अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 20 – (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
दूसरे दिन सवेरे आजाद की आँख खुली तो देखा, एक शाह जी उनके सिरहाने खड़े उनकी तरफ देख रहे हैं। शाह जी के साथ एक लड़का भी है, जो अलारक्खी को दुआएँ दे रहा है। आजाद ने समझा, कोई फकीर है, झठ उठ कर उनको सलाम किया। फकीर ने मुसकिरा कर कहा – हुजूर, मेरा इनाम हुआ। सच कहिएगा, ऐसे बहुरूपिए कम देखे होंगे। आजाद ने देखा गच्चा खा गए, अब बिना इनाम दिए गला न छूटेगा। बस, अलारक्खी की भड़कीली दुलाई उठाकर दे दी। बहुरूपिए ने दुलाई ली, झुक कर सलाम किया और लंबा हुआ। लौंडे ने देखा कि मैं ही रहा जाता हूँ। बढ़ कर आजाद का दामन पकड़ा। हुजूर, हमें कुछ भी नहीं? आजाद ने जेब से एक रुपया निकाल कर फेंक दिया। तब अलारक्खी चमक कर आगे बढ़ीं और बोलीं – हमें?
आजाद – तुम्हारे लिए जान हाजिर है।
चंडूबाज – यह सब जबानी दाखिल है। बीवी को यह खबर ही नहीं कि दुलाई इनाम में चली गई। उलटे चली हैं माँगने। यह तो न हुआ कि चाँदी के छड़े बनवा देते, या किसी दिन हमी को दो-चार रुपए दे डालते। जाओ मियाँ, बस, तुमको भी देख लिया। गौं के यार हो,’चमड़ी जाय दमड़ी न जाय।’
अलारक्खी – कहीं तेरे सिर गरमी तो नहीं चढ़ गई। जरा चंदिया के पट्ट करतवा डाल। यह चमड़ी और दमड़ी का कौन मौका था। यह बताइए, अब निकाह की कब तैयारियाँ हैं?
आजाद – अभी निकाह की उम्मेद आपको है? वल्लाह, कितनी भोली हो!
अल्लारक्खी – तो क्या आप निकल भी जाएँगे? ऐ, मैं तो चढ़ूँगी अदालत! कह-कह कर मुकर जाना क्या हँसी-ठट्ठा है!
आजाद – तो क्या नालिश कीजिएगा?
अलारक्खी – क्यों, क्या कोई शक भी है! हम क्या किसी के दबैल हैं?
चंडूबाज – और गवाह को देख रखिए। दुलाई क्या झप से उठ दी। परायी दुलाई के आप कौन देनेवाले थे? अजी, मैं तो वह – वह सवाल-जवाब करूँगा कि आपके होश उड़ जायँगे।
आजाद – अच्छी बात है, यह शौक से नालिश करें और आप गवाही दें। इन्हें तो क्या कहूँ, पर तुम्हें समझूँगा।
चंडूबाज – मुझसे ऐसी बातें न कीजिएगा, नहीं मैं फिर गुद्दा ही दूँगा।
अलारक्खी – चल, हट, बड़ा आया वहाँ से गुद्दा देने वाला। अभी मैं चिमट जाऊँ, तो चीखने लगे, उस पर गुद्दा देंगे।
आजाद – तो फिर जाइए वकील के यहाँ, देर हो रही है।
अलारक्खी – तो क्या सचमुच तुम्हें इनकार है? मियाँ, आँखें खुल जाएँगी। जब सरकार का प्यादा आएगा, तो भागने को जगह न मिलेगी।
चंडूबाज – यह हैं शोहदे, यों नहीं मानने के। चलो चलें, दिन चढ़ता आता है। अभी कंघी-चोटी में तुम्हें घंटों लगेंगे और वह सरकारी-दरबारी आदमी ठहरे। मुवक्किल सुबह-शाम घेरे रहते हैं। जब देखो, बग्घियाँ, टमटम, फिटन, जोड़ी, गाड़ी, हाथी, घोड़े, पालकी, इक्के, ताँगे, याबू, फिनस, म्याने दरवाजे पर मौजूद।
आजाद – क्या और किसी सवारी का नाम याद नहीं था? आज सरूर खूब गठे हैं।
चंडूबाज – अजी, यहाँ अलारक्खी की बदौलत रोज ही सरूर गठे रहते हैं।
अलारक्खी ने कोठरी में जा कर सिंगार किया और निखर कर चलीं, तो आजाद की निगाह पड़ ही गई। चार आँखें हुईं, तो दोनो मुस्किरा दिए। चंडूबाज ने यह शेर पढ़ा –
उनको देखो तो यह हँस देते हैं;
आँख छिपती ही नहीं यारी की।
