हरिऔध् ग्रंथावली – खंड : 4 – पद्य-प्रसून- पावन प्रसंग (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
अभेद का भेद
दोहा
खोजे खोजी को मिला क्या हिन्दू क्या जैन।
पत्ता पत्ता क्यों हमें पता बताता है न।1।
रँगे रंग में जब रहे सकें रंग क्यों भूल।
देख उसी की ही फबन फूल रहे हैं फूल।2।
क्या उसकी है सोहती नहीं नयन में सोत।
क्या जग में है जग रही नहीं जागती जोत।3।
पूजन जोग जिसे कहें पूजित-जन बनदास।
उसे नहीं जो पूजते तो क्यों पूजेआस।4।
आव भगत उसका करें पूजें पाँव सचाव।
सब से ऊँचा जो रहा रख कर ऊँचे भाव।5।
बिना बीज क्यों बेलि हो बिना तिलों क्यों तेल।
किसी खेलाड़ी के बिना है न जगत का खेल।6।
क्या निर्गुण है? है भला किसको निर्गुण ज्ञान।
गुण वाले जो कर सकें करें सगुण गुण ज्ञान।7।
चित भीतर ही है नहीं जो चित रहे सचेत।
कला दिखाता क्या नहीं बाहर कलानिकेत।8।
विपुल बीज अंकुरित हो अंकुर सकल समेत।
हैं हरि पता बता रहे हरे भरे सब खेत।9।
जोत नहीं तम में मिली लाखों बार टटोल।
भेद भला कैसे खुले सके न ऑंखें खोल।10।
प्रार्थना
हरि गीतिका
हे दीनबंधाु दया-निकेतन विहग-केतन श्रीपते।
सब शोक-शमन त्रिाताप-मोचन दुख-दमन जगतीपते।
भव-भीति-भंजन दुरित-गंजन अवनि-जन-रंजन विभो।
बहु-बार जन-हित-अवतरित ऐ अति-उदार-चरित प्रभो।1।
बहु-मूल्यता से वसन की भारत न कम आरत रहा।
रोमांच कर लखकर समर वह था चकित शंकित महा।
तब लौं दुरन्त अकाल का जंजाल शिर पर आ पड़ा।
आ सामने बिकराल बदन पसार काल हुआ खड़ा।2।
इस बार जन-संहार जो है प्रति-दिवस प्रभु हो रहा।
अवलोक, उसको नयन से किसके नहीं ऑंसू बहा।
बहु बंश धवंस हुए विपुल नर नगर के हैं मर रहे।
घर घर मचा कोहराम यम हैं ग्राम सूना कर रहे।3।
कुम्हला गईं कलियाँ विपुल, बहु फूल असमय झड़ पड़े।
टूटे अनूठे-रत्न, लूटे मणि गये सुन्दर बड़े।
सर्वस्व कितनों का छिना, बहुजन हृदय-धान हर गया।
दीपक बुझा बहुसदन का, बहु शीश मुकुट उतर गया।4।
बहु भाग्य-मन्दिर का कलश-कमनीय निपतित हो गया।
अगणित अकिंचन जन परम आधाार पारस खो गया।
टूटी कुटिल-विधिा निठुर-कर से, बहु सुजन-गौरव-तुला।
बहु नयन के तारे-छिने, बहु माँग का सेंदुर धाुला।5।
तब भी द्रवित नहिं तुम हुए, हैं वैसिही भौंहें तनी।
अवलोकिए भारत-अवनि को सदय हो त्रिाभुवन धानी।
सह भार नहिं जिसका सके बहु-बार-तनधार अवतरे।
उसकी बड़ी दुखमय दशा क्यों देख सकते हो हरे!।6।
गज पशु कहा अवलोक ग्राह-ग्रसित उसे पहुँचे वहीं।
फिर कुरुज कवलित मनुज कुल पर किसलिए द्रवते नहीं।
जब एक याँ के गीधा का दुख देख युग दृग भर गये।
बहु लोग याँ के तब रहें दुख भोगते क्यों नित नये।7।
जब व्याधा का अपराधा भी अपराधा नहिं माना गया।
तब तुच्छतर अपराधिायों पर क्यों विशिख ताना गया।
सुनकर पुकार गयंद की जब नयन से ऑंसू बहा।
तब किस तरह नरपुंज हाहाकार जाता है सहा।8।
बहु व्याधिा घन माला घुमड़ भारत-गगन में है घिरी।
पर प्रबल पवन-प्रवाह बन प्रभु-दृष्टि अब लौं नहिं फिरी।
भारत विपिन जनता लता है जल रही सुधिा लीजिए।
घनतन सदयता सलिल से रुज दव शमन कर दीजिए।9।
आकुल बने व्याकुल-नयन से विपुल-वारि विमोचते।
नर नारि बालक-वृन्द हैं वदनारबिन्द विलोकते।
वेनिशित विशिख समेटिए जिनसे विपुल मानव बिधो।
सब त्रााहि त्रााहि पुकारते हैं पाहि पाहि कृपानिधो।10।
कमनीय कामनाएँ
छप्पै
वर-विवेक कर दान सकल-अविवेक निवारे।
दूर करे अविनार सुचारु विचार प्रचारे।
सहज-सुतति को बितर कुमति-कालिमा नसावे।
करे कुरुचि को विफल सुरुचि को सफल बनावे।
भावुक-मन-सुभवन में रहे प्रतिभा-प्रभा पसारती।
भव-अनुपम-भावों से भरित भारत-भूतल-भारती।1।
मन्दाक्रान्ता
प्यारी न्यारी प्रभु-पद-रता कान्त चिन्ता उपेता।
पाई जावे परम-मधाुरा मानवी-प्रीति पूता।
सद्भावों से विलस सरसे सारभूता दिखावे।
होवे सारे रुचिर रस से सिक्त साहित्य सत्ता।2।
द्रुतविलम्बित
कुफल ‘फूल’ कदापि न दे सकें।
फल भले फल कामुक को मिलें।
विफलता विफला बनती रहे।
सफलता कृति को सफला करे।3।
नयन हों हित अंजन से ऍंजे।
विनय हो मन मधय विराजती।
रत रहें जन-रंजन में सदा।
रुचि रहे जगतीतल रंजिनी।4।
मधाुरिमा-मय हो बचनावली।
बहु मनोहर भाव समूह हों।
हृदय में बिलसे हितकारिता।
भरित मानवता मन में रहे।5।
आदर्श
कवित्ता
लोक को रुलाता जो था रामने रुलाया उसे
हम खल खलता के खले हैं कलपते।
काँपता भुवन का कँपाने वाला उन्हें देख
हम हैं बिलोक बल-वाले को बिलपते।
हरिऔधा वे थे ताप-दाता ताप-दायकों के
हम नित नये ताप से हैं आप तपते।
रोम रोम में जो राम-काम रमता है नहीं
नाम के लिए तो राम नाम क्या हैं जपते।1।
पाँव छू छू उनके तरे हैं छितितल पापी
और हम छाँह से अछूत की हैं डरते।
बड़े बड़े दानव दलित उनसे हैं हुए
दब दब दानवों से हम हैं उबरते।
हरिऔधा वे हैं अकलंक सकलंक हो के
हम भाल-अंक को कलंक से हैं भरते।
जो न रमे राम में हैं कहें तो न राम राम
लीला में न लीन हैं तो लीला क्यों हैं करते।2।
हो के बनबासी गिरिबासी को तिलक सारा
साहस से पाया कपि-सेना का सहारा है।
बन खरदूषण तिमिर को प्रखर-रवि
अंकले अनेक-दानवी-दल विदारा है।
हरिऔधा राम की ललाम-लीला भूले नहीं
सविधिा उन्होंने बाँधाी वारि-निधिा-धारा है।
दो ही बाहु द्वारा बीस बाहु का उतारा मद
होते एक आनन दशानन को मारा है।3।
पातक-निकंदन के पदकंज पूज पूज
कैसे पाँव पातक पगों के सहलावेंगे।
दानव-दलन से जो लगन रहेगी लगी
दानव दुरन्त कैसे दिल दहलावेंगे।
हरिऔधा कैसे बहकावेंगे बहक बैरी
प्रभु के प्रलंब बाहु यदि बहलावेंगे।
एक रक्त होते हम होवेंगे विभक्त कैसे
भूरि भक्ति से जो रामभक्त कहलावेंगे।4।
गुणगान
दोहा
गणपति गौरी-पति गिरा गोपति गुरु गोविन्द।
गुण गावो वन्दन करो पावन पद अरविन्द।1।
देव भाव मन में भरे दल अदेव अहमेव।
गिरि गुरुता से हैं अधिाक गौरव में गुरुदेव।2।
पाप-पुंज को पीस गुरु त्रिाविधा ताप कर दूर।
हैं भरते उर-भवन में भक्ति-भाव भरपूर।3।
हर सारा अज्ञान-तम बन भवसागर-पोत।
गुरु तज उर में ज्ञान को कौन जगावे जोत।4।
जनरंजन होता नहीं कर-गंजन तम-मान।
दृग-रुज-भंजन जो न गुरु करते अंजन दान।5।
कौन बिना गुरु के हरे गौरव-जनित-गरूर।
करे समल मानस विमल बने सूर को सूर।6।
बिना खुली जन ऑंख को खोल न पाता आन।
जानकार गुरु के बिना रहता जगत अजान।7।
बाद क्यों न गुरु से करें चेले कलि अनुरूप।
रीति न जानत विनय की हैं अविनय के रूप।8।
गुरु-सेवा करते रहें गहें न उनकी भूल।
जो न चढ़ावें फूल हम तो न उड़ावें धाूल।9।
होता है सिर को नवा नर जग में सिरमौर।
बनता है बन्दन किये बन्दनीय सब ठौर।10।
माता-पिता
दोहा
उसके ऐसा है नहीं अपनापन में आन।
पिता आपही अवनि में हैं अपना उपमान।1।
मिले न खोजे भी कहीं खोजा सकल जहान।
माता सी ममतामयी पाता पिता समान।2।
जो न पालता पिता क्यों पलना सकता पाल।
माता के लालन बिना लाल न बनते लाल।3।
कौन बरसता खेह पर निशि दिन मेंह-सनेह।
बिना पिता पालन किये पलती किस की देह।4।
छाती से कढ़ता न क्यों तब बन पय की धाार।
जब माता उर में उमग नहीं समाता प्यार।5।
सुत पाता है पूत पद पाप पुंज को भूँज।
माता पद-पंकज परस पिता कमल पग पूज।6।
वे जन लोचन के लिए सके न बन शशि दूज।
पूजन जोग न जो बने माता के पग पूज।7।
जो होते भू में नहीं पिता प्यार के भौन।
ललक बिठाता पूत को नयन पलक पर कौन।8।
जो होवे ममतामयी प्रीति पिता की मौन।
प्यारा क्या सुत को कहे तो दृग तारा कौन।9।
ललक ललक होता न जो पिता लालसा लीन।
बनता सुत बरजोर तो कोर कलेजे की न।10।
हमारे वेद
छपदे
अभी नर जनम की बजी भी बधााई।
रही ऑंख सुधा बुधा अभी खोल पाई।
समझ बूझ थी जिन दिनों हाथ आई।
रही जब उपज की झलक ही दिखाई।
कहीं की ऍंधोरी न थी जब कि टूटी।
न थी ज्ञान सूरज किरण जब कि फूटीे।1।
तभी एक न्यारी कला रंग लाई।
हमारे बड़ों के उरों में समाई।
दिखा पंथ पारस बनी काम आई।
फबी और फूली फली जगमगाई।
उसी से हुआ सब जगत में उँजाला।
गया मूल सारे मतों का निकाला।2।
हमारे बड़े ए बड़ी सूझ वाले।
हुए हैं सभी बात ही में निराले।
उन्हाेंने सभी ढंग सुन्दर निकाले।
जगत में बिछे ज्ञान के बीज डाले।
उन्हीं का अछूता वचन लोक न्यारा।
गया वेद के नाम से है पुकारा।3।
विचारों भरे वेद ए हैं हमारे।
सराहे सभी भाव के हैं सहारे।
बड़े दिव्य हैं, हैं बड़े पूत, न्यारे।
मनो स्वर्ग से वे गये हैं उतारे।
उन्हीं से बही सब जगह ज्ञान-धारा।
उन्हीं से धारी पर धारम को पसारा।4।
उन्हीं ने भली नीति की नींव डाली।
खुली राह भलमंसियों की निकाली।
उन्हीं ने नई पौधा नर की सँभाली।
उन्हीं ने बनाया उसे बूझ वाली।
उन्हीं ने उसे पाठ ऐसा पढ़ाया।
कि है आज जिससे जगत जगमगाया।5।
उन्हीं ने जगत-सभ्यता-जड़ जमाई।
उन्हीं ने भली चाल सब को सिखाई।
उन्हीं ने जुगुत यह अछूती बनाई।
कि आई समझ में भलाई बुराई।
बड़े काम की औ बड़ी ही अनूठी।
उन्हीं से मिली सिध्दियों की ऍंगूठी।6।
वेद और दूसरे पंथमत
छपदे
कहो सच किसी को कभी मत सताओ।
करो लोकहित प्रीति प्रभु से लगाओ।
भली चाल चल चित्ता-ऊँचा बनाओ।
बुरा मत करो पाप भी मत कमाओ।
बहुत बातें हैं इस तरह की सुनाती।
कि जो सार हैं सब मतों का कहाती।7।
उन्हें वेद ही ने जनम दे जिलाया।
उसी ने उन्हें सब मतों को चिन्हाया।
उसी ने उन्हें नर-उरों में लसाया।
उसी ने उन्हें प्यार-गजरा पिन्हाया।
समय-ओट में जब सभी मत रुके थे।
तभी मान का पान वे पा चुके थे।8।
इसी वेद से जोत वह फूट पाई।
कि जो सब जगत के बहुत काम आई।
उसी से गईं बत्तिायाँ वे जलाई।
जिन्हों ने उँजेली उरों में उगाई।
उसी से दिये सब मतों के बले हैं।
कि जिन से ऍंधोरे घरों के टले हैं।9।
चला कौन कब वेद से कर किनारा।
उसी से मिला खोजियों को सहारा।
किसी को बनाया किसी को सुधारा।
उसी ने किसी को दिया रंग न्यारा।
उसी से गयी ऑंख में जोत आई।
बहुत से उरों की हुई दूर काई।10।
वेद सबके हैं
छपदे
चमकती हुई धाूप किरणें सुनहली।
उगा चाँद औ चाँदनी यह रुपहली।
हवा मंद बहती धारा ठीक सँभली।
सभी पौधा जिन से पली और बहली।
सकल लोक की जिस तरह हैं कहाती।
सभी की उसी भाँति हैं वेद थाती।11।
सभी देश पर औ सभी जातियों पर।
सदा जल बहुत ही अनूठा बरस कर।
निराले अछूते भले भाव में भर।
बनाते उन्हें जिस तरह मेघ हैं तर।
उसी भाँति ए वेद प्यारों भरे हैं।
सकल-लोकहित के लिए अवतरे हैं।12।
बड़े काम की बात वे हैं बताते।
बहुत ही भली सीख वे हैं सिखाते।
सभी जाति से प्यार वे हैं जताते।
सभी देश से नेह वे हैं निभाते।
कहीं पर मचल वह कभी है न अड़ती।
भली ऑंख उनकी सभी पर है पड़ती।13।
सचाई फरेरा उन्हीं का उड़ाया।
नहीं किस जगह पर फहरता दिखाया।
बिगुल नेकियों का उन्हीं का बजाया।
नहीं गूँजता किस दिशा में सुनाया।
कली लोक-हित की उन्हीं की खिलाई।
सुवासित न कर कौन सा देश आई।14।
वेदों की उदारता
छपदे
किसी पर कभी वे नहीं टूट पड़ते।
बखेड़ा बढ़ा कर नहीं वे झगड़ते।
नहीं वे उलझते नहीं वे अकड़ते।
कभी मुँह बनाकर नहीं वे बिगड़ते।
मुँदी ऑंख हैं प्यार से खोल जाते।
सदा निज सहज भाव वे हैं दिखाते।15।
दहकती हुई आग सूरज चमकता।
सुबह का अनोखा समय चाँद यकता।
हवा सनसनाती व बादल दलकता।
अनूठे सितारों भरा नभ दमकता।
उमड़ती सलिल धाार औ धाूप उजली।
खिली चाँदनी का समा कौंधा बिजली।16।
सभी को सदा ही चकित हैं बनाती।
सहज ज्ञान की जोतियाँ हैं जगाती।
इन्हीं में बड़े ढंग से रंग लाती।
बड़ी ही अछूती कला है दिखाती।
इन्हीं के निराले विभव के सहारे।
किसी एक विभु के खुले रंग न्यारे।17।
इसी से इन्हीं के सुयश को सुनाते।
इन्हीं के बड़ाई-भरे-गीत गाते।
इन्हीं के सराहे गुणों को गिनाते।
हमें वेद हैं भेद उसका बताते।
सभी में बसे औ लसे जो कि ऐसे।
दिये में दमक फूल में बास जैसे।18।
अगर ऑंख खुल जाय उर की किसी के।
अगर हों लगे भाल पर भक्ति टीके।
भरम सब अगर दूर हो जायँ जीके।
जिसे भाव मिल जायँ योगी-यती के।
भले ही उसे सब जगह प्रभु दिखावे।
मगर दूसरा किस तरह सिध्दि पावे।19।
उसे खोजना ही पड़ेगा सहारा।
कि जिस से खुले नाथ का रंगन्यारा।
किया इसलिए ही न उनसे किनारा।
जिन्हें वेद ने ज्ञान-साधान विचारा।
उन्होंने बहुत ऑंख ऊँची उठाई।
मगर सब कड़ी भी समझ के मिलाई।20।
वेद और धार्म
छपदे
धारम के जथे जो धारम के जथों पर।
करें वार निज करनियों को बिसरकर।
कसर से भरे हों रखें हित न जौ भर।
कलह आग में डालते ही रहें खर।
जगत के हितों का लहू यों बहावें।
बिगड़ धाूल में सब भलाई मिलावें।21।
उन्हें फिर धारम के जथे कह जताना।
उमड़ते धाुएँ को घटा है बनाना।
यही सोच है वेद ने यह बखाना।
बुरा सोचना है धारम का न बाना।
धारम पर धारम हैं न चोटें चलाते।
मिले, कींच में भी कमल हैं खिलाते।22।
बने पंथ मत जो धारम के सहारे।
कहीं हों कभी हो सकेंगे न न्यारे।
चमकते मिले जो कि गंगा किनारे।
खिले नील पर भी वही ज्ञान तारे।
दमकते वही टाइवर पर दिखाये।
मिसिसिपी किनारे वही जगमगाये।23।
सदा इसलिए वेद हैं यह बताते।
धारम हैं धारम को न धाक्के लगाते।
कभी वे नहीं टूटते हैं दिखाते।
जिन्हें हैं सहज नेह-नाते मिलाते।
नये ढोंग रचकर जगत-जाल में पड़।
धारम वे न हैं जो धारम की खभें जड़।24।
सभी एक ही ढंग के हैं न होते।
सिरों में न हैं एक से ज्ञान-सोते।
उरों में सभी हैं न बर बीज बोते।
बहुत से मिले बैठ पानी बिलोते।
अगर एक थिर तो अथिर दूसरा है।
जगत भिन्न रुचि के नरों से भरा है।25।
इसी से बहुत पंथ मत हैं दिखाते।
विचारादि भी अनगिनत हैं दिखाते।
विविधा रीति में लोग रत हैं दिखाते।
बहुत भाँति के नेम व्रत हैं दिखाते।
मगर छाप सब पर धारम की लगी है।
किसी एक प्रभु-जोत सब में जगी है।26।
नदी सब भले ही रखें ढंग न्यारा।
मगर है सबों में रमी नीर-धारा।
जगत के सकल पंथ मत का सितारा।
चमक है रहा पा धारम का सहारा।
इसे पेड़ उनको बताएँगे थाले।
धारम दूधा है पंथ मत हैं पियाले।27।
सचाई भरी बात यह बूझ वाली।
ढली प्रेम में रंगतों में निराली।
गयी वेद की गोद में है सँभाली।
उसी ने उसे दी भली नीति ताली।
बहुत देश जिससे कि फल फूल पाया।
धारम मर्म वह वेद ही ने बताया।28।
पुष्पांजलि
दोहा
राम चरित सरसिज मधाुप पावन चरित नितान्त।
जय तुलसी कवि कुल तिलक कविता कामिनि कान्त।1।
सुरसरि धारा सी सरस पूत परम रमणीय।
है तुलसी की कल्पना कल्पलता कमनीय।2।
अमित मनोहरता मथी अनुपमता आवास।
है तुलसी रचना रुचिर बहु शुचि सुरुचि बिकास।3।
सकल अलौकिकता सदन सुन्दर भाव उपेत।
है तुलसी की कान्त कृति निरुपम कला निकेत।4।
जबलौं कवि कुल कल्पना करे कलित आलाप।
अवनि लसित तब लौं रहे तुलसी कीर्ति कलाप।5।
सवैया
बन राम रसायन की रसिका
रसना रसिकों की हुई सफला।
अवगाहन मानस में कर के
जन मानस का मल सारा टला।
बने पावन भाव की भूमि भली
हुआ भावुक भावुकता का भला।
कविता करके तुलसी न लसे।
कविता लसी पा तुलसी की कला।1।
कवित्ता
सुरसरि पावन सुहावन सलिल धारा
कमनीय कल्पना कलित कलसी की है।
रंजिनी कला कर अलौकिक कला समान
व्यंजना विभावरी विपुल बिलसी की है।
सुरुचि मयूरी की प्रमोदिनी घटा है मंजु
कौमुदी कुमोदिनी सुमति हुलसी की है।
बुधा वृन्द विपुल बिकच अरबिन्द हेतु
सवितासी कविता कबिन्द तुलसी की है।1।
उद्बोधान
मन्दाक्रान्ता
वेदों की है न वह महिमा धार्म है धवंस होता।
आचारों का निपतन हुआ लुप्त जातीयता है।
विप्रो खोलो नयन अब है आर्य्यता भी विपन्ना।
शीलों की है मलिन प्रभुता सभ्यता वंचिता है।1।
सच्चे भावों सहित जिन के राम ने पाँव पूजे।
पाई धाोके चरण जिन के कृष्ण ने अग्र पूजा।
होते वांछा विवश इतने आज वे विप्र क्यों हैं।
जिज्ञासू हो निकट जिन के बुध्द ने सिध्दि पाई।2।
जो धााता है निगम पथ का देवता है धारा का।
है विज्ञाता अमर पद का दिव्यता का विधााता।
क्यों तेजस्वी द्विज कुल वही धवान्त में मग्न सा है।
सारी भू है सप्रभ जिस के ज्ञान आलोक द्वारा।3।
सेना से है सबल जिस की सत्य से पूत बाणी।
है अस्त्राों से अधिाक जिस की मंत्रिाता बारि धारा।
क्यों भीता औ विचलित वही विप्र की मण्डली है।
तेज: शाली परम जिस का दण्ड ही बज्र से है।4।
हो जाते थे विनत जिन के सामने चक्रवर्ती।
सम्राटों का हृदय जिन के तेज से काँप जाता।
कैसे वे ही द्विज कुजन की देखते बंक भू्र हैं।
भूपालों का मुकुट जिन का पाँव छू पूत होता।5।
जीवन-òोत
l
विद्यालय
छप्पै
है विद्यालय वही जो परम मंगलमय हो।
बरविचार आकलित अलौकिक कीर्ति निलय हो।
भावुकता बर वदन सुविकसित जिससे होवे।
जिसकी शुचिता प्रीति वेलि प्रति उर में बोवे।
पर अतुलित बल जिससे बने जाति बुध्दि अति बलवती।
बहु लोकोत्तार फल लाभ कर हो भारत भुवि फलवती।1।
होगा भवहित मूल भूत उस विद्यालय का।
गिरा देवि के बन्दनीयतम देवालय का।
उसमें होगी जाति संगठन की शुभ पूजा।
होवेगा सहयोग मंत्रा स्वर उस में गूँजा।
कटुता विरोधा संकीर्णता कलह कुटिलता कुरुचि मल।
कर दूरित उस में बहेगी पूत नीति धारा प्रबल।2।
शुभ आशाएँ वहाँ समर्थित रंजित होंगी।
कलित कामनाएँ अनुमोदित व्यंजित होंगी।
वहाँ सरस जातीय तान रस बरसावेगी।
देश प्रीति की उमग राग रुचिकर गावेगी।
पूरित होगा गरिमा सहित वर व्यवहार सुवाद्य स्वर।
उसमें वीणा सहकारिता बजकर देगी मुग्धा कर।3।
जिसमें कलह विवाद वाद आमंत्रिात होवे।
द्वेष जहाँ पर बीज भिन्नताओं का बोवे।
जहाँ सकल संकीर्ण भाव की होवे पूजा।
आकुल रहे विवेक जहाँ बन करके लूँजा।
उस विद्यालय के मधय है कहाँ प्रथित महनीयता।
होती विलोप जिसमें रहे रही सही जातीयता।4।
प्राय: है यह बात आज श्रुति गोचर होती।
नाश बीज जातीय सभाएँ हैं अब बोती।
प्रतिदिन उनसे संघ शक्ति है कुचली जाती।
उनसे प्रश्रय है बिभिन्नता ही नित पाती।
अब अधा:पात है हो रहा उनके द्वारा जाति का।
वे चाह रही हैं शान्ति फल पादप रोप अशान्ति का।5।
अपना अपना राग व अपनी अपनी डफली।
बहुत गा बजा चुके पर न अब भी सुधिा सँभली।
ढाई चावल की खिचड़ी हम अलग पकाकर।
दिन दिन हैं मिट रहे समय की ठोकर खाकर।
एकता और निजता बिना काम चला है कब कहीं।
वह जाति न जीती रह सकी जिस में जीवन ही नहीं।6।
जाति जाति की सभा जातियों के विद्यालय।
अति निन्दित हैं संघ शक्ति जो करें न संचय।
उन विद्यालय और सभाओं से क्या होगा।
डूब जाय जिससे हिन्दू गौरव का डोंगा।
जो काम न आई जाति के वह कैसी हितकारिता।
वह संस्था संस्था ही नहीं जहाँ न हो सहकारिता।7।
जिसमें केन्द्रीकरण नहीं वह सभा नहीं है।
जो न तिमिर हर सके प्रभा वह प्रभा नहीं है।
उस विद्यालय को विद्यालय कैसे मानें।
जहाँ फूट औ कलह सुनावें अपनी तानें।
मिल जाय धाूल में वह सकल स्वार्थनिकेतन स्वकीयता।
जिससे वंचित विचलित दलित हो हिन्दू जातीयता।8।
यह विचार औ समय-दशा पर डाल निगाहें।
उन उदार सुजनों को कैसे नहीं सराहें।
जिन लोगों ने सकल जाति को गले लगाया।
विद्यालय को सदा अवारित द्वार बनाया।
सब काल भाव ऐसे कलित ललित उदय होते रहे।
सब लोग मलिनता उरों की अमलिन बन धाोते रहें।9।
प्रभो देश में जितने हिन्दू विद्यालय हों।
एक सूत्रा में बँधो एकता-निजता मय हों।
छात्रा-वृन्द जातीय भाव से पूरित होवें।
आत्म त्यागरत रहे जाति हित सरबस खोवें।
ब्राह्मण छत्रिाय वैश्य औ शुध्द भिन्नता तज मिलें।
बढ़े परस्पर प्यार औ कुम्हलाये मानस खिलें।10।
जीवन-मरण
कवित्ता
पोर पोर में है भरी तोर मोर की ही बान
मुँह चोर बने आन बान छोड़ बैठी है।
कैसे भला बार बार मुँह की न खाते रहें
सारी मरदानगी ही मुँह मोड़ बैठी है।
हरिऔधा कोई कस कमर सताता क्यों न
कायरता होड़ कर नाता जोड़ बैठी है।
छूट चलती है ऑंख दोनों ही गयी है फूट
हिन्दुओं में फूट आज पाँव तोड़ बैठी है।1।
बीती बीरताएँ, बात उनकी बनातीं कैसे
धाूल से औ तृण-तूल से जो गये बीते हैं।
उनकी रगों में भला बिजली भरेगा कौन
बात के कढ़े जो बार बार मुख सीते हैं।
हरिऔधा हिन्दू कैसे हिन्दू का करेंगे हित
वे मुख अहिन्दुओं का देख देख जीते हैं।
लोहा कैसे लेते हाथ काँपता है लोहा छुए
ऑंखें कैसे लहू होतीं लहू घूँट पीते हैं।2।
धाूल ऑंख में जो झोंकते हैं उन्हें बंधाु मान
बँधो धााक-बंधानों को धाूल में मिलाते हैं।
सच्चा मेल जोल मेल जोल चोचलों को मान
बिना माल मिले मोल अपना गँवाते हैं।
हरिऔधा कैसे भला भूल हिन्दुओं की कहें
बन बन भोले भलीभाँति छले जाते हैं।
बात खुलती है खोलने को खोखलापन ही
ऑंख कैसे खुले ऑंख खोल ही न पाते हैं।3।
काठ हो गये हैं काठ होने के कुपाठ पढ़
दिल वाले होते कढ़ा दिल का दिवाला है।
बस होते रहे बेबिसात बेबसी से बुने
कस होते अकसों का बढ़ता कसाला है।
हरिऔधा बल होते अबल बने ही रहें
बार बार बैरियों का होता बोलाबाला है।
पाला कैसे मारे पाले पड़े हैं कचाइयों के
हिन्दुओं के लोहू पर पड़ गया पाला है।4।
मन मरा तन में तनिक भी न ताब रही
धान का न धयान बाहु का बल न प्यारा है।
हँसी की न हया परवाह बेबसी की नहीं
अरमान हित का न मान का सहारा है।
हरिऔधा ऐसी ही प्रतीति हो रही है आज
सुत रहा सुत औ न दारा रही दारा है।
वीरता रही न गयी धाीरता धारा में धाँस
हिन्दुओं की रग में रही न रक्त धारा है।5।
‘दाब मानते हैं’ यह भाव बार बार दब
दाँत तले दूब दाव दाब के दिखावेंगे।
ऑंख देखने की है न उनमें तनिक ताब
बात यह ऑंख मूँद मूँद के बतावेंगे।
हरिऔधा हिन्दुओं में हिम्मत रही ही नहीं
हार को सदा ही हार गले को बनावेंगे।
चोटी काट काट वे सचाई का सबूत देंगे
यूनिटी को पाँव चाट चाट के बचावेंगे।6।
नवा नवा सिर को सहेंगे सिर पड़ी सारी
दाँत काढ़ काढ़ दाँत अथवा तुड़ावेंगे।
रगड़ रगड़ नाक नाक कटवा हैं रहे
पकड़ पकड़ कान कान पकड़ावेंगे।
हरिऔधा और कौन काम हिन्दुओं से होगा
मिल मिल गले गला अपना दबावेंगे।
पाँव पड़ पड़ मार पाँव में कुल्हाड़ा लेंगे
जोड़ जोड़ हाथ हाथ अपना कटावेंगे।7।
कागज के फूल है गलेंगे बारि बूँद पड़े
पत्तो हैं पवन लगे काँपते दिखावेंगे।
वे तो हैं बलूले बात कहते बिलोप होंगे
ओले हैं अवनि तल परसे बिलावेंगे।
ओस की हैं बूँदें लोप होवेंगे किरण छूते
कुसुम हैं धाूप देखते ही कुम्हलावेंगे।
कैसे भला हिन्दू फूँक फूँक के न पाँव रखें
भूआ हैं बिचारे फूँक से ही उड़ जावेंगे।8।
कान होते बहरे बने हैं अंधो ऑंख होते
बाचा चारु होते मूक रहना बिचारा है।
कर होते लुंज हैं औ पंगु सुपग होते
बलवान होते कहाँ बल का सहारा है।
हरिऔधा दुखित महा है देख देख दशा
तेज होते परम तरणि बना तारा है।
तन होते तन बिन गये हैं ए अतन बन
हिन्दुओं के तन की निराली रक्त धारा है।9।
चूक जो हुई सो हुई चूकते सदा क्यों रहें
चतुर हितू के मिले चौंक अब चेते हैं।
भ्रम की भयानक भँवर में पड़ी क्यों रहे
सँभल सँभल जाति हित नाव खेते हैं।
हरिऔधा कैसे भला भूल हिन्दुओं से होगी
साथ साथ वाले का वे साथ रह देते हैं।
गाली खा खा मंजु मुख लाली है ललाम होती
लात खा खा लात को ललक चूम लेते हैं।10।
काँटे जैसे लघु चुभते हैं पड़े पाँव तले
पीेटे धाूल पड़ पड़ दृगों में दुख देती है।
कीड़ी की सी बड़ी तुच्छी टीड़ी दल बाँधा बाँधा
दल देती बड़े बड़े दलपति की खेती है।
हरिऔधा हिन्दू जाति में अब कहाँ है जान
चोट पर चोट खा खा कर भी न चेती है।
छेड़े दबे छोटे छोटे कीट भी न छोड़ते हैं
चोट करते हैं चींटे चींटी काट लेती है।11।
लट लट बार बार लोट लोट जाते जो न
कैसे तो हमारी ललनाएँ कोई लूटता।
फटे जो न होते दिल फूटा जो न भाग होता
कैसे लगातार तो हमारा सिर फूटता।
हरिऔधा कटुता न जाति में जो फैली होती
कैसे कूटनीतिवाला कूद कूद कूटता।
टूट हो रही है टूट मन्दिर अनेकों गये
मूर्ति टूटती है, है कलेजा कहाँ टूटता।12।
आन बान वाले बात अपनी बना हैं रहे
आज भी हमारी आन लम्बी तान सोती है।
कान पर जूँ भी नहीं रेंगती किसी के कभी
बद कर बदों की बदी विष बीज बोती है।
हरिऔधा हाथ मलते भी बनता है नहीं
बार बार चूर चूर होता मान-मोती है।
ललनाएँ छिनीं किन्तु खौलता कहाँ है लहू
लाल लुटते हैं ऑंख लाल भी न होती है।13।
रोते रोते रातें हैं बिताते बहुतेरे लोग
रेते जा रहे हैं गले घर होते रीते हैं।
आग हैं लगाते, हैं जलाते बार बार जल,
चैन लेने देत नहीं पातकी पलीते हैं।
हरिऔधा हिन्दू मेमने हैं बने चेते नहीं
चोट पहुँचाते लहू चाटे वाले चीते हैं।
पटु हो रहे हैं पीटने में पीट पीट पापी
एक कीट से भी बीस कोटि गये बीते हैं।14।
माल पर हाथ मार मार मालामाल बनें
कर के कपाल क्रिया भरें किलकारियाँ।
‘खल कर लहू’ हाथ अपना लहू से भरें
तन के छतों से छूटें लहू पिचकारियाँ।
धाज्जियाँ उड़ाई जाँय भोलेभाले बालकों की
धाूल में मिलाई जाँय फूल जैसी नारियाँ।
आग तो कलेजे में लगी ही नहीं हिन्दुओं के
कैसे भला ऑंख से कढ़ेंगी चिनगारियाँ।15।
झोंपड़ी किसी की फुँकती है तो भले ही फुँके
उसे क्या जो फूँक फूँक देता पर टट्टी है।
कैसे भला लोक-लाभ-लालसा लुभाये उसे
जिसने कि लूटपाट ही की पढ़ी पट्टी है।
हरिऔधा मानवता ममता न होगी उसे
पामरता प्रीति घटे होती जिसे घट्टी है।
पड़ के खटाई में न खट्टी मीठी जान सके
आज भी हमारी ऑंख की न खुली पट्टी है।16।
नानी मर जाती है कहानी वीरता की सुने
काँप उठते हैं नेक नाम सुने नेजे का।
बुरी बुरी भावना है पुजती भवानी बनी
भय से भरा ही रहता है भाग भेजे का।
हरिऔधा हिन्दुओं का Ðास होगा कैसे नहीं
फल मिलता है उन्हें हीनता ऍंगेजे का।
जान होते बिना जान वाला कौन दूसरा है
कौन है कलेजा होते बना बेकलेजे का।17।
कीट कहते हैं बनेंगे कीट पावस के
लत्तो कहते हैं लत्तो इनके उड़ावेंगे।
दूब कहती है दूब दाबेंगे ए दाँतों तले
तृण कहते हैं इन्हें तृण सा बनावेंगे।
हरिऔधा क्या सुन रहे हैं? ए हैं कैसी बातें?
