आलोचना – हिंदी भाषा की उत्पत्ति – आधुनिक काल – (लेखक – महावीर प्रसाद द्विवेदी)
जैसा कि लिखा जा चुका है कि प्रारंभिक, किंवा पहली, प्राकृत से संबंध रखने वाली कई एक भाषाएँ या बोलियाँ थीं। उनका धीरे-धीरे विकास होता गया। भारत की वर्तमान भाषाएँ उसी विकास का फल हैं। परिमार्जित संस्कृत भी इसी पहली प्राकृत की किसी शाखा से उत्पन्न हुई है। जिस स्थिर और निश्चित अवस्था में उसे हम देखते हैं वह वैयाकरणों की कृपा का फल है। व्याकरण बनाने वालों ने नियमों की श्रृंखला से उसे ऐसा जकड़ दिया कि वह जहाँ की तहाँ रह गई। उसका विकास बंद हो गया। संस्कृत को नियमित करने के लिए कितने ही व्याकरण बने। उनमें से पाणिनि का व्याकरण सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इस व्याकरण ने संस्कृत को नियमित करने की पराकाष्ठा कर दी। उसने उसे बे-तरह स्थिर कर दिया। यह बात ईसा के कोई 300 वर्ष पहले हुई। धार्मिक ग्रंथ सब इसी में लिखे जाने लगे। और विषयों के भी विद्वत्तापूर्ण ग्रंथों की रचना इसी परिमार्जित संस्कृत में होने लगी। परंतु प्राकृत भाषाओं के वैयाकरणों ने संस्कृत के शब्दों और मुहावरों की कदर न की। प्राकृत व्याकरणों में उनके नियम न बनाए। प्राकृत के जो ग्रंथ उपलब्ध हैं उनमें भी संस्कृत के शब्द और मुहावरे नहीं पाए जाते। प्राकृत वालों ने संस्कृत का बहिष्कार सा किया और संस्कृत वालों ने प्राकृत का। प्राकृत और संस्कृत के व्याकरणों और ग्रंथों में तो पंडितों ने एक दूसरे के शब्दों, मुहावरों और नियमों को न स्वीकार किया। पर बोलने वालों ने इस बात की परवा न की। उच्च प्राकृत बोलने वाले बातचीत में संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते थे। यह बात अब भी होती है, अर्थात् भारत की संस्कृतोत्पन्न वर्तमान भाषा बोलने वाले पुस्तकों ही में नहीं, किंतु बोलचाल में भी, संस्कृत-शब्दों का व्यवहार करते हैं। इन संस्कृत-शब्दों की, प्राकृत-काल में वही दशा हुई जो पुरानी प्राकृत से आए हुए शब्दों की हुई थी। वे बोलने वालों के मुँह में विकृत हो गए। बोलते-बोलते उनका रूप बिगड़ गया। यहाँ तक कि फिर वे एक तरह के प्राकृत हो गए।
परिमार्जित संस्कृत का शब्द-विभाग
जो शब्द संस्कृत से आ कर प्राकृत में मिल गए हैं वे ”तत्सम” शब्द कहलाते हैं। और मूल प्राकृत शब्द जो सीधे प्राकृत से आए हैं ”तद्भव’ कहलाते हैं। पहले प्रकार के शब्द बिलकुल संस्कृत हैं। दूसरे प्रकार के प्रारंभिक प्राकृत से आए हैं, अथवा यों कहिए कि वे उस प्राकृत या प्राकृत की उस शाखा से आए हैं जिससे खुद संस्कृत की उत्पत्ति हुई हैं। इन दो तरह के शब्दों के सिवा एक तीसरी तरह के शब्द भी प्रचलित हो गए हैं। ये वे तत्सम शब्द हैं जो प्राकृत-भाषा-भाषियों के मुँह में बिगड़ते-बिगड़ते कुछ और ही रूप के हो गए हैं। इनको ‘अर्द्ध-तत्सम” कह सकते हैं। ”तत्सम” शब्दों का स्वभाव ‘अर्द्ध-तत्सम’ होने का है। फल इसका यह हुआ है कि ‘अर्द्ध-तत्सम’ शब्द धीरे-धीरे इतने बिगड़ गए हैं कि उनका और ‘तद्भव’ शब्दों का भेद पहचानना मुश्किल हो गया है। दोनों प्रायः एक ही तरह के हो गए हैं। इस देश के वैयाकरणों ने कुछ शब्दों को, ‘देश्य’ संज्ञा भी दी है। परंतु ये शब्द भी प्रायः संस्कृत ही से निकले हैं, इससे इनको भी ‘तद्भव’ शब्द ही मानना चाहिए। कुछ द्राविड़ भाषा के भी शब्द परिमार्जित संस्कृत में आ कर मिल गए हैं। उनकी संख्या बहुत कम है। अधिक संख्या उन्हीं शब्दों की है जो पुरानी संस्कृत से आए हैं। यहाँ पुरानी संस्कृत से मतलब संस्कृत की उन पुरानी शाखाओं से है जो परिमार्जित संस्कृत की जननी नहीं हैं। पुरानी संस्कृत की जिस शाखा से परिमार्जित संस्कृत निकली है उसे छोड़ कर और शाखाओं से ये शब्द आए हैं। इनकी भी गिनती ‘तद्भव’ शब्दों में है।
हिंदी का शब्द-विभाग
हिंदी से मतलब यहाँ पर, पूर्वी और पश्चिमी दोनों तरह की हिंदी से है। शब्द-विभाग के संबंध में हिंदी का भी ठीक वही हाल है जो संस्कृत का है। अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेजी और द्राविड़ भाषाओं के शब्दों को छोड़ कर शेष सारा शब्द-समूह, संस्कृत ही की तरह, तत्सम, अर्द्ध-तत्सम और तद्भव शब्दों में बँटा हुआ है। हिंदी में जितने तद्भव शब्द हैं या तो वे प्रारंभ की प्राकृतों से आए हैं, या दूसरी शाखा की प्राकृतों से होते हुए संस्कृत से आए हैं। परंतु ठीक-ठीक कहाँ ये आए हैं, इसके विचार की इस समय जरूरत नहीं। दूसरे दरजे की प्राकृत भाषाओं के जमाने में चाहे वहे तद्भव रहे हों, चाहे तत्सम, आधुनिक भाषाओं में वे विशुद्ध तद्भव हैं। क्योंकि आधुनिक भाषाएँ तीसरे दर्जें की प्राकृत हैं, और ये सब शब्द दूसरे दरजे की प्राकृतों से आए हैं। परंतु आज कल के तत्सम और अर्द्धतत्सम शब्द प्रायः परिमार्जित संस्कृत से लिए गए हैं। उदाहरण के लिए ”आज्ञा” शब्द को देखिए। वह विशुद्ध संस्कृत शब्द है। पर हिंदी में आता है। इससे तत्सम हुआ। इसका अर्द्धतत्सम रूप है ”अग्याँ”। इसे बहुधा अपढ़ और अच्छी हिंदी न जानने वाले लोग बोलते हैं। इसी का तद्भव शब्द ”आन” है। यह संस्कृत से नहीं, किंतु दूसरी शाखा की प्राकृत के ”आणा’ शब्द का अपभ्रंश है। इसी तरह ‘राजा’ शब्द तत्सम है, ”राय” तद्भव। प्रत्येक शब्द के तत्सम, अर्द्धतत्सम और तद्भव रूप नहीं पाए जाते। किसी के तीनों रूप पाए जाते हैं। किसी के सिर्फ दो, किसी का सिर्फ एक ही। किसी-किसी शब्द के तत्सम और तद्भव दोनों रूप हिंदी में मिलते हैं। पर अर्थ उनके जुदा-जुदा हैं। संस्कृत ‘वंश’ शब्द को देखिए। उसका अर्थ ‘कुटुंब’ भी है और ‘बाँस’ भी। उसके अर्द्ध-तत्सम ‘बंस’ शब्द का अर्थ तो कुटुंब है, पर उस से दूसरा अर्थ नहीं निकलता। वह अर्थ उसके तद्भव शब्द ‘बाँस’ से निकलता है।
हिंदी पर संस्कृत का प्रभाव
