नाटक – श्रीरुक्मिणीरमणो विजयते – अध्याय 10 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
( स्थान-रणभूमि का बहि:प्रान्त)
( भगवान श्रीकृष्ण , सारथी एवं महारानी रुक्मिणी सहित एक रथ विराजमान)
श्रीकृ.- (नेपथ्य की ओर देखकर) सारथी! देखो, पद्म व्यूह रचकर खड़ी यादवों की सेना को बली शाल्वादि महारथियों को आगे किए हुए शंखध्वनि करती शिशुपाल की सेना ने किस प्रकार आक्रमण किया है।
सा.- महाराज! कुछ चिन्ता नहीं। विकट सिंहनाद से शत्रुओं का हृदय कम्पित करके यादवों की सेना ने भी उनकी अव्याहत गति का अवरोध कर दिया।
श्रीकृ.- सत्य है। अब युद्ध आरम्भ होने में भी अनति विलम्ब है।
सा.- अनतिविलम्ब क्या, विलम्ब है ही नहीं।
(नेपथ्य में सिन्दूरा गान प्रारम्भ)
राग सिन्दूरा
कोप धारि असि प्रहारि लरत बीर भारी।
चं चं चमकत छपान , फं फं फुंकरत बान , तं तं तंकरत मान , बैरिन मदगारी।
घं घं घायल अपार , गं गं गं गिरत हार , कं कं करिकै पुकार , कायर भयकारी।
बं बं बहकत प्रबीर धां धां धनु धुन त धीर , भं भं भं भिरत भीर , बरकत दैनारी।
श्रीकृ.- सारथी, तुमने बहुत ठीक कहा, सिन्दूरा गान के साथ ही रणवाद्य बजने लगा, बारम्बार तूर्यनाद होने लगा, अग्रज ने शिशुपाल को ललकारा, सात्वकी ने शाल्व के साथ युद्ध करना प्रारम्भ किया, कृतवर्मा ने दन्तवक्र को लक्ष्य बनाया, और यादवों की समस्त सेना शिशुपाल की सेना पर टूट पड़ी।
सा.- महाराज! इस काल बड़ा घोर युद्ध हो रहा है, सामन्तों की गरज, रणवाद्यों का भयंकर शब्द, शस्त्रस्त्रों की झनत्कार, तूर्य का उत्तेजक निनाद ही चारों ओर श्रुत होता है।
श्रीकृ.- सारथी! देखो! अग्रज के कठोर मूसलाघात से आहत होकर रुधिर बमन करता हुआ शिशुपाल पृथ्वी पर गिर पड़ा, सात्वकी की अनवरत बाणवर्षा से व्याकुल होकर प्रचण्ड शाल्व ने उनके धन्वा को तो काट दिया, किन्तु करवाल के कठिन प्रहार से त्राण न पा सका, क्षतविक्षत होकर मूच्छित हो गया, कृत वर्मा ने अपने अमोघ पराक्रम से दन्तवक्र का मान चूर्णविचूर्ण कर दिया। आहा! यादवों की सेना ने भी प्रचण्ड आक्रमण करके शिशुपाल की सेना में से बहुतों को काट डाला। सूत! क्या शिशुपाल की सेना अब पलायित होने का उपक्रम कर रही है?
सा.- महाराज! ज्ञात तो ऐसा ही होता है।
श्रीकृ.- सूत! देखो। जरासन्ध की तेजस्विता देखो। शिशुपाल की सेना क्षत्रभंग देखकर पलायित हुआ ही चाहती थी। किन्तु अपनी अविरल बाण वर्षा से यादव दल को सन्धुक्षित करके उसने उनके उत्साह को द्विगुण कर दिया। अब किस ओजस्विता के साथ उसने फिर यादवीय सेना को आक्रमण किया है।
(नेपथ्य में)
अरे। युद्धदुर्मद जरासन्ध यदि कुछ पौरुष रखता है तो मेरे सन्मुख हो, बृथा अपने अप्रतियोगी यादव सैन्य के साथ क्यों बल प्रकाश करता है। यदि ओजस्वी मृगेन्द्र ने छुद्र मृगसमूह को विजित कर ही लिया तो उसकी कौन प्रशंसा है?