कान खोल हिन्दू क्या इन्हें न सुन पावेंगे।
तूल कहती है ए उड़ेंगे तूल-पुंज सम
धाूल कहती है धाूल में ए मिल जावेंगे।18।
कैसे खान पान के बखेड़े खड़े होंगे नहीं
कैसे छूत छात के अछूते बन खोवेंगे।
कैसे पंथ मत के प्रपंच में पड़ेंगे नहीं
कैसे भेदभाव काँटे पंथ में न बोवेंगे।
हरिऔधा कैसे पेचपाच न भरेंगे ऐच
कैसे जाति पाँति के कलंक-पंक धाोवेंगे।
धार के अनेक रूप रोकती अनेकता है
एका कैसे होगा कैसे हिन्दू एक होवेंगे।19।
दुख हुए दूने हुए सुन्दर सदन सूने
धवंस के नमूने बने मन्दिर दिखाते हैं।
दिल में पड़े हैं छाले जीवन के लाले पड़े
पामर के पाले पड़े सुख को ललाते हैं।
हरिऔधा हिन्दुओं की बुरी लतें छूटी नहीं
माल खो खो लोने लाल ललना गँवाते हैं।
तलवे सहलाते पिटते हैं बच पाते नहीं
सह सह लातें रसातल चले जाते हैं।20।
कटेंगे पिटेंगे नोचते हैं जो नुचेंगे आप
कब तक हिन्दुओं को नोच नोच खावेंगे।
पच न सकेगा पेट मार के मरेंगे क्यों न
पामर परम कैसे पाहन पचावेंगे।
हरिऔधा धार्म-बीर धार्म की रखेंगे धााक
ऊधामी अधाम कैसे ऊधाम मचावेंगे।
पोटी दूह लेवेंगे चपेटेंगे लँगोटी बाँधा
बोटी बोटी कटे लाज चोटी की बचावेंगे।21।
पातकी जो पातक पयोनिधिा समान होंगे
कौतुक तो कुंभ-योनि कासा दिखलावेंगे।
एक मुख से ही पंच मुख का करेंगे काम
दोही बाहु मेरे चार बाहु कहलावेंगे।
अधाम अधामता चलेगी हरिऔधा कैसे
दो ही दृग सहस-नयन पद पावेंगे।
लोभ लोभ लोमश लौं अजर अमर होंगे
सारे रक्त-बिन्दु रक्त-बीज बन जावेंगे।22।
बदरंग उनको अनेकता करेगी कैसे
एकता की रंगतों में यदि सन जावेंगे।
हाथ लेंगे आयुधा विरोधा प्रतिकारक तो
बैरी-बैर-वीरुधा के मूल खन जावेंगे।
हरिऔधा हिन्दू बातें अपनी बनायेंगे तो
उन्नति विधाान के वितान तन जावेंगे।
चार चाँद जाति हित चाव में लगा देंगे तो
चन्द जयचन्द भोरचन्द बन जावेंगे।23।
जगेंगे उठेंगे औ गिरावेंगे गरूरियों को
गिरि को करेंगे चूर बज्र बन जावेंगे।
परम प्रपंचियों का कदन प्रपंच कर
भर भर पेंच बाई पूच की पचावेंगे।
हरिऔधा हिन्दू धार धाीर धाावमान होंगे
अंधााधाुंधा बंधाुओं को धारा में धाँसावेंगे।
धाूम से दलेंगे धामाचौकड़ी मचेगी कैसे
बड़े बड़े ऊधामी को धाूल में मिलावेंगे।24।
प्रेम के निकेतनों के प्रेमिक परम होंगे
प्यार भरा प्याला प्यार वाले को पिलावेंगे।
हिंò की हिंसा को कहेंगे कभी हिंसा नहीं
मान वे अहिंसकों को दिल से दिलावेंगे।
हरिऔधा मानवता मोल को अमोल मान
अमिल मनों को मेल-जोल से मिलावेंगे।
जीवित रहेंगे मर जाति के हितों के लिए
जीवन दे जीवन-विहीन को जिलावेंगे।25।
परिवर्तन
छप्पै
तिमिर तिरोहित हुए तिमिर-हर है दिखलाता।
गत विभावरी हुए विभा बासर है पाता।
टले मलिनता सकल दिशा है अमलिन होती।
भगे तमीचर, नीरवता तमचुर-धवनि खोती।
है वहाँ रुचिरता थीं जहाँ धाराएँ अरुचिर बहीं।
कब परिवर्तन-मय जगत में परिवर्तन होता नहीं।1।
परिवर्तन है प्रकृति नियम का नियमन कारक।
प्रवहमान जीवन प्रवाह का पथ बिस्तारक।
परिवर्तन के समय जो न परिवर्तित होगा।
साथ रहेगा अहित, हित न उसका हित होगा।
यदि शिशिर काल में तरु दुसह दल निपात सहते नहीं।
तो पा नव पल्लव फूल फल समुत्फुल्ल रहते नहीं।2।
किन्तु समय अनुकूल नहिं हुए परिवर्तित हम।
भूल रहे हैं अधामाधाम को समझ समुत्ताम।
अति असरल है सरल से सरल गति कहलाती।
सुधाा गरल को परम तरल मति है बतलाती।
हैं बिकच कुसुम जो काम के अब न काम के वे रहे।
हैं झोंके तपऋतु पवन के मलय मरुत जाते कहे।3।
जो कुचाल हैं हमें चाव की बात बतातीं।
जो रस्में हैं हमें रसातल को ले जातीं।
जो कुरीति है प्रीति प्रतीति सुनीति निपाती।
जो पध्दति है विपद बीज बो बिपद बुलाती।
छटपटा छटपटा आज भी हम उस से छूटे नहीं।
हैं जिन कुबंधानों में बँधो वे बंधान टूटे नहीं।4।
जीवन के सर्वस्व जाति नयनों के तारे।
भोले भाले भले बहुत से बंधाु हमारे।
तज निज पावन अंक अंक में पर के बैठे।
निज दल का कर दलन और के दल में पैठे।
पर खुल खुलकर भी अधाखुले लोचन खुल पाये नहीं।
धाुल धाुलकर भी धाब्बे बुरे अब तक धाुल पाये नहीं।5।
कहीं लाल हैं ललक ललक कर लूटे जाते।
ललनाओं पर कहीं लोग हैं दाँत लगाते।
कहीं ऑंख की पुतली पर लगते हैं फेरे।
कहीं कलेजे काढ़ लिये जाते हैं मेरे।
गिरते गिरते इतना गिरे गुरुताएँ सारी गिरीं।
पर फिर फिर के आज भी ऑंखें हैं न इधार फिरीं।6।
जिस अछूत को छूतछात में पड़ नहिं छूते।
उसके छय हो गये रहेंगे हम न अछूते।
छिति तल से जो छूत हमारा नाम मिटावे।
चाहिए उसकी छाँह भी न हम से छू जावे।
पर छुटकारा अब भी नहीं छूतछात से मिल सका।
छल का प्याला है छलकता छिल न हमारा दिल सका।7।
केवल व्यय से धान कुबेर निर्धान होवेगा।
केवल बरसे बारि-राशि बारिद खोवेगा।
बिना जलागम जल सूखे सूखेगा सागर।
वंशवृध्दि के बिना अवनि होगी बिरहित नर।
वह जाति धवंस हो जायगी जो दिन है छीजती।
होगा न जाति का हित बिना बने जाति हित ब्रत ब्रती।8।
हम में परिवर्तन पर हैं परिवर्तन होते।
पर वे हैं जातीय भाव गौरव को खोते।
वह परिवर्तन जो कि जाति का पतन निवारे।
हुआ नयन गोचर न नयन बहुबार पसारे।
मिल सकी न वह जीवन जड़ी जो सजीव हम को करे।
वह ज्योति नहीं अब तक जगी जो जग मानस तम हरे।9।
मुनिजन वचन महान कल्पतरु से हैं कामद।
उनके विविधा विधाान हैं फलद मानद ज्ञानद।
वसुधाा ममतामयी सुधाासी जीवन-दाता।
उनकी परम उदार उक्ति भव शान्ति विधााता।
बहु अशुचि रीति से अरुचि से अरुचिर रुचि से है दलित।
मंदार मंजुमाला नहीं मानी जाती परिमलित।10।
विविधा वेदविधिा क्या न बहु अविधिा के हैं बाधाक।
सकल सिध्दि की क्या न साधानाएँ हैं साधाक।
क्या जन जन में रमा नहीं है राम हमारा।
क्या विवेक बलबुध्दि का न है हमें सहारा।
क्या पावन मंत्राों में नहीं बहु पावनता है भरी।
क्या भारत में बिलसित नहीं पतितपावनी सुरसरी।11।
यदि है जी में चाह जगत में जीयें जागें।
तो हो जावें सजग शिथिलता जड़ता त्यागें।
मनोमलिनता आतुरता कातरता छोड़ें।
मुँह न एकता समता जन-ममता से मोड़ें।
बहुविघ्न-मेरु-कुल को करें चूर चूर बर-बज्र बन।
हो त्रिा-नयन नयन दहन करें सकल अमंगल अतनतन।12।
प्रभो जगत जीवन विधाायिनी जाति-हमारी।
हो मर्य्यादित बचा बचा र्म्य्यादा सारी।
सकल सफलता लहे विफलता मुख न बिलोके।
दिन दिन सब अवलोकनीय सुख को अवलोके।
जब लौं नभतल के अंक में यह भारत भूतल पले।
तब लौं कर कीर्ति कुसुम चयन फबे फैल फूले फले।13।
हमें चाहिए
रोला
कपड़े रँग कर जो न कपट का जाल बिछावे।
तन पर जो न विभूति पेट के लिए लगावे।
हमें चाहिए सच्चे जी वाला वह साधाू।
जाति देश जगहित कर जो निज जन्म बनाये।1।
देशकाल को देख चले निजता नहिं खोवे।
सार वस्तु को कभी पखंडों में न डुबोवे।
हमें चाहिए समझ बूझ वाला वह पंडित।
ऑंखें ऊँची रखे कूपमंडूक न होवे।2।
ऑंखों को दे खोल, भरम का परदा टाले।
जाँ का सारा मैल कान को फूँक निकाले।
गुरु चाहिए हमें ठीक पारस के ऐसा।
जो लोहे को कसर मिटा सोना कर डाले।3।
टके के लिए धाूल में न निज मान मिलावे।
लोभ लहर में भूल न सुरुचि सुरीति बहावे।
हमें चाहिए सरल सुबोधा पुरोहित ऐसा।
जो घर घर में सकल सुखों की सोत लसावे।4।
करे आप भी वही और को जो सिखलावे।
सधो सराहे सार वचन निज मुख पर लावे।
हमें चाहिए ज्ञानमान उपदेशक ऐसा।
जो तमपूरित उरों बीच वर जोत जगावे।5।
जो हो राजा और प्रजा दोनों का प्यारा।
जिसका बीते देश-प्रेम में जीवन सारा।
देश-हितैषी हमें चाहिए अनुपम ऐसा।
बहे देशहित की जिसकी नस नस में धारा।6।
जिसे पराई रहन-सहन की लौ न लगी हो।
जिसकी मति सब दिन निजता की रही सगी हो।
हमें चाहिए परम सुजान सुधाारक ऐसा।
जिसकी रुचि जातीय रंग ही बीच रँगी हो।7।
जिसके हों ऊँचे विचार पक्के मनसूबे।
जी होवे गंभीर भीड़ के पड़े न ऊबे।
हमें चाहिए आत्म-त्याग-रत ऐसा नेता।
रहें जाति-हित में जिसके रोयेें तक डूबे।8।
बोल बोलकर बचन अमोल उमंग बढ़ावे।
जन-समूह को उन्नति-पथ पर सँभल चलावे।
इस प्रकार का हमें चाहिए चतुर प्रचारक।
जो अचेत हो गयी जाति को सजग बनावे।9।
देख सभा का रंग, ढंग से काम चलावे।
पचड़ों में पड़ धाूल में न सिध्दान्त मिलावे।
हमें चाहिए नीति-निधाान सभापति ऐसा।
जो सब उलझी हुई गुत्थियों को सुलझावे।10।
एँच पेच में कभी सचाई को न फँसावे।
लम्बी चौड़ी बात बनाना जिसे न आवे।
हमें बात का धानी चाहिए कोई ऐसा।
जो कुछ मुँह से कहे वही करके दिखलावे।11।
किसे असंभव कहते हैं यह समझ न पावे।
देख उलझनों को चितवन पर मैल न लावे।
हमें चाहिए धाुन का पक्का ऐसा प्राणी।
जो कर डाले उसे कि जिसमें हाथ लगावे।12।
कोई जिसे टटोल न ले ऑंखों के सेवे।
जिसके मन का भाव न मुखड़ा बतला देवे।
हमें चाहिए मनुज पेट का गहरा ऐसा।
जिसके जी की बात जान तन-लोम न लेवे।13।
जिसके धान से खुलें समुन्नति की सब राहें।
हो जावें वे काम विबुधा जन जिन्हें सराहें।
हमें चाहिए सुजन गाँठ का पूरा ऐसा।
जो पूरी कर सके जाति की समुचित चाहें।14।
ऊँच नीच का भेद त्याग सबको हित माने।
चींटी पर भी कभी न अपनी भौंहें ताने।
हमें चाहिए मानव ऊँचे जी का ऐसा।
अपने जी सा सभी जीव का जी जो जाने।15।
हमें नहीं चाहिए
रोला
आप रहे कोरा शरीर के बसन रँगावे।
घर तज कर के घरबारी से भी बढ़ जावे।
इस प्रकार का नहीं चाहिए हम को साधाू।
मन तो मूँड़ न सके मूँड़ को दौड़ मुड़ावे।1।
मन का मोह न हरे, राल धान पर टपकावे।
मुक्ति बहाने भूल भूलैयाँ बीच फँसावे।
हमें चाहिए गुरू नहीं ऐसा अविवेकी।
जो न लोक का रखे न तो परलोक बनावे।2।
बूझ न पावे धार्म-मर्म बकवाद मचावे।
सार वस्तु को बचन चातुरी में उलझावे।
इस प्रकार का नहीं चाहिए हम को पंडित।
जो गौरव के लिए शास्त्रा का गला दबावे।3।
न तो पढ़ा हो न तो कभी कुछ कर्म करावे।
कर सेवाएँ किसी भाँति जीविका चलावे।
कभी चाहिए नहीं पुरोहित हम को ऐसा।
पूरा क्या, जो हित न अधाूरा भी कर पावे।4।
सीधो सादे वेद बचन को खींचे ताने।
अपने मन अनुसार शास्त्रा सिध्दान्त बखाने।
हमें चाहिए नहीं कभी ऐसा उपदेशक।
जो न धार्म की अति उदार गति को पहचाने।5।
बके बहुत, थोथी बातें कह, मूँछें टेवे।
निज समाज का रहा सहा गौरव हर लेवे।
इस प्रकार का हमें चाहिए नहीं प्रचारक।
कलह फूट का बीज जाति में जो बो देवे।6।
चाहे सुनियम तोड़ ढोंग रचना मनमाने।
मतलब गाँठा करे समाज-सुधाार बहाने।
नहीं चाहिए कभी सुधाारक हम को ऐसा।
ठीक ठीक जो नहीं जाति नाड़ी गति जाने।7।
घी मिलने की चाह रखे औ वारि बिलोवे।
जिसकी नीची ऑंख जाति का गौरव खोवे।
इस प्रकार का नहीं चाहिए हम को नेता।
जो हो रुचि का दास नाम का भूखा होवे।8।
तह तक जिसकी ऑंख समय पर पहुँच न पावे।
थोड़ा सा कुछ करे बहुत सा ढोल बजावे।
देश-हितैषी नहीं चाहिए हम को ऐसा।
मरे नाम के लिए देश के काम न आवे।9।
निज पद गौरव साथ सभा को जो न सँभाले।
सभी सुलझती हुई बात को जो उलझाले।
इस प्रकार का नहीं चाहिए हमें सभापति।
जिसे जो चाहे वही मोम की नाक बना ले।10।
क्या होगा
द्विपद
बहँक कर चाल उलटी चल कहो तो काम क्या होगा।
बड़ों का मुँह चिढ़ा करके बता दो नाम क्या होगा।1।
बही जी में नहीं जो बेकसों के प्यार की धारा।
बता दो तो बदन चिकना व गोरा चाम क्या होगा।2।
दुखी बेवों यतीमों की कभी सुधा जो नहीं ली तो।
जामा किस काम आवेगी व यह धान धााम क्या होगा।3।
अगर जी से लिपट करके नहीं बिगड़ी बना पाते।
बहाकर ऑंख से ऑंसू कलेजा थाम क्या होगा।4।
बकें तो हम बहुत, पर कर दिखावें कुछ न भूले भी।
समझ लो तो हमारी बात का फिर दाम क्या होगा।5।
लगीं ठेसें कलेजे पर बड़ों के जिन कपूतों से।
भला उन से बढ़ा कोई कहीं बदनाम क्या होगा।6।
करेंगे क्या उसे लेकर, नहीं कुछ आन है जिस में।
बता दो यह हमें गूदे बिना बादाम क्या होगा।7।
बने सब दोस्त बेगाने सगों की ऑंख फिर जावे।
किसी के वास्ते इससे बुरा अय्याम क्या होगा।8।
दवाएँ भी नहीं जिसके गले से हैं उतर सकतीं।
भला सोचो तुम्हीं बीमार वह आराम क्या होगा।9।
न कुछ भी तेज हो जिसमें बनेगा करतबी वह क्या।
न हो जिसमें कि तीखापन भला वह घाम क्या होगा।10।
डुबा कर जाति का बेड़ा जो हैं कुछ रोटियाँ पाते।
समझ पड़ता नहीं अंजाम उनका राम क्या होगा।11।
एक उकताया
द्विपद
क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता।
बिन कहे भी रहा नहीं जाता।1।
बे तरह दुख रहा कलेजा है।
दर्द अब तो सहा नहीं जाता।2।
इन झड़ी बाँधा कर बरस जाते।
ऑंसुओं में बहा नहीं जाता।3।
चोट खा खा मसक मसक करके।
भीत जैसा ढहा नहीं जाता।4।
थक गया, हाथ कुछ नहीं आया।
मुझ से पानी महा नहीं जाता।5।
कुछ उलटी सीधाी बातें
द्विपद
जला सब तेल दीया बुझ गया है अब जलेगा क्या।
बना जब पेड़ उकठा काठ तब फूले फलेगा क्या।1।
रहा जिसमें न दम जिसके लहू पर पड़ गया पाला।
उसे पिटना पछड़ना ठोकरें खाना खलेगा क्या।2।
भले ही बेटियाँ बहनें लुटें बरबाद हों बिगड़ें।
कलेजा जब कि पत्थर बन गया है तब गलेगा क्या।3।
चलेंगे चाल मनमानी बनी बातें बिगाड़ेंगे।
जो हैं चिकने घड़े उन पर किसी का बस चलेगा क्या।4।
जिसे कहते नहीं अच्छा उसी पर हैं गिरे पड़ते।
भला कोई कहीं इस भाँत अपने को छलेगा क्या।5।
न जिसने घर सँभाला देश को क्या वह सँभालेगा।
न जो मक्खी उड़ा पाता है वह पंखा झलेगा क्या।6।
मरेंगे या करेंगे काम यह जी में ठना जिसके।
गिरे सर पर न बिजली क्यों जगह से वह टलेगा क्या।7।
नहीं कठिनाइयों में बीर लौं कायर ठहर पाते।
सुहागा ऑंच खाकर काँच के ऐसा ढलेगा क्या।8।
रहेगा रस नहीं खो गाँठ का पूरी हँसी होगी।
भला कोई पयालों को कतर घी में तलेगा क्या।9।
गया सौ सौ तरह से जो कसा कसना उसे कैसा।
दली बीनी बनाई दाल को कोई दलेगा क्या।10।
भला क्यों छोड़ देगा मिल सकेगा जो वही लेगा।
जिसे बस एक लेने की पड़ी है वह न लेगा क्या।11।
सगों के जो न काम आया करेगा जाति-हित वह क्या।
न जिससे पल सका कुनबा नगर उससे पलेगा क्या।12।
रँगा जो रंग में उसके बना जो धाूल पाँवों की।
रँगेगा वह बसन क्यों राख तन पर वह मलेगा क्या।13।
करेगा काम धाीरा कर सकेगा कुछ न बातूनी।
पलों में खर बुझेगा काठ के ऐसा बलेगा क्या।14।
न ऑंखों में बसा जो क्या भला मन में बसेगा वह।
न दरिया में हला जो वह समुन्दर में हलेगा क्या।15।
दिल के फफोले
छतुका
जिसे सूझ कर भी नहीं सूझ पाता।
नहीं बात बिगड़ी हुई जो बनाता।
फिसल कर सँभलना जिसे है न आता।
नहीं पाँव उखड़ा हुआ जो जमाता।
पड़ेगा सुखों का उसे क्यों न लाला।
सदा ही सहेगा न वह क्यों कसाला।1।
रँगा जो नहीं रंगतों में समय की।
नहीं राह काँटों भरी जिसने तय की।
बहुत है कँपाती जिसे बात भय की।
नहीं तान जिसने सुनी नीति नय की।
गला बेतरह क्यों न उसका फँसेगा।
उजड़ता हुआ घर न उसका बसेगा।2।
नहीं देखता जो कि क्या हो रहा है।
न अब भी जगा, जो पड़ा सो रहा है।
बुरे बीज, अपने लिए बो रहा है।
बचा मान जो दिन बदिन खो रहा है।
भला ठोकरें खायगा वह न कैसे।
रसातल चला, जायगा वह न कैसे।3।
बढ़े जाँय आगे पड़ोसी हमारे।
चढे ज़ाँय ऊँचे चलन के सहारे।
समय देख करके करें काम सारे।
सँभाले सँभल जाँय सुधारें सुधाारें।
मगर हम रहें करवटें ही बदलते।
सबेरा हुए भी रहें ऑंख मलते।4।
भला किस तरह तो न पीछे पड़ेंगे।
सभी दुख न क्यों सामने आ अड़ेंगे।
हमें बेतरह क्यों न काँटे गड़ेंगे।
चपत लोग कैसे न हम को जड़ेंगे।
लगातार तो हम लटेंगे न कैसे।
पिसेंगे लुटेंगे पिटेंगे न कैसे।5।
घटी हो रही है घटे जा रहे हैं।
बहुत जातियों में बँटे जा रहे हैं।
लगातार पीछे हटे जा रहे हैं।
जथे बाँधा करके जटे जा रहे हैं।
गला फँस गया है बला में पड़े हैं।
मगर कान तब भी न होते खड़े हैं।6।
न हम अनबनों से भगाये भगेंगे।
न हम एकता रंगतों में रँगेंगे।
नहीं काम में हम लगाये लगेंगे।
जगाये गये पर नहीं हम जगेंगे।
भला धाूल में तो मिलेंगे न कैसे।
हमारे खुले मुँह सिलेंगे न कैसे।7।
न हित की सुनेंगे न हित की कहेंगे।
जहाँ बोलना है वहाँ चुप रहेंगे।
सहेंगे सभी की न घर की सहेंगे।
अगर कुछ महेंगे तो पानी महेंगे।
बुरा हाल है बेतरह ऑंख फूटी।
मगर फूट की बात अब भी न छूटी।8।
भली बात हम को ने लगती भली है।
बुरी से बुरी चाल हम ने चली है।
गयी भूल हम को भलाई गली है।
हमीं से पड़ी जाति में खलबली है।
मगर ढंग बदला न तब भी हमारा।
हितों से हमीं कर रहे हैं किनारा।9।
लड़ेंगे अगर तो सगों से लड़ेंगे।
बला बन गले दूसरों के पड़ेंगे।
न अड़ना जहाँ चाहिए वाँ अड़ेंगे।
बुरी राह में, संग बनकर गड़ेंगे।
चमक किस तरह तो सकेगा सितारा।
न क्यों जायगा डूब बेड़ा हमारा।10।
अपने दुखड़े
द्विपद
देश को जिस ने जगाया जगे सोने न दिया।
आग घर घर में बुरी फूट को बोने न दिया।1।
है वही बीर पिया दूधा उसी ने माँ का।
जाति को जिसने जिगर थाम के रोने न दिया।2।
बन गये भोले बहुत, अपनी भलाई भूली।
है इसी भूल ने अब तक भला होने न दिया।3।
बार से कैसे दुखों के न भला दब जाते।
ऐब अपना हमें अदबार ने खोने न दिया।4।
किस तरह बात बने क्यों न दबा अनबन ले।
प्यार का बोझ बनावट ने तो ढोने न दिया।5।
हो सके मेल क्यों हम कैसे गले मिल पावें।
मैल जी का बुरे मैलान ने खोने न दिया।6।
तो किसी काम की रंगत न रही जो उसने।
भाव रंगों में उमंगों को भिगोने न दिया।7।
लाल माई का हमें लोग कहेंगे कैसे।
प्रेम ऑंसू ने अगर मोती पिरोने न दिया।8।
चाहिए
द्विपद
राह पर उसको लगाना चाहिए।
जाति सोती है जगाना चाहिए।1।
हम रहेंगे यों बिगड़ते कब तलक।
बात बिगड़ी अब बनाना चाहिए।2।
खा चुके हैं आज तक मुँह की न कम।
सब दिनों मुँह की न खाना चाहिए।3।
हो गयी मुद्दत झगड़ते ही हुए।
यों न झगड़ों को बढ़ाना चाहिए।4।
अनबनों के चंगुलों से छूट कर।
फूट को ठोकर जमाना चाहिए।5।
पत उतरते ही बहुत दिन हो गये।
बच गयी पत को बचाना चाहिए।6।
चाल बेढंगी न चलते ही रहें।
ढंग से चलना चलाना चाहिए।7।
क्या करेंगी सामने आ उलझनें।
हाँ उलझ उसमें न जाना चाहिए।8।
ठोकरें खाकर न मुँह के बल गिरें।
गिर गयों को उठ उठाना चाहिए।9।
रंगतें दिन दिन बिगड़ने दें न हम।
रंग अब अपना जमाना चाहिए।10।
जाँय काँटों से न भर सुख-क्यारियाँ।
फूल अब उसमें खिलाना चाहिए।11।
है भरोसा भाग का अच्छा नहीं।
भूत भरमों का भगाना चाहिए।12।
बे ठिकाने तो बहुत दिन रह चुके।
अब कहीं कोई ठिकाना चाहिए।13।
है उजड़ने में भलाई कौन सी।
घर उजड़ता अब बसाना चाहिए।14।
जा रही है जान तो जाये चली।
जाति को मरकर जिलाना चाहिए।15।
उलटी समझ
जाति ममता मोल जो समझें नहीं।
तो मिलों से हम करें मैला न मन।
देश-हित का रंग न जो गाढ़ा चढ़ा।
तो न डालें गाढ़ में गाढ़ा पहन।1।
धाूल झोंकें न जाति ऑंखों में।
फाड़ देवें न लाज की चद्दर।
दर बदर फिर न देश को कोसें।
मूँद हित दर न दें पहन खद्दर।2।
तो गिना जाय क्यों न खुदरों में।
क्यों उगा दे न बीज बरबादी।
काम की खाद जो न बन पाई।
देश-हित-खेत के लिए खादी।3।
हित सचाई बिना नहीं होगा।
लोग ताना अनेक तन देखें।
कात लें सूत, लें चला करघे।
सैकड़ों गज गजी पहन देखें।4।
पैन्ह मोटा न पेट मोटा हो।
सब बुरी चाट बाँट में न पड़े।
छल कपट का न पैन्ह लें जामा।
हथ-कते सूत के पहन कपड़े।5।
समझ का फेर
है भरी कूट कूट कोर कसर।
माँ बहन से करें न क्यों कुट्टी।
लोग सहयोग कर सकें कैसे।
है असहयोग से नहीं छुट्टी।1।
मेल बेमेल जाति से करके।
हम मिटाते कलंक टीके हैं।
जाति है जा रही मिटी तो क्या।
रंग में मस्त यूनिटी के हैं।2।
अनसुनी बात जातिहित की कर।
मुँह बिना किसलिए न दें टरखा।
कात चरखा सके नहीं अब भी।
हैं मगर लोग हो गये चरखा।3।
माँ बहन बेटियाँ लुटें तो क्या।
देख मुँह मेल का उसे लें सह।
हो बड़ी धाूम औ धाड़ल्ले से।
मन्दिरों पर तमाम सत्याग्रह।4।
बे समझ और ऑंख के अंधो।
देख पाये कहीं नहीं ऐसे।
जो न ताराज हो गये हिन्दू।
मिल सकेगा स्वराज तो कैसे।5।
भारत
द्विपद
तेरा रहा नहीं है कब रंग ढंग न्यारा।
कब था नहीं चमकता भारत तेरा सितारा।1।
किसने भला नहीं कब जी में जगह तुझे दी।
किसकी भला रहा है तू ऑंख का न तारा।2।
वह ज्ञान-जोत सबसे पहले जगी तुझी में।
जग जगमगा रहा है जिसका मिले सहारा।3।
किस जाति को नहीं है तूने गले लगाया।
किस देश में बही है तेरी न प्यार-धारा।4।
तू ही बहुत पते की यह बात है बताता।
सब में रमा हुआ है वह एक राम प्यारा।5।
कुछ भेद हो भले ही उन की रहन सहन में।
पर एक अस्ल में हैं हिन्दू तुरुक नसारा।6।
उनमें कमाल अपना है जोत ही दिखाती।
रंग एक हो न रखता चाहे हरेक तारा।7।
तो क्या हुआ अगर हैं प्याले तरह तरह के।
जब एक दूधा उनमें है भर रहा तरारा।8।
ऊँची निगाह तेरी लेगी मिला सभी को।
तेरा विचार देगा कर दूर भेद सारा।9।
हलचल चहल-पहल औ अनबन अमन बनेगी।
औ फूल जायगा बन जलता हुआ ऍंगारा।10।
जो चैन चाँदनी में होंगे महल चमकते।
सुख चाँद झोंपड़ों में तो जायगा उतारा।11।
कर हेल मेल हिल मिल सब ही रहें सहेंगे।
हो जायगा बहुत ही ऊँचा मिलाप पारा।12।
सब जाति को रँगेगी तेरी मिलाप रंगत।
तेरा सुधाार होगा सब देश को गवारा।13।
उस काल प्रेम धारा जग में उमग बहेगी।
घर घर घहर उठेगा आनन्द का नगारा।14।
भारत दिया अमन का बाले तेरे बलेगा।
छाया हुआ ऍंधोरा टाले तेरे टलेगा।1।
सारी भलाइयों की रंगत बहुत भली पा।
वह रंग है तुझी में जिसमें जगत ढलेगा।2।
है एक गोद तेरी जिसमें हरेक हिन्दू।
ऍंगरेज और मुसल्माँ प्यारों सहित पलेगा।3।
उनके मिलाप ही का पौधाा बहुत निराला।
हित फूल ला अनोखे अनमोल फल फलेगा।4।
यों तू दिखा सकेगा वह प्यार पंथ न्यारा।
जिस पर जगत किसी दिन चाहों भरा चलेगा।5।
उस दिन बधााइयों की सब ओर धाूम होगी।
सब देश के घरों में घी का दिया जलेगा।6।
ठेसें बुरी किसी के दिल को नहीं लगेंगी।
दिल एक देख मलता दिल दूसरा मलेगा।7।
अरमान दूसरों के तब जायँगे न कुचले।
कोई कहीं किसी को छलकर नहीं छलेगा।8।
सब ओर आदमीयत की धाूम धााम होगी।
हित रंग रख न सकना सब को बहुत खलेगा।9।
कोई कुचल उमंगें औ रौंद हौसलों को।
कोदो नहीं कलेजे पर और के दलेगा।10।
धान मूस चूस लोहू ले कौर छीन मुँह का।
कोई निहाल होने का नाम भी न लेगा।11।
सब जाति के करों में होगा मिलाप झंडा।
सब देश प्यार ही के सिरपर चँवर झलेगा।12।
सेवा
चतुर्दश पदी
देख पड़ी अनुराग-राग-रंजित रवितन में।
छबि पाई भर विपुल-विभा नीलाभ-गगन में।
बर-आभा कर दान ककुभ को दुति से दमकी।
अन्तरिक्ष को चारु ज्योतिमयता दे चमकी।
कर संक्रान्ति गिरि-सानु-सकल को कान्त दिखाई।
शोभितकर तरुशिखा निराली-शोभा पाई।
