आत्मकथा – घबराहट (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
जब किसी बीमार के जी में यह बात बैठ जाती है कि अब बचना कठिन है, तो उसमें घबराहट का पैदा हो जाना कुछ आश्चर्य नहीं। अपने दुख को देखकर मैं भी बहुत घबराया, सोचने लगा, मृत्यु भी कैसी बुरी बला है, कि कोई प्रयत्न काम ही नहीं देता। कोई कभी गुम हो जाता है, तो आशा नहीं टूटती, भरोसा रहता है कि कभी तो मिलेगा। लोग उसकी हुलिया जारी कराते हैं, उसके लिए समाचार पत्रों में नोटिस देते हैं। जहाँ कहीं उसके होने की आशा होती है, वहाँ लोगों को दौड़ाते हैं, इसी प्रकार के और भी कितने उपाय करते हैं। इन्हीं उपायों में से किसी-न-किसी एक उपाय से वह प्राय: मिल भी जाता है। जब कोई परदेश चला जाता है और बरसों घर की सुधि नहीं लेता, तब भी घरवाले उससे निराश नहीं होते, उसके पास चीट्ठियाँ भेजते हैं, घर का दु:ख-सुख उसको सुनाते हैं, या घर वालों में से कोई आप उसके पास चला जाता है, और किसी-न-किसी तरह उसको लिवा लाता है-जो वह नहीं आता तो भी धर्य रहता है कि कभी तो वह समझेगा, और घर की सुधि लेगा। इसी तरह की और भी दशाएँ हैं कि जिनमें मनुष्य घरवालों से अलग हो जाता है-जैसे आठ-दस बरस के लिए कारागार बद्ध हो गया, या काले पानी भेज दिया गया, या कहीं बणिज व्यापार करने चला गया पर फिर भी उसकी आशा होती है, और लोग बिल्कुल उससे हाथ धो नहीं लेते। किन्तु मौत ऐसा गुम होना है, कि फिर पता नहीं लगता, ऐसा परदेश है कि वहाँ जाकर कोई नहीं लौटता, ऐसी कैद है कि जिससे कोई नहीं छूटता, ऐसा काला पानी है कि जहाँ से छुटकारा नहीं होता, और ऐसी ठौर है कि जहाँ जाकर फिर कोई नहीं पलटता। न वहाँ कोई चीठी जाती, न कोई नोटिस पहुँचती है, न कोई हुलिया जारी होता है, और न कोई दूसरा उपाय काम आता है। फिर सोचने की बात है कि यदि मृत्यु से घबराहट न होगी तो किससेहोगी।
एक ग्रन्थ में लिखा है कि सिकन्दर लगभग सारे संसार में घूम आया, उसका बहुत बड़ा भाग उसने अपने हाथों में कर लिया, उसके पास बड़े-बड़े पढ़े-लिखे पण्डित थे, सब तरह के कारीगार और शिल्पी थे, अच्छे-से-अच्छे गुणी और वैद्य थे, हवा से बातें करने वाले घोड़े थे। एक-से-एक अनूठी सवारियाँ थीं, सब तरह के निराले हथियार थे, धन-दौलत से भण्डार भरा था, जवाहिरात कंकरों की तरह लुढ़कते थे। फिर भी मृत्यु आयी, और सिकन्दर को एक साधारण प्राणी की भाँति मरना पड़ा। देखना चाहिए मृत्यु कैसी प्रबला है, फिर उसको देखकर हम जैसों का कलेजा दहले, और हम लोग घबराहट में पड़ें तो क्या आश्चर्य है।
आग लगती है तो उसे पानी से बुझा देते हैं, ऑंधी चलती है तो घर मैं बैठकर जी बचा लेते हैं, लू लपट से बचने के लिए खस की टट्टियाँ लगाते हैं, पानी को छत्तो से रोकते हैं, रोगों में दवा खाते हैं, बहुत सी आपदाओं में सम्पदा काम देती है, अंधियाले में ज्योति जगमगाती है, पर किसी ने न बतलाया कि मृत्यु से बचने के लिए क्या करना चाहिए। संसार में हर तरह की विपत्ति से बचने का कुछ-न-कुछ उपाय है, तो मृत्यु से बचने का नहीं है, फिर बेचारा मनुष्य घबराए न तो क्या करे।