अलारक्खी एक हरी-हरी छतरी लगाए छम-छम करती चली। बिगड़े-दिल आवाजें कसते थे, पर वह किसी तरफ आँख उठा कर न देखती थी। चंडूबाज ‘हटो, बचो’ करते चले जाते थे। जरी हट जाना सामने से। ऐं, क्या छकड़ा आता है, क्यों हट जायँ? अख्खाह, यह कहिए, आपकी सवारी आ रही है। लो साहब, हट गए। एक रसिया ने पीछा किया। ये लोग आगे-आगे चले जा रहे हैं और मियाँ रसिया पीछे-पीछे गजलें पढ़ते चले आ रहे हैं। चंडूबाज ने देखा कि यह अच्छे बिगड़े-दिल मिले। साथ जो हुआ, तो पीछा ही नहीं छोड़ते। आप हैं कौन? या आगे बढ़िए या पीछे चलिए। किसी भलेमानस को सताते क्यों हैं? इस पर अलारक्खी ने चंडूबाज के कान में चुपके से कहा – यह भी तो शकल-सूरत से भलेमानस मालूम होते हैं। हमें इनसे कुछ कहना है।
चंडूबाज – आप तो वकील के पास चलती थीं, कहाँ इस सिड़ी-सौदई से साँठ-गाँठ करने की सूझी? सच है, हसीनों के मिजाज का ठिकाना ही क्या। बोले – अजी साहब, जरी इधर गली में आइएगा, आपसे कुछ कहना है।
रसिया – वाह, ‘नेकी और पूछ-पूछ!’
तीनों गली में गए, तो अलारक्खी ने कहा – कहीं तुम्हारे मकान भी है? यहाँ इस गलियारे में क्या कहूँ, कोई आवे, कोई जाय। खड़े-खड़े बातें हुआ करती हैं?
चंडूबाज ने सोचा कि दूसरा गुल खिला चाहता है। पूछा – मियाँ, तुम्हारा मकान यहाँ से कितनी दूर है। जो काले कोसों हो, तो मैं लपक कर बग्घी किराया कर लूँ। इनसे इतनी दूर न चला जायगा। इनको तो मारे नजाकत के छतरी ही का सँभालना भारी है।
रसिया – नहीं साहब, दूर नहीं है। बस, कोई दस कदम आइए। रसिया ने छतरी ले ली और खिदमतगार की तरह छतरी लगा कर साथ-साथ चलने लगे। चंडूबाज ने देखा, अच्छा गावदी मिला। खुद की छतरी के साये में रईस बने हुए चलने लगे। थोड़ी देर मे रसिया के मकान पर पहुँचे।
रसिया – वह आएँ घर में हमारे, खुदा की कुदरत है,
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं।
यहाँ तो सच्चे आशिक हैं। जिसको दिल दिया, उसको दिया। जान जाय; माल जाय; इज्जत जाय; सब मंजूर है।
चंडूबाज – अच्छा, अब इनका मतलब सुनिए। यह बेचारी अभी अठारह-उन्नीस बरस की होंगी? अभी कल तो पैदा हुई हैं। अब सुनिए कि इनके मियाँ इनसे लड़-झगड़ कर हैदराबाद भाग गए। वहाँ किसी को घर में डाल लिया। अब यह अकेली हैं, इनका जी घबराता है, इतने में एक शौकीन रईस सराय में उतरे, बड़े खूबसूरत कल्ले-छल्ले के जवान हैं।
अलारक्खी – मियाँ, आँखें तो ऐसी रसीली कि देखी न सुनी।
चंडूबाज – ऐ, तो मुझी को अब कहने दो। तुम तो बात काटे देती हो। हाँ, तो मैं कहता था कि इनकी-उनकी आँखें चार हुई, तो इधर यह, उधर वह, दोनों घायल हो गए। पहले तो आँखों ही आँखों में बातें हुआ की। फिर खुल के साफ कह दिया कि हम तुमको ब्याहेंगे। फिर न जाने क्या समझ कर मुकर गए। अब इनका इरादा है कि उन पर नालिश ठोंक दें।
रसिया – अजी, उनको भाड़ में झोंको। जो ब्याह ही करना है, तो हमसे निकाह पढ़वाओ। उनका पता बताओ।
अलारक्खी – सच कहूँ, तुम मर्दों का हमें एतबार दमड़ी भर भी नहीं रहा। अब जी नहीं चाहता कि किसी से दिल मिलाएँ।
रसिया – तुमने अभी हमें पहिचाना ही नहीं। पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं। हम शरीफजादे हैं!
