरण और स्वभाव को ऐसा बनाना है, जिससे वह दुनिया में किसी को अपने से ऊपर नहीं समझे, लेकिन साथ ही किसी को नीचा भी न समझे। समदर्शिता घुमक्कड़ का एकमात्र दृष्टिकोण है, आत्मीयता उसके हरेक बर्ताव का सार है।
आत्मसम्मान रखने वाले आदमी के लिए वह आवश्यक है, कि वह भिक्षुक, भीख माँगने वाला, न बने। भीख न माँगने का यह अर्थ नहीं है, कि भिक्षाजीवी बौद्ध भिक्षु इस घुमक्कड़ के अधिकारी नहीं हो सकते। वस्तुत: उस भिक्षाचर्या का घुमक्कड़ों से विरोध नहीं है। वही भिक्षाचर्या बुरी है जिसमें आदमी को दीन-हीन बनना पड़ता है, आत्मसम्मान को खोना पड़ता है। लेकिन ऐसी भिक्षाचर्या बौद्ध भिक्षुओं के लिए – बौद्ध देशों तक ही सीमित रह सकती है। बाहर के देशों में वह संभव नहीं है। महान घुमक्कड़ बुद्ध ने भिक्षाचर्या का आत्मसम्मान के साथ जिस तरह सामंजस्य किया है, वह आश्चर्यकर है। बौद्ध देशों में घुमक्कड़ी करने वाले भिक्षु ही उस यात्रा का आनंद जानते हैं। इसमें संदेह नहीं, बौद्ध देशों के सभी भिक्षु घुमक्कड़ नाम के अधिकारी नहीं होते, प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ों की संख्या तो वहाँ और भी कम है। फिर भी उनके प्रथम मार्गदर्शक ने जिस तरह का पथ तैयार किया, पथ के चिह्न निर्मित किए, उस पर घास-झाड़ी अधिक उग आने पर भी वह वहाँ मौजूद है, और पंथ को आसानी से फिर प्रशस्त किया जा सकता है।
यदि बौद्ध-भिक्षुओं की बात को छोड़ दें, तो आत्मसम्मान को कायम रखने के लिए घुमक्कड़ को स्वावलंबी होने में सहायक कुछ बातों की अत्यंत आवश्यकता है। हम पहले स्वावलंबन के बारे में थोड़ा कह चुके हैं और आगे और भी कहेंगे, यहाँ भी इसके बारे में कुछ मोटी मोटी बातें बतलाएँगे।
स्वावलंबन का यह मतलब नहीं, कि आदमी अपने अर्जित पैसे से विलासपूर्ण जीवन बिताए। ऐसे जीवन का घुमक्कड़ी से 3 और 6 का संबंध है। स्वावलंबी होने का यह भी अर्थ नहीं है, कि आदमी धन कमाकर कुल-परिवार पोसने लग जाय। कुल परिवार और घुमक्कड़ी-धर्म से क्या संबंध? कुल-परिवार स्थावर व्यक्ति की चीज है, घुमक्कड़ जंगम है, सदा चलने वाला। हो सकता है घुमक्कड़ को अपने जीवन में कभी वर्ष-दो-वर्ष एक जगह भी रहना पड़ जाय, लेकिन यह स्वेच्छापूर्वक रहने की सबसे बड़ी अवधि है। इससे अधिक रहने वाला, संभव नहीं है, कि अपने व्रत को पालन कर सके। इस प्रकार स्वावलंबी होने का यही मतलब है, कि आदमी को दीन होकर हाथ पसारना न पड़े।
