अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 16 – (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
मियाँ आजाद के पाँव में तो आँधी रोग था। इधर-उधर चक्कर लगाए, रास्ता नापा और पड़ कर सो रहे। एक दिन साँड़नी की खबर लेने के लिए सराय की तरफ गए, तो देखा, बड़ी चहल-पहल है। एक तरफ रोटियाँ पक रही हैं, दूसरी तरफ दाल बघारी जाती है। भठियारिनें मुसाफिरों को घेर-घार कर ला रही हैं, साफ-सुथरी कोठरियाँ दिखला रही हैं। एक कोठरी के पास एक मोटा-ताजा आदमी जैसे ही चारपाई पर बैठा, पट्टी टूट गई। आप गड़ाप से झिलँगे में हो रहे। अब बार-बार उचकते है; मगर उठा नहीं जाता। चिल्ला रहे हैं कि भाई, मुझे कोई उठाओ। आखिर भठियारों ने दाहिना हाथ पकड़ा, बाईं तरफ मियाँ आजाद ने हाथ दिया और आपको बड़ी मुश्किल से खींच खाँच के निकाला। झिलँगे से बाहर आए, तो सूरत बिगड़ी हुई थी। कपड़े कई जगह मसक गए थे। झल्ला कर भठियारी से बोले – वाह, अच्छी चारपाई दी! जो मरे हाथ-पाँव टूट जाते, या सिर फूट जाता, तो कैसी होती?
भठियारी – ऐ वाह मियाँ, ‘उलटा चोर कोतवाल को डाँटे!’ एक तो छपरखट को चकनाचूना कर डाला, पट्टी के बहत्तर टुकड़े हो गए, देंगे टका और छह रुपए पर पानी फेर दिया, दूसरे हमीं को ललकारते हैं!
आजाद – जनाब, इन भठियारियों के मुँह न लगिए, कहीं कुछ कह बैठें, तो मुफ्त ही झेंप हो। देख भाल कर बैठा कीजिए। कहाँ से आ रहे हैं?
हकीम – यहीं तक आया हूँ।
आजाद – आप आए कहाँ से हैं?
हकीम – जी गोपामऊ मकान है।
आजाद – यहाँ किस गरज आना हुआ?
हकीम – हकीम हूँ।
आजाद – यह कहिए कि आप तबीब है।
हकीम – तबीब आप खुद होंगे, हम हकीम हैं।
आजाद – अच्छा साहब, आप हकीम ही सही, क्या यहाँ हिकमत कीजिएगा?
हकीम – और नहीं तो क्या, भाड़ झोकने आया हूँ? या सनीचर पैरों पर सवार था? भला यह तो फर्माइए कि यह कैसी जगह है? लोग किस फैसन के हैं? आब-हवा कैसी है?
आजाद – यह न पूछिए जनाब। यहाँ के बाशिंदे पूरे घुटे हुए, आठों गाँठ कुम्मैत हैं। और आब-हवा तो ऐसी है कि बरसों रहिए, पर सिर में दर्द तक न हो। पाव भर की खुराक हो, तो तीन पाव खाइए। डकार तक आए, तो मुझे सजा दीजिए।
यह सुन कर हकीम साहब ने मुँह बनाया और बोले – तब तो बुरे फँसे!
आजाद – क्यों, बुरे क्यों फँसे? शौक से हिकमत कीजिए। आब-हवा अच्छी है, बीमारी का नाम नहीं।
हकीम – हजरत, आप निरे बुद्धू हैं। एक तो आपने यह गोला मारा कि आब-हवा अच्छी है। इतना नहीं समझते कि आब-हवा अच्छी है, तो हमसे क्या वास्ता, हमें कौन पूछेगा। बस, हाथ पर हाथ रखे मक्खियाँ मारा करेंगे। हम तो ऐसे शहर जाना चाहते हैं, जहाँ हैजे का घर हो, बुखार पीछा न छोड़ता हो, दस्त और पेचिश की सबको शिकायत हो, चेचक का वह जोर हो कि खुदा की पनाह। तब अलबत्ता हमारी हँड़ियाँ चढ़े। आपने तो वल्लाह, आते ही गोला मारा। आप फरमाते हैं कि यहाँ पाव भर के बदले तीन पाव गिजा हजम होती है। आमदनी टका नहीं और खायँ चौगुना। तो कहिए, मरे या जिए? बंदा सबेरे ही बोरिया-बँधना उठा कर चंपत होगा। ऐसी जगह मेरी बला रहे, जहाँ सब हट्टे-कट्टे ही नजर आते हैं। भला कोई खास मरज भी हैं यहाँ। या मरज का इस तरज गुजर ही नहीं हुआ?
आजाद – हजरत, यहाँ के पानी में यह असर हे कि बरसों का मरीज आए, और एक कतरा पी ले, तो बस, खासा हट्टा-कट्टा हो जाय।
हकीम – पानी क्या अमृत है! तो सही, जो पानी में जहर न मिला दिया हो।
आजाद – जनाब, हजारों कुएँ और पचासों बावलियाँ हैं, किस-किस में जहर मिलाते फिरएगा?