कलित बना कर कनक कलश को हुई कलित-तर।
समधिाक-धावलित सौधा-धााम कर बनी मनोहर।
लता बेलि को परम-ललित कर लही लुनाई।
कुसुमावलि को विकच बना विकसित दिखलाई।
ज्वलित हुई कर सरित-सरोवर-सलिल समुज्ज्वल।
उठी जगमगा परम-प्रभामय कर अवनीतल।
निज सेवा फल से ही हुई प्रात की किरण प्रति फलित।
विकसित सरसित सफलित लसित सम्मानित आभा बलित।
सेवा
चौपदे
जो मिठाई में सुधाा से है अधिाक।
खा सके वह रस भरा मेवा नहीं।
तो भला जग में जिये तो क्या जिये।
की गयी जो जाति की सेवा नहीं।1।
हो न जिसमें जातिहित का रंग कुछ।
बात वह जी में ठनी तो क्या ठनी।
हो सकी जब देश की सेवा नहीं।
तब भला हमसे बनी तो क्या बनी।2।
बेकसों की बेकसी को देख कर।
जब नहीं अपने सुखों को खो सके।
तब चले क्या लोग सेवा के लिए।
जब न सेवा पर निछावर हो सके।3।
तो न पाया दूसरों का दुख समझ।
दीन दुखियों का सके जो दुख न हर।
भाव सेवा का बसा जी में कहाँ।
बेबसों का जो बसा पाया न घर।4।
उस कलेजे को कलेजा क्यों कहें।
हों नहीं जिसमें कि हित धाारें बहीं।
भाव सेवा का सके तब जान क्या।
कर सके जो लोक की सेवा नहीं।5।
सुशिक्षा-सोपान
पंचक
पद
जी लगा पोथी अपनी पढ़ो।
केवल पढ़ो न पोथी ही को, मेरे प्यारे कढ़ो।
कभी कुपथ में पाँव न डालो, सुपथ ओर ही बढ़ो।
भावों की ऊँची चोटी पर बड़े चाव से चढ़ो।
सुमति-खंजरी को मानवता-रुचि-चाम से मढ़ो।
बन सोनार सम परम-मनोहर पर-हित गहने गढ़ो।1।
बड़ा ही जी को है दुख होता।
कोई जो रसाल-क्यारी में है बबूल को बोता।
लसता है सुन्दर भावों-सँग उर में रस का सोता।
बुरे भाव उपजा कर उसमें मूढ़ मूल है खोता।2।
स्वाति की बूँद जहाँ जा पड़ी।
बहुत काम आई, दिखलाई उपकारिता बड़ी।
बनी कपूर कदिल-गोफों में सीपी में कलमोती।
खोले मुख प्यासे चातक-हित बनी सुधाा की सोती।
ऐसे ही तुम जहाँ सिधााओ उपकारक बन जाओ।
काँटों में भी बड़े अनूठे सुन्दर फूल खिलाओ।3।
आहा! कितना है मन भाता।
चारों ओर जलधिा प्रभु की महिमा का है लहराता।
भरे पड़े हैं इसमें सुन्दर सुन्दर रत्न अनेकों।
बड़े भाग वाला वह जन है जिसने पाया एको।
शंकर कपिल शुकादिक के कर एक आधा था आया।
तो भी उसने ही आलोकित भूतल सकल बनाया।
ऐसा बड़े भाग वाला जन तुम भी बनना चाहो।
जी में जो अनुराग तनिक भी जग-जन के हित का हो।4।
नई पौधाों से ही है आस।
जाति जिलाने वाली, जड़ी सजीवन है इनही के पास।
इनके बने जाति बनती है बिगड़े हो जाती है नास।
इनही से जातीय भाव का होता है विधिा साथ विकास।
ये हैं जाति-समाज देह के वसन-विधाायक कुसुम-कपास।
येई हैं नूतन बिचार उडु-राजि-विकाशक विमल अकास।
उन्हीं नई पौधाों में तुम हो, देखो होय न हृदय निरास।
गौरव लाभ करो फैला कर तम में अति कमनीय उजास।5।
भोर का उठना
पद
भोर का उठना है उपकारी।
जीवन-तरु जिससे पाता है हरियाली अति प्यारी।
पा अनुपम पानिप तन बनता है बल-संचय-कारी।
पुलकित, कुसुमित, सुरभित, हो जाती है जन-उर-क्यारी।
लालिमा ज्यों नभ में छाती है।
त्यों ही एक अनूठी धारा अवनी पर आती है।
परम-रुचिरता-सहित सुधाा-बृंदों सी बरसाती है।
रसमय, मुदमय, मधाुर नादमय सब ही दिशा बनाती है।
तृण, वीरुधा, तरु, लता, वेलि को प्रतिपल पुलकाती है।
बन उपवन में रुचिर मनोहर कुसुम-चय खिलाती है।
प्रान्तर-नगर-ग्राम-गृह-पुर में सजीवता लाती है।
उर में उमग पुलक तन में दुति दृग में उपजाती है।
सदा भोर उठने वालों की यह प्यारी थाती है।
यह न्यारी-निधिा बड़े भाग वाली जनता पाती है।
प्रात की किरणें कोमल प्यारी।
जहाँ तहाँ फलती तरु तरु पर दिखलाती छबि न्यारी।
जब आलोकित करती हैं अवनी कर प्रकृति सँवारी।
तब युग नयन देख पाते हैं देव-कुसुम कल-क्यारी।
जीवन लहर जगमगा जाती है पा दुति रुचिकारी।
उर नव विभावान बनता है जैसे रजनि दिवारी।
प्रात-पवन है परम निराली।
तन निरोग करने वाली ओषधा उसमें है डाली।
उसकी अति रुचिकर शीतलता चाल मृदुलता ढाली।
कुसुम-कली लौं है जी की भी कली खिलाने वाली।
होती है जनता मलयानिल-सौरभ से मतवाली।
किन्तु सामने यह रख देती है फूलों की डाली।
प्रात-पवन ही से मिलती है प्रीतिकरी-मुखलाली।
उसके सेवन से बढ़ती है जीवन-तरु-हरियाली।
प्रात उठने में कभी न चूको।
अभिनव-किरण-जाल आरंजित नित अवलोको भू को।
दूधा-फेन-सम सुकुसुम-कोमल तल्प है परम-प्यारा।
किन्तु कहीं उससे सुखकर है ऊषा कालिक धारा।
प्रात-समय की सहज नींद है बहु विनोदिनी मीठी।
किन्तु पास है प्रात-पवन के अति प्रियता की चीठी।
करो निछावर आलस को उस पर कर पुलकित छाती।
प्रात अटन से जो सजीवता है धामनी मेें आती।
काम काज की विविधा असुविधाा जीवन की बहु बाधाा।
एक प्रात उठने ही से कम हो जाती है आधाा।
बालक युवा सभी पाते हैं उससे सदा सफलता।
सबके लिए प्रात का उठना है अमृत-फल फलता।
अविनय
छप्पै
ढाल पसीना जिसे बड़े प्यारों से पाला।
जिसके तन में सींच सींच जीवन-रस डाला।
सुअंकुरित अवलोक जिसे फूला न समाया।
पा करके पल्लवित जिसे पुलकित हो आया।
वह पौधाा यदि न सुफल फले तो कदापि न कुफल फले।
अवलोक निराशा का बदन नीर न ऑंखों से ढले।1।
बालक ही है देश-जाति का सच्चा-संबल।
वही जाति-जीवन-तरु का है परम मधाुर फल।
छात्रा-रूप में वही रुचिर-रुचि है अपनाता।
युवक-रूप में वही जाति-हित का है पाता।
वह पूत पालने में पला विद्या-सदनों में बना।
उज्ज्वल करता है जाति-मुख कर लोकोत्तार साधाना।2।
बालक ही का सहज-भाव-मय मुखड़ा प्यारा।
है सारे जातीय-भाव का परम सहारा।
युवक जनों के शील आत्म-संयम शुचि रुचि पर।
होती हैं जातीय सकल आशाएँ निर्भर।
इनके बनने से जातियाँ बनीं देश फूला फला।
इनके बिगड़े बिगड़ा सभी हुआ न हरि का भी भला।3।
इन बातों को सोच ऑंख रख इन बातों पर।
पाठालय स्कूल कालिजों में जा जा कर।
जब मैंने निज युवक और बालक अवलोके।
तो जी का दुख-वेग नहीं रुकता था रोके।
नस नस में कितनों की भर वह अविनय मुझको मिला।
जिसको बिलोक कर सुजनता-मुख-सरोज न कभी खिला।4।
विनय करों में सकल सफलता की है ताली।
विनय पुट बिना नहिं रहती मुखड़े की लाली।
विनय कुलिश को भी है कुसुम समान बनाता।
पाहन जैसे उर को भी है वह पिघलाता।
निज कल करतूतें कर विनय होता है वाँ भी सफल।
बन जाती है बुधिा-बल-सहित जहाँ वचन-रचना विफल।5।
किन्तु हमारी नई पौधा उससे बिगड़ी है।
उस पर उसकी उचित ऑंख अब भी न पड़ी है।
वह विनती है उसे आत्म-गौरव का बाधाक।
चित की कुछ बलहीन-वृत्तिायों का आराधाक।
वह निज विचार तज कर नहीं शिष्टाचार निबाहती।
जो कुछ कहता है चित्ता वह वही किया है चाहती।6।
अनुभव वह संसार का तनिक भी नहिं रखती।
तह तक उसकी ऑंख आज भी नहीं पहुँचती।
पके नहीं कोई विचार, हैं सभी अधाूरे।
पढ़ने के दिन हुए नहीं अब तक हैं पूरे।
पर तो भी वह है बड़ों से बात बात में अकड़ती।
पथ चरम-पंथियों का पकड़ है कर से अहि पकड़ती।7।
बहुत-बड़ा-अनुभवी राज-नीतिक-अधिाकारी।
जाति-देश का उपकारक सच्चा-हितकारी।
उसकी रुचि-प्रतिकूल बोल कब हुआ न वंचित।
कह कर बातें उचित मान पा सका न किंचित।
वह पीट-पीट कर तालियाँ उसे बनाती है विवश।
या ‘बैठ जाव’ की धवनि उठा हर लेती है विमल यश।8।
उसके इस अविवेक और अविनय के द्वारा।
क्यों न लोप हो जाय देश का गौरव सारा।
कोई उन्नत हृदय क्यों न सौ टुकड़े होवे।
क्यों न जाति आमूल सफलता अपनी खोवे।
रह जाए देश हित के लिए नहीं ठिकाना भी कहीं।
पर उसके कानों पर कभी जूँ तक रेंगेगी नहीं।9।
पिटी तालियों में पड़ देश रसातल जावे।
धाूम धााम ‘गो आन’ धााक जातीय नसावे।
‘हिअर हिअर’ रव तले पिसें सारी सुविधााएँ।
आशाओं का लहू अकाल-उमंग बहाएँ।
यह देख देश-हित-रत सुजन क्यों न कलेजा थाम ले।
पर भला उसे क्या पड़ी है जो अनुभव से काम ले।10।
जिनके रज औ बीज से उपज जीवन पाया।
पली गोद में जिनकी सोने की सी काया।
उनकी रुचि भी नहीं स्वरुचि-प्रतिकूल सुहाती।
बरन कभी आवेग-सहित है कुचली जाती।
अभिरुचि-प्रतिकूल विचार भी ठोकर खाते ही रहें।
उनके सनेहमय मृदुल उर क्यों न बुरी ठेंसें सहें।11।
पर उसका अपराधा नहीं इसमें है इतना।
हम लोगों का दोष इस विषय में है जितना।
जैसे साँचे में हमने उसको है ढाला।
जैसे ढँग से हमने उसको पोसा पाला।
लीं साँसें जैसी वायु में वह वैसी ही है बनी।
कैसे तप-ऋतु हो सकेगी शरद-समान सुहावनी।12।
आत्मत्याग है कहीं आत्मगौरव से गुरुतर।
निज विचार से उचित विचार बहुत है बढ़कर।
कर निज-चित-अनुकूल न मन गुरुजन का रखना।
सुधाा पग तले डाल ईख का रस है चखना।
अनुभवी लोक-हित-निरत की विबुधाों की अवमानना।
है विमल जाति-हित-सुरुचि को कुरुचि-कीच में सानना।13।
किन्तु जब नहीं उसने इन बातों को जाना।
यदि जाना तो उसे नहीं जी से सनमाना।
किसी भाँति जब अविनय ने ही आदर पाया।
तब वह कैसे नहीं करेगी निज मन भाया।
यह रोग बहुत कुछ है दबा हो हिन्दू-रुचि से निबल।
पर यदि न ऑंख अब भी खुली दिन दिन होवेगा सबल।14।
प्रभो! हमारी नई पौधा निजता पहचाने।
अपने कुल मरजाद जाति-गौरव को जाने।
चुन लेने के लिए, विनय-रुचिकर-रस चीखे।
सबका सदा यथोचित आदर करना सीखे।
धारा उसकी धामनियों में पूत जाति-हित की बहे।
पर गुरुजन के अनुराग का रुचिर रंग उस में रहे।15।
कुसुम चयन
चतुर्दश पदी
जो न बने वे विमल लसे विधाु-मौलि मौलि पर।
जो न बने रमणीय सज, रमा-रमण कलेवर।
बर बृन्दारक बृन्द पूज जो बने न बन्दित।
जो न सके अभिनन्दनीय को कर अभिनन्दित।
जो विमुग्धा कर हुए वे न बन मंजुल-माला।
जो उनसे सौरभित प्रेम का बना न प्याला।
कर के नृप-कुल-तिलक क्रीट-रत्नों को रंजित।
कर न सके जो कलित-कुसुम-कुल महिमा व्यंजित।
जो न सुबासित हुआ तेल उनसे वह आला।
जिसने सुखमय व्यथित-जीव-जीवन कर डाला।
जो न गौरवित हुए वे परस गुरु-पद-पंकज।
जो न लोकहित करी बनी उनकी सुन्दर रज।
तो किसी काल में क्यों करे विकच-कुसुम-चय का चयन।
कर भावुक अवमानना भाव भरा भावुक सुजन।1।
बन-कुसुम
रोला
एक कुसुम कमनीय म्लान हो सूख विखर कर।
पड़ा हुआ था धाूल भरा अवनीतल ऊपर।
उसे देख कर एक सुजन का जी भर आया।
वह कातरता सहित वचन यह मुख पर लाया।1।
अहो कुसुम यह सभी बात में परम निराला।
योग्य करों में पड़ा नहीं बन सका न आला।
जैसे ही यह बात कथन उसने कर पाई।
वैसे ही रुचिकरी-उक्ति यह पड़ी सुनाई।2।
देख देख मुख हृदय-हीन-जन अकुलाने से।
दबने छिदने बँधाने बिधाने नुच जाने से।
कहीं भला है अपने रँग में मस्त दिखाना।
अंत-समय हो म्लान विजन-बन में झड़ जाना।3।
कहा सुजन ने कहाँ नहीं दुख-बदन दिखाता।
बन में ही क्या कुसुम नहीं दल से दब जाता।
काँटों से क्या कभी नहीं छिदता बिधाता है।
क्या जालाओं बीच विवश लौं नहिं बँधाता है।4।
कीड़ों से क्या कभी नहीं वह नोचा जाता।
मधाुप उसे क्या बार बार नहिं विकल बनाता।
ओले पड़ कर विपत नहीं क्या उस पर ढाते।
चल प्रतिकूल समीर क्या नहीं उसे कँपाते।5।
कहीं भला है अपने रँग में मस्त दिखाना।
पर उससे है भला लोकहित में लग जाना।
मरने को तो सभी एक दिन है मर जाता।
पर मरना कुछ हित करते, है अमर बनाता।6।
यदि बाटिका-प्रसून टूटते ही कुम्हलाता।
छिदते बिधाते बंधान में पड़ते अकुलाता।
कभी नहीं तो राजमुकुट पर शोभा पाता।
न तो चढ़ाया अमरवृन्द के शिर पर जाता।7।
बिकच बदन है विपल काल में भी दिखलाता।
इसीलिए वह विपुल-हृदय में है बस जाता।
देख कठिनता-बदन बदन जिसका कुम्हलाया।
कब वसुधाा में सिध्दि समादर उसने पाया।8।
बन-प्रसून-पंखड़ी कभी जो थी छबि थाती।
मिट्टी में है छीज छीज कर मिलती जाती।
यही योग्य कर में पड़ कर उपकारक होती।
रोगी जन का रोग ओषधाी बन कर खोती।9।
मिल कर तिल के साथ सुवासित तेल बनाती।
कितने शिर की व्यथा दूर कर के सरसाती।
इस प्रकार वह भले काम ही में लग पाती।
बन-प्रसून की सफल चरम गति भी हो जाती।10।
जो जग-हित पर प्राण निछावर है कर पाता।
जिसका तन है किसी लोक-हित में लग जाता।
वह चाहे तृण तरु खग मृग चाहे होवे नर।
उसका ही है जन्म सफल है वही धान्यतर।11।
कृतज्ञता
चौबोला
माली की डाली के बिकसे कुसुम बिलोक एक बाला।
बोली ऐ मति भोले कुसुमो खल से तुम्हें पड़ा पाला।
विकसित होते ही वह नित आ तुम्हें तोड़ ले जाता है।
उदर-परायणता वश पामर तनिक दया नहिं लाता है।1।
सुनो इसलिए तुम्हें चाहिए चुनते ही मचला जाओ।
माली के कर में पड़ते ही तजो बिकचता कुम्हलाओ।
इस प्रकार जब उसके हित में बाधााएँ पहुँचाओगे।
उसकी ऑंखें तभी खुलेंगी औ, तुम भी कल पाओगे।3।
बोले कुसुम ऐ सदय-हृदये कृपा देख करके प्यारी।
सादर धान्यवाद देता हूँ उक्ति बड़ी ही है प्यारी।
किन्तु विनय इतनी है जिसने सींचा सदा सलिल द्वारा।
जिसने कितनी सेवाएँ कर की सुखमय जीवन-धारा।3।
क्या उससे व्यवहार इस तरह का समुचित कहलावेगा।
कोई कर ऐसा कृतज्ञता को मुख क्या दिखलावेगा?।
तोड़ लिये जावें या सूखें नुचें झड़ें या कुम्हलावें।
किन्तु चाहते नहीं धारा को बुरा चलन सिखला जावें।4।
कहाँ भाग जो मेरे द्वारा माली का परिवार पले।
उसका उदर भरे दुख छूटे उस की आई विपत टले।
प्रतिपालक उर में आशा की अति मृदु बेलि उलहती है।
वह प्रतिपालित पौधा बुरी है जो कुढ़ उसे कुचलती है।5।
आज या कि कल कुम्हलाते ही पंखड़ियाँ भी झड़ जातीं।
रज हो जाने त्याग उस समय कौन काम में वे आतीं।
प्रतिपालक माली कर में पड़ उसका हितकारक होना।
सुरभित कर कितने हृदयों में बीज सरसताएँ बोना।6।
रंगालय सुर-सदन राज-प्रासादों में आदर पाना।
बिबिधा बिलास केलि-क्रीड़ा में हाथों हाथ लिये जाना।
अच्छा है, अथवा मिट्टी में मिल जाना ही है उत्ताम।
है सुज्योतिमय जीवन सुन्दर अथवा मलिन निमज्जिततम।7।
सुख के कीड़े किसी काल में आदर मान नहीं पाते।
उस का जीवन सफल न होगा जो दुख से हैं अकुलाते।
हम इस में ही परम-सुखित हैं बिकच बनें औ सरसावें।
पड़ सुकरों में करें लोक-हित किसी काम में लग जावें।8।
एक काठ का टुकड़ा
षोडशपदी
जलप्रवाह में एक काठ का टुकड़ा बहता जाता था।
उसे देख कर बार बार यह मेरे जी में आता था।
पाहन लौं किसलिए उसे भी नहीं डुबाती जल-धारा।
एक किसलिए प्रतिद्वन्द्वी है और दूसरा है प्यारा।
मैं विचार में डूबा ही था इतने में यह बात सुनी।
जो सुउक्ति कुसुमावलि में से गयी रही रुचि साथ चुनी।
अति कठोर पाहन होता है महा तरल होता है जल।
उसमें से चिनगी कढ़ती है इस में खिलता है शतदल।
युगल भिन्न मति गति रुचि वालों में होता है प्यार नहीं।
स्वच्छ प्रेम की धाराएँ कब अवनि विषमता बीच बहीं।
प्रकृति नियम प्रतिकूल कहो क्या चल सकता था सलिल कभी।
पाहन को वह यदि न डुबा देता विचित्राता रही तभी।
कभी काठ भी शीतल छाया पत्रा पुष्प फल के द्वारा।
लोकहित निरत रहा सलिल लौं भूल आत्म गौरव सारा।
सम स्वभाव गुण शीलवान का रिक्त हुआ कब हित-प्याला।
फिर जल कैसे उसे डुबाता आजीवन जिसको पाला।
नादान
पद
कर सकेंगे क्या वे नादान।
बिन सयानपन होते जो हैं बनते बड़े सयान।
कौआ कान ले गया सुन जो नहिं टटोलते कान।
वे क्यों सोचें तोड़ तरैया लाना है आसान।1।
है नादान सदा नादान।
काक सुनाता कभी नहीं है कोकिल की सी तान।
बक सब काल रहेगा बक ही वही रहेगी बान।
उसको होगी नहीं हंस लौं नीर छीर पहचान।2।
है नादान ऍंधोरी रात।
जो कर साथ चमकतों का भी रही असित-अवदात।
वह उसके समान ही रहता है अमनोरम-गात।
प्रति उर में उससे होता है बहु-दुख छाया पात।3।
है नादान सदा का कोरा।
सब में नादानी रहती है क्या काला क्या गोरा।
नासमझी सूई के गँव का है वह न्यारा डोरा।
होता है जड़ता-मजीठ के माठ मधय वह बोरा।4।
नादानों से पड़े न पाला।
सिर से पाँवों तक होता है यह कुढंग में ढाला।
सदा रहा वह मस्त पान कर नासमझी मदप्याला।
उस से कहीं भला होता है साँप बहुगरल वाला।5।
जीवनी-धारा
भाषा
षट्पद
जातियाँ जिससे बनीं, ऊँची हुई, फूली फलीं।
अंक में जिसके बड़े ही गौरवों से हैं पलीं।
रत्न हो करके रहीं जो रंग में उसके ढलीं।
राज भूलीं, पर न सेवा से कभी जिसकी टलीं।
ऐ हमारे बन्धाुओ! जातीय भाषा है वही।
है सुधाा की धाार बहु मरु-भूमि में जिससे बही।1।
जो हुए निर्जीव हैं, उनको जिला देती है वह।
गंग-धारा कर्म्मनाशा में मिला देती है वह।
स्वच्छ पानी प्यास वाले को पिला देती है वह।
जो कली कुम्हला गयी उसको खिला देती है वह।
नीम में है दाख के गुच्छे वही देती लगा।
ऊसरों में है रसालों को वही देती उगा।2।
आन में जिनकी दिखाती देश-ममता है निरी।
जो सपूतों की न उँगली देख सकते हैं चिरी।
रह नहीं सकतीं सफलताएँ कभी जिनसे फिरी।
वह नई पौधोें उठी हैं जातियाँ जिनसे गिरी।
थीं इसी जातीय भाषा के हिंडोले में पली।
फूँक से जिनकी घटाएँ आपदाओं की टलीं।3।
है कलह औ फूट का जिसमें फहरता फरहरा।
दंभ-उल्लू-नाद जिसमें है बहुत देता डरा।
मोह, आलस, मूढ़ता, जिसमें जमाती है परा।
वह ऍंधोरा देश का बहु आपदाओं से भरा।
दूर करता है इसी जातीय भाषा का बदन।
भानु का सा है चमकता भाल का जिसके रतन।4।
सूझती जिनको नहीं अपनी भलाई की गली।
पड़ गयी है चित्ता में जिनके बड़ी ही खलबली।
है अनाशा रंग में जिनकी सभी आशा ढली।
जिन समाजों की जड़ें भी हो गयी हैं खोखली।
ढंग से जातीय भाषा ही उन्हें आगे बढ़ा।
है समुन्नति के शिखर पर सर्वदा देती चढ़ा।5।
उस स्वकीया जाति-भाषा सर्वथा सुख-दानि की।
स्वच्छ सरला सुन्दरी आधाार-भूता आनि की।
मा समा उपकारिका, प्रतिपालिका कुल-कानि की।
उस निराली नागरी अति आगरी गुण खानि की।
आपमें कितनी है ममता, दीजिए मुझ को बता।
आज भी क्या प्यार उससे आप सकते हैं जता?।6।
खोलकर ऑंखें निरखिए बंग-भाषी की छटा।
मरहठी की देखिए, कैसी बनी ऊँची अटा।
क्या लसी साहित्य-नभ में गुर्जरी की है घटा।
आह! उर्दू का है कैसा चौतरा ऊँचा पटा।
किन्तु हिन्दी के लिए ए बार अब भी दूर हैं।
आज भी इसके लिए उपजे न सच्चे शूर हैं।7।
फिर कहें क्या आप उससे प्यार सकते हैं जता।
फिर कहें क्यों आपमें है उसकी ममता का पता।
फिर कहें क्यों है लुभाती नागरी हित-तरुलता।
किन्तु प्यारे बन्धाुओ! देता हूँ, मैं सच्ची बता।
दृष्टि उससे दैव की चिरकाल रहती है फिरी।
जिस अभागी जाति की जातीय भाषा है गिरी।8।
क्यों चमकते मिलते हैं बंगाल में मानव-रतन।
किस लिए हैं बम्बई में देवतों से दिव्य जन।
क्यों मुसलमानों की है जातीयता इतनी गहन।
क्यों जहाँ जाते हैं वे पाते हैं आदर, मान धान।
और कोई हेतु इसका है नहीं ऐ बन्धाु-गान।
ठीक है, जातीय-भाषा से हुई उनकी गठन।9।
ऑंख उठाकर देखिए इस प्रान्त की बिगड़ी दशा।
है जहाँ पर यूथ हिन्दी-भाषियों का ही बसा।
आज भी जो है बड़ों के कीर्ति-चिन्हों से लसा।
सूर, तुलसी के जनम से पूत है जिसकी रसा।
सिध्द, विद्या-पीठ, गौरव-खानि, विबुधाों से भरी।
आज भी है अंक में जिसके लसी काशीपुरी।10।
अल्प भी जो है खिंचा जातीय भाषा ओर चित।
तो दशा को देखकर के आप होवेंगे व्यथित।
नागरी-अनुरागियों की न्यूनता अवलोक नित।
चित्ता ऊबेगा, दृगों से बारि भी होगा पतित।
आह! जाती हैं नहीं इस प्रान्त की बातें कही।
नित्य हिन्दी को दबा उर्दू सबल है हो रही।11।
यह कथन सुन कह उठेंगे आप तुम कहते हो क्या।
पर कहूँगा मैं कि मैंने जो कहा वह सच कहा।
जाँच इसकी जो करेंगे आप गाँवों-बीच जा।
तो दिखायेगा वहाँ पर आपको ऐसा समा।
हिन्दुओं के लाल प्रतिदिन हाथ सुबिधाा का गहे।
मूल अपनापन को उर्दू ओर ही हैं जा रहे।12।
जो उठाकर हाथ में दस साल पहले का गजट।
देख लेंगे और तो होगी अधिाक जी की कचट।
मिड्ल हिन्दी पास का था जो लगा उस काल ठट।
वह गया है एक चौथे से अधिाक इस काल घट।
बढ़ रही है नित्य यों उर्दू छबीली की कला।
घोंटते हैं हाथ अपने हाय! हम अपना गला।13।
बन-फलों को प्यार से खा छालके कपड़े पहन।
राज भोगों पर नहीं जो डालते थे निज नयन।
फूल सा बिकसा हुआ लख जाति-भाषा का बदन।
जो सदा थे वारते सानंद अपना प्राण, धान।
उन द्विजों की हाय! कुछ संतान ने भी कह बजा।
नागरी को पूच उर्दू पेच में पड़ कर तजा।14।
हिन्द, हिन्दू और हिन्दी-कष्ट से होके अथिर।
खौल उठता था अहो जिनके शरीरों का रुधिार।
जो हथेली पर लिये फिरते थे उनके हेतु शिर।
थे उन्हीं के वास्ते जो राज तज देते रुचिर।
बहु कुँवर उन क्षत्रिायों के तुच्छ भोगों से डिगे।
नागरी को छोड़ उर्दू रंगतों में ही रँगे।15।
हो जहाँ पर शिर-धारों का आज दिन यों शिर फिरा।
फिर वहाँ पर क्यों फड़क सकती है औरों की शिरा।
किन्तु क्यों है नागरी के पास इतना तम घिरा।
ऑंख से कुछ हिन्दुओं के क्यों है उसका पद गिरा।
आप सोचेंगे अगर इसको तनिक भी जी लगा।
तो समझ जाएँगे है अज्ञानता ने की दगा।16।
आज दिन भी गाँव गाँवों में ऍंधोरा है भरा।
है वहाँ नहिं आज दिन भी ज्ञान का दीपक बरा।
आज दिन भी मूढ़ता का है जमा वाँ पर परा।
जाति-हित के रंग से कोरी वहाँ की है धारा।
हाथ का पारस भला वह फेंक देगा क्यों नहीं।
आह! उसके दिव्य गुण को जानता है जो नहीं।17।
है नगर के वासियों में ज्ञान का अंकुर उगा।
जाति-हित में किन्तु वैसा जी नहीं अब भी लगा।
फूँक से वह आपदा है सैकड़ों देता भगा।
जाति-भाषा रंग में नर-रत्न जो सच्चा रँगा।
उस बदन की ज्योति देती है तिमिर सारा नसा।
जाति के अनुराग का न्यारा तिलक जिस पर लसा।18।
नागरी के नेह से हम लोग आये हैं यहाँ।
किन्तु सच्चा त्याग हम में आज दिन भी है कहाँ।
जाति-सेवा के लिए हैं जन्मते त्यागी जहाँ।
आपदाएँ ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलतीं वहाँ।
जाति-भाषा के लिए किस सिध्द की धाूनी जगी।
वे कहाँ हैं जिनके जी को चोट है सच्ची लगी।19।
निज धारम के रंग में डूबे, तजे निज बंधाु-जन।
हैं यहाँ आते चले यूरोप के सच्चे रतन।
किसलिए? इस हेतु, जिस में वे करें तम का निधान।
दीन दुखियों का हरें, दुख औ उन्हें देवें सरन।
देखिए उनको यहाँ आ करके क्या करते हैं वे।
एक हम हैं ऑंख से जिसकी न ऑंसू भी òवे।20।
जो ऍंधोरे में पड़ा है ज्योति में लाना उसे।
जो भटकता फिर रहा है, पंथ दिखलाना उसे।
फँस गया जो रोग में है, पथ्य बतलाना उसे।
सीखता ही जो नहीं, कर प्यार सिखलाना उसे।
काम है उनका, जिन्हें पा पूत होती है मही।
इस विषम संसार-पादप के सुधाा फल हैं वही।21।
आज का दिन है बड़ा ही दिव्य हित-रत्नों जड़ा।
जो यहाँ इतने स्वभाषा-प्रेमियों का पग पड़ा।
किन्तु होवेगा दिवस वह और भी सुन्दर बड़ा।
लाल कोई बीर लौं जिस दिन कि होवेगा खड़ा।
दूर करने के लिए निज नागरी की कालिमा।
औ लसाने के जिए उन्नति-गगन में लालिमा।22।
राज महलों से गिनेगा झोंपड़ी को वह न कम।
वह फिरेगा उन थलों में है जहाँ पर घोर तम।
जो समझते यह नहीं, है काल क्या? हैं कौन हम?