घुमक्कड़ नाम से हमारे सामने ऐसे व्यक्ति का रूप नहीं आता, जिसमें न संस्कृति है न शिक्षा। संस्कृति और शिक्षा तथा आत्मसम्मान घुमक्कड़ के सबसे आवश्यक गुण हैं। घुमक्कड़ चूँकि किसी मानव को न अपने से ऊँचा न नीचा समझता है, इसलिए किसी के भेस को धारण करके उसकी पांती में जा एक होकर बैठ सकता है। फटे चीथड़े, मलिन, कृष गोत्र यायावरों के साथ किसी नगर या अरण्य में अभिन्न होकर जा मिलना भी कला है। हो सकता है वह यायावर प्रथम या दूसरी श्रेणी के भी न हों, लेकिन उनमें कभी-कभी ऐसे भी गुदड़ी के लाल मिल जाते हैं, जिन्होंने अपने पैरों से पृथ्वी के बड़े भाग को नाप दिया है। उनके मुँह से अकृत्रिम भाषा में देश-देशांतर की देखी बातें और दृश्यों को सुनने में बहुत आनंद आता है, हृदय में उत्साह बढ़ता है। मैंने तीसरी श्रेणी के घुमक्कड़ों में भी बंधुता और आत्मीयता को इतनी मात्रा में देखा है, जितनी संस्कृत और शिक्षित-नागरिक में नहीं पाई जाती।
जो घुमक्कड़ नीचे की श्रेणी के लोगों में अभिन्न हो मिल सकता है, वह शारीरिक श्रम से कभी नहीं शर्मायगा। घुमक्कड़ के लिए शरीर से स्वस्थ ही नहीं कर्मण्य होना भी आवश्यक है, अर्थात् शारीरिक श्रम करने की उसमें क्षमता होनी चाहिए। घुमक्कड़ ऐसी स्थिति में भी पहुँच सकता है, जहाँ उसे तात्कालिक जीवन-निर्वाह के लिए अपने श्रम को बेचने की आवश्यकता हो। इसमें कौन सी लज्जा की बात है, यदि घुमक्कड़ किसी के बिस्तरे को सिर या पीठ पर लादकर कुछ दूर पहुँचा दे, या किसी के बर्तन मलने, कपड़ा धोने का काम कर दे। साधारण मजदूर के काम को करने की क्षमता और उत्साह ऊँची श्रेणी के घुमक्कड़ बनने में बहुत सहायक हो सकते हैं। उनसे घुमक्कड़ बहुत अनुभव प्राप्त कर सकता है। शारीरिक श्रम स्वावलंबी होने में बहुत सहायक हो सकता है। स्वावलंबी होने के लिए और उपाय रहने पर भी शारीरिक श्रम के अवहेलना का भाव अच्छा नहीं है।
घुमक्कड़ को समझना चाहिए, कि उसे ऐसे देश में जाना पड़ सकता है, जहाँ उसकी भाषा नहीं समझी जाती, अतएव वहाँ सीखे-समझे पुस्तकी ज्ञान का कोई उपयोग नहीं हो सकता। ऐसी जगह पर ऐसे व्यवसायों से परिचय लाभदायक सिद्ध होगा, जिनके लिए भाषा की आवश्यकता नहीं, जो भाषाहीन होने पर भी सर्वत्र एक तरह समझे जा सकते हों। उदाहरणार्थ हजामत के काम को ले लीजिए। हजामत का काम सीखना सबके लिए आसान है, यह मैं नहीं कहता, यद्यपि आजकल सेफ्टी छुरे से सभी नागरिक अपने चेहरे को साफ कर लेते हैं। मैं समझता हूँ, इस काम को स्वावलंबन में सहायक बनाने के लिए क्षौर-कला को कुछ अधिक जानने की आवश्यकता है। अच्छा समझदार तरुण होने पर इसे सीखने में बहुत समय नहीं लगेगा और न लगातार हर रोज छ-छ घंटा सीखने में लगाने की आवश्यकता है। तरुण को किसी हजामत बनाने वाले से मैत्री करनी चाहिए और धीरे-धीरे विद्या को हस्तगत कर लेना चाहिए। बहुत-से ऐसे देश हैं, जहाँ क्षौर करना वंश-परंपरा से चला आया पेशा नहीं है, अर्थात् हजामों की जाति