अलारक्खी – लोग यही समझते हैं कि अलारक्खी बड़ी खुशनसीब है। मगर मियाँ, मैं किससे कहूँ, दिल का हाल कोई क्या जाने।
चंडूबाज – यही देखिए, अर्जीदावा है।
रसिया – अरे, यह किस पागल ने लिखा है जी? ऐसा भला कहीं हो सकता है कि सरकार आजाद से तुम्हारा निकाह करवा ही दे? हाँ, इतना हो सकता है कि हरजा दिलवा दे। पर उसका सबूत भी जरा मुश्किल है।
अलारक्खी – अजी, होगा भी, मसौदा फाड़ डालो। आजाद से अब मतलब ही क्या रहा?
रसिया – हम बताएँ, नालिश तो दाग दो। हरजा मिला तो हर्ज ही क्या है। बाकी ब्याह किसी के अख़्तियार मे नहीं। उधर तुमने मुकदमा जीता, इधर हम बरात ले कर आए।
अलारक्खी – तो चलो, तुम भी वकील के यहाँ तक चले चलो न।
रसिया – हाँ, हाँ, चलो।
तीनों आदमी वकील के यहाँ पहुँचे। लेकिन बड़ी देर तक बाहर ही टापा किए। यह रईस आए, वह अमीर आए। कभी कोई महाजन आया। बड़ी देर के बाद इनकी तलबी हुई; मगर वकील साहब जो देखते हैं, तो अलारक्खी का मुँह उतरा हुआ है, न वह चमक-दमक है, न वह मुसकिराना और लजाना। पूछा – आखिर, माजरा क्या है? आज इतनी उदास क्यों हो? कहाँ वह छवि थी, कहाँ यह उदासी छाई हुई है? अलारक्खी ने इसका तो जवाब कुछ न दिया, फूट-फूट कर रोने लगी। आँसू का तार बंध गया। वकील सन्नाटे में। आज यह क्या माजरा है, इनकी आँखों में आँसू!
चंडूबाज – हुजूर, यह बड़ी पाकदामन हैं। जितनी ही चंचल हैं, उतनी ही समझदार। मेरा खुदा गवाह है, बुरी राह चलते आज तक नहीं देखा। इनकी पाकदामनी की कसम खानी चाहिए। अब यह फरमाइए, मुकदमा कैसे दायर किया जाय।
रसिया – जी हाँ, कोई अच्छी तदबीर बताइए। जबरदस्ती शादी तो हो नहीं सकती। अगर कुछ हरजाना ही मिल जाय, तो क्या बुरा? भागते भूत की लँगोटी ही सही। कुछ तो ले ही मरेंगी।
चंडूबाज – मरें इनके दुश्मन, आप भी कितने फूहड़ हैं, वाह!
वकील – अच्छा, यह तो बताइए कि वह रईस कहाँ से आएँगे, जो कहें कि हमसे और इनसे ब्याह की ठहरी थी?
रसिया – अब बता ही दूँ। बंदा ही कहेगा कि हमसे महीनों से बातचीत है, आजाद बीच में कूद पड़े। वल्लाह, वह-वह जवाब दूँ कि आप भी खुश हो जायँ।
वकील – वाह तो फिर क्या पूछना। हम आपको दो-एक चुटकिले बता देंगे, कि आप फर्राटे भरने लगिएगा। मगर दो-एक गवाह तो ठहरा लीजिए।
चंडूबाज – एक गवाह तो मैं ही बैठा हूँ, फर्राटेबाज।
खैर तीनों आदमी कचहरी पहुँचे। जिस पेड़ के नीचे जा कर बैठे, वहाँ मेला सा लग गया। कचहरी भर के आदमी टूटे पड़ते हैं। धक्कमधक्का हो रहा है। चंडूबाज वारिसअलीखाँ बने बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं। जाओ भई, अपना काम करो, आखिर यहाँ क्या मेला है, क्या भेड़िया-धसान है।
एक – आप लाए ही ऐसी हैं।
दूसरा – अच्छा, हम खड़े हैं, आपका कुछ इजारा है? वाह अच्छे आए।
तीसरा – भाई, जरी हँस-बोल लें, आखिर मरना तो है ही।
जब एक बजा, तो बी अलारक्खी इठलाती हुई सवाल देने चलीं। चंडूबाज एक हाथ में हुक्का लिए हैं, दूसरे में छतरी। खिदमतगार बने चले जाते हैं। लोग इधर-उधर झुंड के झुंड खड़े हैं; पर कोई बताता नहीं कि अर्जी कहाँ दी जाती है। एक कहता है, दाहिने हाथ जाओ। दूसरा कहता है, नहीं-नहीं, बाएँ-बाएँ। बड़ी मुश्किल से इजलास तक पहुँची।
उधर आजाद पड़े-पड़े सोच रहे थे कि इस बेफिक्री का कहीं ठिकाना है? जो कहीं नवाब के आदमी छूटें तो चोर के चोर बनें और उल्लू के उल्लू बनाए जायँ। किसी को मुँह दिखाने लायक न रहें। आबरू पर पानी फिर गया। अभी देखिए, क्या-क्या होता है। कहाँ-कहाँ ठोकरें खाते हैं!