हिंदी ही पर नहीं, किंतु हिंदुस्तान की प्रायः सभी वर्तमान भाषाओं पर, आज सैकड़ों वर्ष से संस्कृत का प्रभाव पड़ रहा है। संस्कृत के अनंत शब्द आधुनिक भाषाओं में मिल गए हैं। परंतु उसका प्रभाव सिर्फ वर्तमान भाषाओं के शब्द-समूह पर ही पड़ा है, व्याकरण पर नहीं। हिंदी-व्याकरण पर आप चाहे जितना ध्यान दीजिए, उसका चाहे विचार कीजिए, संस्कृत का प्रभाव आपको उसमें बहुत कम ढूँढ़े मिलेगा। संस्कृत शब्दों का प्रयोग तो हिंदी में बढ़ता जाता है, पर संस्कृत व्याकरण के नियमों के अनुसार हिंदी-व्याकरण में बहुत ही कम फेर-फार होते हैं। बहुत ही कम क्यों, यदि कोई कहे कि बिलकुल नहीं होते, तो भी अत्युक्ति न होगी। आचार, आहार, विचार, विहार, जल, फल, फल, कला, विद्या आदि सब तत्सम शब्द हैं। ये तद्वत हिंदी में लिख दिए जाते हैं। बहुत कम फेर फार होता है। और होता भी है तो विशेष कर के बहुवचन में जैसे आहारों, विचारों, कलाओं, विद्याओं आदि। यदि इन में विभक्तियाँ लगाई जाती हैं तो संस्कृत की तरह इनका रूपांतरण नहीं हो जाता। हिंदी में पुरुष और वचन के अनुसार क्रियाओं का रूप तो बदल जाता है, पर विभक्तियाँ लगने से संज्ञाओं के रूपों में बहुत कम अदल-बदल होता है। इसी के तत्सम शब्दों से क्रिया का काम नहीं निकलता। यदि ऐसे शब्दों को क्रिया का रूप देना होता है तो एक तद्भव शब्द और जोड़ना पड़ता है। ‘दर्शन’ शब्द तत्सम है। अब इससे यदि क्रिया का काम लेना हो तो ‘करना’ और जोड़ना पड़ेगा। अतएव सर्वसाधारण लक्षण यह है कि हिंदी में जितने नाम या संज्ञाएँ हैं सब या तो तत्सम हैं, या अर्द्धतत्सम हैं, या तद्भव हैं, पर क्रियाएँ जितनी हैं सब तद्भव हैं। यह स्थूल लक्षण है। इसमें कुछ अपवाद भी हैं, पर उनके कारण इस व्यापक लक्षण में बाधा नहीं आ सकती है।
जब से इस देश में छापेखाने खुले और शिक्षा की वृद्धि हुई तब से हिंदी में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुत अधिकता से होने लगा। संस्कृत के कठिन-कठिन शब्दों को हिंदी में लिखने की चाल सी पड़ गई। किसी-किसी पुस्तक के शब्द यदि गिने जायँ तो फीसदी 50 से भी अधिक संस्कृत के तत्सम शब्द निकलेंगे। बँगला में तो इस तरह के शब्दों की और भी भरमार है। किसी-किसी बँगला पुस्तक में फीसदी 88 शब्द विशुद्ध संस्कृत के देखे गए हैं। ये शब्द ऐसे नहीं कि इनकी जगह अपनी भाषा के सीधे-सादे बोलचाल के शब्द लिखे ही न जा सकते हों। नहीं, जो अर्थ इन संस्कृत शब्दों से निकलता है उसी अर्थ के देने वाले अपनी निज की भाषा के शब्द आसानी से मिल सकते हैं। पर कुछ चाल ही ऐसी पड़ गई है कि बोलचाल के शब्द लोगों को पसंद नहीं आते। वे यथा-संभव संस्कृत के मुश्किल-मुश्किल शब्द लिखना ही जरूरी समझते हैं। फल इसका यह हुआ है कि हिंदी दो तरह की हो गई है। एक तो वह जो सर्वसाधारण में बोली जाती है, दूसरी वह जो पुस्तकों, अखबारों और सामायिक पुस्तकों में लिखी जाती है। कुछ अखबारों के संपादक इस दोष को समझते हैं, इससे वे बहुधा बोलचाल ही की हिंदी लिखते हैं। उपन्यास की कुछ पुस्तकें भी सीधी-सादी भाषा में लिखी गई हैं। जिन अखबारों और पुस्तकों की भाषा सरल होती है उनका प्रचार भी औरों से अधिक होता है उनका प्रचार भी औरों से अधिक होता है। इस बात को जान कर भी लोग क्लिष्ट भाषा लिख कर भाषा-भेद बढ़ाना नहीं छोड़ते। इसका