घबराहट का यह ढंग है कि इसके सामने बड़े-बड़े चतुरों की ऑंख पर भी परदा पड़ जाता है, बड़े-बड़े बुध्दिमान भी उल्लू बन जाते हैं। जिस काम को हम जानते हैं कि इसके करने से कुछ नहीं होगा, जो बात हमारे किसी काम की नहीं, घबराहट में हम उसको भी कर बैठते हैं। जब कोई डूबने लगता है तो सामने बहते हुए तिनके को दौड़कर पकड़ता है, पर क्या उसके सहारे से वह बच सकता है। थाली खो जाने पर लोग घड़े में हाथ डालते हैं, पर क्या सचमुच घड़े में थाली मिल सकती है। जब हम रुग्णता की आपत्ति में पड़ते हैं, या हमारा रोग प्रबल हो जाता है, तब भी हमारी यही अवस्था होती है कि हमसे जो लोग कहते हैं, हम वही करने को उतारू होते हैं, चाहे उनमें सभी बातें हमारे काम की हों चाहे न हों।
मेरे एक मित्र थे, उनकी प्रकृति थी कि जब वे किसी को बाँहों पर बहुत यन्त्र बाँधे हुए देखते, या किसी को झाड़ फूँक कराते हुए पाते, या किसी सीधे-सादे मनुष्य को किसी साधु संत की दी हुई राख सिर पर या ऑंखों में मलते हुए देख लेते, तो बहुत हँसते, मुँह बनाते और जो अवसर पाते तो उसे बहुत तंग भी करते। एक दिन एक मनुष्य दु:ख से घबरा कर एक मन्दिर में लोट रहा था, फूट-फूट कर रो रहा था, देवता के सामने गिड़गिड़ा रहा था, नाक रगड़ रहा था, कि वे उसके अपराधों को क्षमा करें। और उसके कष्टों को दूर कर दें। वहीं आप भी पहुँच गये। आपको उसकी नासमझी पर बड़ा दु:ख हुआ, बोले, देखिए न, यह बालू में से तेल निकालना चाहता है। एक दिन मैं उनके घर पर गया, इस समय सिर दर्द से आप बहुत बेचैन थे। एक मनुष्य आपका सिर पकड़े बैठा था, और कुछ छू छा कर रहा था। मैंने कहा-मर्द! यह क्या? उन्होंने कहा-कुछ नहीं। इन्होंने अपनी उँगलियों से मेरे सिर को जोर से पकड़ रखा है। इससे मुझको बड़ी तसकीन हो रही है। और इसीलिए मैंने ऐसा करना गवारा किया है। आप तो जानते ही हैं कि मैं इन बातों को पसन्द नहीं करता। मैंने कहा, इसी तरह आप को दूसरों की तसकीन का भी ख्याल रखना चाहिए। मेरी बात को सुनकर वे कुछ रूखे हुए। पर बोले नहीं। सच्ची बात यह है कि-घबराहट में तसकीन की ही खोज रहती है। चाहे वह किसी तरह मिले। जिन बातों को हम जी से घृणित समझते हैं, घबराहट में तसकीन के लिए हम उनको भी करने से नहीं हिचकते। क्योंकि उस घड़ी समझ ठीक-ठीक काम नहीं करती।
ऐसे लोग भी हैं, जो बड़ी-बड़ी विपत्तियों में भी नहीं घबराते। उनका धर्य उनके सारे संकटों को हल कर देता है। पर ऐसे धर्य धारण करने वाले कितने हैं? आप पोस्ते के खेत को देखिए, जहाँ तक आप की दृष्टि जावेगी, आप श्वेत फूल ही देखेंगे, इन्हीं फूलों में कभी-कभी लाल फूल भी दिखलाई पड़ता है। पर दो-चार भी नहीं, एक ही। इसी प्रकार गहरी विपत्ति में भी जिनका धर्य काम करता है वे इस संसार में थोड़े हैं। मैं उन धर्य धारण करने वालों में नहीं हूँ। मैं भी घबराने वालों में से हूँ। इसलिए संकटों में जैसी दशा ऐसे लोगों की होती है, मेरी भी हुई। जब तक रोग का बेग साधारण होता था, मेरी घबराहट भी साधारण थी। पर रात के बेग ने मुझे बहुत चौंका दिया। मैं सोचने लगा कि क्या रोग के हाथ से छुटकारा पाने का कोई उपाय भी है? और आज दिन भर यही सोचता रहा।