इतने में सराय में लेना-लेना का गुल मचा। यह भी भड़भड़ा कर कोठरी से बाहर निकले, तो देखते हैं कि साँड़नी ने रस्सी तोड़-ताड़ कर फेंक दी है और सराय भर में उचकती फिरती है। पहले एक मुसाफिर के टट्टू की तरफ झुकी ओर उसको मारे पुस्तों के बौखला दिया। मुसाफिर बेचारा एक लग्गा लिए खटाखट हाथ साफ कर रहा है। फिर जो वहाँ से उछली, तो दो-तीन बैलों का कचूमर ही निकाल डाला। गाड़ीवान हाँय-हाँय कर रहा है; लेकिन इस हाँय-हाँय से भला ऊँट समझा किए हैं। यहाँ से झपटी, तो तीन-चार इक्कों के अंजर-पंजर अलग कर दिए। आजाद तो बड़ा दिखा रहे हैं और आवाजें कर रहे हैं। लोग तालियाँ बजा देते हैं, तो वह और भी बौखला जाती है। बारे बड़ी मुश्किल से नकेल उनके हाथ में आई। उसे बाँध कर कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे कि अलारक्खी और चंडूबाज अदालत के एक मजकूरी के साथ आ पहुँचे। आजाद ने मुँह फेर लिया और मीठे सुरों में गाने लगे –
ठानी थी दिल में, अब न मिलेंगे किसी से हम;
पर क्या करें कि हो गए लाचार जी से हम।
मजकूरी – हुजूर, सम्मन आया है।
आजाद – तुम मेरे पास होते हो गोया;
जब कोई दूसरा नहीं होता।
मजकूरी – सम्मन आया है, गाने को तो दिन भर पड़ा है, लीजिए, दस्तखत तो कर दीजिए।
आजाद – धो दिया अश्के-नदामत को गुनाहों ने मेरे;
तर हुआ दामन, तो बारे पाक-दामन हो गया।
मजकूरी – अजी साहब, मेरी भी सुनिएगा?
आजाद – क्या हमसे कहते हो?
मजकूरी – और नहीं तो किससे कहते हैं?
आजाद – कैसा सम्मन, लाओ, जरा पढ़ें तो। लो, सचमुच ही नालिश जड़ दी।
मजकूरी ने सम्मन पर दस्तखत कराए और अलारक्खी को घेरा। आज तो हाथ गरमाओ, एक चेहराशाही लाओ। अलारक्खी ने कहा – ऐ, तो अभी सूत न कपास, इनाम-विनाम कैसा? मुकदमा जीत जायँ, तो देते अच्छा लगे।
मजकूरी – तुम जीती दाखिल हो बीबी। अच्छा, कल आऊँगा।
मियाँ आजाद के पेट में चूहे कूदने लगे कि यह तो बेढब हुई। मैंने जरा दिल-बहलाव के लिए दिल्लगी क्या कर दी कि यह मुसीबत गले आ पड़ी। अब तो खैरियत इसी में है कि यहाँ से मुँह छिपाकर भाग खड़े हों। बी अलारक्खी चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगीं – अब तो चाँदी है। जीते, तो घी के चिराग जलाएँगे। एक ने कहा – यह न कहा, मुँह मीठा करेंगे; गुलगुले खिलाएँगे। दूसरे ने कहा – न खिलाएगी, तो निकाह के दिन ढोलक कौन बजाएगा? आजाद मौके की ताक में थे ही, अलारक्खी की आँख चूकते ही झट से काठी कसी और भागे। नाके तक तो उनको किसी ने न टोका, मगर जब नाके से कोई गोली भर के टप्पे पर बाहर निकल गए तो मियाँ चंडूबाज से आँखें चार हुईं। अरे! गजब हो गया, अब धर लिए गए।
चंडूबाज – ऐ बड़े भाई, किधर की तैयारियाँ हैं? यह भाग जाना हँसी-ठट्ठा नहीं है कि काठी कसी और चल खड़े हुए। आँखों में खाक झोंक कर चले आए होंगे। ले बस, उतर पड़ो, आओ, जरी हुक्का तो पी लो।
आजाद – इस दम में हम न आएँगे। ये फिकरे किसी गँवार को दीजिए। आप अपना हुक्का रहने दें। बस, अब हम खूब पी चुके। नाकों दम कर दिया बदमाशों ने! चले थे मुकदमा दायर करने! किस मजे से कहते हैं कि हुक्का पिए जाओ। ऐसे ही तो आप बड़े दोस्त हैं!