वह बता देगा उन्हें जातीय-उन्नति के नियम।
वह बना देगा बिगड़ती ऑंख को अंजन लगा।
जाति-भाषा के लिए वह जाति को देगा जगा।23।
वह नहीं कपड़ा रँगेगा किन्तु उर होगा रँगा।
घर न छोड़ेगा, रहेगा पर नहीं उसमें पगा।
काम में निज वह परम अनुराग से होगा लगा।
प्यार होगा सब किसी से और होगा सब सगा।
बात में होगी सुधाा उसका रहेगा पूत मन।
जाति-भाषा-तेज से होगा दमकता बर बदन।24।
दूर होवेगा उसी से गाँव गाँवों का तिमिर।
खुल पड़ेगी हिन्दुओं की बंद होती ऑंख फिर।
तम-भरे उर में जगेगी ज्योति भी अति ही रुचिर।
वह सुनेगी बात सब, जो जाति है कब की बधिार।
दूर होगी नागरी के शीश की सारी बला।
चौगुनी चमकेगी उसकी चारुता-मंडित कला।25।
दैनिकों के वास्ते हैं आज दिन लाले पड़े।
सैकड़ों दैनिक लिये तब लोग होवेंगे खड़े।
केतु होंगे आगरी की कीर्ति के सुन्दर बड़े।
जगमगाएँगे विभूषण अंग में रत्नों जड़े।
देश-भाषा-रूप से वह जायगी उस दिन बरी।
सब सगी बहनें बनाएँगी उसे निज सिर-धारी।26।
मैं नहीं सकटेरियन हूँ औ नहीं हूँ बावला।
बात गढ़कर मैं किसी को चाहती हूँ कब छला।
मैं न हूँ उरदू-विरोधाी, मैं न हूँ उससे जला।
कौन हिन्दू चाहता है घोंटना उसका गला।
निज पड़ोसी का बुरा कर कौन है फूला फला।
हैं इसी से चाहते हम आज भी उसका भला।27।
किन्तु रह सकता नहीं यह बात बतलाये बिना।
ज्यों न जीएगा कभी जापान जापानी बिना।
ज्यों न जीएगा मुसल्माँ पारसी, अरबी बिना।
जी सकोगे हिन्दुओ, त्योंही न तुम हिन्दी बिना।
देखकर उरदू-कुतुब यह दीजिए मुझको बता।
आपकी जातीयता का है कहीं उसमें पता?।28।
क्या गुलाबों पर करेंगे आप कमलों को निसार।
क्या करेंगे कोकिलों को छोड़कर बुलबुल को प्यार।
क्या रसालों को सरो शमशाद पर देवेंगे वार।
क्या लखेंगे हिन्द में ईरान का मौसिम बहार।
क्या हिरासे और दजला आदि से होगी तरी।
तज हिमालय सा सुगिरिवर पूत-सलिला सुरसरी।29।
भीम, अर्जुन की जगह पर गेव रुस्तम को बिठा।
सभ्य लोगों में नहीं दृग आप सकते हैं उठा।
साथ कैकाऊस-दारा-प्रेम की गाँठें गठा।
क्या भला होगा, रसातल भोज, विक्रम को पटा।
कर्ण की ऊँची जगह जो हाथ हातिम के चढ़ी।
तो समझिए, ढह पड़ेगी आप की गौरव-गढ़ी।30।
क्या हसन की मसनवी से आप होकर मुग्धा मन।
फेंक देंगे हाथ से वह दिव्य रामायन रतन।
क्या हटाकर सूर-तुलसी-मुख-सरोरुह से नयन।
आप अवलोकन करेंगे मीर गशलिब का बदन।
क्या सुधाा को छोड़कर जो है मयंक-मुखों-òवी।
आप सहबा पान करके हो सकेंगे गौरवी।31।
जो नहीं, तो देखिए जातीय भाषा का बदन।
पोंछिए, उस पर लगे हैं जो बहुत से धाूलिकन।
जी लगाकर कीजिए उसकी भलाई का जतन।
पूजिए उसका चरण उस पर चढ़ा न्यारे रतन।
जगमगा जाएगी उसकी ज्योति से भारत-धारा।
आपका उद्यान-यश होगा फला फूला हरा।32।
भाग्य से ही राज उस सरकार का है आज दिन।
जो उचित आशा किसी की है नहीं करती मलिन।
शान्त की जिसने यहाँ आकर अराजकता अगिन।
उँगलियों पर जिसके सब उपकार हैं सकते न गिन।
जो न ऐसा राज पाकर आप सोते से जगे।
तो कहें क्यों जाति-भाषा रंगतों में हैं रँगे।33।
हे प्रभो! हिन्दू-हृदय में ज्ञान का अंकुर उगे।
हिन्द में बनकर रहें, सब काल वे सबके सगे।
दूसरों को हानि पहुँचाये बिना औ बिन ठगे।
दूर हों सब विघ्न, बाधाा, भाग हिन्दी का जगे।
जाति भाषा के लिए जो राज-सुख को रज गिने।
बुध्द-शंकर-भूमि कोई लाल फिर ऐसा जने।34।
हिन्दी भाषा
छप्पै
पड़ने लगती है पियूष की शिर पर धारा।
हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा।
बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती।
कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती।
आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नामही।
इक्कीस कोटि-जन-पूजिता हिन्दी भाषा है वही।1।
जिसने जग में जन्म दिया औ पोसा, पाला।
जिसने यक यक लहू बूँद में जीवन डाला।
उस माता के शुचि मुख से जो भाषा सीखी।
उसके उर से लग जिसकी मधाुराई चीखी।
जिसके तुतला कर कथन से सुधााधाार घर में बही।
क्या उस भाषा का मोह कुछ हम लोगों को है नहीं।2।
दो सूबों के भिन्न भिन्न बोली वाले जन।
जब करते हैं खिन्न बने, मुख भर अवलोकन।
जो भाषा उस समय काम उनके है आती।
जो समस्त भारत भू में है समझी जाती।
उस अति सरला उपयोगिनी हिन्दी भाषा के लिए।
हम में कितने हैं जिन्होंने तन मन धान अर्पण किए।3।
गुरु गोरख ने योग साधाकर जिसे जगाया।
औ कबीर ने जिसमें अनहद नाद सुनाया।
प्रेम रंग में रँगी भक्ति के रस में सानी।
जिस में है श्रीगुरु नानक की पावन बानी।
हैं जिस भाषा से ज्ञान मय आदि ग्रंथसाहब भरे।
क्या उचित नहीं है जो उसे निज सर ऑंखों पर धारे।4।
करामात जिसमें है चंद-कला दिखलाती।
जिसमें है मैथिल-कोकिल-काकली सुनाती।
सूरदास ने जिसे सुधाामय कर सरसाया।
तुलसी ने जिसमें सुर-पादप फलद लगाया।
जिसमें जग पावन पूत तम रामचरित मानस बना।
क्या परम प्रेम से चाहिए उसे न प्रति दिन पूजना।5।
बहुत बड़ा, अति दिव्य, अलौकिक, परम मनोहर।
दशम ग्रंथ साहब समान बर ग्रंथ बिरच कर।
श्रीकलँगीधार ने जिसमें निज कला दिखाई।
जिसमें अपनी जगत चकित कर ज्योति जगाई।
वह हिन्दी भाषा दिव्यता-खनि अमूल्य मणियों भरी।
क्या हो नहिं सकती है सकल भाषाओं की सिर-धारी।6।
अति अनुपम, अति दिव्य, कान्त रत्नों की माला।
कवि केशव ने कलित-कण्ठ में जिसके डाला।
पुलक चढ़ाये कुसुम बड़े कमनीय मनोहर।
देव बिहारी ने जिसके युग कमल पगों पर।
ऑंख खुले पर वह भला लगेगी न प्यारी किसे।
जगमगा रही है जो किसी भारतेन्दु की ज्योति से।7।
वैष्णव कवि-कुल-मुख-प्रसूत आमोद-विधााता।
जिसमें है अति सरस स्वर्ग-संगीत सुनाता।
भरा देशहित से था जिसके कर का तूँबा।
गिरी जाति के नयन-सलिल में था जो डूबा।
वह दयानन्द नव-युग जनक जिसका उन्नायक रहा।
उस भाषा का गौरव कभी क्या जा सकता है कहा!।8।
महाराज रघुराज राज-विभवों में रहते।
थे जिसके अनुराग-तरंगों ही में बहते।
राजविभव पर लात मार हो परम उदासी।
थे जिसके नागरी दास एकान्त उपासी।
वह हिन्दी भाषा बहु नृपति-वृन्द-पूजिता बंदिता।
कर सकती है उन्नत किये वसुधाा को आनंदिता।9।
वे भी हैं, है जिन्हें मोह, हैं तन मन अर्पक।
हैं सर ऑंखों पर रखने वाले, हैं पूजक।
हैं बरता बादी, गौरव-विद, उन्नति कारी।
वे भी हैं जिनको हिन्दी लगती है प्यारी।
पर कितने हैं, वे हैं कहाँ जिनको जी से है लगी।
हिन्दू-जनता नहिं आज भी हिन्दी के रंग में रँगी।10।
एक बार नहिं बीस बार हमने हैं जोड़े।
पहले तो हिन्दू पढ़ने वाले हैं थोड़े।
पढ़ने वालों में हैं कितने उर्दू-सेवी।
कितनों की हैं परम फलद अंग्रेजी देवी।
कहते रुक जाता कंठ है नहिं बोला जाता यहाँ।
निज ऑंख उठाकर देखिए हिन्दी-प्रेमी हैं कहाँ?।11।
अपनी ऑंखें बन्द नहीं मैंने कर ली हैं।
वे कन्दीलें लखीं जो तिमिर बीच बली हैं।
है हिन्दी-आलोक पड़ा पंजाब-धारा पर।
उससे उज्ज्वल हुआ राज्य इन्दौर, ग्वालिअर।
आलोकित उससे हो चली राज-स्थान-बसुंधारा।
उसका बिहार में देखता हूँ फहराता फरहरा।12।
मधय-हिन्द में भी है हिन्दी पूजी जाती।
उसकी है बुन्देलखण्ड में प्रभा दिखाती।
वे माई के लाल नहीं मुझ को भूले हैं।
सूखे सर में जो सरोज के से फूले हैं।
कितनी ही ऑंखें हैं लगी जिन पर आकुलता-सहित।
है जिनके सौरभ रुचिर से सब हिन्दी-जग सौरभित।13।
है हिन्दी साहित्य समुन्नत होता जाता।
है उसका नूतन विभाग ही सुफल फलाता।
निकल नवल सम्वाद-पत्रा चित हैं उमगाते।
नव नव मासिक मेगजश्ीन हैं मुग्धा बनाते।
कुछ जगह न्याय-प्रियतादि भी खुलकर हिन्दी हित लड़ीं।
कुछ अन्य प्रान्त के सुजन की ऑंखें भी उस पर पड़ीं।14।
किन्तु कहूँगा अब तक काम हुआ है जितना।
वह है किसी सरोवर के कुछ बूँदों इतना।
जो शाला, कल्पना-नयन सामने खड़ी है।
अब तक तो उसकी केवल नींव ही पड़ी है।
अब तक उसका कलका कढ़ा लघुतम अंकुर ही पला।
हम हैं बिलोकना चाहते जिस तरु को फूला फला।15।
बहुत बड़ा पंजाब औ यहाँ का हिन्दू-दल।
है पकड़े चल रहा आज भी उरदू-ऑंचल।
गति, मति उसकी वही जीवनाधाार वही है।
उसके उर-तंत्राी का धवनि मय तार वही है।
वह रीझ रीझ उसके बदन की है कान्ति विलोकता।
फूटी ऑंखों से भी नहीं हिन्दी को अवलोकता।16।
मुख से है जातीयता मधाुर राग सुनाता।
पर वह है सोहराव और रुस्तम गुण गाता।
उमग उमग है देश-प्रेम की बातें करता।
पर पारस के गुल बुलबुल का है दम भरता।
हम कैसे कहें उसे नहीं हिन्दू-हित की लौ लगी।
पर विजातीयता-रंग में है उसकी निजता रँगी।17।
भाषा द्वारा ही विचार हैं उर में आते।
वे ही हैं नव नव भावों की नींव जमाते।
जिस भाषा में विजातीय भाव ही भरे हैं।
उसमें फँस जातीय भाव कब रहे हरे हैं।
है विजातीय भाव ही का हरा भरा पादप जहाँ।
जातीय भाव अंकुरित हो कैसे उलहेगा वहाँ।18।
इन सूबों में ऐसे हिन्दू भी अवलोके।
जिनकी रुचि प्रतिकूल नहीं रुकती है रोके।
वे होमर, इलियड का पद्य-समूह पढ़ेंगे।
टेनिसन की कविता कहने में उमग बढ़ेंगे।
पर जिसमें धाराएँ विमल हिन्दू-जीवन की बहीं।
वह कविता तुलसी सूर की मुख पर आतीं तक नहीं।19।
मैं पर-भाषा पढ़ने का हूँ नहीं विरोधाी।
चाहिए हो मति निज भाषा भावुकता शोधाी।
जहाँ बिलसती हो निज भाषा-रुचि हरियाली।
वही खिलेगी पर-भाषा-प्रियता कुछ लाली।
जातीय भाव बहु सुमन-मय है वर उर उपवन वही।
हों विजातीय कुछ भाव के जिसमें कतिपय कुसुम ही।20।
है उरके जातीय भाव को वही जगाती।
निज गौरव-ममता-अंकुर है वही उगाती।
नस नस में है नई जीवनी शक्ति उभरती।
उस से ही है लहू बूँद में बिजली भरती।
कुम्हलाती उन्नति-लता को सींच सींच है पालती।
है जीव जाति निर्जीव में निज भाषा ही डालती।21।
उस में ही है जड़ी जाति-रोगों की मिलती।
उस से ही है रुचिर चाँदनी तम में खिलती।
उस में ही है विपुल पूर्वतन-बुधा-जन-संचित।
रत्न-राजि कमनीय जाति-गत-भावों अंकित।
कब निज पद पाता है मनुज निजता पहचाने बिना।
नहिं जाती जड़ता जाति की निज भाषा जाने बिना।22।
गाकर जिनका चरित जाति है जीवन पाती।
है जिनका इतिहास जाति की प्यारी थाती।
जिनका पूत प्रसंग जाति-हित का है पाता।
जिनका बर गुण बीरतादि है गौरव-दाता।
उनकी सुमूर्ति महिमामयी बंदनीय विरदावली।
निज भाषा ही के अंक में अंकित आती है चली।23।
उस निज भाषा परम फलद की ममता तज कर।
रह सकती है कौन जाति जीती धारती पर।
देखी गयी न जाति-लता वह पुलकित किंचित।
जो निज-भाषा-प्रेम-सलिल से हुई न सिंचित।
कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा।
जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा।24।
हे प्रभु अपना प्रकृत रूप सब ही पहचाने।
निज गौरव जातीय भाव को सब सनमाने।
तम में डूबा उर भी आभा न्यारी पावे।
खुलें बन्द ऑंखें औ भूला पथ पर आवे।
निज भाषा के अनुराग की बीणा घर घर में बजे।
जीवन कामुक जन सब तजे पर न कभी निजता तजे।25।
उद्बोधन
द्विपद
सज्जनो! देखिए, निज काम बनाना होगा।
जाति-भाषा के लिए योग कमाना होगा।1।
सामने आके उमग कर के बड़े बीरों लौं।
मान हिन्दी का बढ़ा आन निभाना होगा।2।
है कठिन कुछ नहीं कठिनाइयाँ करेंगी क्या।
फूँक से हमको बलाओं को उड़ाना होगा।3।
सामने आये हमारे जो रुकावट का पहाड़।
खोदकर उसको भी मिट्टी में मिलाना होगा।4।
उलझनों का जो पड़े राह में बारिधिा कोई।
तेज कुंभज सा हमें काम में लाना होगा।5।
मेहँदियों की तरह पिस जाँय भले ही लेकिन।
रंग अपना तो हमें खुल के दिखाना होगा।6।
क्यों न इस राह में नुच जाँय या कुचले जावें।
दूब की भाँति पनप कर के जम आना होगा।7।
जो इसी धाुन में ही मिल जायँ कभी मिट्टी में।
उग के बीजों की तरह सर को उठाना होगा।8।
भगवे कपड़ों से नहीं काम चलेगा प्यारे।
देश-हित-रंग में कपड़ों को रँगाना होगा।9।
स्वर्ग औ मुक्ति के झगड़ों से किनारे रह कर।
जाति-सेवा ही में सब जन्म बिताना होगा।10।
निज नई पौधा की उर-भू में बड़ी ही रुचि से।
कर्म अनुराग का बर वृक्ष लगाना होगा।11।
जिन उरों में है घिरा पर-भाषा-ममता-तम।
दीप वाँ नागरी-प्रियता का जलाना होगा।12।
ऐसा कर करके सदा आप फले, फूलेंगे।
ईश की होगी दया, जग में ठिकाना होगा।13।
अभिनव कला
षट्पद
प्यार के साथ सुधााधाार पिलाने वाली।
जी-कली भाव विविधा संग खिलाने वाली।
नागरी-बेलि नवल सींच जिलाने वाली।
नीरसों मधय सरसतादि मिलाने वाली।
देख लो फिर उगी साहित्य-गगन कर उजला।
अति कलित कान्तिमती चारु हरीचन्द कला।1।
जो रहा मंजु मधाुप, नागरी-कमल-पग का।
जो रहा मत्ता पथिक-प्रेम के रुचिर मग का।
जो रहा बन्धाु सदय भाव-सहित सब जग का।
जो रहा रक्त गरम जाति की निबल रग का।
थी जिसे बुध्दि मिली पूत रसिकतादि बलित।
है उसी उक्ति-सरसि-कंज की यह कीर्ति कलित।2।
देखिए आप इसे प्यार भरी ऑंखों से।
दीजिए मान दिला आप इसे लाखों से।
आप पावेंगे इसे मिष्ट अधिाक दाखों से।
आप देखेंगे दमकता इसे सित पाखों से।
यह लसाएगी उरों बीच सुधाा-पूरित सर।
यह सुनाएगी स अनुराग अलौकिक पिक-स्वर।3।
है जिसे सूझ मिली कान्ति मनोहर प्यारी।
पा गया जो है बड़े पुण्य से प्रतिभा न्यारी।
कैसा होता है कथन उसका मधाुर रुचि-कारी।
कितनी होती है खिली उसकी सुकविता-क्यारी।
जानना चाहें अगर यह रहस्य पुलकित कर।
तो पढ़ें आप इसे कंजकरों में लेकर।4।
स्वर्ग-संगीत सरस आठ पहर है होता।
इस में बहता है महामोद का सुन्दर सोता।
बीज हितकारिता इसका है बर बरन बोता।
ताप जीका है मधाुर बोलना इसका खोता।
चौगुनी चाप पुरन्दर से हुई जिसकी छटा।
इस में दिखलाएगी वह मुग्धाकरी कान्त घटा।5।
खींच देवेगी रुचिर चित्रा यह दृगों आगे।
आर्य्य-गौरव का, अमर वृन्द जिसमें अनुरागे।
छू जिसे कान्ति सने बादले बने धाागे।
तेज से जिसके तिमिर देश देश के भागे।
ज्योति वह जिसके विमल अंक से उफन निकली।
कान्त कंदील जगत सभ्यता की जिससे बली।6।
यह सुना जाति-व्यथा आप को जगा देगी।
देश-हित-बीज हृदय-भूमि में उगा देगी।
धार्म का मर्म्म बता मूढ़ता भगा देगी।
लोक-सेवा में बड़े प्यार से लगा देगी।
यह मलिन बुध्दि परम पूत बना लेवेगी।
बन्द होती हुई उर-ऑंख खोल देवेगी।7।
कंटकों मधय खिला फूल है चुना जाता।
कीच के बीच पड़ा रत्न है उठा आता।
बाहरी रूप जो इस का न भव्य दिखलाता।
था उचित तो भी इसे यह प्रदेश अपनाता।
किन्तु यह आज बदल रूप रंग आई है।
मान अब भी न मिले तो बड़ी कचाई है।8।
आज जो बंग-धारा बीच जन्म यह पाती।
मरहठी गुर्जरी भाषा में जो लिखी जाती।
मान पा हाथ में लाखों जनों के दिखलाती।
बन गयी होती विबुधा वृन्द की प्यारी थाती।
लोग कर ब्योत बड़े चाव से इसे लेते।
बात ही में नहीं जी में इसे जगह देते।9।
जो कहीं भूल गया नागरी परम नेही।
प्रेम हिन्दी का न हो तो वृथा बने देही।
त्याग स्वीकार करें या बने रहें गेही।
जाति ममता है, जिन्हें धान्य हैं यहाँ वे ही।
वर विभव, मान, विमल कीर्ति, वही पावेंगे।
जाति-भाषा को ललक जो गले लगावेंगे।10।
उलहना
षट्पद
वही हैं मिटा देते कितने कसाले।
वही हैं बड़ों की बड़ाई सम्हाले।
वही हैं बड़े औ भले नाम वाले।
वही हैं ऍंधोरे घरों के उँजाले।
सभी जिनकी करतूत होती है ढब की।
जो सुनते हैं, बातें ठिकाने की सब की।1।
बिगड़ती हुई बात वे हैं बनाते।
धाधाकती हुई आग वे हैं बुझाते।
बहकतों को वे हैं ठिकाने लगाते।
जो ऐंठे हैं उनको भी वे हैं मनाते।
कुछ ऐसी दवा हाथ उनके है आई।
कि धाुल जाती है जिस्से जी की भी काई।2।
भलाई को वे हैं बहुत प्यार करते।
खरी बात सुनने से वे हैं न डरते।
कभी वाजिबी बात से हैं न टरते।
सचाई का दम बेधाड़क वे हैं भरते।
वे बारीकियों में भी हैं पैठ जाते।
बहुत डूब वे तह की मिट्टी हैं लाते।3।
नहीं करते वे देश-हित से किनारा।
नहीं मिलता अनबन को उनसे सहारा।
बड़ी धाुन से बजता है उनका दुतारा।
सुनाता है जो मेल का राग प्यारा।
नहीं नेकियाँ, वे किसी की भुलाते।
नहीं फूट की आग वे हैं जलाते।4।
जो कुढ़ता है जी तो उसे हैं मनाते।
जो उलझन हुई तो उसे हैं मिटाते।
जो हठ आ पड़ा तो उसे हैं दबाते।
किसी के बतोलों में वे हैं न आते।
सदा उनकी होती है रंगत निराली।
बनी रहती है उनके मुखड़े की लाली।5।
यही सोच ऐ उर्दू के जाँ निसारो।
कहूँगी मैं कुछ लो सुनो औ विचारो।
तुम्हारी ही मैं हूँ मुझे मत बिसारो।
मैं हिन्दी हूँ मुझको न जी से उतारो।
नहीं कोसने या झगड़ने हूँ आई।
सहमते हुए मैं उलहना हूँ लाई।6।
मुझे बात यह आजकल है सुनाती।
जश्बा हूँ न मैं औ न हूँ प्यारी थाती।
गँवारी हूँ मैं और हूँ अनसुहाती।
पढ़ों को है मेरी गठन तक न भाती।
मैं खूखी हूँ जीती हूँ करके बहाने।
नहीं एक भी कल है मेरी ठिकाने।7।
तनिक जो समझ बूझ से काम लेंगे।
तनिक ऑंख जो और ऊँची करेंगे।
सम्हल कर सचाई को जो राह देंगे।
मैं कहती हूँ तो आप ही यह कहेंगे।
कभी है न वाजिब मुझे ऐसा कहना।
भला है नहीं मुझ से यों बिगड़े रहना।8।
जिसे मैंने देहली में न जन कर जिलाया।
जिसे लखनऊ ला अनोखी बनाया।
जिसे लाड़ से पाला, पोसा, खेलाया।
हिलाया, मिलाया, कलेजे लगाया।
हमें आप मानें जो नाते उसी के।
तो फिर यों फफोले न फोड़ेंगे जी के।9।
हमीें से है उर्दू का जग में पसारा।
हमीं से है उसका बना नाम प्यारा।
हमीं से है उसका रहा रंग न्यारा।
हमीं से है उसका चमकता सितारा।
उसी दिन उसे पारसी जग कहेगा।
न जिस दिन हमारा सहारा रहेगा।10।
भला मैंने उरदू का क्या है बिगाड़ा।
बता दीजिए कब बनी उसका टाड़ा।
बसा उसका घर मैंने कब है उजाड़ा।
कहाँ कब जमा पाँव उसका उखाड़ा।
खुले जी से उसके सदा काम आई।
कभी मैंने उसको न समझा पराई।11।
बरहमन के बेटे बड़े मन सुहाते।
नसीम औ रतन नाथ, जिनसे थे नाते।
जो वे मुझमें थे, पारसीपन खपाते।
रहे मुझमें जो उसके जुमले मिलाते।
तो उनको नहीं मैंने छड़ियाँ लगाईं।
न डाँटें बताईं, न ऑंखें दिखाईं।12।
मुसल्मान हो पा बहुत ऊँचा पाया।
रहीम और खुसरो ने जो जस कमाया।
मुझे मेरे ही रंग में जो दिखाया।
मुझे मेरे फूलों ही से जो सजाया।
तो मैंने न गजरे गले बीच गेरे।
नहीं फूल उनके सिरों पर बखेरे।13।
बड़े भाव से आरती कर हमारी।
खिली चाँदनी सी छटा वाली न्यारी।
जो सूर और तुलसी ने कीरत पसारी।
अमर जो हुए देव, केशव, बिहारी।
बड़ा जस, बहुत मान, सच्ची बड़ाई।
तो रसखान औ जायसी ने भी पाई।14।
कहे देती हूँ बात यह मैं पुकारे।
मुसल्मान हिन्दू हैं दोनों हमारे।
ये दोनों ही हैं मुझको जी से भी प्यारे।
ये दोनों ही हैं मेरी ऑंखों के तारे।
नहीं इनमें कोई है मेरा बेगाना।
सदा जी से दोनों ही को मैंने माना।15।
गुसाँई ने जिसमें रमायन बनाई।
कोई पोथी जितनी न छपती दिखाई।
कला जिसकी है आज देशों में छाई।
घरों बीच जिसने है गंगा बहाई।
सुनाती हूँ जिसमें मैं अपना उलहना।
सितम है उसे कोई बोली न कहना।16।
जो है देश में सब जगह काम आती।
बहुत लोगों की जो है बोली कहाती।
जो है झोंपड़े से महल तक सुनाती।
गठन जिसकी है नित नये रंग लाती।
कठिन है बिना जिसके घर में निबहना।
उसे क्या सही है गयी बीती कहना।17।
जिसे सूर ने दे दिया रंग न्यारा।
बड़े ढब से केशव ने जिसको सँवारा।
बिहारी ने हीरों से जिसको सिंगारा।
पिन्हाया जिसे देव ने हार न्यारा।
उसे अनसुहाती गँवारी बताना।
कहूँगी मैं है उलटी गंगा बहाना।18।
बहुत राजों ने पाँव जिसका पखारा।
गले में कई हार अनमोल डाला।
जिसे वार तन मन उन्होंने उभारा।
रही उनके जो सब सुखों का सहारा।
कुढंगी बुरी क्यों उसे हैं बनाते।
रतन जिसमें हैं सैकड़ों जगमगाते।19।
सदा मीर का ढंग है जी लुभाता।
बहुत सादापन दाग़ का है सुहाता।
कलाम इनका है आप लोगों को भाता।
कभी मोह लेता कभी है रिझाता।
बता देती हूँ, है यही बात न्यारी।
बहुत उसमें होती है रंगत हमारी।20।
उमग आप उरदू को दिन दिन बढ़ावें।
उसे बेबहा मोतियों से सजावें।
अछूते, बिछे फूल उसमें खिलावें।
उसे हार भी नौरतन का पिन्हावें।
मैं फूली कली का बनूँगी नमूना।
कलेजा मेरा देखकर होगा दूना।21।
हरा देखकर पेड़ अपना लगाया।
भला कौन है जो न फूला समाया।
जिसे मैंने अपना नमूना बनाया।
जिसे मैंने सौ सौ तरह से हिलाया।
उसे देख फूली फली क्यों जलूँगी।
कलेजे लगाकर बलाएँ मैं लूँगी।22।
मगर आप से मुझ को इतना है कहना।
भली बात है सब से हिल मिल के रहना।
कभी पोत का भी बहुत छोटा गहना।
उमग कर नहीं जो सकें आप पहना।
तो कह बात लगती मुझे मत खिझावें।
न छलनी हमारा कलेजा बनावें।23।
बहुत कह चुकी अब नहीं कुछ कहूँगी।
कहाँ तक बनँ ढीठ अब चुप रहूँगी।
सही मानिए आपकी सब सहूँगी।
मगर बात इतनी सदा ही चहूँगी।
कभी आप झगड़ों में पड़ मत उलझिए।
नहीं माँ तो धााई ही मुझ को समझिए।24।
प्रभो! तू बिगड़ती हुई सब बना दे।
ऍंधोरे में तू ज्योति न्यारी जगा दे।
घरों में भलाई का पौधाा उगा दे।
दिलों में सचाई की धारा बहा दे।
रहे प्यार आपस का सब ओर फैला।
किसी से किसी का न जी होवे मैला।25।
आशालता
चौपदे
कुछ उरों में एक उपजी है लता।
अति अनूठी लहलही कोमल बड़ी।
देख कर उसको हरा जी हो गया।
वह बताई है गयी जीवन-जड़ी।1।
एक भाषा देशभर को दे मिला।
चाहती है आज यह भारत मही।
मान यह हिन्दी लहेगी एक दिन।
है यही आशालता, वह लहलही।2।
हैं अभी कुछ दिन हुए इसको उगे।
किन्तु उस पर हैं बहुत ऑंखें लगीं।
सींचिए उस को सलिल से प्यार के।
लीजिए कर कल्प-लतिका की सगी।3।
आज तक हमने बहुत सींची लता।
औ उन्होंने भी हमें पुलकित किया।
सौरभों वाले सुमन सुन्दर खिला।
मन किसी ने सौरभित कर हर लिया।4।
फल किसी ने अति सरस सुन्दर दिये।
हैं किसी में मधाुमयी फलियाँ फलीं।
रंग बिरंगी पत्तिायों में मन रमा।
छबि दिखा ऑंखें किसी ने छीन लीं।5।
इन लताओं से कहीं उपयोगिनी।
है फलद, कामद, फबीली, यह लता।
पी इसी का स्वाद-पूरित पूत रस।
जीविता हो जायगी जातीयता।6।
मंजु सौरभ के सहज संसर्ग से।
सौरभित होगा उचित प्रियता सदन।
पल इसी की अति अनूठी छाँह में।
कान्त होगा एकता का बर बदन।7।
जाति का सब रोग देगी दूर कर।
ओषधाों की भाँति कर उपकारिता।
गुण-करी हित कर पवन इस को लगे।
नित सँभलती जायगी सहकारिता।8।
हैं सभी आशालताएँ सुखमयी।
हैं परम आधाार जीवन का सभी।
इन सबों की रंजिनी उनरक्तता।
त्याग सकता है नहीं मानव कभी।9।
किन्तु सब आशालताएँ व्यक्तिगत।
हैं न इस आशालता सी उच्चतर।
ऐ सहृदयो! जो न समझा मर्म यह।
तो सकोगे जाति मुख उज्ज्वल न कर।10।
एक विनय
छतुका
बड़े ही ढँगीले बड़े ही निराले।
अछूती सभी रंगतों बीच ढाले।
दिलों के घरों के कुलों के उँजाले।
सुनो ऐ सुजन पूत करतूत वाले।
तुम्हीं सब तरह हो हमारे सहारे।
तुम्हीं हो नई सूझ ऑंखों के तारे।1।
तुम्हीं आज दिन जाति हित कर रहे हो।
हमारी कचाई कसर हर रहे हो।
तनिक, उलझनों से नहीं डर रहे हो।
निचुड़ती नसों में लहू भर रहे हो।
तुम्हीं ने हवा वह अनूठी बहाई।
कि यों बेलि-हिन्दी उलहती दिखाई।2।
इसे देख हम हैं न फूले समाते।
मगर यह विनय प्यार से हैं सुनाते।
तुम्हें रंग वे हैं न अब भी लुभाते।
कि जिन में रँगे क्या नहीं कर दिखाते।
किसी लाग वाले को लगती है जैसी।
तुम्हें आज भी लौ लगी है न वैसी।3।
सुयश की धवजा जो सुरुचि की लड़ी है।
सुदिन चाह जिस के सहारे खड़ी है।
सभी को सदा आस जिस से बड़ी है।
सकल जाति की जो सजीवन जड़ी है।
बहुत सी नई पौधा ही वह तुम्हारी।
नहीं आज भी जा सकी है उबारी।4।
जननि-गोद ही में जिसे सीख पाया।
जिसे बोल घर में मनों को लुभाया।
दिखा प्यार, जिसका सुरस मधाु मिलाया।
उमग दूधा के साथ माँ ने पिलाया।
बरन ब्योंत के साथ जिस के सुधाारे।
कढ़े तोतली बोलियों के सहारे।5।
सभी जाति के लाल सुधा-बुधा के सँभले।
वही माँ की भाषा ही पढ़ते हैं पहले।
इसी से हुए वे न पचड़ों से पगले।
पड़े वे न दुविधाा में सुविधाा के बदले।
भला किसलिए वे न फूले फलेंगे।
सुकरता सुकर जो कि पकड़े चलेंगे।6।
मगर वह नई पौधा कितनी तुम्हारी।
अभी आज भी हो रही है दुखारी।
लदा बोझ ही है सिरों पर न भारी।
भटकती भी है बीहड़ों में बिचारी।
विकल हैं विजातीय भाषा के भारे।
अहह लाल सुकुमार मति वे तुमारे।7।
सुतों को, पड़ोसी मुसलमान भाई।
पढ़ाएँगे पहले न भाषा पराई।
पड़ी जाति कोई न ऐसी दिखाई।
समझ बूझ जिसने हो निजता गँवाई।
मगर एक ऐसे तुम्हीं हो दिखाते।
कि अब भी हो उलटी ही गंगा बहाते।8।
तुमारे सुअन प्यार के साथ पाले।
भले ही सहें क्यों न कितने कसाले।
उन्हें क्यों सुखों के न पड़ जायँ लाले।
पड़े एक बेमेल भाषा के पाले।
मगर हो तुम्हीं जो नहीं ऑंख खुलती।
नहीं किसलिए जी की काई है धाुलती।9।
भला कौन लिपि नागरी सी भली है।
सरलता मृदुलता में हिन्दी ढली है।
इसी में मिली वह निराली थली है।
सुगमता जहाँ सादगी से पली है।
मृदुलमति किसी से न ऐसी खिलेगी।
सहज बोधा भाषा न ऐसी मिलेगी।10।
मगर इन दिनों तो यही है सुहाता।
रखे और के साथ ही लाल नाता।