सा.- महाराज! क्या यह ओजस्वी वाक्य महात्मा बलराम का है?
श्रीकृ.- हाँ, देखते नहीं किस दर्प के साथ जराजन्ध ने उनको आक्रमण कियाहै।
सा.- निस्सन्देह! इन दोनों पराक्रान्त वीरों की प्रतिद्वंद्विता देखने योग्य है।
श्रीकृ.- अहा! कैसा घोर संग्राम हो रहा है। रण धुरन्धर जरासन्ध के बाणों से सारी संग्रामभूमि पूर्ण हो गयी। अग्रज महावीर्य बलराम के कठोर एवं अनिवार्य मूसलप्रहार से अनन्त वीर भग्नमस्तक हो गये। मृतकों के शरीर का ढेर लग गया, रुधिर की नदी बह निकली। किसी वीर का कबन्ध कर में करवाल ग्रहण किए सन्मुख होता है, कोई उसे खड्गप्रहार करके द्विधा कर देता है। कोई रणोन्मत्त दोनों हाथों के कटने और विरथ होने पर मुखव्यादनपूर्वक अपने प्रतियोगी को आत्मशान्त कर लेना चाहता है, किन्तु वह सबके मुख को बाणों से भरकर उसका वहीं निपात करता है। कहीं सारथी रथी का सीस हाथ में लिये रोदन करता है। कहीं कोई वीर मूर्छित हो पृथ्वी में गिरता है। घायल घूमते हैं। कायर भागने का उपक्रम करते हैं। अर्ध्दमृतकों का आर्तनाद कलेजा कम्पित करते हैं। छिन्नमस्तक और धरातलपतित रुण्ड त्रस को द्विगुण कर देता है। धरती रक्तवर्ण हो गयी। आकाश बाणों से घिर गया। वीरों का उत्कट नाद दिशाओं में भर गया। मांसभक्षी जीव इतस्तत: भ्रमण कर रहे हैं। लोहू, मांस, मज्जा, मेद पड़े दृष्टि आते हैं। रुधिराक्त शस्त्रास्त्र बिखरे पड़े हैं। शोणिताप्लुत आभूषण जहाँ तहाँ गिरे हैं। दुर्दान्त जरासन्ध के अपूर्व पराक्रम प्रकाश से आहत शिशुपाल की सेना बढ़ आयी थी, पर पूजनीय अग्रज के मूसलप्रहार और विजयी कृतवर्मा और सूर सात्वकी के अभेद्य शरवर्षण से फिर पीछे हट गयी।
छन्द
तागिड़दं तीरं छागिड़दं छुट्टे। बागिड़दं बीरं टागिड़दं टुट्टे।
कागिड़दं कोपे जागिड़दं ज्वानं। नागिडदं नासे मागिडदं मानं।
गागिड़दं गाजे खागिड़दं खेतं। भागिड़दं भूतं पागिड़दं प्रेतं।
चागिड़दं चोपे सागिड़दं सूरं। भागिड़दं भाजे कागिड़दं कूरं।
बागिड़दं बाजी ढागिड़दं ढोलं। भागिड़दं भाजी गागिड़दं गोलं।
घागिड़दं घोड़े हागिड़दं हाथी। आगिड़दं आजे सागिड़दं साथी।
मागिड़दं मारे दागिड़दं दारे। जागिड़दं जीधे सागिड़दं सारे।
दागिड़दं देखी यागिड़दं युध्दं। बागिड़दं बीरं कागिड़दं क्रुध्दं।
सा.- महाराज! यह देखिए। घोर संग्राम करने के पश्चात् वीर्यवान श्रीबलराम के मूसलप्रहार से भग्नमस्तक हो रणदुर्मद जरासन्ध पृथ्वी पर गिर पड़ा।
( नेपथ्य में सिन्दूरा गान समाप्त होता है)
श्रीकृ.- (प्रसन्नता से) सारथी! केवल इतना ही आनन्द का विषय नहीं है। जरासन्ध को भूमिपतन होते देखकर शिशुपाल की समस्त सेना क्षत्रभंग देकर पलायित हो रही है और उसके साथ ही शिशुपाल और शाल्वादि भी पलायन करते दृष्टिगत होते हैं।
सा.- सत्य है। पृथ्वी में ऐसा कौन पराक्रमी है जो आपके और महात्मा श्रीबलराम के सन्मुख कुछ काल पर्यन्त रणांगण में ठहर सके।
श्रीकृ.- सारथी! अब तो रणभूमि में विपक्षीदल का एक मनुष्य भी दृष्टिगत नहीं होता।
सा.- महाराज! दृष्टिगत कैसे हो? किसको अपना प्राण भारी पड़ा है। जिन्होंने मूर्खता की उन्होंने ही की।
(नेपथ्य में घोर कोलाहल और तूर्यनाद)
श्रीकृ.- सारथी! फिर यह कोलाहल कैसा?