चंडूबाज – नेकी का जमाना ही नहीं। हमने तो कहा, इतने दिन मुलाकात रही है, आओ भाई, कुछ खातिर कर दें, अब खुदा जाने, कब मिलना हो।
आजाद – खुदा न करे, तुम जैसे मनहूसों की सूरत ख्वाब में भी नजर आए।
चंडूबाज ने गुल मचाना शुरू किया – दौड़ो, चोर है, लेना, चोर, चोर! मियाँ आजाद ने चंडूबाज पर सड़ाक से कोड़ा फटकारा और साँड़नी को एक एड़ लगाई। वह हवा हो गई। शहर से बाहर हुए, तो राह में दो मुसाफिरों को यों बातें करते सुना –
पहला – अरे मियाँ, आजकल लखनऊ में एक नया गुल खिला है! किसी न्यारिये ने करोड़ों रुपए के जाली स्टांप बनाए और लंदन तक में जा कर कूड़े किए। सुना, काबुल में दो जालिए पकड़े गए, मुश्कें कस ली गईं ओर रेल में बंद करके यहाँ भेज दिए गए। अल्लाह जानता है, ऐसा जाल किया कि जौ भर भी फर्क मालूम हो, तो मूँछें मुड़वा लो! सुना है, कोई, डेढ़ सौ दो सौ बरस से बेचते थे और कुछ चोरी-छिपे नहीं, खुल्लमखुल्ला।
दूसरा – वाह, दुनिया में भी कैसे-कैसे काइयाँ पड़े हैं। ऐसों के तो हाथ कटवा डाले।
पहला – वाह, वाह, क्या कदरदानी की है! उन्होंने तो वह काम किया कि हाथ चूम लें, जागीरें दें।
आजाद को पहले मुसाफिर की गपोड़ेबाजी पर हँसी आ गई। क्या झप से जालियों को काबुल तक पहुँचा दिया और हिंदुस्तान के स्टांप लंदन में बिकवाए। पूछा – क्यों साहब, कितने जाली स्टांप बेचे?
मुसाफिरों ने समझा, यह कोई पुलिस अफसर है, टोह लेने चले हैं, ऐसा न हो कि हमको भी गिरफ्तार कर लें। बगलें झाँकने लगे।
आजाद – आप अभी कहते न थे कि जालिए गिरफ्तार किए गए हैं?
मुसाफिर – कौन? हम? नहीं तो!
आजाद – जी, आप बतों नहीं कर रहे थे कि स्टांप किसी ने बनाए और डेढ़ दो सौ बरस से बेचते चले आए?