सदा ही कलपती रहे क्यों न माता।
मगर तुम बना दोगे उसको विमाता।
अलिफष् बे का सुत को रहेगा सहारा।
सुधाा की कढ़ें क्यों न हिन्दी से धारा।11।
अगर अपनी जातीयता है बचाना।
अगर चाहते हो न निजता गँवाना।
अगर लाल को लाल ही है बनाना।
अगर अपने मुँह में है चन्दन लगाना।
सदा तो मृदुल बाल मति को सँभालो।
उसे वेलि हिन्दी-बिटप की बना लो।12।
समय पर न कोई प्रभो चूक पावे।
भली कामना बेलि ही लहलहावे।
विकसती हृदय की कली दब न जावे।
स्वभाषा सभी को प्रफुल्लित बनावे।
खिले फूल जैसे सभी के दुलारे।
फलें और फूलें बनें सब के प्यारे।13।
वक्तव्य
पयार
मति मान-सरोवर मंजुल मराल।
संभावित समुदाय सभासद वृन्द।
भाव कमनीय कंज परम प्रेमिक।
नव नव रस लुब्धा भावुक मिलिन्द।1।
कृपा कर कहें बर बदनारबिन्द।
अनिन्दित छवि धााम नव कलेवर।
बासंतिक लता तरु विकच कुसुम।
कलित ललित कुंज कल कण्ठ स्वर।2।
क्यों बिमुग्धा करते हैं मानव मानस।
मनोहरता है मिली क्यों उन्हें अपार।
चिन्तनीय क्या नहीं है यह चारु कृति।
अनुभवनीय नहीं क्या यह व्यापार।3।
कल कौमुदी विकास विकासित निशि।
सकल कला निकेत कान्त कलाधार।
अनन्त तारकावली लसित गगन।
अलौकिक प्रभा पुंजमय प्रभाकर।4।
उत्ताल तरंग-माला आकुल जलधिा।
कल कल नाद-रता उल्लासित सरि।
नव नव लीला मयी निखिल अवनि।
आलोक किरीट शोभी गौरवित गिरि।5।
अवलोक होता नहीं क्या चकित चित्ता।
क्या हृदय होता नहीं बहु विकसित।
भव कवि-कुल-गुरु कल कृति मधय।
अलौकिक काव्य कला क्या नहीं निहित।6।
एक एक रजकण है भाव प्रवण।
एक एक बन तृण है रहस्य थल।
उच्च कल्पना प्रसूत लालित्य निलय।
तरु का है एक एक फल फूल दल।7।
रस-òोत कहाँ पर नहीं प्रवाहित।
कमनीयता है कहाँ नहीं विद्यमान।
विलसित कहाँ नहीं लोकोत्तार कान्ति।
मुग्धाता नहीं है कहाँ पर मूर्तिमान।8।
कर सका जो प्रवेश रस-òोत मधय।
अवलोक सका जो कि लालित्य ललाम।
जो जन विमुग्धा बना मुग्धाता बिबश।
धारातल में है हुआ वही लब्धा काम।9।
जान सका जितना हो जो यह रहस्य।
वह उतना ही हुआ प्रेम-पय-सिक्त।
उतना ही चित्ता हुआ उसका अमल।
वह उतना ही हुआ रस-अभिषिक्त।10।
होगा वही निज देश सुत प्रेम मत्ता।
होगा वही निज जाति-अनुराग रत।
ग्रहण करेगा वही स्वतंत्राता-मंत्रा।
साधान करेगा वही स्वाधाीनता-व्रत।11।
मानस मुकुर मधय उसी के, समस्त।
रहस्य प्रति फलित होगा यथोचित।
उसी का पुनीत मन करेगा मनन।
यथा तथ्य मननीय प्रसंग अमित।12।
हो सकेगा वही देश-दुख से दुखित।
हो सकेगा वही जाति-हित में निरत।
उसी का बिचार होगा उन्नत उदार।
लोक हित रत होगा वही अविरत।13।
आत्म त्याग ब्रत ब्रती अचल अटल।
वही होगा धाीर बीर पावन चरित।
सरल विशाल उर उन्नत स्वभाव।
वही होगा अति पूत भाव से भरित।14।
होवेगा मधाुर तर उसका कथन।
सरस सओज शुचि महा मुग्धाकर।
होती है उसी में वह संजीवनी शक्ति।
पाके जिसे जाति बने अजर अमर।15।
पाकर उसी से जग प्रथित विभूति।
होते हैं सओज ओज-रहित सकल।
तेज:पुंज कलेवर परम निस्तेज।
सजीव निर्जीव तथा सबल अबल।16।
उसी के प्रभाव से हैं प्रभावित वेद।
सकल उपनिषद आगम अखिल।
भवताप तप्त हित वही है जलद।
वही है पातक पंक पावन सलिल।17।
पुनीत महाभारत तथा रामायण।
उसी की विमल कीर्ति के हैं वर केतु।
पा जिसे जातीयता है आज भी जीवित।
गौरव सरित वर के हैं जो कि सेतु।18।
ये पुनीत ग्रंथ सब हैं महा महिम।
सार्वभौमता के ये हैं प्रबल प्रमाण।
हैं हमारी सभ्यता के सर्वोत्ताम चिन्ह।
हैं हमारी दिव्यता के दिव्यतम प्राण।19।
ये हैं वह अलौकिक प्रभामय मणि।
जिस की प्रभा से हुआ जग प्रभावान।
उन्हीं के किरण जाल से हो समुज्ज्वल।
तिमिर रहित हुए तमोमय स्थान।20।
ये हैं वह रमणीय, रंग-स्थल जहाँ।
कर अभिनीत नव नव अभिनय।
पूजनीय पूर्वतन अभिनेता गण।
करते हैं मानवता पूरित हृदय।21।
आत्मबल आत्म-त्याग आदि के आदर्श।
देश-प्रेम जाति-प्रेम प्रभृति के भाव।
परम कौशल साथ कर प्रदर्शन।
डालते हैं चित्ता पर अमित प्रभाव।22।
दिखला सजीव दृश्य देश समुन्नति।
सामाजिक संगठन जाति उन्नयन।
सूखी हुई नसें बना बना सरुधिार।
करते हैं उन्मीलित मीलित नयन।23।
अत: आज कर-बध्द है यह विनय।
बर्तमान कबि-कुल-चरण समीप।
तिरोहित क्यों न किया जाय देश-तम।
प्रज्वलित कर अति उज्ज्वल प्रदीप।24।
प्राप्त क्यों न किया जाय बहुमूल्य रत्न।
मंथन सदैव कर भव-पारावार।
क्यों न किया जाय कल कुसुम चयन।
प्राकृतिक नन्दन कानन में पधाार।25।
बात यह सत्य है कि सकल महर्षि।
व्यास देव तथा पूज्य बालमीक पद।
है बहुत गुरु, अति उच्च, पूततम।
पद पद पर वह है विमुक्ति प्रद।26।
किन्तु आप भी हैं उन्हीं के तो वंशधार।
रुधिार उन्हीं का आप में है संचरित।
उन्हीं का प्रभाव मय वैद्युतिक कण।
भवदीय भाव मधय क्या नहीं भरित।27।
भला फिर होगा कौन कार्य्य असंभव।
कैसे न करेंगे फिर असाधय साधान।
करेंगे प्रवेश क्यों न भाव-राज्य मधय।
भक्ति साथ भारती का कर आराधान।28।
कालिदास भवभूति आदि महा कवि।
पदानुसरण कर जिनका सप्रेम।
ख्यात हुए, कल्पतरु पग वह पूज।
बांछित लहेंगे क्यों न, होगा क्यों न क्षेम।29।
इसी पग-कल्पतरु-छाया में बिराज।
गोस्वामी प्रवर ने हैं बीछे वह फूल।
सौरभित जिससे है भारत-धारणि।
जो है अति मानस-मधाुर अनुकूल।30।
फिर कैसे आप होंगे नहीं लब्धा काम।
कैसे नहीं सिध्द प्राप्त होवेगी प्रचुर।
यदि होगा लोक-राग-रंजित हृदय।
यदि होगा जाति-प्रेम-सुधाासिक्त उर।31।
बसुधाा ललाम भूता भारत अवनि।
नवल आलोक से है आलोकित आज।
समुन्नति का है जहाँ तहाँ कोलाहल।
परम समाकुल है सकल समाज।32।
किन्तु आज भी है अति संकुचित दृष्टि।
यथोचित खुला नहीं आज भी नयन।
कंटकित पथ आज भी है कंटकित।
किन्तु करते हैं तो भी ख-पुष्प चयन।33।
संघ शक्ति इस युग का है मुख्य धार्म।
जाति-संगठन इस काल का है तंत्रा।
सर्वत्रा एकीकरण का है घोर नाद।
सहयोग आज काल का है महामंत्रा।34।
किन्तु हम आज भी हैं प्रतिकूल गति।
आज भी विभिन्नता ही में हैं हम रत।
बची खुची रही सही जो थी संघ शक्ति।
छिन्न भिन्न हो रही है वह भी सतत।35।
जातीय सभाएँ जाति जाति के समाज।
नाना जातियों के भिन्न भिन्न पाठागार।
जिस भाँति संचालित हो रहे हैं आज।
सहकारिता का कर देवेंगे संहार।36।
उनसे असहयोग पायेगा सुयोग।
जाति संगठन पर होगा बज्रपात।
जातीयता का रहेगा कैसे वहाँ पक्ष।
जहाँ पर प्रति दिन होगा पक्षपात।37।
देवालय विद्यालय सभा औ समाज।
जाति सम्मिलन के हैं सर्वमान्य केन्द्र।
यदि नहीं एही रहे अवारित द्वार।
कर न सकेंगे एकीकरण सुरेन्द्र।38।
गुथे हुए एक सूत्रा में हैं जो कुसुम।
उन्हें छिन्न भिन्न कर एकाधिाक बार।
दुस्तर है, बरंच है विडम्बना मात्रा।
फिर बना लेना वैसा सुसज्जित हार।39।
किन्तु तम में हैं वे ही जो हैं ज्योतिर्मान।
नेत्रा जिन के हैं खुले उन्हीें के हैं बन्द।
कैसे दिखलावें हम व्यथित हृदय।
आह! है बड़ा ही मर्म बेधाी यह द्वन्द्व।40।
प्रति दिन हिन्दू जाति का है होता Ðास।
संख्या है हमारी दिन दिन होती न्यून।
च्युत हो रहे हैं निज बर वृन्त त्याग।
अचानक कतिपय कलित प्रसून।41।
धार्म पिपासा से हो हो बहु पिपासित।
बैदिक पुनीत पथ सका कौन त्याग।
प्रवाहित शान्ति-धारा सकेगा न कर।
भगवती भागीरथी-सलिल बिराग।42।
सामाजिक कतिपय कुत्सित नियम।
अति संकुचित छूतछात के बिचार।
हर ले रहे हैं आज हमारा सर्वस्व।
गले का भी आज छीन ले रहे हैं हार।43।
एक ओर काम-ज्वाला में है होता हुत।
विपुल विभव तनमन मणि माल।
अन्य ओर हो हो पेट-ज्वाला से बिबश।
लूटे जा रहे हैं मेरे बहु मूल्य लाल।44।
जिन्हें हम छूते नहीं समझ अछूत।
जो हैं माने गये सदा परम पतित।
पास उनके है होता क्या नहीं हृदय।
वेदनाओं से वे होते क्या नहीं व्यथित।45।
उनका कलेजा क्या है पाहन गठित।
मांस ही के द्वारा वह क्या है नहीं बना।
लांछित ताड़ित तथा हो हो निपीड़ित।
उनके नयन से है क्या न ऑंसू छना।46।
कब तक रहें दुख-सिंधाु में पतित।
कब तक करें पग-धाूलि वे बहन।
कब तक सहें वह साँसतें सकल।
कर न सकेगा जिसे पाहन सहन।47।
हमारे ही अविवेक का है यह फल।
हमारी कुमति का है यह परिणाम।
हमें छोड़ नित होती जाती है अलग।
परम सहन शील संतति ललाम।48।
किन्तु आज भी न हुआ हृदय द्रवित।
आज भी न हुआ हमें हिताहित ज्ञान।
छोड़ कर भयावह संकुचित भाव।
हम नहीं बना सके हृदय महान।49।
हिन्दू जाति जरा से है आज जर्जरित।
उसका है एक एक लोम व्यथा-मय।
चित-प्रकम्पित-कर रोमांच कारक।
उसके हैं एक नहीं अनेक विषय।50।
सामने रखे जो गये विषय युगल।
वे हैं निदर्शन मात्रा; यदि कवि गण।
इन पर देंगे नहीं समुचित दृष्टि।
ग्रहण करेगी जाति किस की शरण।51।
किन्तु क्या कर्तव्य किया गया है पालन।
क्या सुनाया गया वह अद्भुत झंकार।
जिस से हृदय-यंत्रा होवे निनादित।
बज उठें चित्ता-वृत्तिा वर वीणा-तार।52।
जिस कवि किम्वा कवि पुंगव का चित्ता।
है न जाति दयनीय दशा चित्रा पट।
वह हो सरस होवे भूरि भाव मय।
संजीवनी शक्ति प्रद है न सुधाा-घट।53।
काव्यता को कैसे प्राप्त होगा वह काव्य।
जिस काव्य से न होवे जातीय उत्थान।
वह कविता है कभी कविता ही नहीं।
जिस कविता में हो न जातीयता-तान।54।
जाति दुख लिखे जो न लेखनी ललक।
तो कहूँगा रही, मुखलालिमा ही नहीं।
वह लेवे बार बार भले ही किलक।
कालिमामयी की गयी कालिमा ही नहीं।55।
भावुकता प्रिय कैसे बनें तो भावुक।
भाव जो न करे जाति-अभाव प्रगट।
जाति-प्रेम कमनीय वंशी-धवनि बिना।
होवेगा अकान्त कल्पना-कालिन्दी-तट।56।
नवरस मर्म जाना तो न जाना कुछ।
जान पाया जब नहीं जाति का ही मर्म।
जाति को ही जो न सका कर्मरत कर।
कवि-कर्म कैसे तब होगा कवि-कर्म।57।
जिस सुललित कला-निलय की कला।
विलोक रहे हैं सब थल सब काल।
उसी सुविभूति मय के हैं सुविभूति।
उसी मणिमाल के हैं आप लोग लाल।58।
कविगण आप में है वह दिव्य ज्योति।
हरण करेगी जो कि जाति का तिमिर।
बरस सरस-सुधाा करो जाति हित।
फैलाओ दिगन्त कीर्ति परम रुचिर।59।
टले विघ्न बाधा होवे मंगल सतत।
सब फूलें फलें सब ही का होवे भला।
सभासद सुखी रहें सभा का हो हित।
भारत-अवनि होवे सुजला सुफला।60।
जातीयता-ज्योति
भ्भगवती भागीरथी
छप्पै
कलित-कूल को धवनित बना कल-कल-धवनि द्वारा।
विलस रही है विपुल-विमल यह सुरसरि-धारा।
अथवा सितता-सदन सतोगुण-गरिमा सारी।
ला सुरपुर से सरि-स्वरूप में गयी पसारी।
या भूतल में शुचिता सहित जग-पावनता है बसी।
या भूप-भगीरथ-कीर्ति की कान्त-पताका है लसी।1।
बूँद बूँद में वेद-वैद्युतिक-शक्ति भरी है।
आर्थ-ललित-लीला-निकेत सारी-लहरी है।
भारतीय-सभ्यता-पीठ है पूत-किनारा।
है हिन्दू-जातीय-भाव का òोत-सहारा।
जीवन है आश्रम-धार्म का जद्दुसुता-जीवन बिमल।
है एक एक बालुका-कण भुक्ति मुक्ति का पुण्य-थल।2।
वैदिक-ऋषि के बर-विवेक-पादप का थाला।
बुध्ददेव के धार्म-चक्र का धाुरा निराला।
भारतीय आदर्श-विभाकर का उदयाचल।
कोटि-कोटि जन भक्ति भाव वैभव का सम्बल।
है व्यासदेव सान्तनु-सुअन से महान जन का जनक।
सुरसरि-प्रवाह है सिध्दि का साधान कल-कृति-खनि कनक।3।
वह हिन्दू-कुल कलित कीर्ति की कल्पलता है।
मानवता-ममता-सुमूर्ति की मंजुलता है।
अपरिसीम-साहस-सुमेरु की है सरि-धारा।
है महान-उद्योग-देव दिवि-गौरव-दारा।
जातीय अलौकिक-चिन्ह है आर्य-जाति उत्फुल्लकर।
सुख्याति मालती-माल है बहु-विलसित शिव-मौलि पर।4।
वह अब भी है बिपुल-जीवनी-शक्ति बितरती।
रग रग में है आर्य जाति के बिजली भरती।
उसका जय जय तुमुलनाद है गगन विदारी।
रोम रोम में जन जन के साहस-संचारी।
प्रति वर्ष हो मिलित है उसे जन-समूह आराधाता।
इक्कीस कोटि को नाम है एक-सूत्रा में बाँधाता।5।
वह सुधिा है उस आत्म-शक्ति की हमें दिलाती।
जो हरि-पद में लीन ललित-गति को है पाती।
महि-मण्डल में ब्रह्म-कमण्डल-जल जो लाई।
शिव-शिर विलसित वर-विभूति जिसने अपनाई।
जिसके लाये जलधाार ने भारत-धारा पुनीत की।
जो धाूलि-भूत बहु मनुज को पहुँचा सुरपुर में सकी।6।
वह है महिमा मयी देव महिदेव समर्चित।
कुसुम-दाम-कमनीय चारु-चन्दन से चर्चित।
किन्तु सरस है एक एक रज-कण को करती।
मिल मिल कर है मलिन से मलिन का मल हरती।
करती है कितनी अवनि को कनक-प्रसू कर रज-वहन।
दे जीवन जनहित के लिए कर विभक्त यजनीय-तन।7।
है अवगत पर कहाँ हमें है महिमा अवगत।
यदि उन्नत हिन्दू-समाज होता है अवनत।
होते घर में पतितपावनी सुरसरि-धारा।
कह अछूत हम क्यों अछूत से करें किनारा।
कैसे न रसातल जायँगे हित हमको प्यारा नहीं।
है छूतछात से मिल सका छिति में छुटकारा नहीं।8।
पूत सदा लाखों अपूत करे कर सकते हैं।
बहु-अछूत की छूतछात को हर सकते हैं।
कभी बिछुड़तों को न छोड़ना हमको होगा।
मुँह जीवन से नहीं मोड़ना हमको होगा।
जो समझें अपनी भूल को लाग लगे की लाग हो।
जो हमें देश का धार्म का सुरसरि का अनुराग हो।9।
क्यों गौरव का गान करें गौरव जो खोवें।
करें भक्ति क्यों जो न भक्त हम जी से होवें।
पतित जो न हों पूत पतितपावनी कहें क्यों।
छू छू पावन सलिल अछूत अछूत रहें क्यों।
तो कहाँ हमारी भावना भले भाव से है भरी।
जो स्वर्ग सदृश नहिं कर सकी सकल देश को सुरसरी।10।
पुण्यसलिला
छप्पै
है पुनीत कल्लोल सकल कलिकलुष-विदारी।
है करती शुचि लोल लहर सुरलोक-बिहारी।
भूरि भाव मय अभय भँवर है भवभय खोती।
अमल धावल जलराशि है समल मानस धाोती।
बहुपूत चरित विलसित पुलिन है पामरता-पुंज यम।
है विमल बालुका पाप-कुल-कदन काल-करवाल सम।1।
वन्दनीयतम वेद मंत्रा से है अभिमंत्रिात।
आगम के गुणगान-मंच पर है आमंत्रिात।
वाल्मीक की कान्त उक्ति से है अभिनन्दित।
भारत के कविता-कलाप द्वारा है वन्दित।
नाना-पुराण यश-गान से है महान-गौरव भरी।
सुरलोक-समागत शुचि-सलिल भूसुर-सेवित-सुरसरी।2।
पाहन उर से हो प्रसूत सुरधाुनि की धारा।
द्रवीभूत है परम, मृदुलता-चरम-सहारा।
रज-लुंठित हो रुचिर-रजत-सम कान्तिवती है।
असरल-गति हो सहज-सरलता-मूर्तिमती है।
हो निम्न-गामिनी कर सकी हिमगिरि-शिर ऊँचा परम।
संगम द्वारा उसके हुआ पतित-पयोनिधिा पूज्यतम।3।
ब्रज-भू ब्रजवल्लभ पुनीत रस से बहु-सरसी।
है कलिन्द-नन्दिनी अंक में उसके बिलसी।
अवधा अवधापति वर-विभूति से भूतिवती बन।
सरयू उसमें हुई लीन कर के विलीन तन।
भारत-गौरव नरदेव के गौरव से हो गौरवित।
कर सुर समान बहु असुर को अवनि लसि है सुरसरित।4।
जो यह भारत-धारा न सुर धाुनि-धारा पाती।
सुजला सुफला शस्य-श्यामला क्यों कहलाती।
उपबन अति-रमणीय विपिन नन्दन-बन जैसे।
कल्प-तुल्य पादप-समूह पा सकती कैसे।
बिलसित उसमें क्यों दीखते अमरावति ऐसे नगर।
जिनकी विलोक महनीयता मोहित होते हैं अमर।5।
है वह माता दयामयी ममता में माती।
है अतीव-अनुराग साथ पय-मधाुर पिलाती।
भाँति भाँति के अन्न अनूठे फल है देती।
रुज भयावने निज प्रभाव से है हर लेती।
कानों में परम-विमुग्धा-कर मधाुमय-धवनि है डालती।
कई कोटि संतान को प्रतिदिन है प्रतिपालती।6।
भूतनाथ किस भाँति भवानी-पति कहलाते।
पामर-परम, पुनीत-अमर-पद कैसे पाते।
आर्य-भूमि में आर्य-कीर्ति-धारा क्यों बहती।
तीर्थराजता तीर्थराज में कैसे रहती।
क्यों सती के सदृश दूसरी दुहिता पाता हिम अचल।
क्यों कमला के बदले जलधिा पाता हरिपद कमलजल।7।
राजा हो या रंक अंक में सब को लेगी।
चींटी को भी नीर चतुर्मुख के सम देगी।
काँटों से हो भरी कुसुम-कुल की हो थाती।
सभी भूमि पर सुधाातुल्य है सुधाा बहाती।
जीते है जीवन-दायिनी अमर बनाती है मरे।
जो तरे न तारे और के वे सुरसरि तारे तरे।8।
चतुरानन ने उसे चतुरता से अपनाया।
पंचानन ने शिर पर आदर सहित चढ़ाया।
सहस-नयन के सहस-नयन में रही समाई।
लाखों मुख से गयी गुणावलि उसकी गाई।
कर मुक्ति-कामना कूल पर कई कोटि मानव मरे।
पीपी उसका पावन-सलिल अमित-अपावन हैं तरे।9।
फैली हिमगिरि से समुद्र तक सुरसरि धारा।
काम हमारा सदा साधा सकती है सारा।
विपुल अमानव का वह मानव कर लेवेगी।
जीवित जाति समान सबल जीवन देवेगी।
जो बल हो बुध्दि विवेक हो वैभव हो विश्वास हो।
तो क्यों न बनें सुरतुल्य हम क्यों न स्वर्ग आवास हो।10।
गौरव गान
छप्पै
वैदिकता-विधिा-पूत-वेदिका बन्दनीय-बलि।
वेद-विकच-अरविन्द मंत्रा-मकरन्द मत्ता-अलि।
आर्य-भाव कमनीय-रत्न के अनुपम-आकर।
विविधा-अंधा-विश्वास तिमिर के विदित-विभाकर।
नाना-विरोधा-वारिद-पवन कदाचार-कानन-दहन।
हैं निरानन्द तरु-वृन्द के दयानन्द-आनन्द-घन।1।
वैदिक-धार्म न है प्रदीप जो दीप्ति गँवावे।
तर्क-वितर्क-विवाद-वायु बह जिसे बुझावे।
मलिन-विचार-कलंक-कलंकित है न कलाधार।
प्रभाहीन कर सके जिसे उपधार्म प्रभाकर।
वह है दिवि-दुर्लभ दिव्यमणि दुरित-तिमिर है खो रहा।
उसके द्वारा भू-वलय है विपुल-विभूषित हो रहा।2।
पंचभूत से अधिाक भूतियुत है विभु-सत्ता।
प्रभु प्रभाव से है प्रभाव मय पत्ता पत्ता।
है त्रिालोक में कला अलौकिक-कला दिखाती।
सकल ज्ञान विज्ञान विभव है भव की थाती।
उन पर समान संसार के मानव का अधिाकार है।
महि-धार्म-नियामक-वेद का यह महनीय-विचार है।3।
बिना मुहम्मद औ मसीह मूसा के माने।
मनुज न होगा मुक्त मनुजता महिमा जाने।
उनके पथ के पथिक यह विपथ चल हैं कहते।
रंग रंग से बाद तरंगों में है बहते।
पर यह वैदिक सिध्दान्त है उच्च-हिमाचल सा अचल।
मानव पा सकता मुक्ति है बने आत्मबल से सबल।4।
सत्य सत्य है, और सत्य सब काल रहेगा।
न्याय-सिंधाु का न्यास-वारि कर न्याय बहेगा।
वहाँ जहाँ, हैं विमल विवेक विमलता पाते।
होगा मानव मान एक मानवता नाते।
है जगतपिता सबका पिता वेद बताते हैं यही।
प्रभु प्रभु-जन प्यारे हैं जिन्हें प्रभु के प्यारे हैं वही।5।
हो वैदिक ए वेदतत्तव हम को थे भूले।
मूल त्याग हम रहें फूल फल दल ले फूले।
धाूम धााम से रहे पेट के करते धांधो।
युक्ति-भार से रहे उक्ति के छिलते कंधो।
थे बसे देश में पर न थे देश देश को जानते।
हम मनमानी बातें रहे मनमाना कर मानते।6।
कर कर बाल विवाह अबल बन थे बल खोते।
दुखी थे न विधावों को विधावापन से होते।
समझ लूट का माल लूटते थे ईसाई।
मुसलमान की मुसलमानियत थी रँग लाई।
हम दिन दिन थे तन-बिन रहे तन को गिनते थेनतन।
निपतन गति थी दूनी हुई पल पल होता था पतन।7।
भूल में पड़े, भूल को, समझ भूल न पाते।
देख देख कर दुखी-जाति-दुख देख न पाते।
कर्म भूमि पर था न कर्म का बहता सोता।
धार्म धार्म कह धार्म-मर्म था ज्ञात न होता।
उस काल अलौकिक लोक ने हमें अलौकिक बल दिया
आ दयानन्द-आलोक ने आलोकित भूतल किया।8।
पिला उन्होंने दिया आत्मगौरव का प्याला।
बना उन्होंने दिया मान ममता मतवाला।
जी में भर जातीय भाव कर सजग जगाया।
देश प्रेम के महामन्त्रा से मुग्धा बनाया।
बतलाया ऐ ऋषि वंशधार है तुम में वह अतुल बल।
जो सकल सफलता दान कर करे विफल जीवन सफल।9।
वह नवयुग का जनक विविधा सुविधाान विधााता।
बात बात में यही बात कहता बतलाता।
जो है जीवन चाह सजीवन तो बन जाओ।
नाना रुज से ग्रसित जाति को निरुज बनाओ।
वे एक सूत्रा में हैं बँधो जिन्हें बाँधाते बेद हैं।
वे भेद भेद समझे नहीं जो मानते विभेद हैं।10।
प्रतिदिन हिन्दू जाति पतन गति है अधिाकाती।
नित लुटते हैं लाल छिनी ललना है जाती।
है दृग के सामने ऑंख की पुतली कढ़ती।
होती है ला बला बला-पुतलों की बढ़ती।
मन्दिर हैं मिलते धाूल में देवमूर्ति है टूटती।
अपनी छाती भारत-जननि कलप कलप है कूटती।11।
जाग जाग कर आज भी नहीं हिन्दू जागे।
भाग भाग कर भय भयावने भूत न भागे।
लाल लाल ऑंखें निकाल है काल डराता।
है नाना जंजाल जाल पर जाल बिछाता।
है निर्बलता टाले नहीं निर्बल तन मन की टली।
खुल खुल ऑंखें खुलती नहीं, नहीं बात खलती खली।12।
है अनेकता प्यार एकता नहीं लुभाती।
है अनहित से प्रीति बात हित की नहिं भाती।
रंग रहा है बिगड़ बदल हैं रंग न पाते।
है न रसा में ठौर रसातल को हैं जाते।
हैं अन्धाकार में ही पड़े अंधाापन जाता नहीं।
है लहू जाति का हो रहा लहू खौल पाता नहीं।13।
क्या महिमामय वेद-मंत्रा में है न महत्ता।
राम नाम में रही नाम को ही क्या सत्ता।
क्या धाँस गयी धारातल में सुरधाुनि की धारा।
आर्य जाति को क्या न आर्य गौरव है प्यारा।
क्या सकल अवैदिक नीतियाँ वैदिकता से हैं बली।
क्या नहीं भूतहित भूति है भारत भूतल की भली।14।
सोचो सँभलो मत भूलो घर देखो भालो।
सबल बनो बल करो सब बला सिर की टालो।
दिखला दो है जगत विजयिनी विजय हमारी।
रग रग में है रुधिार उरग-गति-गर्व प्रहारी।
वर कर वैदिक विरदावली वरद वेद पथ पर चलो।
सबको दो फलने फूलने और आप फूलो फलो।15।
ऑंसू
चौपदे
बाढ़ में जो बहे न बढ़ बोले।
किसलिए तो बहुत बढ़े ऑंसू।
जो कलेजा न काढ़ पाया तो।
किसलिए ऑंख से कढ़े ऑंसू।1।
अड़ अगर बार बार अड़ती है।
तो रहे क्यों नहीं अडे अाँसू।
जो निकाले न जी कसर निकली।
ऑंख से क्यों निकल पड़े ऑंसू।2।
फेर में डालते हमें जो थे।
तो फिराये न क्यों फिरे ऑंसू।
जो किसी ऑंख से गये गिर तो।
किसलिए ऑंख से गिरे ऑंसू।3।
जान जिन में है जान वाले वे।
हैं गिराते न जी गये ऑंसू।
प्यास थी आबरू बचाने की।
फिर अजब क्या कि पी गये ऑंसू।4।
हैं उन्हें देख आग लग जाती।
कब जलाते नहीं रहे ऑंसू।
टूटता बेतरह कलेजा है।
फूटती ऑंख है बहे ऑंसू।5।
जो सकें सींच सींच तो देवें।
किसलिए प्यार जड़ खनें ऑंसू।
जी जलों का न जी जलाएँ वे।
हैं अगर जल तो जल बनें ऑंसू।6।
हैं छलकते उमड़ उमड़ आते।
देख नीचा नहीं डरे ऑंसू।
ऑंख कैसे नहीं तरह देती।
बेतरह आज हैं भरे ऑंसू।7।
चाल वाले न कब चले चालें।
चोचलों साथ चल पड़े ऑंसू।
मनचलापन दिखा दिखा अपना।
मनचलों से मचल पड़े ऑंसू।8।
खर खलों के मिले जलन से जल।
आग जैसे न क्यों बले ऑंसू।
जो कि हैं जी जला रहे उनको।
क्यों जलाते नहीं जले ऑंसू।9।
जो उन्हें था बखेरना काँटा।
किसलिए तो बिखर पड़े ऑंसू।
क्यों किसी ऑंख से निकल कर के।
क्यों किसी ऑंख में गड़े ऑंसू।10।
आती है
चौपदे
जी न बदला न रंगतें बदलीं।
चाल बदली नहीं दिखाती है।
मौत को क्यों बुला रहे हैं हम।
क्या बला पर बला न आती है।1।
ऑंख खुल खुल खुली नहीं अब तक।
बात खलती भी खुल न पाती है।
है हमें देख भाल का दावा।
क्या हमें देख भाल आती है।2।
भूल पर भूल हो रही है क्यों।
बात क्यों भूल भूल जाती है।
लाज का है जहाज डूब रहा।
पर हमें लाज भी, न आती है।3।
बात सारी बिगड़ बिगड़ी।
बात मुँह से निकल न पाती है।
बात रहती सदा हमारी थी।
बात यह याद अब न आती है।4।
छिन रहे हैं कलेजे के टुकड़े।
क्यों नहीं छरछराती छाती है।
कढ़ रही ऑंख की पुतलियाँ हैं।
किसलिए ऑंख भर न आती है।5।
सब तरह की कमाई कायर की।
बीर की वे कमाई थाती है।
हो रही है किसी की मनभाई।
और हम को जँभाई आती है।6।
रख सके बात जो नहीं अपनी।
सब जगह बात उनकी जाती है।
हम सहेंगे न साँसतें कैसे।
साँस रहते न साँस आती है।7।
कम न सोये बहुत रहे सोये।
जाति की आन अब जगाती है।
टूट कर भी न नींद टूट सकी।
नींद पर नींद कैसे आती है।8।
मिल रहें मिल चलें मिलाप करें।
पर कभी मेल मौत थाती है।
जब समय ऑंख फेर लेता है।
ऑंख जाने को ऑंख आती है।9।
देश का रंग रह सके जिससे।
बात रंगत-वही बनाती है।
जो रँगी जाति रंग में होवे।
क्यों नहीं वह तरंग आती है।10।
जो हमें बार-बार तंग करे।
क्यों उसे दंग कर न पाती है।
संग जो संग के लिए न बनी।
तो कभी क्यों उमंग आती है।11।
ऑंख से क्यों न वह बहे धारा।
जो दुधारा बनी दिखाती है।
जो रुला दे रुलाने वालों को।
क्यों नहीं वह रुलाई आती है।12।
काम साधो सधाा नहीं कोई।
साधा पूरी न होने पाती है।
बेसुधो दूसरे न हैं हम से।
आज भी सुधा हमें न आती है।13।
मर जिये जाति के लिए कितने।
जाति को जाति ही जिलाती है।
चाहिए मौत से नहीं डरना।
कब बिना मौत मौत आती है।14।
किस लिए जी लड़ा नहीं देते।
जान हित-चाह क्यों छिपाती है।
बात से लें न काम काम करें।
काम की बात काम आती है।15।
घर देखो भालो
लावनी
ऑंखें खोलो भारत के रहने वालो।
घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।
यह फूट डालती फूट रहेगी कब तक।
यह छेड़ छाड़ औ छूट रहेगी कब तक।
यह धान की जन की लूट रहेगी कब तक।
यह सूट बूट की टूट रहेगी कब तक।
बल करो बली बन बुरी बला को टालो।
घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।1।
क्यों छूत छात की छूत न अब तक छूटी।
क्यों टूट गयी कड़ियाँ हैं अब तक टूटी।
फूटे न ऑंख वह जो न आज तक फूटी।
छन छन छनती ही रहे प्रेम की बूटी।
तज ढील, रंग में ढलो, ढंग में ढालो।
घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।2।
हैं बौध्द जैन औ सिक्ख हमारे प्यारे।
चित के बल कितने सुख के उचित सहारे।
हिन्दुओं से न हैं आर्यसमाजी न्यारे।
हैं एक गगन के सभी चमकते तारे।
उठ पड़ो अंक भर सब कलंक धाो डालो।
घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।3।