मिलने वालों की भी कमी नहीं थी। जब से प्रकृति प्राय: गड़बड़ रहने लगी, तभी से नित्य ही कुछ लोग मिलने के लिए आया करते थे। आज मैं कचहरी नहीं गया, इससे और अधिक लोग आये। इनमें सब तरह के लोग थे। कुछ लोगों से कचहरी का हरिऔध था, वे इसलिए आये कि सहानुभूति दिखलाने के ऐसे ही अवसर होते हैं, उन्होंने समझा कि इन अवसरों पर आया गया भूलता नहीं, हमारे दस पन्द्रह मिनट लगेंगे, पर किसी अवसर पर हमारा यह दस पन्द्रह मिनट काम आ जायेगा, कोई-न-कोई काम अवश्य निकलेगा। कुछ लोग संगी साथी थे, वे हमारे दु:ख से दुखी थे, वे प्रतिदिन जानना चाहते थे कि हमारा क्या हाल है। बिना हमें देखे उनको चैन नहीं पड़ता था। इसलिए वे आये। और हमें देखकर अपना बोध कर गये। कुछ लोग बड़े-बूढ़े थे, सब पर दया करना ही उनका काम है, वे दया करके आये, और जिन बातों को हमारे हित का समझा, बतला गये। कितने लोगों से राह चलते ऑंखें बराबर हो गयीं, वे जानते थे आजकल इनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। पहले की जान-पहचान थी, शील ने न माना, इसलिए वे लोग भी आये, कुछ देर बैठे, कुछ पूछा-पाछा? फिर चले गये। कितने लोग कुछ लालच से आये, कुछ लोग इधर-उधर चक्कर लगाते-लगाते हमारे यहाँ भी पहुँच गये। कोई-कोई यह सोच कर आये कि चलो देखें इसकी रस्सी कितनी दराज है। यह कई बार अब तब हुआ, पर सम्हल गया, क्या अबकी बार भी तो न सम्हल जाएगा। पर ये लोग थे विचित्र, इनकी सहानुभूति की बातें बड़ी प्यारीथीं।
ऐसे अवसर पर जितने लोग आते हैं, कुछ-न-कुछ ऐसी बातें अवश्य कहते हैं कि जिससे रोगी को शान्ति मिले। ऐसा करने के दो कारण हैं। एक तो इससे रोगी के साथ सहानुभूति दिखलाई जा सकती है, दूसरी इसमें छिपी हुई बात यह है कि कहने वाले ऐसे अवसर पर ही अपने को बहुत सी बातों का जानकार और अवसर का समझने वाला सिद्ध कर सकते हैं। निदान हमारे यहाँ भी जितने लोग आये, सभी ने कुछ-न-कुछ बतलाया। जिसका जिस उपाय से भला हुआ था, जो क्रिया जिसको अनुकूल हुई थी, उसने वही हमको बतलाई। किसी ने झाड़फूँक कराने की सलाह दी, किसी ने पूजापाठ कराने के लिए कहा, किसी ने दान-पुण्य की बड़ाई की, किसी ने तन्त्र-मन्त्र को सराहा। बहुतों ने तरह तरह की औषधों बतलाईं, कुछ लोगों ने कई एक हकीम और वैद्य का नाम बतलाया, दो साहबों ने दो डॉक्टरों की बड़ी प्रशंसा की। एक सज्जन ने एक जड़ी दी; और उसकी बड़ी लम्बी चौड़ी प्रशंसा कर कहा, कि बस ”इसको बाँधने की देर है, आपने इसे अपनी बाँह पर बाँध नहीं, कि आप अच्छे हुए नहीं।” मैं पहले से इन बातों को बिचारता आया हूँ-आज भी विचारता रहा कि आप लोगों को भी अपना विचार सुनाऊँगा।