मुसाफिर – हुजूर, हमको तो कुछ मालूम नहीं।
आजाद – अभी बताओ सुअर, नहीं हम तुमको बड़ा घर दिखाएगा और बेड़ी पहनाएगा।
मियाँ आजाद तो उनकी चितवनों से ताड़ गए कि दोनों के दोनों चोंगा हैं, मारे डर के स्टांप का लफ्ज जबान पर नहीं लाते। जैसे ही उन्होंने डाँट बताई, एक तो बगटुट पच्छिम की तरफ भागा और दूसरा खड़भड़ करता हुआ पूरब की तरफ। मियाँ आजाद आगे बढ़े। राह में देखा, कई मुसाफिर एक पेड़ के साये में बैठे बातें कर रहे हैं –
एक – कोई ऐसी तदबीर बताइए कि लू न लगे। आजकल के दिन बड़े बुरे है।
दूसरा – इसकी तरकीब यह है कि प्याज की गट्ठी पास रखे। या दो-चार कच्चे आम तोड़ लो, आमों को पहले भून लो, जब पिलपिले हों, तो गूदा निकाल कर छिलका फेक दो और जरा सी शकर, पानी में घोल कर पी जाओ।
पहला – कहीं ऐसा गजब भी न करना! पानी में तो बरफ डालनी ही न चाहिए। पानी का गिलास बरफ में रख दो, जब खूब ठंडा हो जाय, तब पियो। बरफ का पानी नुकसान करता है।
दूसरा – वाह, लाखों आदमी पीते हैं।
पहला – अजी, लाखों आदमी झख मारते हैं। लाखों चोरियाँ भी तो करते हैं, फिर इससे मतलब? हमने लाखों आदमियों को देखा है कि गढ़ों और तालाबों का पानी सफर में पीते हैं। आप पीजिएगा? हजारो आदमी धूप में चल कर खड़े-खड़े तीन-चार लोटे पानी पी जाते हैं। मगर यह कोई अच्छी बात थोड़े ही है।
और आगे बढ़े, तो एक भड्डरी आ निकला। वह आजाद को पहचानता था। देखते ही बोला – तुम्हारी नवाब साहब के यहाँ बड़ी तलाश है जी। तुम गायब कहाँ हो गए थे ऊँट ले कर? अब मैं जा कर कहूँगा कि मैंने प्रश्न देखा, तो निकला, आजाद पाँच कोस के अंदर ही अंदर हैं। जब तुम लुपदेनी पहुँच जाओगे, तो फिर हमारी चढ़ती कला होगी। तुमको भी आधे-आध बाँट देंगे। मगर भंडा न फोड़ना। चढ़ बाजी है।
आजाद – वल्लाह, क्या सूझी है। मंजूर है।
भड्डरी ने पोथी सँभाल अपनी राह ली और नवाब के यहाँ धर धमके।
खोजी – अजी, जाओ भी, तुम्हारी एक बात भी ठीक न निकली।
नवाब – बरसों हमारा नमक तुमने खाया है, एक-दो दिन नहीं बरसों। अब इस वक्त कुछ परशन-वरशन भी देखोगे, या बातें ही बनाओगे? हमको तो मुसलमान भाई तुम्हारी वजह से काफिर कहने लगे और तुम कोई अच्छा सा हुक्म नहीं लगाते।
भड्डरी – वह हुक्म लगाऊँ कि पट ही न पड़े!
खोजी – अजी, डींगिये हो खासे। कहीं किसी रोज मैं करौली न भोंक दूँ। सिवा बे-पर की उड़ाने के, बात सीखी ही नहीं। भले आदमी, साल भर में एक दफे तो सच बोला करो।
झम्मन – वाह, सच बोलते, तो कसाई के कुत्ते की तरह फूल न जाते।
नवाब – यह क्या वाहियात बात?
भड्डरी – हुजूर,हमसे-इनसे हँसी होती है। यह हमें कहते हैं, हम इन्हें। अब आप कोई फूल मन में लें।
नवाब – ये ढकोसले हमको अच्छे नहीं मालूम होते। हमें साफ-साफ बता दो कि मियाँ आजाद कब तक आएँगे?
भड्डरी ने उँगलियों पर कुछ गिन-गिना कर कहा – पानी के पास हैं।
झम्मन – वाह उस्ताद! पानी के पास एक ही कही। लड़की न लड़का, दोनों तरह अपनी ही जीत।
भड्डरी – यहाँ से कोई तीन कोस के अंदर हैं।
दुन्नी – हुजूर, यह बड़ा फैलिया है। आप पूछते हैं; आजाद कब आएँगे। यह कहता है, तीन कोस के अंदर ही अंदर हैं। सिवा झूठ, सिवा झूठ।
भड्डरी – अच्छा, जा कर देख लो। जो नाके के पास आजाद आते न मिलें, तो नाक कटा डालूँ, पोथी जला दूँ। कोई दिल्लगी है?