नाना मत हैं तो बनें हम न मतवाले।
ये एक दूधा के हैं कितने ही प्याले।
तब मेल-जोल के पड़ें हमें क्यों लाले।
जब सब दीये हैं एक जोत ही वाले।
कर उजग दूर जन जन को जाग जगा लो।
घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।4।
क्यों बात बात में बहक बिगाड़ें बातें।
क्यों हमें घेर लें किसी नीच की घातें।
हों भले हमारे दिवस भली हों रातें।
लानत है सह लें अगर समय की लातें।
धाुन बाँधा धाूम से अपनी धााक बँधाा लो।
घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।5।
क्या लहू रगों में रंग नहीं है लाता।
क्या है न कपिल गौतम कणाद से नाता।
क्या नहीं गीत गीता का जी उमगाता।
क्या है न मदन-मोहन का वचन रिझाता।
मुख लाली रख लो ऐ माई के लालो।
घर देखो भालो सँभलो और सँभालो।6।
अपने को न भूलें
लावनी
बन भोले क्यों भोले भाले कहलावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।
क्या अब न हमें है आन बान से नाता।
क्या कभी नहीं है चोट कलेजा खाता।
क्या लहू ऑंख में उतर नहीं है आता।
क्या खून हमारा खौल नहीं है पाता।
क्यों पिटें लुटें मर मिटें ठोकरें खावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।1।
पड़ गया हमारे लोहू पर क्यों पाला।
क्यों चला रसातल गया हौसला आला।
है पड़ा हमें क्यों सूर बीर का ठाला।
क्यों गया सूरमापन का निकल दिवाला।
सोचें समझें सँभलें उमंग में आवें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।2।
छिन गये अछूतों के क्यों दिन दिन छीजें।
क्यों बेवों से बेहाथ हुए कर मीजें।
क्यों पास पास वालों का कर न पसीजें।
क्यों गाल ऑंसुओं से अपनों के भीजें।
उठ पड़ें अड़ें अकड़ें बच मान बचावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।3।
क्यों तरह दिये हम जायँ बेतरह लूटे।
हीरा हो कर बन जायँ कनी क्यों फूटे।
कोई पत्थर क्यों काँच की तरह टूटे।
क्यों हम न कूट दें उसे हमें जो कूटे।
आपे में रह अपनापन को न गँवावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।4।
सैकड़ों जातियों को हमने अपनाया।
लाखों लोगों को करके मेल मिलाया।
कितने रंगों पर अपना रंग चढ़ाया।
कितने संगों को मोम बना पिघलाया।
निज न्यारे गुण को गिनें गुनें अपनावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।5।
सारे मत के रगड़ों झगड़ों को छोड़ें।
नाता अपना सब मतवालों से जोड़ें।
काहिली कलह कोलाहल से मुँह मोड़ें।
मिल जुल मिलाप-तरु के न्यारे फल तोड़ें।
जग जायँ सजग हो जीवन ज्योति जगावें।
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।6।
पूर्वगौरव
लावनी
बल में विभूति में हमें कौन था पाता।
था कभी हमारा यश वसुधाातल गाता।
फरहरा हमारा था नभ में फहराया।
सिर पर सुर पुर ने था प्रसून बरसाया।
था रत्न हमें देता समुद्र लहराया।
था भूतल से कमनीय फूल फल पाया।
हम सा त्रिालोक में सुखित कौन दिखलाता।
था कभी हमारा यश वसुधाातल गाता।1।
था एक एक पत्ता पूरा हितकारी।
रजकण से हम को मिली सफलता न्यारी।
कंटक मय महि हो गयी कुसुम की क्यारी।
बन गयी हमारे लिए सुखनि खनि सारी।
था भाग्य हमारा विधिा सा भाग्य विधााता।
था कभी हमारा यश वसुधाा तल गाता।2।
छूते ही मिट्टी थी सोना बन जाती।
कर परस रसायन रही धाूलि कर पाती।
पाहन में पारस की सी कला दिखाती।
तिनके बनते नाना निधिायों की थाती।
गुण गौरव था गौरव मय महि का पाता।
था कभी हमारा यश वसुधाा तल गाता।3।
मरुधारा मधय थे मन्दाकिनी बहाते।
थे दग्धा बनों के बर बारिद बन जाते।
रसहीन थलों में थे रस-सोत लसाते।
ऊसर समूह में थे रसाल उपजाते।
हम सा कमाल का पुतला कौन कहाता।
था सुयश हमारा सब वसुधाातल गाता।4।
हम थे अप्रीति के काल प्रीति के प्याले।
हम थे अनीति-अरि नीति-लता के थाले।
हम थे सुरीति के मेरु भीति उर भाले।
हम थे प्रतीति-प्रिय प्रेम-गीति मतवाले।
था सदा हमारा मानस मधाु बरसाता।
था सुयश हमारा सब वसुधाा तल गाता।5।
हम धाीर बीर गंभीर बताये जाते।
अभिमत फल हम से सब फल कामुक पाते।
सुख शान्ति सुधाा धारा थे हमीं बहाते।
जगती में थे नवजीवन ज्योति जगाते।
नित रहा हमारा मानवता से नाता।
था सुयश हमारा सब वसुधाातल गाता।6।
दमदार दावे
लावनी
जो ऑंख हमारी ठीक ठीक खुल जावे।
तो किसे ताब है ऑंख हमें दिखलावे।
है पास हमारे उन फूलों का दोना।
है महँक रहा जिनसे जग का हर कोना।
है करतब लोहे का लोहापन खोना।
हम हैं पारस हो जिसे परसते सोना।
जो जोत हमारी अपनी जोत जगावे।
तो किसे ताब है ऑंख हमें दिखलावे।1।
हम उस महान जन की संतति हैं न्यारी।
है बार बार जिस ने बहु जाति उबारी।
है लहू रगों में उन मुनिजन का जारी।
जिनकी पग रज है राज से अधिाक प्यारी।
जो तेज हमारा अपना तेज बढ़ावे।
तो किसे ताब है ऑंख हमें दिखलावे।2।
था हमें एक मुख पर दस-मुख को मारा।
था सहस-बाहु दो बाँहों के बल हारा।
था सहस-नयन दबता दो नयनों द्वारा।
अकले रवि सम दानव समूह संहारा।
यह जान मन उमग जो उमंग में आवे।
तो किसे ताब है हमें ऑंख दिखलावे।3।
हम हैं सुधोनु लौं धारा दूहनेवाले।
हम ने समुद्र मथ चौदह रत्न निकाले।
हम ने दृग-तारों से तारे परताले।
हम हैं कमाल वालों के लाले पाले।
जो दुचित हो न चित उचित पंथ को पावे।
तो किसे ताब है ऑंख हमें दिखलावे।4।
तो रोम रोम में राम न रहा समाया।
जो रहे हमें छलती अछूत की छाया।
कैसे गंगा-जल जग-पावन कहलाया।
जो परस पान कर पतित पतित रह पाया।
ऑंखों पर का परदा जो प्यार हटावे।
तो किसे ताब है ऑंख हमें दिखलावे।5।
तप के बल से हम नभ में रहे बिचरते।
थे तेज पुंज बन अंधाकार हम हरते।
ठोकरें मार कर चूर मेरु को करते।
हुन वहाँ बरसता जहाँ पाँव हम धारते।
जो समझे हैं दमदार हमारे दावे।
तो किसे ताब है ऑंख हमें दिखलावे।6।
क्या से क्या
लावनी
क्यों ऑंख खोल हम लोग नहीं पाते हैं।
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।
थे हमीं उँजाला जग में करने वाले।
थे हमीं रगों में बिजली भरने वाले।
थे बड़े बीर के कान कतरने वाले।
थे हमीं आन पर अपनी मरने वाले।
हम बात बात में अब मुँह की खाते हैं।
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।1।
था मन उमंग से भरा, दबंग निराला।
था मेल जोल का रंग बहुत ही आला।
था भरा लबा-लब जाति-प्यार का प्याला।
देशानुराग का जन जन था मतवाला।
ये ढंग अब हमें याद भी न आते हैं।
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।2।
थे धाीर बीर साहसी सूरमा पूरे।
थे लाभ किये हमने हीरों के कूरे।
थे सुधाा भरे फल देते हमें धातूरे।
छू हम को पूरे बने अनेक अधाूरे।
अब अपने घर में आग हम लगाते हैं।
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।3।
थी विजय-पताका देश देश लहराती।
धाौंसा धाुकार थी घहर घहर घहराती।
हुंकार हमारी दसों दिशा में छाती।
धारती-तल में थी धााक बँधाी दिखलाती।
अब तो कपूत कायर हम कहलाते हैं।
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।4।
स्वर्गीय दमक से रहा दमकता चेहरा।
दिल रहा हमारा देव-भाव का देहरा।
था फबता गौरव-हार गले में तेहरा।
था बँधाा सुयश का शिर पर सुन्दर सेहरा।
अब बना बना बातें जी बहलाते हैं।
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।5।
सुख-सोत हमारे आस पास बहते थे।
वांछित फल हम से सकल लोक लहते थे।
सब हमें जगत का जीवन धान कहते थे।
देवते हमारा मुँह तकते रहते थे।
अब पाँव दूसरों का हम सहलाते हैं।
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं।6।
लानतान
द्विपद
गयीं चोटें लगाई क्या कलेजा चोट खाता है।
कलेजा कढ़ रहा है क्या कलेजा मुँह को आता है।1।
हुए अंधोर कितने आज भी अंधोर हैं होते।
ऍंधोरा ऑंख पर छाया है अंधाापन न जाता है।2।
रहा कुछ भी न परदा बेतरह हैं खुल रहे परदे।
हमारी ऑंख का परदा उठाये उठ न पाता है।3।
हुए बदरंग, सारी रंगते हैं धाूल में मिलतीं।
मगर अब भी हमारा रंग-बिगड़ा रंग में लाता है।4।
खुलीं ऑंखें न खोले पुतलियाँ हैं ऑंख की कढ़ती।
मगर लोहू हमारी ऑंख से अब भी न आता है।5।
न ऑंखें देखने पाईं न ऑंखों में लहू उतरा।
वही है लुट रहा जो ऑंख का तारा कहाता है।6।
पुँछे ऑंसू न बेवों के न हैं वे बेबहा मोती।
बहे ऑंसू न वह सब जाति ही को जो बहाता है।7।
घटे ही जा रहे हैं हम घटी पर है घटी होती।
लहू का घूँट पीना बेतरह हम को घटाता है।8।
समय की ऑंख देखें ऑंख पहचानें समय की हम।
गिरे वे ऑंख से जिन को समय ऑंखें दिखाता है।9।
सदा बेजान मरते हैं जियेंगे जान वाले ही।
गया वह, जान रहते जान अपनी जो गँवाता है।10।
प्रेम
छपदे
उमंगों भरा दिल किसी का न टूटे।
पलट जायँ पासे मगर जुग न फूटे।
कभी संग निज संगियों का न छूटे।
हमारा चलन घर हमारा न लूटे।
सगों से सगे कर न लेवें किनारा।
फटे दिल मगर घर न फूटे हमारा।1।
कभी प्रेम के रंग में हम रँगे थे।
उसी के अछूते रसों में पगे थे।
उसी के लगाये हितों में लगे थे।
सभी के हितू थे सभी के सगे थे।
रहे प्यार वाले उसी के सहारे।
बसा प्रेम ही ऑंख में था हमारे।2।
रहे उन दिनों फूल जैसा खिले हम।
रहे सब तरह के सुखों से हिले हम।
मिलाये, रहे दूधा जल सा मिले हम।
बनाते न थे हित हवाई किले हम।
लबालब भरा रंगतों में निराला।
छलकता हुआ प्रेम का था पियाला।3।
रहे बादलों सा बरस रंग लाते।
रहे चाँद जैसी छटाएँ दिखाते।
छिड़क चाँदनी हम रहे चैन पाते।
सदा ही रहे सोत रस का बहाते।
कलाएँ दिखा कर कसाले किये कम।
उँजाला ऍंधोरे घरों के रहे हम।4।
रहे प्यार का रंग ऐसा चढ़ाते।
न थे जानवर जानवरपन दिखाते।
लहू-प्यास-वाले, लहू पी न पाते।
बड़े तेजश्-पंजे न पंजे चलाते।
न था बाघपन बाघ को याद होता।
पड़े सामने साँपपन साँप खोता।5।
कसर रख न जीकी कसर थी निकलती।
बला डाल कर के बला थी न टलती।
मसल दिल किसी का, न थी, दाल गलती।
बुरे फल न थी चाह की बेलि फलता।
न थे जाल हम तोड़ते जाल फैला।
धाुले मैल फिर दिल न होता था मैला।6।
मगर अब पलट है गया रंग सारा।
बहुत बैर ने पाँव अब है पसारा।
हमें फूट का रह गया है सहारा।
बजा है रहे अनबनों का नगारा।
भँवर में पड़ी, है बहुत डगमगाती।
चलाये मगर नाव है चल न पाती।7।
हमें जाति के प्रेम से है न नाता।
कहाँ वह नहीं ठोकरें आज खाता।
कहीं नीचपन है उसे नोच पाता।
कहीं ढोंग है नाच उसको नचाता।
कभी पालिसी बेतरह है सताती।
कभी छेदती है बुरी छूत छाती।8।
बहुत जातियों की बहुत सी सभाएँ।
बनीं हिन्दुओं के लिए हैं बलाएँ।
विपत, सैकड़ों पंथ मत क्यों न ढाएँ।
अगर एकता रंग में रँग न पाएँ।
कटे चाँद अपनी कला क्यों न खोता।
गये फूट हीरा कनी क्यों न होता।9।
बनाई गयी चार ही जातियाँ हैं।
भलाई भरी वे भली थातियाँ हैं।
किसी एक दल की गिनी पाँतियाँ हैं।
भरी एकता से कई छातियाँ हैं।
मगर बँट गये तंग बन तन गयी हैं।
किसी कोढ़ की खाज वे बन गयी हैं।10।
अगर लोग निज जाति को जाति जानें।
बने अंग के अंग, तन को न मानें।
लड़ी के लिए लड़ पड़ें भौंह तानें।
न माला न मोती न लें चीन्ह खानें।
भला तो सदा मुँह पिटेंगे न कैसे।
कलेजे में काँटे छिटेंगे न कैसे।11।
सभी जाति है राग अपना सुनाती।
उमंगों भरे है बहुत गीत गाती।
बता भेद, है गत अनूठे बजाती।
मगर धाुन किसी की नहीं मेल खाती।
सभी की अलग ही सुनाती हैं तानें।
लयें बन रही हैं कुटिलता की कानें।12।
बड़े काम की बन बहुत काम आती।
सभा जो सभी जातियों को मिलाती।
मगर आग है वह घरों में लगाती।
वही एकता का गला है दबाती।
उसी ने बचे प्रेम को पीस डाला।
उसी ने हितों का दिवाला निकाला।13।
बरहमन बड़े घाघ, छत्राी छुरे हैं।
कुटिल वैस हैं, शूद्र सब से बुरे हैं।,
यही गा रहे आज बन बेसुरे हैं।
गये प्रेम के टूट सारे धाुरे हैं।
किसी से किसी का नहीं दिल मिला है।
जहाँ देखिए एक नया गुल खिला है।14।
कहीं रंग में मतलबों के रँगा है।
कहीं लाभ की चाशनी में पगा है।
कहीं छल कपट औ कहीं पर दगा है।
कहीं लाग के लाग से वह लगा है।
कहीं प्रेम सच्चा नहीं है दिखाता।
समय नित उसे धाूल में है मिलाता।15।
बही प्रेम धारा पटी जा रही है।
पली बेलि हित की कटी जा रही है।
बँधाी धााक सारी घटी जा रही है।
बँची एकता नित लटी जा रही है।
गयी बे तरह मूँद कर ऑंख लूटी।
बला हाथ से जाति अब भी न छूटी।16।
करोड़ों मुसलमान बन छोड़ बैठे।
कई लाख, नाता बहँक तोड़ बैठे।
अहिन्दू कहा, मुँह बहुत मोड़ बैठे।
कई आज भी हैं किये होड़ बैठे।
उबर कर उबरते नहीं हैं उबारे।
नहीं कान पर रेंगती जूँ हमारे।17।
अगर नाम हिन्दू हमें है न प्यारा।
गरम रह गया जो न लोहू हमारा।
अगर ऑंख का है चमकता न तारा।
अगर बन्द है हो गयी प्रेम-धारा।
बहुत ही दले जायँगे तो न कैसे।
रसातल चले जायँगे तो न कैसे।18।
मगर ऑंख कोई नहीं खोल पाता।
कलेजा किसी का नहीं चोट खाता।
किसी का नहीं जी तड़पता दिखाता।
लहू ऑंख से है किसी के न आता।
चमक खो, बिखर है रहा हित-सितारा।
उजड़ है रहा प्रेम-मन्दिर हमारा।19।
बहुत कह गये अब अधिाक है न कहना।
बढ़ाएँगे अब हम न अपना उलहना।
भला है नहीं बन्द कर ऑंख रहना।
उसे क्यों सहें चाहिए जो न सहना।
मिलें खोल कर दिल दिलों को मिलाएँ।
जगें और जग हिन्दुओं को जगाएँ।20।
विविधा विषय
मांगलिक पद्य
दोहे
सारी बाधााएँ हरें राधाा नयानानंद।
वृन्दारक बन्दित चरण श्री बृन्दावन चंद।1।
चाव भरे चितवत खरे किये सरस दृग-कोर।
जय दुलहिन श्री राधिाका दूलह नन्द-किशोर।2।
विवुधा वृन्द आराधिाता वुधा सेविता त्रिाकाल।
जय वीणा पुस्तकवती हंस बिलसती बाल।3।
सकल मंजु मंगल सदन कदन अमंगल मूल।
एक रदन करिवर बदन सदा रहें अनुकूल।4।
मंगलमय होता रहे यह मंगलमय काल।
करे अमंगल दूर सब मंगलायतन लाल।5।
कु शकुन दुरें उलूक सम तज मंगलमय देश।
सकल अमंगल तम दलें द्विज-कुल-कमल-दिनेश।6।
बाधिात वसुधाा को करे हर बाधाा को अंश।
विवुधा वृन्द सेवित चरण बंदनीय द्विज बंश।7।
करें गौरवित जाति को कर गौरव पर गौर।
रखें लाज सिरमौर की विप्र वंश सिरमौर।8।
शुचि विचार वरविधिा बलित बने यह रुचिर ब्याह।
कुलाचार में भी सरुचि होवे सुरुचि निबाह।9।
रख अविचल दृग सामने द्विजकुल बिरद महान।
चिरजीवी हों बर वधाू प्रेमसुधाा कर पान।10।
पुरजन परिजन सुखित हों लहें समागत मोद।
पा अवनी कमनीयता उलहे बेलि-बिनोद।11।
बसे अविकसित चित्ता में अमित उमंग उछाह।
बहे अपावन हृदय में पावन प्रेम-प्रवाह।12।
विघ्न रहित बसुधाा बने घर घर बढ़े उछाह।
रहें बहु सुखित बर वधाू हो विनोद मय ब्याह।13।
आराधान करते करें बाधााएँ सब दूर।
दया-सिंधाु सिंधाुर-बदन आरंजित, सिन्दूर।14।
सुमुख सुमुखता-वायु से टले अमोद-पयोद।
विलसित-भाल मयंक से विकसे कुमुद-विनोद।15।
उमग उमग घर घर बहे परम प्रमोद प्रवाह।
मोदक-प्रिय होकर मुदित मुद मय करें विवाह।16।
विमुख विविधा बाधाा करें करिवर-मुख दिनरात।
दिन दिन बनती ही रहे बना बनी की बात।17।
कुशल मयी हो मेदिनी हो मंगलमय राह।
करें वरद वर वर-वधाू का विनोद मय ब्याह।18।
बांछा
दोहा
बरस बरस कर रुचिर रस हरे सरसता प्यास।
असरस चित को अति सरस करे सरस पद-न्यास।1।
भावुक जन के भाल पर हो भावुकता खौर।
अरसिक पाकर रसिकता बने रसिक सिरमौर।2।
मिले मधाुर स्वर्गीय स्वर हों स्वर सकल रसाल।
व्यंजन में वर व्यंजना हो व्यंजित सब काल।3।
उक्ति अलौकिकता लहे मिले अलौकिक ओक।
करे समालोकित उसे अलंकार आलोक।4।
कलित भाव से बलित हो पा रुचि ललित नितान्त।
कान्त करे कवितावली कविता-कामिनि-कान्त।5।
जीवन
पयार
विकच कमल कमनीय कलाधार।
मंद मंद आन्दोलित मलय पवन।
तरल तरंग माला संकुल जलधिा।
परम आनन्दमय नन्दन कानन।1।
विपुल कुसुम कुल लसित बसंत।
विविधा तारक चय खचित गगन।
कलित ललित किसलय कान्त तरु।
श्यामल जलद जाल नयन रंजन।2।
कोमल आलोकमय प्रभात समय।
रवि-कर विलसित सलिल विलास।
प्रभापुंज प्रभासित कांचन, कलस।
सुमन समूह अति सरस विकास।3।
मरीचिका मय मरु विदग्धा विपिन।
प्रखर तपन ताप उत्ताप्त दिवस।
भयंकर तम तोम आवरित निशि।
सलिल रहित सर महि असरस।4।
राहु कवलित कलंकित कलानिधिा।
मदन दहन रत मदन-दहन।
नभ तल निपतित वारक निचय।
जीवन विहीन घन है जन जीवन।5।
कविकीर्ति
दोहा
रचती है कविता-सुधाा सुधाासिक्त अवलेह।
लहता है रससिध्द कवि अजर अमर यश-देह।1।
चीरजीवी हैं सुकवि जन सब रस-सिध्द समान।
उक्ति सजीवन जड़ी को कर सजीवता दान।2।
अमल धावल आनन्द मय सुधाा सिता सुमिलाप।
है कमनीय मयंक सम कविकुल कीर्ति कलाप।3।
गौरव-केतन से लसित अनुपम-रत्न उपेत।
अमर-निकेतन तुल्य हैं कविकुल कीर्ति-निकेत।4।
मानस-अभिनन्दन, अमर, नन्दन बन वर कुंज।
है पावन प्रतिपत्तिा मय कवि पुंगव यश पुंज।5।
कवित्ता
पारस समान लौह अललित मानस को
परस परस कर कंचन बनाते हैं।
नव नव रस से रसायन विविधा कर।
असरस उर में सरसता लसाते हैं।
हरिऔधा सुधामयी कविता कलित कर
कविकुल वसुधा में सुधासी बहाते हैं।
गाकर अमरता अमर वृन्द वंदित की
लोक परलोक में अमर पद पाते हैं।
निराला रंग
छप्पै
बनें बनायें किन्तु बिगड़ती बात बनावें।
हँसें हँसावें किन्तु हँसी अपनी न करावें।
बहक बहँकते रहें पर न रुचि को बहँकावें।
खुल खेलें, पर खेल खोल ऑंखों को पावें।
भर जायँ उमंगों में मगर बेढंगी न उमंग हो।
रँगतें रहें सब रंग की मगर निराला रंग हो।1।
चतुर नेता
छप्पै
बातें रख रख बात बात में बात बनावें।
रंग बदल कर नये नये बहुरंग दिखावें।
कर चतुराई परम-चतुर नेता कहलावें।
मीठे मीठे वचन बोल बहुधाा बहलावें।
जो करें जाति हित नाम को बहु भूखे हों नाम के।
वे बड़े काम के क्यों न हों हैं न देश के काम के।2।
माधारी
द्रुतविलम्बित
अति-पुनीत-अलौकिकता भरी।
विबुधा-वृन्द अतीव-विनोदिनी।
मधाुरिमा गरिमा महिमा मयी।
कथित है महिमामय-माधाुरी।1।
नयन है किस का न बिमोहती।
गगन के तल की नव-नीलिमा।
विमलता मय तारक-मालिका।
जग-विमुग्धा करी विधाु-माधाुरी।2।
सरसता मय है सरसा-सुधाा।
मलय-मारुत कोकिल-काकली।
मुकुलिता-लतिका रजनी सिता।
कल-निनाद कलाकर-माधाुरी।3।
स-रव है रव से पिक-पुंज के।
स-छबि है छबि पा तरु-तोम की।
सरस है सरसीरुह-वृन्द से।
समधाु है मधाु-माधाव-माधाुरी।4।
विदित है तप की तपमानता।
सरस-पावस की उपकारिता।
शरद-निर्मलता हिम-शीतता।
शिशिर-मंजुलता मधाु-माधाुरी।5।
बहु-प्रफुल्ल किसे करती नहीं।
नवल – कोमल – कान्त – तृणावली।
ककुभ में लसिता कल-कौमुदी।
बिलसिता वसुधाा-तल-माधाुरी।6।
कलित-कल्पलता कमनीय है।
ललित है कर लाभ ललामता।
सकल केलि कला कुल कान्त है।
बदन-मण्डल मंजुल-माधाुरी।7।
बिकच-पंकज मंजुल-मालती।
कुसुम – भार – नता – नवला – लता।
उदित-मंजु-मयंक समान है।
मुदित-मानव मानस-माधाुरी।8।
कलित है विधाु-कोमल-कान्तिसी।
मृदुल-बेलि समान मनोरमा।
मधार है मधापावलि-गान से।
मधाुमयी – कविता – गत – माधाुरी।9।
मधाुमती बनती वसुधाा रहे।
मधाु-निकेतन मानव-चित्ता हो।
मधारता-मय-मानस के मिले।
मधारिमा-मय हो यह माधाुरी।10।
बनलता
द्रुतविलम्बित
कुसुम वे उस में बिकसे रहें।
बिकसिता जिस से सु बिभूति हो।
बस सदा जिन के बर-बास से।
बन सके अनुभूति सुबासिता।1।
बहु-विमोहक हो छबि-माधाुरी।
मिल गये अनुकूल-ललामता।
सरसता उस की करती रहे।
सरस मानस को अभिनन्दिता।2।
सब दिनों अनुराग-समीर के।
सुपलने पर हो प्रतिपालिता।
बहु-समादर के कर-कंज से।
वह रहे सब काल समादृता।3।
उस मनोरम-पादप-अंक में।
वह रहे लसती चित-मोहती।
विदित है जिस की सहकारिता।
बिकचता मृदुता हितकारिता।4।
नवलता भुवि हो बर-भाव की।
मृदुलता उस की मधाुसिक्त हो।
सफलता बसुधा-तल में लहे।
वनलता बन मंजुलता-मयी।5।
l
रस मिले, सरसा बन सौगुनी।
बिलस मंजु-बिलासवती बने।
कर विमुग्धा सकी किस को नहीं।
कुसुमिता – नमिता – बनिता – लता।1।
यदि नहीं पग बन्दित पूज के।
अवनि में अभिनन्दित हो सकी।
विफलिता तब क्यों बनती नहीं।
बनलता – कलिता – कुसुमावली।2।
सरसता उस में वह है कहाँ।
वह मनोहरता न उसे मिली।
बन सकी मुदिता बनिता नहीं।
बिकसिता लसिता बन की लता।3।
विकच देख उसे बिकसी रही।
सह सकी हिम आतप साथ ही।
पति-परायणता-व्रत में रता।
बनलता – तरु – अंक – विलम्बिता।4।
वह सदा परहस्त-गता रही।
यह रही निजता अवलम्बिनी।
उपबनोपगता बनती नहीं।
बनलता बन-भू प्रतिपालिता।5।
झड़ पड़ी, न रुची हित-कारिता।
यजन में न लगी यजनीय के।
सुमनता उसमें यदि है न तो।
बनलता-सुमनावलि है वृथा।6।
कब नहीं भरता वह भाँवरें।
चित चुरा न सकी कब चारुता।
कब बसी अलि लोचन में न थी।
बनलता कुसुमावलि से लसी।7।
विलसती वह है बस अंक में।
बिकच है बनती बन संगिनी।
सफलता अवलम्बन से मिली।
बनलता तरु है तब लालिता।8।
उपल कोमलता प्रतिकूल है।
अशनिपात निपातन तुल्य है।
बरस जीवन जीवन दे उसे।
बनलता घन है तन पालिता।9।
बनलता यदि है तरु-बन्दिनी।
लसित क्या दल-कोमल से हुई।
किसलिए वर-बास-सुबासिता।
कुसुमिता फलिढा कलिता रही।10।
ललितललाम
वीर
सरस भाव मन्दार सुमन से
समधिाक हो हो सौरभ धााम।
नन्दन बन अभिराम लोक
अभिनन्दन रच मानस आराम।
लगा लगा कर हृत्तांत्राी में
मानवता के मंजुल तार।
सुनासुना कर वसुधाा-तल को
सुधाा भरा उसकी झनकार।1।
गा गा कर अनुराग राग से
रंजित-अनुरागी जन राग।
धान को लय को स्वर समूह को
सब स्वर्गीय रसों में पाग।
चारु चार नयनों को दिखला
जग आलोकित कर आलोक।
कला निराली कली कली में
कला कलानिधिा में अवलोक।2।
बढ़ा चौगुनी चतुरानन से
चींटी तक सेवा की चाह।
बहु विमुग्धा हो बहे हृदय में
आपामर का प्रेम-प्रवाह।
कलित से कलित कामधोनुसम
कामद कर कमनीय कलाम।
ललित से ललित बनबन देखा
अललित चित में ललितललाम।3।
मयंक
प्रकृति देवि कल मुक्तमाल मणि
गगनांगण का रत्न प्रदीप।
भव्य बिन्दु दिग्वधाूभाल का
मंजुलता अवनी अवनीप।
रजनि, सुन्दरी रंजितकारी
कलित कौमुदी का आधाार।
बिपुल लोक लोचन पुलकित कर
कुमुदिनि-वल्लभ शोभा सार।1।
रसिक चकोर चारु अवलम्बन
सुन्दरता का चरम प्रभाव।
महिला मुख-मंडल का मंडन
भावुक-मानस का अनुभाव।
रुला रुला कर अवनी-तल को
कर सूना राका का अंक।
काल-जलधिा में डूब रहा है
कलाहीन हो कलित मयंक।2।
खद्योत
प्रकृति-चित्रा-पट असित-भूत था
छिति पर छाया था तमतोम।
भाद्र-मास की अमा-निशा थी
जलदजाल पूरित था व्योम।
काल-कालिमा-कवलित रवि था
कलाहीन था कलित मयंक।
परम तिरोहित तारक-चय था,
था कज्जलित ककुभ का अंक।1।
दामिनि छिपी निविड़ घन में थी
अटल राज्य तम का अवलोक।
था निशीथ का समय, अवनितल
का निर्वापित था आलोक।
ऐसे कुसमय में तम-वारिधिा
मज्जित भूत निचय का पोत।
होता कौन न होता जग में
यदि यह तुच्छ कीट खद्योत।3।
ललना-लाभ
खुला था प्रकृति-सृजन का द्वार।
हो रही थी रचना रमणीय।
बिरचती थी अति रुचिकर चित्रा।
तूलिका बिधिा की बहु कमनीय।1।
रंग लाती थी हृदय-तरंग।
बह रहा था चिन्ता का òोत।
मंद गति से अवगति-निधिा मधय।
चल रहा था जग-रंजन पोत।2।
चित्रा-पट पर भव के उस काल।
खिंच गयी एक मूर्ति अभिराम।
सरलता कोमलता अवलम्ब।
सरसता मय मोहक रति काम।3।
उमा सी महिमा मयी महान।
रमा सी रमणीयता निकेत।
गिरासी गौरव गरिमावान।
मानवी जीवन-ज्योति उपेत।4।
अलौकिक केलि-कला-कुल कान्त।
हृदय-तल सुललित लीलाधााम।
मधार माता-मानस-सर्वस्व।
नाम था ललना लोक-ललाम।5।
जुगनू
चौपदे
पेड़ पर रात की ऍंधोरी में।
जुगनुओं में पड़ाव हैं डाले।
या दिवाली मना चुड़ैलों ने।
आज हैं सैकड़ों दिये बाले।1।
तो उँजाला न रात में होता।
बादलों से भरे ऍंधोरे में।
जो न होती जमात जुगनू की।
तो न बलते दिये बसेरे में।2।
रात बरसात की ऍंधोरे में।
तो न फिरती बखेरते मोती।
चाँदतारा पहन नहीं पाती।
जुगनुओं में न जोत जो होती।3।
जगमगाएँ न किस तरह जुगनू।
वे गये प्यार साथ पाले हैं।
क्यों चमकते नहीं ऍंधोरे में।
रात की ऑंख के उँजाले हैं।4।
हैं कभी छिपते चमकते हैं कभी।
झोंकते किस ऑंख में ए धाूल हैं।
रात में जुगनू रहे हैं जगमगा।
या निराली बेलियों के फूल हैं।5।
स्याह चादर पर ऍंधोरी रात की।
यह सुनहला काम किसने है किया।
जगमगाते जुगनुओं की जोत है।
या जिनों का जुगजुगाता है दिया।6।
हम चमकते जुगनुओं को क्या कहें।
डालियों के एक फबीले माल हैं।
हैं ऍंधोरे के लिए हीरे बड़े।
रात के गोदी भरे ये लाल हैं।7।
मोल होते भी बड़े अनमोल हैं।
जगमगाते रात में दोनों रहें।
लाल दमड़ी का दिया है, क्यों न तो।
जुगनुओं को लाल गुदड़ी का कहें।8।
क्यों न जुगनू की जमातों को कहें।
जोत जीती जागती न्यारी कलें।
ऑंधिायाँ इनको बुझा पाती नहीं।
ये दिये वे हैं कि पानी में बलें।9।
जब कि पीछे पड़ा उँजाला है।
तब चमक क्यों सकें उँजेरे में।
हैं किसी काम के नहीं जुगनू।
जब चमकते मिले ऍंधोरे में।10।
रात बीते निकल पड़े सूरज।
रह सकेगी न बात जुगनू की।
सामने एक जोत वाले के।
क्या करेगी जमात जुगनू की।11।
जी जले और जुगनू