दु:ख के दिनों की यह दशा है। पर जहाँ चारों ओर सुख के ही डेरे हैं, वहाँ का क्या कहना। वहाँ तो सृष्टि हमारी ऑंखों में सोने की है। रत्नों जड़ी है। वहाँ तो यह सुनना भी अच्छा नहीं लगता, कि कभी हमें इसको छोड़कर उठ जाना पड़ेगा। फिर जी प्यारा क्यों न होगा। कहावत है कि-‘जी से जहान है’। महमूद गजनवी ने लोगों का लहू चूस-चूस कर और कितने लोगों का रोऑं कलपा कर बहुत बड़ी सम्पदा इकट्ठी की थी। जब वह मरने लगा तो उसने आज्ञा दी कि उसकी कमाई हुई सारी सम्पत्ति उसके सामने लाई जावे। देखते-ही-देखते उसके सामने सोने, चाँदी और जवाहिरात के ढेर लग गये। वह देर तक उनको देखता रहा, और देख-देख कर रोया किया। वह क्यों इतना रोया, यह बतलाने की आवश्यकता नही कहना इतना है कि जिस जी के चले जाने के पीछे महमूद गज़नवी की ऑंखों में इतनी बड़ी सम्पत्ति भी किसी काम की न रही, उस जी से बढ़कर कौन रत्न होगा। और उसको कौन प्यार न करेगा।
आपको अपनी घरवाली का चाँद सा मुखड़ा दम भर नहीं भूलता, आपको उसकी रसीली बड़ी-बड़ी ऑंखें जो सपने में याद आती हैं, तो भी आप चौंक पड़ते हैं। जब कभी वह आकर पास बैठ जाती है, और प्यार से गले में हाथों को डालकर मीठी-मीठी बातें करने लगती है, तो आप पर रस की वर्षा होने लगती है। कुछ घड़ियों के लिए भी आप उससे अलग होते हैं तो आपका जी मलता है, जो कहीं परदेश जाने की नौबत आती है, तो ऊपर पहाड़ टूट पड़ता है। उसके बिना आपको चैन नहीं आता, जीना नीरस जान पड़ता है। वह आप के गले की माला है, ऑंखों की पुतली है, जीवन का सहारा है। औरत सब सुखों की कुंजी है। पर मुझे यह बतलाइये कि जो कोई बात ऐसी आन पड़े कि जिससे आप यह समझें कि अब सदा के लिए हमारा और इसका साथ छूटता है, तो उस घड़ी आपकी क्या गति होगी? आप पर कैसी बीतेगी। निस्सन्देह आपका यह दु:ख बहुत बड़ा होगा, और अब आप समझ गये होंगे कि ‘जी’ का लोभ इतना क्यों है?
आप अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं, सचमुच बच्चे हैं भी प्यार की वस्तु, उनकी भोली भाली सूरत पर कौन निछावर नहीं होता, उनकी तोतली और प्यारी बातें किसको नहीं भातीं। वे कलेजे के टुकड़े हैं, हाथ के खिलौने हैं, प्यार की जीती जागती तसवीर हैं, और आनन्द के लबालब भरे प्याले हैं। फिर कौन उन्हें दिल खोल कर न चाहेगा। आप जो उनको ऑंखों के ओझल करना भी पसन्द नहीं करते, तो कौन कहेगा कि यह ठीक नहीं, वे ऐसे ही धन हैं, कि सदा उनको ऑंखों के सामने ही रखा जावे पर बतलाइये जो आपकी ऑंखें इस तरह बन्द हों कि कभी उनके भोले-भाले चेहरों को देखने के लिए भी न खुल सकें, तो आपका कलेजा कसकेगा या नहीं। फिर आप सोच लें कि ‘जी’ इतना क्यों प्यारा है।
जब कोई इतना रुग्ण हो जाता है कि उसे अपने बचने की आशा नहीं रहती, तब वह प्राय: अपनी ऑंखों में ऑंसू भर लाता है, कभी अपने मिलने वालों से ऐसी दु:ख भरी बातें कहता है कि जिसको सुनकर कलेजे पर चोट सी लगती है, कभी ठण्डी साँसें भरता है, कभी घबराता है। पर क्यों? इसीलिए कि वह समझता है कि अब उससे संसार का बैचित्रय से भरा हुआ बाजार छूटता है। उसको उसका बढ़ा हुआ परिवार, उसके मेली-मिलापी, उसकी जमीन-जायदाद, धन-दौलत, नौकर-चाकर, उसके