अफसोस है। कोई कारण नहीं कि जब तक बोलचाल की भाषा के शब्द मिलें, संस्कृत के कठिन तत्सम शब्द क्यों लिखे जायँ? घर शब्द क्या बुरा है जो ‘गृह’ लिखा जाय? कलम क्या बुरा है जो लेखनी लिखा जाय? ऊँचा क्या बुरा है जो ‘उच्च’ लिखा जाय? संस्कृत जानना हम लोगों का जरूर कर्तव्य है। पर उसके मेल से अपनी बोलचाल की हिंदी को दुर्बोध करना मुनासिब नहीं। पुस्तकें लिखने का सिर्फ इतना ही मतलब होता है कि जो कुछ उनमें लिखा गया है वह पढ़ने वालों की समझ में आ जाय। जितने ही अधिक लोग इन्हें पढ़ेंगे उतना ही अधिक लिखने का मतलब सिद्ध होगा। तब क्या जरूरत है कि भाषा क्लिष्ट करके पढ़ने वालों की संख्या कम की जाय? जो संस्कृत-भाषा हजारों वर्ष पहले बोली जाती थी उसे मिलाने की कोशिश कर के अपनी भाषा के स्वाभाविक विकास को रोकना बुद्धिमानी का काम नहीं। स्वतंत्रता सब के लिए एक सी लाभदायक है। कौन ऐसा आदमी है जिसे स्वतंत्रता प्यारी न हो? फिर क्यों हिंदी से संस्कृत की पराधीनता भोग कराई जाय? क्यों न वह स्वतंत्र कर दी जाय? संस्कृत, फारसी, अंगरेजी आदि भाषाओं के जो शब्द प्रचलित हो गए हैं उनका प्रयोग हिंदी में होना ही चाहिए। वे सब अब हिंदी के शब्द बन गए हैं। उनसे घृणा करना उचित नहीं।
डाक्टर ग्रियर्सन की राय है कि काशी के कुछ लोग हिंदी की क्लिष्टता को बहुत बढ़ा रहे हैं। वहाँ संस्कृत की चर्चा अधिक है। इस कारण संस्कृत का प्रभाव हिंदी पर पड़ता है। काशी में तो किसी-किसी को उच्च भाषा लिखने का अभिमान है। यह उनकी नादानी है। यदि हिंदी का कोई शब्द न मिले तो संस्कृत का शब्द लिखने में हानि नहीं, जान-बूझ कर भाषा को उच्च बनाना किसी के पैरों में कुल्हाड़ी मारना है। जिन भाषाओं से हिंदी की उत्पत्ति हुई है उनमें मन के सारे भावों के प्रकाशित करने की शक्ति थी। वह शक्ति हिंदी में बनी हुई है। उस का शब्द-समूह बहुत बड़ा है। पुरानी हिंदी में उत्तमोत्तम काव्य, अलंकार और वेदांत के ग्रंथ भरे पड़े हैं। कोई बात ऐसी नहीं, कोई भाव ऐसी नहीं, कोई विषय ऐसा नहीं जो विशुद्ध हिंदी शब्दों में न लिखा जा सकता हो। तिस पर भी बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है, कि कुछ लोग, कुछ वर्षों से, एक बनावटी क्लिष्ट भाषा लिखने लगे हैं। पढ़ने वालों की समझ में उनकी भाषा आवेगी या नहीं, इसकी उन्हें परवा नहीं रहती। सिर्फ अपनी विद्वत्ता दिखाने की उन्हें परवा रहती है। बस। कला-कौशल और विज्ञान आदि के पारिभाषिक शब्दों का भाव आदि संस्कृत-शब्दों में दिया जाय तो हर्ज नहीं। इस बात की शिकायत नहीं। शिकायत साधारण तौर पर सभी तरह की पुस्तकों में संस्कृत शब्द भर देने की है। इन्हीं बातों के ख्याल से गवर्नमेंट ने मदरसों की प्रारंभिक पुस्तकों की भाषा बोलचाल की कर दी है। अतएव हिंदी के प्रतिष्ठित लेखकों को भी चाहिए कि संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग यथासंभव कम किया करें।
द्राविड़ भाषाओं का प्रभाव