नवाब – चाबुक-सवार को बुला कर हुक्म दो कि अभी सरपट जाय और देखे, मियाँ आजाद आते हैं या नहीं। आते हों, तो इस भड्डरी का आज घर भर दूँ। बस, आज से इसका कलमा पढ़ने लगूँ।
चाबुक-सवार ने बाँका मुड़ासा बाँधा और सुरंग घोड़ी पर चढ़ चला। मगर पचास ही कदम गया होगा कि घोड़ी भड़की और तेजी में दूसरे नाके की राह ली। चाबुक सवार बहुत अकड़े बैठे हुए थे; मगर रोक न सके, धम से मुँह के बल नीचे आ रहे। खोजी ने नवाब साहब से कहा – हुजूर, घोड़ी ने नाजिरअली को दे पटका, और क्या जाने किस तरफ निकल गई।
नवाब – चलो, खैर समझा जायगा। तुम टाँघन कसवाओ और दौड़ जाओ।
खोजी – हुजूर, मैं तो बूढ़ा हो गया और रही-सही सकत अफीम ने ले ली। टाँघन है बला का शरीर। कहीं फेक-फाक दे, हाथ-पाँव टूटें, तो दीन-दुनिया, दोनों से जाऊँ। आजाद खुद भी गए और हम सबको भी बला में डाल गए।
इधर चाबुक-सवार ने पटकनी खाई उधर लौंडों ने तालियाँ बजाईं। मगर शह-सवार ने गर्द झाड़ी, एक दूसरा कुम्मैत घोड़ा कसा और कड़कड़ा दिया। हवा से बातें करते जा रहे हैं। बगिया में पहुँचे, तो देखा, साँड़िनी की काकरेजी झूल झलक रही है और ऊँटनी गरदन झुकाए चौतरफा मटक रही है। जा कर आजाद के गले से लिपट गए।
आजाद – कहिए, नवाब के यहाँ तो खैरियत है?
सवार – जी हाँ, खैर-सल्लाह के ढेर हैं। मगर आपकी राह देखते-देखते आँखें पथरा गईं। ओ मियाँ, कुछ और भी सुना? उस बटेर की कब्र बनाई गई है। सामने जो बेल-बूटों से सजा हुआ मकबरा दिखाई देता है, वह उसी का है।
आजाद – यह कहिए, यार लोगों ने कब्र भी बनवा दी! वल्लाह, क्या-क्या फिकरेबाज हैं।
सवार – बस, तुम्हारी ही कसर थी। कहो, हमने सुना, खूब गुलछर्रे उड़ाए। चलो, पर अब नवाब ने याद किया है।
आजाद – ऐं, उन्हें हमारे आने की कहाँ से खबर हो गई?
सवार – अजी, अब यह सारी दास्तान राह में सुना देंगे।
आजाद – अच्छा, तो पहले आप हमारा खत नवाब के पास ले जायँ। फिर हम शान के साथ चलेंगे।
यह कह कर आजाद ने खत लिखा –
‘आज कलम की बाँछे खिली जाती हैं; क्योंकि मियाँ सफशिकन की सवारी आती है। हुजूर के नाम की कसम, इधर पाताल तक और उधर सातवें आसमान तक हो आया, तब जा के खोज पाया। शाह जी साहब रोज ढाढ़ें मार-मार कर रोते हैं। कल मैंने बड़ी खुशामद की और आपकी याद दिलाई। तो ठंडी आह खींच कर रह गए। बड़ी-बड़ी दलीलें छाँटते थे। पहले फरमाया – दरों बज्म रह नेस्त बेगाना रा, मैंने छूटते ही जवाब दिया – कि परवानगी दाद परवाना रा।
खिलखिला कर हँस पड़े, पीठ ठोंकी और फरमाया – शाबास बेटे, नवाब साहब की सोहबत में तुम बहुत बर्क हो गए। पूरे दो हफ्ते तक मुझसे रोज बहस रही। आखिर मैंने कहा – आप चलिए, नहीं मैं जहर खा कर मर जाऊँगा। मुझे समझाया कि जिंदगी बड़ी न्यामत है। खैर, तुम्हारी खातिर से चलता हूँ। लेकिन एक शर्त यह है कि जब मैं वहाँ पहुँचूँ, तो नवाब के सामने खोजी पर बीस जूते पड़ें। मैंने कौल दिया, तब कहीं आए।’
सवार यह खत लेकर हवा की तरह उड़ता हुआ नवाब साहब के यहाँ पहुँचा।
नवाब – कहो, बेटा कि बेटी? जल्दी बोलो। यहाँ पेट में चूहे कूद रहे हैं!
सवार – हुजूर, गुलाम ने राह में दम लिया हो, तो जरबाना दूँ।
खोजी – कितने बेतुके हो मियाँ! ‘कहें खेत की, सुन खलिहान की।’ भला अपनी कारगुजारी जताने का यह कौन मौका है? मारे मशीखत के दुबले हुए जाते हैं!