नहीं है। दूर क्यों जाइए, हिमालय में ही इसे देखेंगे। वहाँ यदि जाति का हजाम मिलेगा, तो वह नीचे मैदान से गया होगा। ऊपरी सतलज (किन्नर देश) में 1948 में मैं विचर रहा था। मुझे कभी तीन-चार महीने में बाल कटवाने की आवश्यकता होती है। यदि कोई अपने केश और दाढ़ी को बढ़ा रखे, तो बुरा नहीं है। लेकिन मैं अपने लिए पसंद नहीं करना, इसीलिए तीन-चार महीने बाद केश छोटा करने की आवश्यकता होती है। चिनी (किन्नर-देश) में मुझे जरूरत पड़ी। पता लगा, मिडिल स्कूल के हेडमास्टर साहब क्षौर के हथियार भी रखते हैं, और अच्छा बनाना भी जानते हैं। यह भी पता लगा कि हेडमास्टर साहब स्वयं भले ही बना दें, लेकिन हथियार को दूसरे के हाथों में नहीं देना चाहते – ”लेखनी पुस्तकी नारी परहस्तगता गता” के स्थान पर ”लेखनी क्षुरिका कर्त्री परहस्तगता गता” कहना चाहिए। हेडमास्टर साहब अपना क्षौर-शस्त्र मुझे देने में आनाकनी नहीं करते, क्योंकि न देने का कारण उनका यही था कि अनाड़ी आदमी शस्त्र के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करना जानता। उन्होंने आकर स्वयं मेरे बाल काट दिए। अपने लिए होने पर तो काटने की मशीन काफी है। मैं वर्षों उसे अपने पास रखा करता था, किंतु जब आपको क्षौरकर्म के द्वारा तात्कालिक स्वावलंबन का मार्ग ढूँढ़ना है, तो जैसे-तैसे हजाम बनने से काम नहीं चलेगा। आपको इस कला पर अधिकार प्राप्त करना चाहिए, और जिस तरह चिनी के हेडमास्टर और उनके शिष्यों में एक दर्जन तरुण अच्छी हजामत बना सकते हैं, वैसा अभ्यास होना चाहिए। हजामत कोई सस्ती मजूरी की चीज नहीं है। यूरोप के देशों में तो एक हजाम एक प्रोफेसर के बराबर पैसा कमा सकता है। एसिया के भी अधिकांश भागों में दो-चार हजामत बना कर आदमी चार-पाँच दिन का खर्चा जमा कर सकता है। भावी घुमक्कड़ तरुणों से मैं कहूँगा, कि ब्लेड से दाढ़ी-मूँछ तथा मशीन से बाल काटने तक ही सीमित न रहकर इस कला की अगली सीढ़ियों को पार कर लेना चाहिए। यह काम हाई स्कूल के अंतिम दो वर्षों में सीखा जा सकता है और कालेज में तो बहुत खुशी से अपने का अभ्यास बनाया जा सकता है।
तरुण घुमक्कड़ों के लिए जैसे क्षौर कर्म लाभदायक है, वैसे ही घुमक्कड़ तरुणियों के लिए प्रसाधन कला है। अपने खाली समय में वह इसे अच्छी तरह सीख सकती हैं। दुनिया के किसी भी अजांगल जाति या देश में प्रसाधन कला घुमक्कड़ तरुणी के लिए सहायक हो सकती है। चाहे उसे अपने काम के लिए उसकी आवश्यकता न हो, लेकिन दूसरों को आवश्यकता होती है। प्रसाधन-कला का अच्छा परिचय रखने वाली तरुणियाँ घूमते-घामते जहाँ-तहाँ अपनी तात्कालिक जीविका इससे अर्जित कर सकती हैं। जिस तरह क्षौर-शस्त्रों को हल्के से हल्के रूप में