जगमगाते रतन जड़े जुगनू।
कलमुँही रात के गले के हैं।
जुगनुओं की जमात है फैली।
या ऍंगारे जिगर जले के हैं।12।
जो चमक कर सदा छिपा, उसकी।
वह हमें याद क्यों दिलाता है।
तब जले-तब न क्यों कहें उसको।
जब कि जुगनू हमें जलाता है।13।
जगमगाते ही हमें जुगनू मिले।
झड़ लगी, ओले गिरे, ऑंधाी बही।
आप जल कर हैं जलाते और को।
आग पानी में लगाते हैें यही।14।
हैं बने बेचैन जुगनू घूमते।
कौन से दुख बे तरह हैं खल रहे।
है बुझा पाता न उसको मेंह-जल।
हैं न जाने किस जलन से जल रहे।15।
बे तरह वह क्यों जलाता है हमें।
है सितम उसका नहीं जाता सहा।
क्या रहा करता उँजाला और को।
आप जुगनू जब ऍंधोरे में रहा।16।
कौन जलते को जलाता है नहीं।
तर बनीं बरसात रातें-देख लीं।
जल बरसना देख मेघों का लिया।
थाम दिल जुगनू-जमातें देख लीं।17।
मेघ काले, काल क्यों हैं हो रहे।
किसलिए कल, कलमुही रातें हरें।
बेकलों को बेतरह बेकल बना।
कल-मुँहे जुगनू न मुँह काला करें।18।
विषमता
मंगल मय है कौन किसे कहते हैं मंगल।
फलदायक है कौन सफलता है किस का फल।
मंगल कितने लोग अमंगल में हैं पाते।
विविधा विफलता सहित सफलता के हैं नाते।
पादप सब पत्रा विहीन हो पा जाते हैं नवल दल।
विकसित कुसुमावलि लोप हो लहती है कमनीय फल।1।
दीपक जल आलोक अति अलौकिक हैं पाते।
मिले धाूल में बीज पल्लवित हैं हो जाते।
तपने पर है अधिाक कान्ति कंचन को मिलती।
सदा चाँदनी तिमिरमयी निशि में है खिलती।
सरपत जल कर हैं पनपते फलते हैं केले कटे।
तारे उगते हैं अस्त हो बढ़ता है हिमकर घटे।2।
नीचा देखे सदा सलिल है ऊँचा होता।
बह करके ही बिपुल बिमल बनता है सोता।
बार बार पिस गये रंग मेहँदी है लाती।
कटे छँटे पर बेलि उलहती ही है आती।
हैं द्रवित बनाती और को ऑंखें ऑंसू से भरी।
पतितों को पावन कर हुई पतित-पावनी सुरसरी।3।
भूतल से हो अलग हुआ मंगल का मंगल।
पद-प्रहार से मिला विभीषण को प्रभुता बल।
बना बिमाता अहित वचन धा्रुव का हितकारक।
हुआ मोह, मुनि-पुंगव नारद का उपकारक।
दुख-समूह रघुनाथ का वसुधाा-सुख-साधाक हुआ।
भगवती जानकी का हरण भव-बाधाा-बाधाक हुआ।4।
मरे जाति के लिए अमरता हैं जन पाते।
पर के हित तन तजे लोग हैं सुरपुर जाते।
विफल हुए साहसी शक्ति है शक्ति दिखाती।
असफलता है उसे सफलता सूत्रा बताती।
यदि स्वाधाीनता प्रदानकर करे जाति को वह जयी।
तो विपुल वाहिनी वधा हुई बनती है मंगलमयी।5।
घनश्याम
वीरछंद
1
श्याम रंग में तो न रँगे हो जो अन्तर रखते हो श्याम।
तो जलधार हो नहीं विरह-दव में जो जल जल जीवें बाम।
जीवनप्रद हो तभी करो जो तुम चातक को जीवन दान।
कैसे सरस कहें हम तुमको ऊसर हुआ न जो रसवान।
2
कैसे हो परजन्य, वियोगी जन को जो हो दुखद वियोग।
पयद न हो जो दल जवास का पला न कर उसका उपयोग।
बने पयोधार पर न सके कर पय प्रेमिक-मराल प्रतिपाल।
बिलसित रहे बहन कर उर पर आप बलाका मंजुल माल।
3
बहुधा करते हो बसुधा का बिपुल उपल द्वारा अपकार।
इसीलिए कर घोर नाद हो सहते दामिनि-कशा-प्रहार।
उमड़ उमड़ बर बारिबाह बन हो भर देते सरि सर ताल।
रहता है प्यासे पपीहरा को कतिपय बूँदों का काल।
4
अशनि-पात-प्रिय, अधार-विलंबी, करक-निकेतन, दानव-देह।
हो तुम मशक-दंश-अवलम्बन तुम्हें कुटिल अहिका है नेह।
रहे भरे ही को जो भरते बरस बारि-निधि में बसु याम।
तो नभतल में घरी घरी घिर रहे घूमते क्या घनश्याम।
विकच वदन
ताटंक
1
जो न परम कोमलता उसकी रही विमलता में ढाली।
जो माई के लाल कहाने की न लसी उस पर लाली।
कातर जन की कातरता हर होती है जो शान्ति महा।
उसकी मंजु व्यंजना द्वारा जो वह व्यंजित नहीं रहा।
2
लोकप्यार-आलोकों से जो आलोकित वह हुआ नहीं।
पूत प्रीति पुलकित धाराएँ जो उस पर पलपल न बहीं।
देश-प्रेम की कलित कान्ति से कान्ति मान वह जो न मिला।
जाति-हितों के वर विकास से जो वह विकसित हो न खिला।
3
होकर सिक्त रुचिर रस से जो रसमयता उसकी न बढ़ी।
सुन्दरता में से जो उसकी सुरभि परम सुन्दर न कढ़ी।
जो वह भाव-भक्ति-आभा से बहु आभामय नहीं बना।
जो वह पातक-तिमिर-निवारक प्रभा-पुंज में नहीं सना।
4
जो उदारता दया दान की दमक न दे उसको दमका।
जो न जन्मभू-हित-चिन्ता की चाह चमक से वह चमका।
तो मानवता-रत मानव का बना सकेगा मुदित न मन।
विधाु सा विपुल विनोद-निकेतन बारिज जैसा विकच वदन।
मर्म्म-व्यथा
पद
कहाँ गया तू मेरा लाल।
आह! काढ़ ले गया कलेजा आकर के क्यों काल।
पुलकित उर में रहा बसेरा।
था ललकित लोचन में देरा।
खिले फूल सा मुखड़ा तेरा।
प्यारे था जीवन-धान मेरा।
रोम रोम में प्रेम प्रवाहित होता था सब काल।1।
तू था सब घर का उँजियाला।
मीठे बचन बोलने वाला।
हित-कुसुमित-तरु सुन्दर थाला।
भरा लबालब रस का प्याला।
अनुपम रूप देखकर तेरा होती विपुल निहाल।2।
अभी ऑंख तो तू था खोले।
बचन बड़े सुन्दर थे बोले।
तेरे भाव बड़े ही भोले।
गये मोतियों से थे तोले।
बतला दे तू हुआ काल कवलित कैसे तत्काल।3।
देखा दीपक को बुझ पाते।
कोमल किसलय को कुँभलाते।
मंजुल सुमनों को मुरझाते।
बुल्ले को बिलोप हो जाते।
किन्तु कहीं देखी न काल की गति इतनी बिकराल।4।
चपला चमक दमक सा चंचल।
तरल यथा सरसिज-दल गत जल।
बालू-रचित भीत सा असफल।
नश्वर घन-छाया सा प्रतिपल।
या इन से भी क्षणभंगुर है जन-जीवन का हाल।5।
आकुल देख रहा अकुलाता।
मुझ से रहा प्यार जतलाता।
देख बारि नयनों में आता।
तू था बहुत दुखी दिखलाता।
अब तो नहीं बोलता भी तू देख मुझे बेहाल।6।
तेरा मुख बिलोक कुँभलाया।
कब न कलेजा मुँह को आया।
देख मलिन कंचन सी काया।
विमल विधाु-वदन पर तम छाया।
कैसे निज अचेत होते चित को मैं सकूँ सँभाल।7।
ममता मयी बनी यदि माता।
क्यों है ममता-फल छिन जाता।
विधिा है उर किस लिए बनाता।
यदि वह यों है बिधा विधा पाता।
भरी कुटिलता से हूँ पाती परम कुटिल की चाल।8।
किस मरु-महि में जीवन-धारा।
किस नीरवता में रव प्यारा।
किस अभाव में स्वभाव सारा।
किस तम में आलोक हमारा।
लोप हो गया, मुझ दुखिया को दुख-जल-निधिा में डाल।9।
आज हुआ पवि-पात हृदय पर।
सूखा सकल सुखों का सरवर।
गिरा कल्प-पादप लोकोत्तार।
छिना रत्न-रमणीय मनोहर।
कौन लोक में गया हमारा लोक-अलौकिक बाल।10।
मनोव्यथा
पद
कुम्हला गया हमारा फूल।
अति सुन्दर युग नयन-बिमोहन जीवन सुख का मूल।
विकसित बदन परम कोमल तन रंजित चित अनुकूल।
अहह सका मन मधाुप न उसकी अति अनुपम छबि भूल।1।
बंद हुई ऑंखों को खोलो।
अभी बोलते थे तुम प्यारे बोलो बोलो कुछ तो बोलो।
देखो भाग न मेरा सोवे चाहे मीठी नींदों सो लो।
एक तुम्हीं हो जड़ी सजीवन हाथ न तुम जीवन से धाो लो।2।
खोजें तुम्हें कहाँ हम प्यारे।
ए मेरे जीवन-अवलम्बन ए मेरे नयनों के तारे।
नहीं देखते क्यों दुख मेरा मुझ दुखिया के एक सहारे।
ललक रहे हैं लोचन पल पल मुख दिखला जा लाल हमारे।3।
इतने बने लाल क्यों रूखे।
तुम सा रुचिर रत्न खो करके आज हुए हम खूखे।
कैसे बिकल बनें न बिलोचन छबि अवलोकन भूखे।
मृतक न क्यों मन-मीन बनेगा प्रेम-सरोवर सूखे।4।
प्यारे कैसे मुँह दिखलाएँ।
लेती रही बलैया सब दिन ले नहिं सकीं बलाएँ।
जिस पर भूली रही भूल है उसे भूल जो पाएँ।
धिक है जीवन धन बिन जग में जो जीवित रह जाए।5।
स्वागत
हरिगीतिका
क्यों आज सूरज की चमक यों है निराली हो रही।
क्यों आज दिन आनन्द की धारा धरातल में बही।
क्यों हैं चहक चिड़िया रहीं क्यों फूल हैं यों खिल रहे।
क्यों जी हरा कर पेड़ के पत्तो हरे हैं हिल रहे।1।
क्यों हैं दिशाएँ हँस रहीं क्यों है गगन रँग ला रहा।
वह डूब करके प्यार में क्या है हमें बतला रहा।
लेकर महँक महमह महँकती क्यों हवा है बह रही।
वह मंद मंद समीप आ क्या कान में है कह रही।2।
क्या हैं कृपा कर आ रहे मेहमान वे सबसे बड़े।
हैं बहु पलक के पाँवड़े जिसके लिए पथ में पड़े।
प्रभु आइए हम हैं समादर सहित स्वागत कर रहे।
मोती निछावर के लिए हैं युग नयन में भर रहे।3।
बहु विनय सी अनमोल मणि, बर बचन से हीरे बड़े।
उपहार देने के लिए हैं प्रेम-पारस ले खड़े।
है भक्ति की डाली हमारी भाव फूलों से भरी।
स्वीकार इसको कीजिए है चाव करतल पर धारी।4।
प्रभु पग कमल को छू यहाँ की भूमि भाग्यवती बनी।
हम परस सम्मानित हुए हो विपुल गौरव-धान धानी।
प्यारे प्रजा जन पुत्रा लौं प्रभु प्यार पलने में पलें।
सब हों सुखी, प्रभु यश लहें, चिरकाल तक फूलें फलें।5।
चौपदे
चाहते हैं जब यही छोटे बड़े।
क्यों न स्वागत के लिए तब हों खड़े।
फूल कोई साथ मैं लाया नहीं।
चाहता हूँ फूल मुँह से ही झड़े।1।
राह में ऑंखें बिछाई, सोच यह।
पंखड़ी कोई न पावों में गड़े।
पाँवड़े मैं डालता क्यों दूसरे।
पाँवड़े मेरी पलक के हैं पड़े।2।
क्यों भरे कलसे रखाएँ, जब रहे।
प्यार के जल से भरे रुचि के घड़े।
लाड़ ही जब है निछावर हो रहा।
तब निछावर क्यों करें हम चौलड़े।3।
मान के भूखे किसी मेहमान को।
भेंट क्यों देवें कड़े हीरे-जड़े।
भर उमंगों में बड़े अरमान से।
मान के हम पान लेकर हैं अड़े।4।
दो चार बातें
आज फूल-पत्तो लेकर आया हँ। मैं नहीं कह सकता, ये पसन्द आवेंगे या नहीं। न आवें, मुझको इसकी परवा नहीं। अपनी अपनी रुचि ही तो है, किसे अपनी रुचि प्यारी नहीं। जब पेड़ों पर बैठ कर चिड़िया गीत गाने लगती है, मीठी मीठी तानें छेड़ती है, तब क्या वह यह सोचती है कि मेरे गीत को सुन कर कोई रीझेगा या नहीं, कोई वाह वाह कहेगा या नहीं? कोई भले ही न रीझे, कोई भले ही न वाह वाह करे। पर वह गाती है, मस्त हो हो कर गाती है। क्या यह मस्ती ही उसके लिए सब कुछ नहीं?अपने आपको रिझाने में क्या कोई मजश नहीं, क्या कोई आनन्द नहीं। है, बड़ा मजश है, बड़ा आनन्द है। यह अपनी रीझ ही तो औरों के जी में जगह करती है, आप रीझ कर औरों को रिझाती है। दिल से दिल को राह है। फूल पहले आप खिलते हैं,पीछे औरों के दिल को खिलाते हैं। कोयल कैसी काली कलूटी है, न रूप न रंग, न अच्छा ढंग, चालाक भी वह परले सिरे की है,कौओं की ऑंखों में उँगली वही करती है, पर कूककर किसको नहीं मोह लेती। उसके कंठ में जादू है, तानों में दर्द। जब बोलती है, मनों को मोह लेती है। गुण का कहाँ आदर नहीं। जहाँ गुण है, वहाँ मान है। गुण चाहिए पूछ क्यों न होगी।
फूल-पत्तो क्या प्यार की चीजश् नहीं? क्या वे अच्छी ऑंख से नहीं देखे जाते? क्या उनमें लुभावनापन नहीं, रंग नहीं,महँक नहीं, क्या वे सुन्दर नहीं? फूल कितने अनूठे होते हैं, क्या यह भी बतलाना होगा? राजाओं के मुकुट पर जिनको जगह मिलती है, क्या वे ऊँचे से ऊँचे नहीं? देवताओं के सिर पर चढ़नेवाले, सुन्दरियों को भी सुन्दर बनानेवाले कौन हैं? फूल ही तो हैं। जिनकी ऑंखों के फिरने से दुनिया कंगाल होती है, कुबेर कौड़ी के तीन बन जाते हैं, बड़े बड़े राजाओं के मुँह पर हवाइयाँ उड़ने लगती हैं, वे कहाँ रहती हैं? फूल में। कुल दुनिया के बनानेवाले बाबाओं के बाबा पहले पहल कहाँ दिखलाई पड़े? फूल पर। जिनके हाथों से सब जहान पलता है, जो चार बाँह वाले हैं, उनके सब से ऊँचे हाथ को कौन सजाता है? फूल। हमारे औढरदानी भोलाबाबा गहरी छानने के बाद किस पर ऑंख गड़ाये रहते हैं? धातूरे के फूल पर। किसलिए? इसलिए कि उसमें एक अजीब मस्तानापन होता है। काम का बान, वह बान जिससे कौन कलेजा नहीं ¯बधाा, क्या है? फूल है। फूलों से जंगल के मुँह की लाली रहती है, बागों में बहार रहती है, और रहती है घरों में छटा निराली। डाली उनको पाकर खिलती है? और हरियाली उन्हें गोद में लेकर फूली नहीं समाती। बेलियाँ उनसे अलबेलापन पाती हैं और लतरें मनमानी लुनाई। मन्दिर उनसे सजते हैं, जलसे जलवा पाते हैं, और खेल खिलते दिखलाई पड़ते हैं। वे किस सिर के सेहरा नहीं, किस गले के हार नहीं, किन ऑंखों के चोर नहीं और किस गोदी के लाल नहीं। कोई कितनी ही सुन्दरी क्यों न हो, कोई सुन्दर से सुन्दर हो, पर उनके अंगों का पटतर फूलों से दिया जाता है। कोमल कहना हुआ कि फूल मुँह पर आये। रंग का धयान हुआ कि फूल ऑंखों पर नाचने लगे। हँसने में फूल मुँह से झड़ते हैं। ऑंसू की बूँदों के टपकने में कमल से ओस की बूँदें गिरती हैं, तो उँगलियाँ चम्पे की कलियाँ हैं। कहाँ तक कहें, फूल की बातें कहते-कहते भूलभुलैयाँ में पड़ गया।
रहे पत्तो। उनके बारे में भी पते की बातें सुनिए। जब कहीं कुछ न था, सब ओर पानी ही पानी था, सारी दुनिया डूब चुकी थी, तब सब से बड़ा खिलाड़ी एक बड़ के पत्तो ही पर सो रहा था, और अपने पाँव के ऍंगूठे का मजश मजश्े से ले रहा था। हरियाली की जान पत्तो हैं। जो पत्तो न हों, पेड़ ठूँठ जान पड़ेंगे, और पौधे रंग ही न लायेंगे। धरती उजाड़ सी जान पड़ेगी, और मैदानों में रेगिस्तान का समा दिखलाई देगा। पान कूँचने वालों से पूछिए, जो पत्तो न होते, तो उनके मुँह की लाली कैसे रहती। जब वसंत आता है, कोंपलें रंग लाती हैं, नये नये पत्ताों से पेड़ सज जाते हैं। उन दिनों कोयल का ही गला नहीं खुल जाता,भौंरे ही मतवाले नहीं बनते, सारी देखनेवाली ऑंखों के सामने वह समाँ आ जाता है, जैसा साल भर फिर दिखलाई नहीं देता। पेड़ जिस हवा को पीते और जिन सूरज की किरणों के सहारे जीते हैं, उनको उन तक पहुँचाने वाले पत्तो ही हैं। जहाँ बरतनों की कमी से पूरी नहीं पड़ती, वहाँ पत्ताल पत रखते हैं। जहाँ पानी के कटोरे हाथ नहीं आते, वहाँ प्यास वालों की प्यास दोने बुझाते हैं, जो पत्ताों से ही बनते हैं। पत्ताों से सिर को छाया मिलती है, पेट पलते हैं, खेत खाद पाते हैं, और अन्न के पौधो पनपते हैं। एक बार देवतों के राजा विपत्तिा में फँसे, लोगों को मुँह दिखाते न बनता, छिपने की नौबत आई, उन दिनों पत्तो ही आड़े आये, उन्हीं में वे बहुत दिनों तक मुँह छिपाये पड़े रहे, जब उनके विपत्तिा के दिन बीते, तो उन्होंने उनको हजार ऑंख वाला बनाकर ही छोड़ा। एक दिन जब तलवार चमकाते हुए लंका का राजा अशोकवाटिका में आया, और जानकीदेवी को जान के लाले पड़े, उस घड़ी बाँके वीर हनुमान की भी अक्की बक्की बन्द हो गयी, वे भी पत्ताों की आड़ में बैठकर ही आई मुसीबत को टाल सके। फिर कैसे कहें पत्ताों की कोई बिसात नहीं और उनकी कोई गिनती नहीं।
कहा जा सकता है, इन फूल-पत्ताों और तुम्हारे ‘फूल-पत्तो’ से क्या निस्बत? मैं अपने मुँह मियाँमिट्ठू नहीं बनना चाहता, इसलिए इस बारे में और कुछ न कहकर इतना ही कहूँगा, कि ‘फूल-पत्तो’ नाम सुनकर ही नाक-भौं न सिकोड़नी चाहिए। उनमें भी कोई बात हो सकती है। फूल-पत्ताों की बड़ाई करके मैंने यही बतलाया है। जिनके पास देखनेवाली ऑंखें हैं, जो दिल रखते हैं, जिनमें सूझ और समझ है, वे मिट्टी को भी मिट्टी नहीं समझते, उसमें भी उनको कुछ मिलता है, न्यारिया राख में से भी सोना निकलता है। भरोसा है कि ऐसे लोग फूल पत्तो को भी अच्छी ऑंख से देखेंगे, जो ऐसे नहीं हैं, वे मनमानी कर सकते हैं, इस में चारा क्या। साँप जश्हर उगलेगा, बिच्छू डंक मारेगा, उल्लू ऍंधोरे में देखेगा, यह उनकी आदतें हैं, इसके लिए कोई क्या करे। पर सब जगह जश्हर काम नहीं करता, कहीं वह बेअसर भी हो जाता है। डंक तंग करता है, पर कहीं वह आप ही टूट जाता है। उल्लू ऍंधोरे में देखता है, तो देखा करे, इससे सूरज का क्या बिगड़ता है, उसकी ऑंख में ही कसर दिखलाई पड़ती है। इसलिए इसकी परवाह क्या? हाथी चला जाता है, कुत्तो भूँका ही करते हैं।
दुनिया दुरंगी है या एकरंगी, या बहुरंगी, क्या कहूँ, कुछ समझ में नहीं आता। कोई उसे बुरी बतलाता है, कोई अच्छी। कहीं उजियाला है, कहीं ऍंधिायाला। कहीं फूल हैं, कहीं काँटे। कहीं हरा भरा मैदान है, कहीं बालुओं से भरा रेगिस्तान। कहीं सुख है, कहीं दु:ख। कहीं दिन है, कहीं रात। कहीं बगले हैं, कहीं हंस। कहीं कोयल है, कहीं कौवे। कहीं बधाावे बजते हैं, कहीं रोना-पीटना पड़ा रहता है। कहीं घर उजड़ता है, कहीं महल खड़े होते हैं। कहीं सोहर उठता है, कहीं सिर धाुने जाते हैं। किसी के मुँह से फूल झड़ता है, कोई आग उगलता है। कुछ लोग ऐसे हैं, जो दूसरों की भलाइयाँ देखकर फूले नहीं समाते। कुछ ऐसे हैं जो औरों की बुराइयाँ करके ही आसमान के तारे तोड़ते हैं। किसी का दिल ऐसा बना है, जो दूसरों के दुखों की ऑंच से मोम सा पिघलता है, किसी का कलेजा पत्थर को भी मात करता है। किसी के जी में मिठास मिलती है, किसी के जी में कड़वापन। कुछ लोग ऐसे हैं जो दूसरों को फला फूला देखकर खिलते हैं, रोते को हँसाते हैं, उलझनों को सुलझाते हैं, बिगड़ी बनाते हैं, और पराये हित के लिए जान हथेली पर लिये फिरते हैं। कोई ऐसा है, जो औरों का लहू चूस कर अपनी प्यास बुझाता है, दूसरों का गला घोंटता है, और किसी का घर उजड़ता देख अपने घर में घी के चिरागश् बालता है। कीने वाले दिलों की बात ही निराली है, वे साँप की तरह डँसते हैं और अवसर मिले औरों का कचूमर निकाल देते हैं। पाजियों की बात मत पूछिए, वे थोड़ी बातों में ही जामे के बाहर हो जाते हैं। जब किसी पर बिगड़ते हैं, पेट की सारी गंदगी निकाल कर सामने रख देते हैं। किसी पर कलम उठ गया तो आफष्त आ गयी, बेचारे की गत बना दी जाती है। बुरी बुरी गालियाँ दी जाती हैं, फूहड़ बातें कही जाती हैं, दिल का कालापन कागश्जश् पर फैला दिया जाता है, चाहे मोती पिरोनेवाली लेखनी के मुँह में सियाही भले ही लग जाय। ये बातें सच हैं। पर बुरों से भी भला, और भलों से भी बुरा होता है। जो किसी काम के नहीं होते, उनका काम भी कितनों की ऑंखें खोलता है, और जो बड़े काम के होते हैं, उनका काम भी कभी किसी काम का नहीं होता। कौवे किसी काम के न हों, पर कोयल के बच्चे उसी की गोद में पलते हैं। साँप कितना ही डरावना क्यों न हो, पर मणि उसके ही सिर में मिलती है। एक गाली बकने वाला अपना मुँह बिगाड़ता है, पर कितनों के कान खड़े करता है। एक के सिर पर चढ़ा भूत दूसरे के सिर का भूत उतारता है। एक नंगा कितनी की आबरू बचाता है। डूबकर पानी पीने वालों के गले में अटकी मछली कितनों का कान मलती है और बहुतों का पानी रखती है। मिट्टी में हीरे मिलते हैं, बालू में सोना। कीचड़ में कमल, और काँटों में फूल। ऍंधिायाले से उजाले की परख होती है, और कड़वी नीम मिठाई का मोल बतलाती है। मतलब यह है कि ‘फूल-पत्तो’ को इन झगड़ों से छुटकारा नहीं। जहाँ उसे भली ऑंख से देखने वाले होंगे, वहीं उसे टेढ़ी ऑंख से ताकने वाले भी मिलेंगे। वे किसी जी में अगर गड़ेंगे तो किसी ऑंख में खटकेंगे भी। कोई उन्हें चाहेगा, तो कोई बुरा कहेगा। दुनिया के ये पचड़े हैं, इनसे कौन बचा। इसीलिए मैं इन बातों के फेर में नहीं पड़ता। यों तो बतला ही चुका हूँ कि ‘फूल-पत्तो’ क्या हैं। पर थूकने वाले सूरज पर भी थूकते हैं, चाहे उनका थूक उनके मुँह पर ही क्यों न गिरे।
कहा जा सकता है, यह ठीक है। पर समय को देखना चाहिए, लोगों के तेवर पहचानने चाहिए। सोचना चाहिए कि हवा कैसी चल रही है, किधार जा रही है। दुनिया का रंग क्या है, देश वाले क्या चाहते हैं। लोगों की तबीअत कैसी हो गयी है, नई उमंग वालों को क्या पसन्द है, उनका झुकाव किस ओर है। जो हवा का रंग देखकर पाल नहीं तानता, उसका बेड़ा पार नहीं होता। आज दिन बोलचाल का बोलबाला नहीं, उसकी धाूम नहीं, जैसी चाहिए वैसी पूछ नहीं। ऐसी हालत में उसी पर मरना,उसी का दम भरना, उसका रंग जमाने के लिए हाथ-पाँव मारना क्या ठीक है। जब लोग कहते हैं, हिन्दी में बिना संस्कृत शब्दों का पुट दिये, उर्दू में बिना फषरसी और अरबी के लफष्जशें से काम लिये, भाषा में चुस्ती नहीं आती, और न जैसे चाहिए वैसी वह चटपटी बनती है। इतना ही नहीं वह एक तंग घेरे में घूमती रहती है, न हाथ-पाँव निकाल पाती है, और न आगे ही बढ़ सकती है। तब क्या इधार धयान न देना, और अपनी ही धाुन में मस्त रहना चाहिए। मैं कहूँगा, मेरे इरादों के समझने में धाोखा हुआ है, और कुछ का कुछ समझा गया है। मैंने कब संस्कृत अथवा फषरसी-अरबी के शब्दों का बायकाट करने की सलाह दी? मैं तो ऐसा नहीं चाहता। जो काम मैं अपने आप करता हूँ, उसके न करने की राय दूसरों को क्यों दूँगा। बोलचाल की मेरी जितनी कविताएँ हैं, उनसे चौगुनी रचनाएँ दूसरी तरह की हैं। मैं यह भी नहीं कहता कि समय का रंग न देखा जावे,और न हवा का रुख पहचाना जावे। मेरा यह विचार भी नहीं है कि बिना दुनिया का रंग देखे, बिना देश वालों का ढंग पहचाने,बिना नौजवानों की नाड़ी टटोले, बिना लोगों के तेवर की जाँच-पड़ताल किये, बिना माँग, बिना जश्रूरत टाँग अड़ाई जावे, और कुछ का कुछ किया जावे। क्या ऐसा करना समझदारी होगी? समय बदलता रहता है, उसके साथ बातें भी बदलती रहती हैं। चालढाल, रंगढंग, रीतिरिवाज का भी कायापलट होता है। जो इसको नहीं समझता मुँह की खाता है, दुनिया में पनप नहीं सकता। इसलिए मैं वह रास्ता नहीं पकड़ सकता, जो उलटा हो, समय के साथ न चलता हो। बोलचाल का राग अलापना, समय के साथ ही सुर मिलाना है, बेसुरी तानें नहीं छेड़ना है। मैं बतलाऊँगा कि कैसे।
वह भाषा जीती नहीं रहती, जो बोलचाल की नहीं होती। संस्कृत के बाद प्राकृत और प्राकृत के बाद हिन्दी क्यों सामने आई? इसलिए कि वे दोनों बोलचाल से दूर पड़ गईं। आज दिन जिस भाषा में हिन्दी या उर्दू लिखी जा रही है, वह कहाँ की भाषा है? किस जगह बोली जाती है? कहीं नहीं। अगर यही ढंग रहा तो हिन्दी या उर्दू कितने दिन जीती रहेगी? दोनों उस ओर जा रही हैं, जिधार उनके लिए ऐसे बड़े-बड़े गङ्ढे हैं, जिन में गिरकर वे चूर चूर हो जायँगी, उनका पता भी न लगेगा। क्या लोग यही चाहते हैं? मैं समझता हूँ ऐसा कोई नहीं चाहता। दोनों ही अपनी-अपनी भाषा को जीती देखना चाहते हैं। दोनों ही चाहते हैं कि वह फूले फले। फिर अगर मैं ऐसी बात बतलाता हँ, जिससे माँगी मुराद मिले, आई बला काई की तरह फट जावे तो भलाई करता हूँ कि बुराई? उन भाषाओं को ठीक रास्ते पर ले चलता हूँ, या उन्हें अन्धो कुएँ में गिराता हूँ? मैं यह जानता हूँ कि जब ऐसी किताबें लिखी जाती हैं, जिनमें पेचीदगी होती है, बड़े-बड़े मसले हल करने होते हैं, जिनमें बारीकियाँ होती हैं,उलझनों का सामना करना पड़ता है, बाल की खाल निकालनी पड़ती है, एड़ी चोटी का पसीना एक करना पड़ता है, जो दर्शन या विज्ञान की होती हैं, या इसी तरह के पचड़ों से भरी रहती हैं, बोलचाल की भाषा में उनका लिखना आसान नहीं। उनमें संस्कृत के शब्द या अरबी फारसी के लफष्जश् लेने ही पड़ेंगे, उनसे छुटकारा नहीं, और न मैं इस बारे में उँगली उठाता हूँ। ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि पहाड़ों में पत्थर और लोहे की खानों में लोहे रहेंगे ही। पर जो किताबें पबलिक के लिए लिखी जाती हैं,जिनमें इस तरह के बखेड़े नहीं होते, उनका बोलचाल में लिखा जाना ही ठीक है। क्योंकि सीधाी सादी बातों को सीधाी सादी होनी चाहिए। घरेलू बातों में घर की बोलचाल का ही रंग रहना चाहिए। उठते बैठते, चलते फिरते, एक दूसरे के साथ बोलते हुए,कामकाज में, जो शब्द मुँह पर आते रहते हैं, उनकी जगह ऐसे शब्दों को लिखना, जिनसे जान पहचान नहीं, भाषा को बनावटी बनाना और उस सुभीते से हाथ धाोना है, जो हमारे बड़े काम का है। कहा गया है संस्कृत, फषरसी और अरबी शब्दों के आये बिना बोलचाल की भाषा चुस्त नहीं होती। यह अपने अपने पसन्द की बात है। पर असलीयत असलीयत है, और बनावट बनावट। फूल की असली रंगत पर रंग चढ़ाकर उसे हम सुन्दर नहीं बना सकते, और न उसमें अनूठापन ला सकते। पेड़ों के हरे पत्ताों की हरियाली को हरे रंग से रँग कर अगर हम उस के रंग को चटक बनाना चाहेंगे, तो धाोखा खाएँगे, मन की न कर पाएँगे। उन्हें बिगाड़ेंगे, सँवारेंगे नहीं।