सा.- (नेपथ्य की ओर मनोनिवेश के साथ देखकर) महाराज! जान पड़ता है कि एक नवीन सेना ने कोलाहल और तूर्यनाद करती आकर यादवों की सेना को फिर आक्रमण किया है।
श्रीकृ.- सत्य है! यह सेना राजकुमार रुक्म की है, क्यों कि यह देखो अविरल बाणवृष्टि करता हुआ रुक्मा हमारी ओर बढ़ा आता है।
सा.- महाराज! आप भी सावधान हो जावें।
(रथस्थ, बाणवृष्टि करते रुक्म का प्रवेश)
रु.- (क्रोध से) अरे रणभीरु! कायरशिरोमणि! कुल पांसन कृष्ण! तूने अपने को क्या समझ रखा है, दो-चार छुद्र राक्षसों को छल से मार लेने के कारण तू वीर नहीं हो सकता। तेरी कौटिल्यमयी दुस्साहसिकता वीरता में परिगणित नहीं हो सकती। तूने कतिपय अल्प पराक्रम दानवों को क्या जीत लिया, अपने को अजर अमर समझ लिया। किन्तु स्मरण रख कि तुझको आज तक किसी क्षत्रिय से काम नहीं पड़ा है। देख, आज मेरी अविराम बाणवर्षा से तेरी वही गति होगी, जो जलवर्षण से एक छुद्र रजकण पिण्ड की होती है (बाणवृष्टि)
श्रीकृ.- अरे वाक्सूर! गजभुक्तकपित्थ समान सारशून्य। क्षत्रियकुल-निशाकरकलंक! क्या स्वान के शब्द करने पर मृगेन्द्र कभी आक्षेप करता है, अथवा मत्तद्विरद के गरजने पर वह कभी रोषाविष्ट होता है। तुझ ऐसे पामर पतंगों के संहार के लिए मेरी करवाल की ज्वाला बहुत है। और मेरे पवन बाणप्रहार सन्मुख तेरी बाणवर्षा तो ठहर ही नहीं सकती (धन्वाबाणसन्धान और शरजालभेदन)
रु.- (गर्जकर) सत्य है ‘विनाशकाले विपरीतबुध्दि:’ जैसे मृत्युग्रस्त मत्स्य बडिशग्रहण करके स्वत: अपना नाश करता है, उसी प्रकार रुक्मिणीहरण करके तूने अपने को कालकवलित किया है और प्रचण्ड मृत्यु के शीर्षस्थ होने से इसका ज्ञान नहीं है कि मैं क्या कहता हूँ। अरे नीच! लोह की ऑंच सहने को क्षत्री ही को ईश्वर ने रचा है, गोपजातों को नहीं (पुन: शरबृष्टि)
श्रीकृ.- रे नीच! मिथ्याभिमानी! पामर! कायरों समान क्या वृथा प्रलाप करता है, कुछ काल में आप ही ज्ञात हो जावेगा कि लोहे की ऑंच सहनेवाला क्षत्री कौन है। मेंढकों सदृश अधिक टर्रटर्र करने से क्या लाभ है (पुनर्शरजाल भेदन)
रु.- अरे कपटी! कटुभाषी! वाचाल!। तेरे शस्त्रो की शोभा तभी तक थी जब तक मेरे तीक्ष्ण बाणों से उस को काम नहीं पड़ा था, देख आज इन बाणों के प्रहार से तेरे अंगों को विदीर्ण करके तेरे मांस से काकों और शृगालों को तृप्त कर देता हूँ, और तेरा सर्व रणोन्माद ऐसे उतार देता हँ जैसे लक्ष्मणानुज शत्रुघ्न के बाणों ने लवण का, भगवान भूतनाथ के शरसमूहों ने त्रिपुर का, और पराक्रान्त पुरन्दर के अमोघ वज्र ने पाक का गर्व दूर कर दिया था ( पुनर्शरवृष्टि)