रखा जा सकता है, वैसे ही प्रसाधन-साधनों को भी थोड़ी-सी शीशियों और चंद शास्त्रों तक सीमित रखा जा सकता है। हाँ, यह जरूर बतला देना है कि घुमक्कड़ होने का यह अर्थ नहीं कि हर घुमक्कड़ हर किसी कला पर अधिकार प्राप्त कर सकता है। कला के सीखने में श्रम और लगन की आवश्यकता होती है, किंतु श्रम और लगन रहने पर भी उस कला की स्वाभाविक क्षमता न होने पर आदमी सफल नहीं हो सकता। इसलिए जबर्दस्ती किसी कला के सीखने की आवश्यकता नहीं। यदि एक में अक्षमता दीख पड़े, तो दूसरी को देखना चाहिए।
बिना अक्षर या भाषा के ऐसी बहुत-सी कलाएँ और व्यवसाय हैं, जो घुमक्कड़ के लिए दुनिया के हर स्थान में उपयोगी हो सकते हैं। उनके द्वारा चीन-जापान में, अरब-तुर्की में, और ब्राजील-अर्जंतीन में भी स्वच्छंद विचर सकते हैं। कलाओं में बढ़ई, लोहार, सोनार की कलाओं को ले सकते हैं। हमारे देश में आज भी एक ग्रेजुएट क्लर्क से बढ़ई-लोहार कम मजदूरी नहीं पाते। साथ ही इनकी माँग हर जगह रहती है। बढ़ई का काम जिसे मालूम है, वह दुनिया में कौन सा गाँव या नगर है, जहाँ काम न पा जाय। ख्याल कीजिए आप कोरिया के एक गाँव में पहुँच गये हैं। वहाँ किसी किसान के घर में सायंकाल मेहमान हुए। सबेरे उसके मकान की किसी चीज को मरम्मत के योग्य समझकर आपने अपनी कला का प्रयोग किया। संकोच करते हुए भी किसान और कितनी ही मरम्मत करने की चीजों को आपके सामने रख देगा, हो सकता है, आप उसके लिए स्मृति-चिह्न, कोई नई चीज बना दें। निश्चय ही समझिए आपका परिचय उसी किसान तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इस कला द्वारा गाँव-भर के लोगों से परिचय करते देर न लगेगी। फिर तो यदि चार-छ महीने भी वहाँ रहना चाहें, तो भी कोई तकलीफ नहीं होगी, सारा गाँव आत्मीय बन जायगा। घुमक्कड़ केवल मजूरी के ख्याल से तो काम नहीं करता है। वह काम अच्छा और ज्यादा भी करेगा, किंतु बदले में आवश्यक बहुत थोड़ी-सी चीजें लेगा। बढ़ई, लोहार, सोनार, दर्जी, धोबी, मेज कुर्सी-बुनकर आदि जैसी सभी कलाएँ बड़े काम की साबित होंगी।
घड़ीसाजी छोटी-मोटी मशीनों की मरम्मत, बिजली-मिस्त्री का काम जैसी और भी कलाएँ हैं जिनकी सभी सभ्य देशों में एक-सी माँग है, और जिनको तरुण अपने हाईस्कूल के अंतिम वर्षों या कालेज की पढ़ाई के समय सीख सकता है। घुमक्कड़ की कलाओं के संबंध में यह वाक्य कंठस्थ कर लेना चाहिए – ”सर्वसंग्रह: कर्त्तव्य:, क: काले फलदायक:।” उसके तर्कश में हर तरह के तीर होने चाहिए, न जाने-कौन तीर की किस समय या स्थान में आवश्यकता हो। लेकिन, इसका यह अर्थ नहीं कि वह दुनिया की कलाओं व्यवसायों पर अधिकार प्राप्त करने के लिए आधा जीवन लगा दे। यहाँ जिन कलाओं की बात कही जा रही है, वह स्वाभाविक रुचि रखने वाले व्यक्ति के लिए अल्पकाल-साध्य हैं।
