उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 4 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
एक बहुत ही सजा हुआ घर है, भीतों पर एक-से-एक अच्छे बेल-बूटे बने हुए हैं। ठौर-ठौर भाँति-भाँति के खिलौने रक्खे हैं, बैठकी और हांड़ियों में मोमबत्तियाँ जल रही हैं, बड़ा उँजाला है, बीच में एक पलँग बिछा हुआ है, उस पर बहुत ही सुथरा और सुहावना बिछावन लगा है, पास ही कई एक बढ़िया चौकियाँ भी पड़ी हैं, इनमें से एक पर एक लम्बा चौड़ा बाजा रखा हुआ है, यह बाजा अपने आप बज रहा है, कभी मीठे-मीठे सुर भरता है, कभी अच्छी-अच्छी गीत सुनाता है, कभी अपने आप चुप हो जाता है। रात का सन्नाटा है, कहीं कोई बोलता नहीं, इससे इस बाजे का सुर रंग दिखला रहा है। जिस पलंग की बात हमने ऊपर कही है, उसी पर लेटा हुआ एक जन इस बाजे को बहुत जी लगाकर सुन रहा है, तनिक हिलता तक नहीं। बाहर जो कहीं कुछ खड़कता है, तो भौंहें टेढ़ी हो जाती हैं, पर बाजे में इतना लीन होने पर भी वह जैसे कुछ चंचल है, आँखें उसकी किवाड़ की ओर लगी हैं। कान कुछ खड़े से हैं। जान पड़ता है किसी की बाट देख रहा है। और क्या जाने उतावले होकर ही जी बहलाने के लिए उसने बाजे में कुंजी दे रखी है, नहीं तो इतना चंचल क्यों?
खिड़कियों में से धीरे-धीरे ठण्डी-ठण्डी बयार आती है और चुपचाप उस सन्नाटे में बाजे के मीठे-मीठे सुरों को लेकर बाहर निकलती है, दूर निराले में जाते हुए किसी थके हुए बटोही के कानों में कहीं अमृत की बूँद सी ढाल देती है, कहीं गाँव से बाहर खेत के एक कोने में चुपचाप बैठे हुए किसी किसान के मन को ब्रज की बाँसुरी की सुरति कराती है। एक ठौर जो किसी कोयलकंठवाली के मतवाले को कलेजे में पीर सी उठाकर बावला बनाती है, तो दूसरी ठौर अंधियाले में खड़े हुए पेड़ों के धीरे-धीरे हिलते हुए पत्तों में से उनको कठिनाई से जैसा-का-तैसा बाहर निकालती है और पास के किसी कोठे में एक आँसू बहाती हुई बिरहिनी को रिझा कर अपने मन की सी करना चाहती है, पर उलटा उसको अपने आपे से बाहर होता देखकर एक झरोखे से निकल भागती है, और फिर पहले की भाँति वैसी ही अठखेलियाँ करने लगती है। अब की बार वह एक हँसमुख स्त्री के मन को बस करने में लगी, उसके मन को लुभाया, उसकी उमंग को दूना किया, पर उसके हाथ के गजरों की महँक पर आप भी मोह गयी। इधर यह फूलों की बास से बसी हुई आगे बढ़ी, उधर वह उन मीठे-मीठे सुरों पर लोट-पोट होती हुई लम्बी-लम्बी डेग भरने लगी। कुछ ही बेर में उसने उस सजे हुए घर को देखा।
बाजा बजते-बजते रुक गया, सुरों की दूर तक फैली हुई लहरें पहले पवन में पीछे धीरे-धीरे आकाश में लीन हुईं। सन्नाटा फिर जैसा-का-तैसा हुआ। पर यह क्या? फिर यह सन्नाटा क्यों टूट रहा है? यह घँघरुओं की झनकार कैसी सुनाई पड़ती है? बाजे के सुरों से भी रसीला सुर यह कौन छेड़ रहा है? क्या जिस जन को हमने ऊपर इतना चंचल देखा था, यह उसी का ढाढ़स बँधानेवाला प्यारा सुर तो नहीं है? वह देखो, वह घर के बाहर भी तो निकला आ रहा है, क्या जिस ओर से झनकार आ रही है उसी ओर जाना चाहता है? क्यों जायगा। देखते नहीं, छम्-छम् करती उसके पास आकर कौन खड़ी हो गयी? क्या यह ऊपर की गजरेवाली स्त्री तो नहीं है?
जो जन अभी घर से बाहर आया है, उसका नाम कामिनीमोहन है। कामिनीमोहन ने उस स्त्री की ओर देखकर कहा। क्यों बासमती? अच्छी तो हो?