श्रीकृ.- दुष्ट! वाक् वीर! समरयज्ञ पशु रुक्म। क्या वृथा प्रलाप करता है। जैसे वर्षाकाल के अनन्त छुद्र कीटों का प्रादुर्भाव तभी तक रहता है जब तक ओजस्वी शीत वितरक शरदत्तु का विकास नहीं होता, उसी प्रकार तेरे इन अनन्त शरसमूहों की दिगन्तव्यापिता तभी तक है जब तक वास्तव में मैं तेरे शरप्रहार रोकने के लिए कटिबद्ध नहीं होता, जिस काल ऐसा होगा तू शरप्रहार करना उस प्रकार भूल जावेगा, जैसे प्रसव होते ही बालक गर्भ की सकल बातें भूल जाता है। अच्छा सम्हाल। (शरनिक्षेप और रथ, सारथी, अश्व, धनु का बिनाश)
रु.- (खिजलाकर) पापिष्ठ! तिष्ठ! तिष्ठ! अभी तलवार मारकर तुझे दो टुकड़े कर देता हूँ (पैदल दौड़कर असिप्रहार)
श्रीकृ.- (ढाल पर तलवार रोककर) बस। हो चुका। देखना अब मेरी बारी है (रुक्म को पकड़ तलवार मारा चाहते हैं)
श्रीरु.- (भगवान के चरणों पर गिरकर) कृपासिन्धो। क्षमा कीजिए। क्षमा कीजिए। क्या जन्मान्ध कभी अंशुमाली सूर्य के गुण को जान सकता है, जब तक उसको सुलोचन न मिले, उसी प्रकार यह मदान्ध क्या कभी आपको पहचान सकता है, जब तक आपकी कृपा से इस बिचारे को नेत्र न प्राप्त होवें। दीनबन्धो! बिच्छू का स्वभाव ही डंक मारने का है। बालक की प्रकृति ही अपमान की है! फिर क्या महज्जन इसका विचार कर उनको दोषभागी बनाते हैं। दयानिधे! इस बालबुध्दि के दुराचार का विचार आप न करें, इसे छोड़ दें, अपनी करनी का फल यह आप ही भोगेगा, निष्कलंक सूर्य पर जो थूकता है, वह थूक उसी के मुख पर पड़ता है। और यदि आपसे जगमंगल से सगाई करने का यही फल हो कि आपके श्वसुर को पुत्र शोक और दासी को भ्रातृ शोक हो तो, यहाँ मेरी जिह्ना बन्द है, मैं कुछ नहीं निवेदन कर सकती (रोने लगती हैं)।
श्रीकृ.- सारथी! प्राणाधिका के अनुरोध से मैं रुक्म को छोड़ने के लिए बाध्य हुआ, किन्तु इसको इसके दुराचरण का फल चखाना अवश्य है, अतएव तुम इसका उचित शासन करो? (कुछ संकेत करते हैं)
सा.- जो आज्ञा। (सिर और दाढ़ी मूँछ का बाल मूँड रुक्म को रथ से बाँध देता है)
(श्री बलराम का प्रवेश)
बल.- भ्रात:। हमने रुक्म की सेना को परास्त करके विद्रूप किया, और तुमने सिर और दाढ़ी मूँछ के बाल मूँडकर इसे विद्रूप बनाया, फिर अब इसको रथ से बाँध रखने की कौन आवश्यकता है, इसको छोड़ दो?
श्रीकृ.- अग्रज की जैसी इच्छा। (रुक्म छोड़ दिया जाता है)
(भगवान श्रीकृष्ण का रथ संचालन)
(जवनिका पतन)
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