फोटोग्राफी सीखना भी घुमक्कड़ के लिए उपयोगी हो सकता है। आगे हम विशेष तौर से लिखने जा रहे हैं कि उच्चकोटि का घुमक्कड़ दुनिया के सामने लेखक, कवि या चित्रकार के रूप में आता है। घुमक्कड़ लेखक बनकर सुंदर यात्रा-साहित्य प्रदान कर सकता है। यात्रा-साहित्य लिखते समय उसे फोटो-चित्रों की आवश्यकता मालूम होगी। घुमक्कड़ का कर्तव्य है कि वह अपनी देखी चीजों और अनुभूत घटनाओं को आने वाले घुमक्कड़ों के लिए लेखबद्ध कर जाए। आखिर हमें भी अपने पूर्वज घुमक्कड़ों की लिखी कृतियों से सहायता मिली है, उनका हमारे ऊपर भारी ऋण है, जिससे हम तभी उऋण हो सकते हैं, जब कि हम भी अपने अनुभवों को लिखकर छोड़ जायँ। यात्रा-कथा लिखने वालों के लिए फोटो कैमरा उतना ही आवश्यक है, जितना कलम-कागज। सचित्र यात्रा का मूल्य अधिक होता है। जिन घुमक्कड़ों ने पहले फोटोग्राफी सीखने की ओर ध्यान नहीं दिया, उन्हें यात्रा उसे सीखने के लिए मजबूर करेगी। इसका प्रमाण मैं स्वयं मौजूद हूँ। यात्रा ने मुझे लेखनी पकड़ने के लिए मजबूर किया या नहीं, इसके बारे में विवाद हो सकता है; लेकिन यह निर्विवाद है कि घुमक्कड़ी के साथ कलम उठाने पर कैमरा रखना मेरे लिए अनिवार्य हो गया। फोटो के साथ यात्रा-वर्णन अधिक रोचक तथा सुगम बन जाता है। आप अपने फोटो द्वारा देखे दृश्यों की एक झाँकी पाठक-पाठिकाओं को करा सकते हैं, साथ ही पत्रिकाओं और पुस्तकों के पृष्ठों में अपने समय के व्यक्तियों, वास्तुओं-वस्तुओं, प्राकृतिक दृश्यों और घटनाओं का रेकार्ड भी छोड़ जा सकते हैं। फोटो और कलम मिलकर आपके लेख पर अधिक पैसा भी दिलवा देंगी। जैसे जैसे शिक्षा और आर्थिक तल ऊँचा होगा, वैसे-वैसे पत्र-पत्रिकाओं का प्रचार भी अधिक होगा, और उसी के अनुसार लेख के पैसे भी अधिक मिलेंगे। उस समय भारतीय घुमक्कड़ को यात्रा लेख मिलने से, यदि वह महीने दो-चार भी लिख दें, साधारण जीवन-यात्रा की कठिनाई नहीं होगी। लेख के अतिरिक्त आप यदि अपनी पीठ पर दिन में फोटो धो लेने का सामान ले चल सकें, तो फोटो खींचकर अपनी यात्रा जारी रख सकते हैं। फोटो की भाषा सब जगह एक है, इसलिए वह सर्वत्र लाभदायक होगा, इसे कहने की आवश्यकता नहीं।
स्वावलंबी बनाने वाली सभी कलाओं पर यहाँ लिखना या उनकी सूची संभव नहीं है, किंतु इतने से पाठक स्वयं जान सकते हैं, कि नगर और गाँव में रहने वाले लोगों की आवश्यकता-पूर्ति के लिए कौन से व्यवसाय उपयोगी हो सकते हैं, और जिनको आसानी से सीखा जा सकता है। कितने ही लोग शायद फलित ज्योतिष और सामुद्रिक (हस्तरेखा) को भी घुमक्कड़ के लिए आवश्यक बतलाएँ। बहुत-से लोग इन ‘कलाओं’ पर ईमानदारी