हकीम – खैर भाई, समझा जाएगा; मगर बुरे फँसे! इस वक्त होश ठिकाने नहीं है! ओ भठियारी, जरी हमको पंसारी की दुकान से तोला भर सिकंजबीन तो ला देना।
भठियारी – ऐ मियाँ, पंसारी यहाँ कहाँ? किसी फकीर की दुआ ऐसी है कि यहाँ हकीम और पंसारी जमने ही नहीं पाता। कई हकीम आए, मगर कब्र में हैं। कई पंसारियों ने दुकान जमाई मगर चिता में फूँक दिए गए। यहाँ तो बीमारी ने न आने की कसम खाई है।
हकीम – भई, बड़ा निकम्मा शहर है। खुदा के लिए हमें टट्टू किराए पर कर दो, तो रफू-चक्कर हो जायँ। ऐसे शहर की ऐसी-तैसी।
इन्हें पता बता कर आजाद सराय के दूसरे हिस्से में जा पहुँचे। क्या देखते हैं, एक बुजुर्ग आदमी बिस्तर जमाए बैठे हैं। आजाद बेतकल्लुफ तो थे ही,’सलाम अलेक’ कह कर पास जा बैठे। वह भी बड़े तपाक से पेश आए। हाथ मिलाया, गले मिले, मिजाज पूछा।
आजाद – आप यहाँ किस गरज से तशरीफ लाए हैं?
उन्होंने जवाब दिया – जनाब, मैं वकील हूँ। यहाँ वकालत करने का इरादा है। कहिए, यहाँ की अदालत का क्या हाल है?
आजाद – यह न पूछिए। यहाँ के लोग भीगी बिल्ली हैं; लड़ना-भिड़ना जानते ही नहीं। साल भर में दो-चार मुकदमें शायद होते हों। चोरी-चकारी यहाँ कभी सुनने ही में नहीं आती। जमीन, आराजी, लगान, पट्टीदारी के मुकद्दमे कभी सुने ही नहीं। कर्ज कोई ले न दे।
वकील साहब का रंग उड़ गया। मगर हकीमजी की तरह झल्ले तो थे नहीं, आहिस्ता से बोले – सुभान अल्लाह, यहाँ के लोग बड़े भले आदमी हैं। खुदा उनको हमेशा नेक रास्ते पर ले जाय। मगर दिल में अफसोस हुआ कि इस टीम-टाम, धूम-धाम से आए, और यहाँ भी वही ढाक के तीन पात। जब मुकद्दमे ही न होंगे, तो खाऊँगा क्या, दुश्मन का सिर। इन्हें भी झाँसा दे कर आजाद आगे बढ़े, तो देखा, चारपाई बिछाए शहतूत के पेड़ के नीचे एक साहब बैठे हुक्का उड़ा रहे हैं। आजाद ने पूछा – आपका नाम?
वह बोले – गुम-नाम हूँ।
आजाद – वतन कहाँ है?
वह – फकीर जहाँ पड़ रहे, वहीं उसका घर।
आजाद – आपका पेशा क्या है?
वह – खूने-जिगर खाना।
आजाद – तो आप शायर हैं, यह कहिए।
आजाद चारपाई के एक कोने पर बैठ गए और बेतकल्लुफ हो कर बोले – जनाब, हुक्का तो मेरे हवाले कीजिए और आप अपना कलाम सुनाइए। शायर साहब ने बहुत कुछ चुना-चुनी के बाद दूसरे का कलाम अपना कह कर सुनाया –
क्या हाल हो गया है दिले-बेकरार का
आजाद हो किसी को इलाही, न प्यार का।
मशहूर है जो रोजे-कयामत जहान में;
पहला पहर है मेरी शबे-इंतिजार का।
इमतास देखना मेरी वहशत के बलबले;
आया है धूमधाम से मौसम बहार का।
राह उनकी तकते-तकते जो मुद्दत गुजर गई;
आँखों को हौसला न रहा इंतिजार का।
आजाद – सुभान-अल्लाह, आपका कलाम बहुत ही पाकीजा है। कुछ और उस्तादों के कलाम सुनाइए।
शायर – बहुत खूब; सुनिए –
दाग दे जाते हैं जब आते हैं;
यह शिगूफा नया वह लाते हैं।
आजाद – सुभान-अल्लाह! दाग के लिए शिगूफा, क्या खूब!
शायर – यार तक वार कहाँ पाते हैं;
रास्ता नाप के रह जाते हैं।
आजाद – वाह, क्या बोलचाल है!
शायर – फिर जुनूँ दस्त न दिखलाए हमें;
आज तलवे मेरे खुजलाते हैं।
आजाद – वाह वाह, क्या जबान है!
शायर – फूल का जाम पिलाओ साकी;
काँटे तालू में पड़े जाते हैं।
आजाद – फूल के लिए काँटे क्या खूब।
शायर – कंघी के नाम से होते हैं खफा;
बात सुलझी हुई उलझाते हैं।
आजाद – बहुत खूब।
शायर- अच्छा जनाब, यह तो फर्माइए, यहाँ के रईसों में कोई शायरी का कदरदान भी है?
आजाद – किब्ला, यह न पूछिए। यहाँ मारवाड़ी अलबत्ता रहते हैं। शायर या मुंशी की सूरत से नफरत है। यहाँ के रईसों से कुछ भी भरोसा न रखिए।
शायर – तब तो यहाँ आना ही बेकार हुआ। आखिर, क्या एक भी रंगीन मिजाज रईस नहीं है?
आजाद – अब आप तो मानते ही नहीं। यहाँ कदरदाँ खुदा का नाम है।
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