प्राचीन आर्य जब भारतवर्ष में पहले पहल पधारे तब भारतवर्ष उजाड़ न था। आबाद था। जो लोग यहाँ रहते वे आर्यों की तरह सभ्य न थे। आर्यों ने धीरे-धीरे उनको आगे हटाया और उनके देश पर कब्जा कर लिया। प्राचीन आर्यों के ये प्रतिपक्षी वर्तमान द्राविड़ और मुंडा जाति के पूर्वज थे। उनमें और आर्यों में वैर-भाव रहने पर भी कुछ दिनों बाद सब पास-पास रहने लगे। परस्पर का भेद-भाव बहुत कम हो गया। आपस में शादी ब्याह तक होने लगे। परस्पर के रीति-रस्म बहुत-कुछ एक हो गए। इस निकट संपर्क के कारण द्राविड़ भाषा के बहुत से शब्द संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाओं में आ गए। वे प्राकृत और अपभ्रंश से होते हुए वर्तमान हिंदी में भी आ पहुँचे हैं। यद्यपि उनका वह पूर्वरूप नहीं रहा, तथापि ढूँढ़ने से अब भी उनका पता चलता है। आदिम आर्य एशिया के जिस प्रांत से भारत में आए थे उस प्रांत में भारत की बहुत सी चीजें न होती थीं। इससे भारत में आ कर आर्यों ने उन चीजों के नाम द्राविड़ और मुंडा जाति के पूर्वजों से सीखे और उन्हें अपनी भाषा में मिला लिया। इसके सिवा कोई-कोई बातें ऐसी भी हैं जिन्हें आर्य लोग कई तरह से कह सकते थे। इस दशा में उनके कहने का जो तरीका द्राविड़ लोगों के कहने के तरीके से अधिक मिलता था उसी को वे अधिक पसंद करते थे। पुरानी संस्कृत का एक शब्द है ‘कृते’, जिसका अर्थ है ‘लिए’। होते-होते इसका रूपांतर ‘कहुँ’ हुआ। वर्तमान ‘को’ इसी का अपभ्रंश है। इसका कारण यह है कि द्राविड़ भाषा में एक विभक्ति थी ‘कु’। वह संप्रदान कारक के लिए थी और अब तक है। उसे देख कर पुराने आर्यों ने संप्रदान कारक के और चिह्नों को छोड़ कर ‘कृते’ के ही अपभ्रंश को पसंद किया। जिन लोगों का संपर्क द्राविड़ों के पूर्वजों से अधिक था उन्हीं पर उनकी भाषा का अधिक असर हुआ, औरों पर कम या बिल्कुल ही नहीं। यही कारण है कि आर्य-भाषाओं की कितनी ही शाखाओं में द्राविड़ भाषा के प्रभाव का बहुत ही कम असर देखा जाता है। किसी-किसी भाषा में तो बिल्कुल ही नहीं है।
भाषा-विकास के नियमों के वशीभूत हो कर कठोर वर्ण कोमल हो जाया करते हैं और बाद में बिल्कुल ही लोप हो जाते हैं। प्राचीन संस्कृत के ‘चलति’ (जाता है, चलता है) शब्द को देखिए। वह पहले तो ‘चलति’ हुआ, फिर ‘चलई’। ‘त’ बिल्कुल ही जाता रहा। भाषा शास्त्र के एक व्यापक नियमानुसार यह परिवर्तन हुआ। पर कहीं-कहीं इस नियम के अपवाद पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए संस्कृत ‘शोक’ शब्द को लीजिए। उसे ‘सोअ’ होना चाहिए था। पर ‘सोअ’ न हो कर ‘सोग’ हो गया। अर्थात् ‘क’ व्यंजन का रूपांतर ‘ग’ बना रहा। यह इसीलिए हुआ, क्योंकि द्राविड़ भाषा में इस तरह के व्यंजनों का बहुत प्राचुर्य है। अतएव सिद्ध है कि संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाओं पर द्राविड़ भाषाओं का असर जरूर पड़ा। और उस असर के चिह्न हिंदी में भी पाए जाते हैं।
और भाषाओं का प्रभाव