दूसरी बात यह कि बोलचाल की भाषा का मतलब ठेठ हिन्दी नहीं है। ठेठ हिन्दी बोलचाल की भाषा नहीं हो सकती। बोलचाल की भाषा वह है, जिसे सब लोग बोलते हैं। बोलचाल में अगर संस्कृत, अरबी क्या, ऍंगरेजश्ी, लैटिन, ग्रीक के भी शब्द आ गये हैं तो उनका बायकाट नहीं किया जा सकता। आजकल बोलचाल में कचहरी, रेल, तार, डाक आदि ऐसे शब्द मिल गये हैं, जो ऍंगरेजश्ी या योरप की दूसरी भाषाओं के हैं, क्या इन्हें अब निकाल बाहर किया जा सकता है। यदि इनको निकाल बाहर करेंगे, और इनकी जगह पर गढ़कर नये शब्द रखेंगे तो, वह बोलचाल की भाषा न रह जायगी, एक बनावटी भाषा बन जायगी। बोलचाल की हिन्दी में बहुत से असली संस्कृत, फषरसी, अरबी के शब्द मिले हुए हैं। ‘सुख’, ‘रोग’, ‘मन’, ‘धान’ आदि संस्कृत के, और ‘ख़बर’, ‘लात’, ‘नेकी’, ‘बदी’, ‘मामिला’ आदि फषरसी अरबी के शब्द हैं। योरप की भाषा के कुछ शब्द मैं ऊपर लिख आया हूँ। बोलचाल की भाषा लिखने में अगर इन शब्दों या ऐसे ही दूसरे शब्दों को हम अलग रखना चाहेंगे तो जो भाषा हम लिखेंगे, वह बोलचाल की भाषा रहेगी ही नहीं। वह तो एक ऐसी भाषा होगी जिसे हम ठेठ हिन्दी भले ही कह लें। हिन्दी भाषा ऐसे शब्दों से बनी है, जिन्हें हम संस्कृत के तद्भव शब्द कहते हैं। ये तद्भव शब्द हजशरों बरसों का चक्कर काटने के बाद इस रंग में ढले हैं। ‘हस्त’ से ‘हत्थ’ और हत्थ’ से ‘हाथ’ बना है, इसी तरह ‘कर्म्म’ से ‘कम्म’ तब ‘काम’। संस्कृत के ऐसे ही शब्द हिन्दी को जन्म देने वाले हैं। उसमें कुछ देशज शब्द ‘गोड़’, ‘टाँग’ आदि भी मिलते हैं। जब काम पड़ने पर अरबी, फषरसी आदि के भी बहुत से शब्द हिन्दी में मिल गये तब कुछ लोग उसे उर्दू कहने लगे, पर है वह हिन्दी ही। अब इसमें बहुत से ऍंगरेजश्ी और योरप की दूसरी भाषाओं के शब्द भी मिल गये हैं। उर्दू हिन्दी का झगड़ा मिटाने के लिए, कुछ लोग अब इसे हिन्दुस्तानी कहते हैं। इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। हिन्दी कहें चाहे हिन्दुस्तानी, दोनों का मतलब एक ही है। यही हिन्दी अब खड़ीबोली का लिबास पहनकर बहुत दूर तक फैल गयी है। लगभग हिन्दोस्तान भर में समझी जाने लगी है। इसका फरेरा इन दिनों इस देश के उन कोनों में भी उड़ने लगा है, जहाँ अब तक उसकी पहुँच नहीं थी। फिर अगर मैं बोलचाल की तरफष् लोगों को ले जाता हूँ, तो क्या बुरा करता हूँ। जिस नीति से हिन्दी दिन ब दिन फूले फलेगी, बहुत से लोगों के दिल में घर करेगी और वह गहरी खाई पट जावेगी जो उसकी और उर्दू की राह में और गहरी होती जा रही है, क्या वह बुरी हो सकती है?क्या बोलचाल की यह भाषा ऐसी है कि उसे कड़ी ऑंख से देखा जावे और उसे मटियामेट कर के ही दम लिया जावे? नहीं,नहीं वह ऐसी नहीं है। यह समय बतला रहा है। वह आदर पाएगी और रंग लाएगी। वह ऑंखों में ही नहीं, दिलों में भी समाएगी, और जादू कर दिखलाएगी।
कुछ लोग यह कह सकते हैं कि ‘ठेठ हिन्दी का ठाट’ और ‘अधाखिला फूल’ बनाने वाले के मुँह से ये बातें अच्छी नहीं लगतीं। किसी किसी ने तो यह भी लिख मारा है कि मैं उनको लिखकर वैसी ही भाषा का प्रचार हिन्दी में करना चाहता था, पर अपना सा मुँह लेकर रह गया। मैं ऐसे लोगों से यह कहूँगा कि आप लोगों ने मेरे विचार को ठीक ठीक नहीं समझा। लिखने का मतलब यह था कि मैं यह दिखला सकूँ कि हिन्दी अपने पाँवों पर खड़ी हो सकती है या नहीं। बिना दूसरों का मुँह ताके, बिना दूसरों का सहारा लिये, बिना औरों के सामने हाथ फैलाये, बिना किसी की कनौड़ी बने, वह कुछ भावों को प्रकट कर सकती या लिख सकती है या नहीं। मेरा विचार है, लिख सकती है, इसीलिए ‘ठेठ हिन्दी का ठाट’ सामने आया और ‘अधाखिला फूल’लिखा गया। कुछ लोगों ने मेरे इस विचार को माना है, उनकी रायें आगे लिखी जाती हैं-
श्रीयुत बाबू काशीप्रसाद जायसवाल, एम.ए., अपने 25 मार्च, ‘सन् 1905, के पत्रा में यह लिखते हैं-
”अधाखिला फूल’ को, जिसे कृपापूर्वक आपने हमारे पढ़ने के लिए भेजा, हमने कल रात को पढ़ा। बहुत दिनों से उपन्यासों का पढ़ना छोड़ दिया था, पर इसलिए कि आपने इसे हमारे पढ़ने को भेजा था, हमने पहले बेगार सा शुरू किया। समझा था कि भूमिका भर पढ़ कर रख देंगे। पर पहली पंखड़ी के प्रथम पृष्ठ की भाषा ने हमको मोह लिया और किताब न छोड़ी गयी। ज्यों ज्यों पढ़ते गये प्लाट की उलझन में पड़कर आगे ही बढ़ते गये। रात को देर तक पढ़ते रहे, समाप्त हो जाने पर पुस्तक हाथ से छूटी, और मन में यही चाह बनी रही, कि देवहूती और देवसरूप का और हाल पढ़ते।
”पुस्तक आख़िर तक एक रस स्टाइल में लिखी गयी है और स्त्रिायों के बड़े काम की है। हम कह सकते हैं कि ऐसा उत्ताम उपन्यास हिन्दी में दूसरा नहीं है।
”कहीं कहीं वर्णन बहुत रसीला है। कामिनीमोहन की हालत पर खेद होता है, और आपका अभिप्राय भी यही है। उसके मन्दिरों पर के शिलालेख दिल में चुभ जाते हैं। देव-सरूप के मिलने पर, अर्थात् उसके उद्धाटन पर और हरमोहन पाँड़े के घर लौटने पर तथा ऐसे दूसरे स्थानों पर हमारे ऑंसू जारी थे। भाई इस किताब पर हम लट्टू हैं।”
एक दूसरे स्थान पर वे यह लिखते हैं-
”उपाध्यायजी ने कुछ वर्ष हुए एक नई शैली की हिन्दी अपने दिल में पैदा की। ‘ठेठ हिन्दी का ठाट’ और ‘अधाखिला फूल’उसके उदाहरण हैं। उपाधयायजी की ठेठ भाषा देखने में इतनी सहल कि उससे और सहल लिखना असम्भव है, लिखने में इतनी कठिन कि दूसरे किसी ने अनुकरण करने की हिम्मत ही नहींकी।”
अनेक शास्त्राों के पण्डित परम विद्वान पं. सकलनारायण पाण्डेय क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए-
”मैं अधाखिला फूल आद्यन्त पढ़ गया, यह उपन्यास रोचक और उत्ताम है, इसकी कहानी शिक्षाप्रद है। श्रीमान् ने हिन्दी भाषा के भण्डार को एक प्रशंसनीय पुस्तक से सज्जित किया है, अतएव हिन्दी रसिक आपके अनुगृहीत हैं।
”इसकी भाषा लड़के और स्त्रिायों के समझने योग्य है। ऐसी भाषा लिखना टेढ़ी खीर है, किन्तु श्रीमान् भलीभाँति सफलीभूत हुए हैं।”
बंगाल के प्रसिध्द विद्वान् प्राकृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ आचार्य श्रीयुत् विधाुशेखर भट्टाचार्य्य यह लिखते हैं-
”पण्डित अयोधयासिंह उपाधयाय ने हिन्दी साहित्य के नाना अंगों की रचना एवं पुष्टि की है। मैं उन सभी रचनाओं से परिचित नहीं, पर उनकी एक पुस्तक ‘ठेठ हिन्दी का ठाट’ मैंने अच्छी तरह पढ़ी है। यह एक ही पुस्तक हिन्दी भाषा पर उनके अद्भुत अधिाकार का ज्वलन्त प्रमाण है। इतनी सरलता के साथ इतने सुकुमार भावों का प्रकाशन मैंने अन्यत्रा नहीं देखा। इस पुस्तक को पढ़कर मैंने बँगला में एक उसी प्रकार की पुस्तक लिखना चाहा था। वह विचार कार्य रूप में उपस्थित नहीं किया जा सका। पर उक्त पुस्तक पढ़ने के बाद मेरा यह दृढ़ विश्वास हो गया कि हिन्दी भाषा बँगला की अपेक्षा भाव प्रकाश करने में कहीं अधिाक समर्थ है। ‘ठेठ हिन्दी का ठाट’ हिन्दी भाषा की समृध्दि का प्रबल प्रमाणहै।”
‘अनेक भारतीय भाषाओं के परम प्रसिध्द विद्वान् सर जार्ज ए. ग्रियर्सन साहब ‘ठेठ हिन्दी का ठाट’ के विषय में यह लिखते हैं-
‘ठेठ हिन्दी का ठाट’ के सफलता और उत्तामता से प्रकाशित होने के लिए मैं आपको बधााई देता हूँ, यह एक प्रशंसनीय पुस्तक है।
”आप कृपा करके पण्डित अयोधयासिंह से कहिए कि मुझे इस बात का बहुत हर्ष है कि उन्होंने सफलता के साथ यह सिध्द कर दिया है कि बिना अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग किये ललित और ओजस्विनी हिन्दी लिखना सुगम है।”¹
इन रायों के पढ़ने के बाद यह बात समझ में आ जायगी कि हिन्दी में वह बल है कि बिना किसी दूसरी भाषा के सहारा लिये वह बहुत से घरेलू और सीधो सादे भावों को अपने साँचे में ढाल सके, और उसे ठीक ठीक समझा सके। इतनी बात लोगों के जी में बैठालने के लिए ही ‘ठेठ हिन्दी का ठाट’ और ‘अधाखिला फूल’ का जन्म हुआ। मैं या कोई दूसरा समझदार यह कभी नहीं सोच सकता कि बोलचाल की भाषा उन शब्दों का बायकाट करके भी लिखी जा सकती है, जो उसमें दूसरी भाषाओं से मिल गये हैं। इधार हिन्दी भाषा के हिमायतियों का धयान खींचने के लिए ही मैंने बोलचाल की भाषा में कई किताबें लिखीं जो आप लोगों के सामने आ चुकी हैं। ‘फूल-पत्तो’ भी इसी विचार से सामने रखे जा रहे हैं। मैं यह जानता हूँ कि आजकल बोलचाल की भाषा में कविता लिखने की ओर हिन्दी वालों का धयान नहीं है। पर मेरा विचार है कि ऐसा होना चाहिए।
श्* “I must congratulate you on the successful issued of ‘Theth Hindi ka That’ It is an admirable book.”
”Will you kindly tell Pandit Ajodhya Singh how glad I am that he has so successful proved that it is easy to write elegantly and at the same time strongly in Hindi without having to use foreign words.”
आजकल सब लोगों तक अपने विचार पहुँचाने के लिए, और इसलिए भी कि किताबें बहुत बिकें, उपन्यासों की भाषा बोलचाल की हो रही है। कोर्स की किताबें भी इसी भाषा में लिखी जाने लगी हैं, बहुत से उपन्यास आजकल इस रंग में डूबे निकल रहे हैं। क्योंकि उनकी पूछ और माँग है। जो यह सच है, तो फिर कविता कब तक किनारा करती रहेगी, उसको भी अपना रंग बदलना ही पड़ेगा। इसी में सुभीता है, और इसी में भलाई। नहीं तो जैसा चाहिए वैसा उसका आदर न हो सकेगा और न वह जैसा चाहिए वैसा फूल-फल सकेगी। मैं यह नहीं चाहता, इसलिए अपनी बात कहता रहता हँ। सोचता हूँ, वह सुनी जायगी।
मैं देखता हूँ कि आजकल हिन्दी के सब तरह के पत्राों में उर्दू के शे’रों को जगह मिल रही है, वे चाह के साथ पढ़े जाते हैं, और वाहवाही भी ले रहे हैं। क्यों? सबब क्या? दूसरा कोई सबब नहीं, उनमें बोलचाल का रंग रहता है, मुहाविरों की चाशनी होती है, वे चटपटे होते हैं, ठीक ठीक समझ में आ जाते हैं। पेचीदगी न तो उनको पहेली बनाती है, और न बेसिर-पैर की बातें उनमें उलझनें पैदा करती हैं। इसलिए उनकी चाह है, और लोग उनको अच्छी ऑंखों से देखते हैं। आजकल की हिन्दी कविता की चाल बिलकुल इससे उलटी है। पहले तो उसमें ऐसी बातें कहने का चाव देखा जाता है, जो उस पार की हों। जो कुछ हमारी ऑंखों के सामने होता रहता है, जो बातें हमारे व्यवहारों में आती रहती हैं, उनसे मुँह मोड़कर उसमें ऐसे राग अलापे जाते हैं,जिनमें आसमानी तानें रहती हैं। ऐसी आसमानी तानें, जिनको कानों ने न कभी सुना, न जी में जो जगह कर सकती हैं। समझा जाता है, जो बातें जितनी पेचीदा होंगी, उनके समझने के रास्ते में जितने रोड़े होंगे, जो पहेली के लिए भी पहेली होगी,वह उतनी ही ऊँचे दर्जे की समझी जावेगी, और उसका लिखने वाला उतना ही बड़ा कवि माना जावेगा। पर यह नासमझी या भूल छोड़ और कुछ नहीं होती। लोगों के कान पहले दुनिया की बातें सुनना चाहते हैं, उन बातों को सुनना चाहते हैं जो जी में बैठें, जिनमें रस के सोते बहते हों और जो दिल में गुदगुदी पैदा कर सकें। जो कुछ देर के लिए उनको कुछ का कुछ कर दें,मजश्े से मजेश् लेने दें। न कि उनको चकाबू के जाल में फँसा दें, या उन्हेें आसमान में चक्कर लगाने के लिए मजबूर करें।
दूसरी बात जो आजकल की हिन्दी कविता को लोहे का चना बना रही है, मनमानापन है। जो अधाकचरे हैं या जिन्हाेंने अभी कविता का ककहरा ही पढ़ा है, उनकी बात मैं नहीं कहता। हिन्दी जगत् में जिनकी धाूम है, आज दिन जिनका बोलबाला है, मैं उनको भी मनमानी करते देखता हूँ। ऐसी मनमानी जिस पर उँगली उठाई जा सकती है। यों तो ‘निरंकुशा: कवय:’ कहा ही जाता है। कवि मनमानी करते ही रहते हैं। पर उसकी भी हद होनी चाहिए, अंधााधाुंधा ठीक नहीं। खेत को हराभरा रखना है, उसके पौधाों को फला फूला देखना है, तो बँधाी मेंड़ को तोड़ना ठीक न होगा। आपके पास बैलून है; आप उस पर उड़िए, पर सड़कों को मत खोद डालिए, क्योंकि उनसे बहुतों को सुभीता है। हम किसी बात की पाबन्दी न करेंगे, किसी रूल को न मानेंगे, अपनी राह सब से अलग रखेंगे, ये बातें किसी एक के काम की हो सकती हैं, पर उससे बहुतों की राह में काँटे बिखर सकते हैं। इतना ही नहीं, कभी उस एक की भी गत बन जायेगी, वह भी बखेड़े में पड़ेगा, और कहीं कहीं उसे मुँह के बल गिरना होगा। आजकल, कुछ लोग ऍंगरेजी मुहावरों के पीछे बेतरह पड़े हैं। ज्यों-का-त्यों ऍंगरेजी मुहावरों के शब्दों का तर्जुमा करके रख दिया जाता है, और समझा जाता है कि वह मुहावरा हिन्दी में भी वैसा ही काम देगा, जैसा ऍंगरेजी में देता है। पर यह उलटी बात है। मुहावरों का शाब्दिक तर्जुमा नहीं हो सकता। अगर कहा जाता है कि ‘ऑंख में धाूल क्यों झोंकी जाय’, तो इसका यह अर्थ न होगा कि किसी की ऑंख में धाूल क्यों डाली जाय, बल्कि इसका मतलब यह होगा कि किसी को धाोखा क्यों दिया जाय। अगर इस मुहावरे का शाब्दिक तर्जुमा करके हम किसी दूसरी भाषा में रख देंगे, तो उसमें उसका अर्थ धाोखा देना न समझा जावेगा, ऑंख में धाूल डालना ही समझा जावेगा, जो ठीक अर्थ मुहावरे का न होगा। सच्ची बात यह है कि सब भाषाओं के मुहावरे शाब्दिक अर्थ से अलग अपना एक ख़ास अर्थ रखते हैं, इसलिए उनका शाब्दिक तर्जुमा नहीं हो सकता। ऐसी हालत में करना यह चाहिए कि यदि दूसरी भाषा के मुहावरे को हम अपनी भाषा में लाना चाहते हैं, तो पहले यह विचारें कि इसी भाव का कोई मुहावरा हमारी भाषा में है या नहीं। जो सोचने पर कोई वैसा मुहावरा मिल जावे तो उसी को उसकी जगह पर रखना चाहिए। जो न मिले, तो ठीक शब्दों के सहारे उसके भाव को खोल देना चाहिए। उसका शाब्दिक तर्जुमा कभी न रखना चाहिए। क्योंकि यह भूल भाषा को सुबोधा नहीं रहने देती, और उसमें ऐसी गुत्थी डाल देती है, जिसका सुलझाना या खोलना आसान नहीं होता। आजकल ऍंगरेजश्ी के ढंग पर वाक्य भी गढे ज़ाने लगे हैं, उसके भाव और विचार भी उसी के रंग में ढालकर लिखे जाने लगे हैं। हिन्दी भाषा की कविता को ये बातें भी उलझनों में डाल रही हैं, और उसको ऐसा बना रही हैं, जिसको हम सरल या सुबोधा नहीं कह सकते।
मुहावरे कविता में जान डाल देते हैं, बहुत बातों को थोड़े में कहते, और उसको चुस्त बनाते हैं। उर्दू वाले इन बातों को जानते हैं, इसलिए हिन्दी के मुहावरों से काम लेकर अपनी कविताओं को वे लोग सजाते रहते हैं। पर हिन्दी वाले अपनी भाषा के मुहावरों को फूटी ऑंख से भी नहीं देखना चाहते। वे ऍंगरेजश्ी भाषा के मुहावरों का शाब्दिक तर्जुमा करके अपनी रचनाओं में खपाएँगे, पर अपनी भाषा के मुहावरों की जगह पर संस्कृत के शब्दों की भरमार करेंगे, और उसे ऐसा बना देंगे, जिसे समझने में वे अपने आपको भी चक्कर में डाल देंगे। सभी ऐसा करते हैं, मैं यह बात नहीं कहता। पर आजकल कविता का झुकाव इसी ओर है, और वह इसी बहाव में बहकर नीचे ऊपर हो रही है। कवि-सम्मेलनों में देखा जाता है कि जब छायावाद का कवि अपनी कविता सुनाने के लिए उठता है तब वह सुकंठ होने पर ही अपना रंग जमा सकता है, उसकी गिटकिरी, उसकी तानें, उसके स्वर की मीठी लहरें ही लोगों को अपनी ओर खींचती हैं, उसकी कविता के भाव नहीं, क्योंकि वे सुबोधा होते ही नहीं। अगर उसके पास कंठ नहीं, अगर वह अपनी कविता को गाकर नहीं सुना सकता, तो उसकी कविता कितनी सुन्दर क्यों न हो, आदर मान नहीं पाती, और कवि को नीचा दिखा देती है। यही सबब है कि अब भी कवि-सम्मेलनों में ब्रजभाषा की तूती बोलती है, और उसी का रंग चोखा और गहरा रहता है, क्योंकि उसमें लचक रहती है, वह सुबोधा होती है, और समझ में आ जाती है। ब्रजभाषा की कविता पढ़ने वाला कवि जो सुकंठ होता है, तो सोने में सुगंधा मिल जाती है। जो सुकंठ नहीं है, तो भी उसकी कविता अपना रंग बाँधा लेती है, क्योंकि उसके भावों में रंगीनी की कमी नहीं होती, और वे ऐसे शब्दों में सामने आते हैं, जो कान के जाने पहचाने होते हैं, और जिनमें से अंगूर की तरह रस निचुड़ा पड़ता है।
कुछ लोग गाकर कविता पढ़ना ऐब समझते हैं। उनका कहना है कि गलाबाजश्ी करके कविता का रंग जमाना कविता को नीचा दिखाना है। गले के दर्द से अगर कविता में जान पड़ी, तो कविता बेजान क्यों न मानी जायगी। स्वर भर भर कर, ताने ले लेकर अगर कविता लोगों को लुभा सकी तो इससे तो संगीत का बोलबाला हुआ, कला का क्या कमाल दिखलाया? कला को कला दिखानी चाहिए। कविता में जान होगी तो वह आप दिल पर असर करेगी, लोगों को तड़पा देगी, सिरों को हिला देगी, जादू सा करेगी, और कानों में रस घोले देगी। इसीलिए जो सुकवि या अच्छे शायर हैं, वे कविता को गाकर सुनाना अच्छा नहीं समझते। मुशायरों में उस्तादों को गाकर कविता सुनाते नहीं देखा जाता, क्योंकि उनका दावा होता है कि कविता की जान ही उसकी जान है। वह अपने पाँवों पर खड़ी होगी और अपना काम कर जायगी, वह दूसरों का मुँह क्यों ताके। यह बात सच है,पर इसके लिए जहाँ कविता में सुन्दर भाव होने चाहिए, वैसे ही उसकी भाषा को भी सीधाी सादी, लचकदार और ऐसी होनी चाहिए जो सुनते ही जी में जगह कर ले, और एक-एक बात को लोगों के जी में ठीक-ठीक बैठाल दे। यह बात बोलचाल की भाषा में ही मिल सकती है, गढ़ी भाषा में नहीं।
मैंने गाकर कविता पढ़ने के बारे में जो कुछ कहा है, वह और का और समझा जा सकता है। इसलिए इस बारे में कुछ और कह देना चाहता हूँ। गाना कविता को चमका देता है, उसे कुछ का कुछ बना देता है, सच तो यह है कि गाना कविता ऍंगूठी का नगीना है, कवितासुन्दरी के गले का हार है और है कवितादेवी की दमक। कविता अगर चिड़िया है तो गाना चहकना है। जिसको मीठा कंठ मिला है, जिसके गले में लोच है, उसको कविता गाकर ही सुनाना चाहिए। ऐसा करके वह टोना करेगा। अगर उसकी कविता भी जानदार है, तो वह टोना क्या जादू करेगा। जहाँ मार्के होंगे, उसका सामना कोई न कर सकेगा। कोई हिन्दू सामगान के कमाल को नहीं भूल सकता।
झंकार से जैसे वीणा का बोलबाला होता है, उसी तरह गान से कविता का। लय और तानों से भरी कविता सुनकर मैं मोह जाता हूँ, अपने को भूल जाता हूँ। इसलिए मैं गाकर कविता पढ़ने को बुरा कैसे कह सकता हूँ। मैंने तो जो कुछ अभी कहा है,उसका मतलब इतना ही है, कि अगर कविता में जान हो, और वह ऐसी भाषा में लिखी गयी हो, जिसको सब लोग समझ सकें तो वह इसकी मुहताज नहीं कि गाई जाकर ही दिलों में घर कर सके। उसकी जानदारी और बोलचाल की सादगी ही उसको वाहवाह दिलाती है। और उसे मान का पान दिलाने में भी कसर नहीं करती। उसके सुनते ही कानों में अमृत की बूँद टपक पड़ती है, और दिलों पर जादू हो जाता है। पर अगर कविता जानदार हो, और बोलचाल में न लिखी गयी हो, उसमें ऐसे शब्द भरे हों, जिनको हम समझ नहीं सकते, तो उसकी जानदारी उसी तरह लोगों के दिल को लुभाने में बेबस होगी, जिस तरह काले बादलों के परदे में छिपी पूनों की चाँदनी। मैं समझता हूँ कि अब यह बात समझ में आ गयी होगी कि बोलचाल की भाषा का मरतबा क्या है, और मैं क्यों उसकी बातें हिन्दी-जगत् को सुनाता रहता हूँ। अगर बोलचाल में लिखी जाने से ही उर्दू कविता का मान आज दिन हिन्दी-प्रेमियों में हो रहा है, वह हाथोंहाथ ली जा रही है, आदर-मान पा रही है, लोगों को अपना रही है, तो उसी बोलचाल की भाषा में लिखी गयी हिन्दी भाषा की कविता ठुकराई जायगी, यह बात कैसे मानी जा सकती है। मेरा तो जी कहता है और मैं यह दिल खोलकर कहता हूँ, कि अगर बोलचाल की भाषा का ठीक ठीक आदर हिन्दी-जगत् में हुआ, और उसकी ओर हमारे नौनिहालों का धयान खिंचा, तो हिन्दी भाषा निहाल हो जायगी, और उसे चार चाँद लग जाएँगे।
जब हम लोग हाथ में कलम लेकर किसी की भद्द उड़ाते हैं, किसी को बनाते हैं, किसी का मुँह चिढ़ाते हैं, किसी पर आवाजश्ें कसते हैं, किसी की खिल्ली उड़ाते हैं, किसी से दिल्लगी करते हैं, किसी की चुटकियाँ लेते हैं, किसी को ताना मारते हैं, किसी की मिट्टी पलीत करते हैं, किसी को उल्लू बनाते हैं, लगती बातें लिखकर किसी को राह पर लगाना चाहते हैं, किसी की हँसी उड़ाकर उसको लजवाते हैं, जब हम चुभती बातों से किसी दिल में सुई चुभाते हैं, किसी की मक्कारी का परदा उठाते हैं,किसी की बदनामी का ढोल पीटते हैं, किसी को दिल हिला देने वाली लनतरानियाँ सुनाते हैं, उस समय बोलचाल की भाषा ही हमारा साथ देती है। हमारे कष्लम से ऐसे ही शब्द निकलते हैं, जो उसकी नोक की तरह चुभने वाले होते हैं। क्यों? सबब क्या? कोई दूसरा सबब नहीं सिवा इसके कि वे जल्द समझ में आते हैं, और अपना असर रखते हैं। सदा हम जिस भाषा को बोलते हैं, जिस भाषा में बातचीत करते हैं, हँसी में, दिल्लगी में, मखौल उड़ाने में, जिन शब्दों से काम लेते हैं, अगर लिखने के समय उनको काम में न लाएँ तो हमारी फबतियों का मजश ही किरकिरा हो जाता है, और हमारा कष्लम वह असर नहीं पैदा कर सकता, जिसके लिए वह उठाया गया था। जब लोग किसी से बिगड़ते हैं, किसी से झगड़ते हैं, किसी से तहत्ताुक करते हैं,किसी को जली-कटी सुनाते हैं, गालियाँ देते हैं, बकते झकते हैं, उस घड़ी शब्द चुनने नहीं बैठते जो शब्द मुँह में आया कह डालते हैं। इसलिए ऐसी बातों के लिखने के समय भी हमको उन्हीं शब्दों को काम में लाना पड़ता है, जो ऐसे अवसरों पर काम में लाये जाते हैं। अगर ऐसा न किया जाय तो लेख में बनावट आ जायगी, जिससे वह जैसा चाहिए न तो दिल में चुभेगा और न वैसा उसका असर होगा। उसका रंग ही बिगड़ जाएगा। इसलिए ऐसे लेखों में आप बोलचाल का बोलबाला ही पावेंगे। उससे किनारा करके कोई लेखक न तो चटपटे लेख लिख सकेगा, और न दूसरों के दिल को जैसा चाहिए वैसा दहला सकेगा, और न किसी को अपनी बातों की लपेट में ला सकेगा। अगर यह सच है तो बोलचाल ऐसी चीजश् नहीं, कि उससे हम नाक भौं सिकोडें,अौर उसके लिए लापरवाही करें। यही बात मुहावरे के लिए भी कही जा सकती है।
आजकल जिस भाषा में खड़ीबोली की कविता लिखी जाती है, वह बनावटी है, गढ़ी हुई है, असली बोलचाल की भाषा नहीं है। इन दिनों गद्य की भाषा भी यही है। यह भाषा अब पढ़े-लिखों में समझ ली जाती है और दूर तक फैल भी गयी है। इसमें संस्कृत शब्दों की भरमार है। इन दिनों इसका लिखना आसान है, इसका अभ्यास हो गया है, यह साहित्यिक भाषा बन गयी है। संस्कृत भाषा में, उसके शब्दों में, उसके समासों में कैसा बल है, वह कितनी मीठी है, उसमें कितना लोच है, कितना रस है,कितनी लचक है, कितनी गुंजाइश है, कितना लुभावनापन है, उसमें कितना भाव है, कितना आनन्द है, कितना रंग रहस्य है,मैं उसे कैसे बतलाऊँ। उसमें क्या नहीं, सब कुछ है। उसमें ऐसे-ऐसे सामान हैं, ऐसे-ऐसे विचार हैं, ऐसे-ऐसे साधान हैं, ऐसे-ऐसे रत्न हैं, ऐसे-ऐसे पदार्थ हैं, कि उनके बिना हम जी नहीं सकते, पनप नहीं सकते, न फूल फल सकते हैं। उससे मुँह मोड़ कर हिन्दी भाषा के पास क्या रह जायेगा? वह कंगाल बन जायेगी। तामिल, तैलगू, मलयालम आदि ऐसी भाषाएँ हैं, जो पराई मानी जाती हैं। पर आज दिन वे भी संस्कृत शब्दों से भरी हैं, संस्कृत की बदौलत ही मालामाल हैं। फिर बिचारी हिन्दी की क्या बिसात जो उससे नाता तोड़ सके। संस्कृत के सामने हम सिर झुकाते हैं, हम सदा सेवक की तरह हाथ बाँधा कर उसकी सेवा में खड़े रहना चाहते हैं। हम उसको धाता क्या बताएँगे, ऐसा सोचना भी पाप समझते हैं। हिन्दी भाषा की चोटी उसी के हाथों में हैं। ऊँचे-ऊँचे विषय उसी की गोद में पलेंगे, उसी के सहारे हिन्दी भरी पूरी होगी। मैंने जो बोलचाल की ओर धयान दिलाया है,उसका इतना ही मतलब है कि एक रूप उसका भी रहे, जिससे वह सब कोर कसर दूर कर अपनी किसी और बहनों से पीछे न रहे, और इस योग्य बन जाये कि उसे लोग राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर बिठला सकें।
कृपया हमारे फेसबुक पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
कृपया हमारे यूट्यूब चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
कृपया हमारे एक्स (ट्विटर) पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
कृपया हमारे ऐप (App) को इंस्टाल करने के लिए यहाँ क्लिक करें
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण से संबन्धित आवश्यक सूचना)- विभिन्न स्रोतों व अनुभवों से प्राप्त यथासम्भव सही व उपयोगी जानकारियों के आधार पर लिखे गए विभिन्न लेखकों/एक्सपर्ट्स के निजी विचार ही “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान की इस वेबसाइट/फेसबुक पेज/ट्विटर पेज/यूट्यूब चैनल आदि पर विभिन्न लेखों/कहानियों/कविताओं/पोस्ट्स/विडियोज़ आदि के तौर पर प्रकाशित हैं, लेकिन “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान और इससे जुड़े हुए कोई भी लेखक/एक्सपर्ट, इस वेबसाइट/फेसबुक पेज/ट्विटर पेज/यूट्यूब चैनल आदि के द्वारा, और किसी भी अन्य माध्यम के द्वारा, दी गयी किसी भी तरह की जानकारी की सत्यता, प्रमाणिकता व उपयोगिता का किसी भी प्रकार से दावा, पुष्टि व समर्थन नहीं करतें हैं, इसलिए कृपया इन जानकारियों को किसी भी तरह से प्रयोग में लाने से पहले, प्रत्यक्ष रूप से मिलकर, उन सम्बन्धित जानकारियों के दूसरे एक्सपर्ट्स से भी परामर्श अवश्य ले लें, क्योंकि हर मानव की शारीरिक सरंचना व परिस्थितियां अलग - अलग हो सकतीं हैं ! अतः किसी को भी, “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान की इस वेबसाइट/फेसबुक पेज/ट्विटर पेज/यूट्यूब चैनल आदि के द्वारा, और इससे जुड़े हुए किसी भी लेखक/एक्सपर्ट के द्वारा, और किसी भी अन्य माध्यम के द्वारा, प्राप्त हुई किसी भी प्रकार की जानकारी को प्रयोग में लाने से हुई, किसी भी तरह की हानि व समस्या के लिए “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान और इससे जुड़े हुए कोई भी लेखक/एक्सपर्ट जिम्मेदार नहीं होंगे ! धन्यवाद !