से विश्वास कर सकते हैं, और कितने ही ऐसे हैं, जो इनका व्यवसाय नहीं करते। तो भी मैं समझता हूँ, यह आदमी की कमजोरियों से फायदा उठाना होगा, यदि घुमक्कड़ जोतिस और सामुद्रिक के भरोसे स्वावलंबी बनना चाहें। वंचना घुमक्कड़ धर्म के विरुद्ध चीज है, इसलिए मैं कहूँगा, घुमक्कड़ यदि इनसे अलग रहे तो अच्छा है। वैसे जानता हूँ, अधिकांश देशों में – जहाँ जबर्दस्ती मानव-समाज को धनिक-निर्धन वर्ग में विभक्त कर दिया गया है – लोगों का भविष्य अनिश्चित है, वहाँ जोतिस तथा सामुद्रिक पर मरने वाले हजारों मिलते हैं। यूरोप के उन्नत देशों में भी जोतिसियों, सामुद्रिक-वेत्ताओं की पाँचो उँगली घी में देखी जाती है। हाँ, यदि घुमक्कड़ मेस्मरिज्म और हेप्नाटिज्म का अभ्यास करे, तो कभी-कभी उससे लोगों का उपकार भी कर सकता है,और मनोरंजन तो खूब कर सकता है। हाथ की सफाई, जादूगरी का भी घुमक्कड़ के लिए महत्व है। इनसे जहाँ लोगों का अच्छा मनोरंजन हो सकता है, वहाँ यह घुमक्कड़ के स्वावलंबी होने के साधन भी हो सकते हैं।
अंत में मैं एक और ऐसी कला या विद्या की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ, जिसका महत्व घुमक्कड़ के लिए बहुत है। वह है प्राथमिक सहायता और चिकित्सा का आरंभिक ज्ञान। मैं समझता हूँ, इनका ज्ञान हरेक घुमक्कड़ को थोड़ा-बहुत होना चाहिए। चोट में कैसे बाँधना और किन दवाओं को लगाना चाहिए, इसे जानने के लिए न बहुत समय की आवश्यकता है न परिश्रम की ही। साधारण बीमारियों के उपचार की बातें भी दो-चार पुस्तकों के देखने या किसी चिकित्सक के थोड़े-से संपर्क से जानी जा सकती हैं। साधारण चीर-फाड़ और साधारण इन्जेक्शन देने का ढंग जानना भी आसान है। पेंसिलीन जैसी कुछ दवाइयाँ निकली हैं, जिनसे बाज समय आदमी की मृत्यु के मुँह से निकाला जा सकता है। इसके ज्ञान के लिए भी बहुत समय की आवश्यकता नहीं। इस प्रकार चिकित्सा का थोड़ा ज्ञान घुमक्कड़ के लिए आवश्यक है। सेर-आध-सेर भार में चिकित्सा की सामग्री लेकर चल सके तो कोई हर्ज नहीं है। कभी-कभी अस्पताल और डाक्टरों की पहुँच से दूर के स्थानों में व्याधि-पीड़ित मनुष्य को देखकर घुमक्कड़ को अफसोस होने लगता है, कि क्यों मैंने चिकित्सा का थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त नहीं कर लिया। व्याधि-पीड़ित उससे सहानुभूति की आशा रखता है, घुमक्कड़ का हृदय उसे देखकर आर्द्र हो जाता है; किंतु यदि चिकित्सा का कुछ भी परिचय नहीं है, तो अपनी विवशता पर बहुत खेद होने लगता है। इसीलिए चिकित्सा का साधारण ज्ञान घुमक्कड़ के लिए दूसरे की नहीं अपने हृदय की चिकित्सा के लिए जरूरी है।
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