बाग-बगीचे, कोठे-अटारी, मन्दिर-मकान ही नहीं रुलाते, उनकी याद ही नहीं सताती, उनसे मिलने वाले सुखों का ध्यान ही नहीं दु:ख देता, कितने ही पर्व-त्यौहारों की बहार, कितने मेले-ठेलों का समाँ, कितने हाट-बाजार की धुम, कितनी सभा-सोसाइटियों का रंग, मौसिमों का निरालापन, खेल तमाशों का जमाव, भी एक-एक करके उसकी ऑंखों के सामने आते हैं, और उसको बेचैन बनाए बिना नहीं छोड़ते। यदि सृष्टि इतनी रंगीली न होती, तो शायद जी का इतना प्यार भी न होता।
सावन का महीना था। बादल झूम-झूम कर आते थे, कभी बरसते थे, कभी निकल जाते थे। काली-काली घटाओें की बहार थी, फुहारें पड़ रही थीं। कभी कोयल बोलती, कभी पपीहा पुकारता। हवा के ठण्डे-ठण्डे झोंके आते थे, पर बड़े मजे से आते थे, उनसे हरी-भरी डालियाँ हिलती थीं, और मोती बरस जाता था। धोये-धोये पत्तों पर समाँ था, फूलों की भीनी-भीनी महँक फैल रही थी। इसी बीच दूर से आयी हुई नफीरी की एक बहुत ही सुरीली ध्वनि ने एक रोगी को तड़पा दिया। मैं उनके पास बैठा था, वे दो एक दिन के ही मेहमान थे। पर ज्यों-ज्यों नफीरी की आवाज पास आती जाती थी, त्यों-त्यों वे बेचैन हो रहे थे। हम लोग इस समय जहाँ बैठे थे; वह एक वाटिका थी, जो ठीक सड़क के ऊपर थी। नफीरी के साथ-साथ कुछ देर में कुछ सुरीले गलों के स्वर भी सुन पड़े, थोड़ी ही देर में बड़ी मस्तानी आवाज से कजली गाती हुई गँवनहारिनों का एक झुण्ड नफीरी वालों के साथ ठीक वाटिका के सामने से होकर निकल गया। कुछ देर अजब समाँ रहा। अबकी बार बीमार की ऑंखों में ऑंसू भर आया। वे बोले-पण्डित जी, यह सावन के दिन अब कहाँ नसीब होंगे। हाय! अब मैं इनको सदा के लिए छोड़ता हूँ। मैंने कहा-एक दिन सभी को छोड़ना पड़ता है। उन्होंने कहा-हाँ, यह मैं मानता हूँ-पर क्या मैं थोड़े दिन और नहीं जी सकता हँ। दो चार सावन तो और देखने को मिलते। मैंने कहा-आगे चलकर फिर आप यही कहेंगे। उन्होंने कहा, ठीक है, पर क्या इस सावन में हमीं मरने को थे। मैं चुप रहा, फिर बोला-आप घबराइये नहीं, अभी आप बहुत दिन जियेंगे। अब आप लोग देखें जी का लोभ! यहाँ का एक-एक दृश्य ऐसा है, जो हम लोगों को सानन्द संसार को नहीं छोड़ने देता।
एक पण्डित जी कहा करते कि सृष्टि यदि बिल्कुल अंधियाली होती, और उसमें एक भी सुख का सामान न होता, तो कोई भी अपने ‘जी’ को प्यार न करता। पर जब उनसे कहा गया कि अंधियाले में रहने वाले उल्लू और तरह-तरह के दु:खों में फँसे मनुष्यों को क्या अपना जी प्यारा नहीं होता? तो वे कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, हाँ भाई; संसार नाम में ही कुछ जादू है। शायद जब तक यह नाम भी रहेगा, तब तक किसी को भी इन पचड़ों से छुटकारा न मिलेगा।
मैं चिन्ता में डूबा हुआ इसी तरह की बातें सोच रहा था, कि सुबह का दृश्य सामने आया। अंधेरा दूर हुआ, आकाश में लाली छाई और चिड़ियाँ चहकने लगीं। इसलिए मेरा जी इधर फँस गया, और कुछ घड़ी के लिए मुझको अपना सारा दु:ख भूल जाना पड़ा।
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