मुसलमानों के संपर्क से फारसी के अनेक शब्द हिंदी में मिल गए हैं। साथ ही इसमें कितने ही शब्द अरबी के और थोड़े से तुर्की के भी आ मिले हैं पर ये अरबी और तुर्की के शब्द फारसी से हो कर आए हैं। अर्थात् फारसी बोलने वालों ने जिन अरबी और तुर्की शब्दों को अपनी भाषा में ले लिया था वही शब्द मुसलमानों के संयोग से हिंदुस्तान में प्रचलित हुए हैं। खास अरबी और तुर्की बोलने वालों के संयोग से हिंदी में नहीं आए। यद्यपि अरबी, तुर्की और फारसी के बहुत से शब्द हिंदी में मिल गए हैं, तथापि उनके कारण हिंदी के व्याकरण में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इन विदेशी भाषाओं के शब्दों ने हिंदी की शब्द-संख्या जरूर बढ़ा दी है, पर व्याकरण पर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ता। हाँ, इन शब्दों के कारण एक बात लिखने लायक जो हुई है वह यह है कि मुसलमान और फारसीदाँ हिंदू जब ऐसी हिंदी लिखते हैं, जिसमें फारसी, अरबी और तुर्की के शब्द अधिक होते हैं, तब उनके वाक्य-विन्यास का क्रम साधारण हिंदी से कुछ जुदा तरह का जरूर हो जाता है।
फारसी, अरबी और तुर्की के सिवा पोर्चुगीज, डच और अंगरेजी भाषा के भी कुछ शब्द हिंदी में आ मिले हैं। उनमें अंग्रेजी शब्दों की संख्या अधिक है। इसका कारण अंगरेजों का अधिक संपर्क है। यह संपर्क जैसे-जैसे बढ़ता जायगा तैसे-तैसे और भी अधिक अंगरेजी शब्दों के आ मिलने की संभावना है।
सारांश
यहाँ तक जो कुछ लिख गया उससे मालूम हुआ कि हमारे आदिम आर्यों की भाषा पुरानी संस्कृत थी। उसके कुछ नमूने ऋग्वेद में वर्तमान हैं। उसका विकास होते-होते कई प्रकार की प्राकृतें पैदा हो गईं। हमारी विशुद्ध संस्कृत किसी पुरानी प्राकृत से ही परिमार्जित हुई है। प्राकृतों के बाद अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति हुई और उनसे वर्तमान संस्कृतोत्पन्न भाषाओं की। हमारी वर्तमान हिंदी, अर्धमागधी और शौरसेनी अपभ्रंश से निकली है। अतएव जो लोग यह समझते हैं कि हिंदी की उत्पत्ति प्रत्यक्ष संस्कृत से है वे डाक्टर ग्रियर्सन की सम्मति के अनुसार भूलते हैं। डाक्टर साहब की राय सयुक्तिक जान पड़ती है। वे आज कई वर्षों से भाषाओं की खोज का काम कर रहे हैं। इस खोज में जो प्रमाण उनको मिले हैं उन्हीं के आधार पर उन्होंने अपनी राय कायम की है। एक बात तो बिल्कुल साफ है कि हिंदी में संस्कृत शब्दों की भरमार अभी कल से शुरू हुई है। परिमार्जित संस्कृत चाहे सर्वसाधारण की बोली कभी रही भी हो, पर उसके बाद हजारों वर्ष तक जो भाषाएँ इस देश में बोली गई होंगी उन्हीं से आज कल की भाषाओं और बोलियों की उत्पत्ति मानना अधिक संभवनीय जान पड़ता है। जिस परिमार्जित संस्कृत को कुछ ही लोग जानते थे उससे सर्वसाधारण की बोलियों और भाषाओं का उत्पन्न होना बहुत कम संभव मालूम होता है।
यह निबंध यद्यपि हिंदी ही की उत्पत्ति का दिग्दर्शन करने के लिए है तथापि प्रसंगवश और-और भाषाओं की उत्पत्ति और उनके बोलने वालों की संख्या आदि का भी उल्लेख कर दिया गया है। आशा है पाठकों को यह बात नागवार न होगी।
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