बासमती-हाँ, अच्छी हूँ! बहुत अच्छी हूँ!! आज मैं आप का बहुत कुछ काम करके आयी हूँ, इसीलिए अच्छी हूँ। मेरे लिए अच्छा होना और दूसरा क्या है!!!
कामिनीमोहन-क्या सब ठीक हो गया? क्या अब की बार तुम मोहनमाला ले ही लोगी? मैं सच कहता हूँ, बासमती! जो मेरा काम हो गया, तो मैं तुमको मोहनमाला ही न दूँगा, उसके संग एक सोने का कण्ठा भी दूँगा।
बासमती-आप इतने उतावले क्यों होते हैं? आपसे मैंने क्या नहीं पाया और क्या नहीं पाऊँगी। मैं मोहनमाले और कण्ठे को कुछ नहीं समझती। जिससे आपका जी सुखी हो, मैं उसी की खोज में रहती हूँ, और उसके मिलने पर सब कुछ पा जाती हूँ।
कामिनीमोहन-क्या हम यह नहीं जानते, तुम कहोगी तब जानेंगे? जो तुम्हारे में यह गुण न होता तो हम तुम्हारा इतना भरोसा क्यों करते? पर इस घड़ी इन बातों को जाने दो। आज क्या कर आयी हो, यह बतलाओ?
बसमती-बतलाऊँगी, सब कुछ बतलाऊँगी, पर इस घड़ी नहीं, मैं जो कुछ ठीकठाक कर आयी हूँ, जो मैं बात करने में फँसूँगी, तो वह सब बिगड़ जावेगा, इसलिए अब मैं यहाँ ठहरना नहीं चाहती, उसी ओर जाती हूँ। आज मैं आपसे मिलने के लिए पहले कह चुकी थी, इसीलिए आयी हूँ। जो मैं न आती, आप घबराया करते।
कामिनीमोहन-क्या दो-एक बातें भी न बताओगी?
बासमती-अभी दो-एक बातें भी न बतलाऊँगी, अब मैं जाती हँ, आप इन गजरों से अपना जी बहलाइये, मैं जब चलने लगी थी, आपके लिए इनको साथ लेती आयी थी। देखिए तो इनमें कैसी अच्छी महँक है।
कामिनीमोहन ने गजरों को हाथ में लेकर कहा, अच्छा जाना चाहती हो तो जाओ, पर जी में एक अनोखी उलझन डाले जाती हो। जब तक फिर आकर मुझसे तुम सब बातें पूरी-पूरी न कहोगी, मुझको चैन न पड़ेगा। क्या इन गजरों के न कुम्हलाते-कुम्हलाते तुम आकर मेरे जी की कली खिला सकती हो?
बासमती-आपके जी की कली मैं खिला सकती हूँ, पर इन गजरों के न कुम्हलाते-कुम्हलाते नहीं। कहाँ गजरों का कुम्हलाना! कहाँ कली का खिलना। क्या बिना भोर हुए भी कली खिलती है?
कामिनीमोहन-गजरे कब बिना भोर हुए कुम्हलाते हैं?
बासमती-आप ही सोचें। मैं यही कहूँगी जिस घड़ी फूलों से भी कहीं सुन्दर आपके हाथों में मैंने इन गजरों को दिया, यह अपनी बड़ाई को खो जाते देखकर उसी घड़ी कुम्हला गये! अब आगे यह क्या कुम्हलायेंगे?
कामिनीमोहन ने देखा, इतना कहकर वह मुसकराती हुई वहाँ से चली गयी। और देखते-ही-देखते उसी अंधियाले में छिप गयी। कभी-कभी दूर से आकर उसके बजते हुए घुँघरुओं की झनकार कानों में पड़ जाती थी।
कामिनीमोहन कुछ घड़ी वहीं खड़ा-खड़ा न जाने क्या सोचता रहा, पीछे वह घर में आया, और फिर उसी पलंग पर लेट गया, पर नींद न आयी, घण्टों इधर-उधर करवटें बदलता रहा, भाँति-भाँति की उधेड़ बुन में लगा रहा, आँखें मीच कर नींद के बुलाने का जतन करता रहा, पर नींद कहाँ? अबकी बार वह फिर पलंग पर से उठा, बिछावन को हाथों से झाड़ा, कुछ घड़ी धीरे-धीरे टहलता रहा, पीछे सोया, नींद भी आयी, और कुछ घण्टों के लिए भाँति-भाँति की उलझनों से छुटकारा पा गया।
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