सवार ने आजाद का खत दिया। मुंशी जी पढ़ने के लिए बुलाए गए। खोजी घबराए कि आजाद ने यह कब की कसर ली। बोले – हुजूर, यह मियाँ आजाद की शरारत है। शाह साहब ने यह शर्त कभी न की होगी। बंदे से तो कभी गुस्ताखी नहीं हुई।
नवाब – खैर, आने तो दो। क्यों भाई मीर साहब, रम्माल ने तो बयान किया था कि सफशिकन के दुश्मन जन्नत में दाखिल हुए। यह मियाँ आजाद को कहाँ से मिल गए।
मीर साहब – हुजूर, खुदा का भेद कौन जान सकता है?
भड्डरी – मेरा प्रश्न कैसा ठीक निकला जो हैं सो, मानों निशाने पर तीर खट से बैठ गया।
इतने में अंदर छोटी बेगम को खबर हुई। बोलीं – इनका जैसा पोंगा आदमी खुदाई भर में न होगा। जरी-सा तो बटेर और पाजियों ने उसका मकबरा बनवा दिया। रोज कहाँ तक बकूँ।
लौंडी – बीबी, बुरा मानो या भला, तुम्हें वे राहें ही नहीं मालूम कि मियाँ काबू में आ जायँ।
बेगम – मेरी जूती की नोक को क्या गरज पड़ी है कि उनके बीच में बोले। मैं तो आप ही डरा करती हूँ कि कोई मुझी पर तूफान न बाँध दे।
उधर नवाब ने हुक्म दिया कि सफशिकन की सवारी धूम से निकले। इतना इशारा पाना था कि खोजी और मीरसाहब लगे जुलूस का इंतजाम करने। छोटी बेगम कोठे पर खड़ी-खड़ी ये तैयारियाँ देख रही थीं और दिल में हँस रही थीं। उस वक्त कोई खोजी को देखता, दिमाग नहीं मिलते थे। इसको डाँट, उसको डपट, किसी पर धौल जमाई, किसी के चाँटा लगाया; इसको पकड़ लाओ, उसको मारो। कभी मसालची को गालियाँ दीं, कभी पंशाखेवाले पर बिगड़ पड़े। आगे-आगे निशान का हाथी था। हरी-हरी झूल पड़ी हुई। मस्तक पर सूंदूर से गुल-बूटे बने हुए। इसके बाद हिंदोस्तानी बाजा कक्कड़-झय्यम! इसके पीछे फूलों के तख्त-चमेली खिला ही चाहती है, कलियाँ चिटकने ही को हैं। चंडूबाजों के तख्त ने तो कमाल कर दिया। दो-चार पिनक में हैं, दस-पाँच ऊँघे पड़े हुए। कोई चंडूबाजाना ठाट से पौंड़ा छील रहा है। एक गँड़ेरी चूस रहा है। शिकार का वह समा बाँधा कि वाह जी वाह। एक शिकारी बंदूक छतियाए, घुटना टेके, आँख दबाए निशाना लगा रहा है। बस, दाँय की आवाज आना ही चाहती है। हिरन चौकड़ियाँ भरते जाते है। इसके बाद अंगरेजी बाजा। इसके बाद घोड़ों की कतार-कुम्मैत, कुछ सुरंग, नुकरा, सब्जा, अरबी, तुर्की, वैलर छम-छम करते जा रहे हैं। घोड़े दुलहिन बने हुए थे। इसके बाद फिर अरगन बाजा; फिर तामदान, पालकी, नालकी, सुखपाल। इसके बाद परियों के तख्त एक से एक बढ़ कर। सबके पीछे रोशन चौकीवाले थे। रोशनी का इंतजाम भी चौकस था। पंशाखे और लालटेनें झक-झक कर रही थीं। इस ठाट से जुलूस निकला। सारा शहर यह बरात देखने को फटा पड़ता था। लोग चक्कर में थे कि अच्छी बरात है, दूल्हे का पता ही नहीं। बारात क्या, गोरख-धंधा है।
जब जुलूस बगिया में पहुँचा, तो आजाद हाथी पर सवार होकर सफशिकन को काबुक में बिठाये हुए चले।
खोजी – मसल मशहूर है – ‘सौ बरस के बाद घूरे के भी दिन बहुरते हैं।’ हमारे दिन आज बहुरे कि आप आए और शाह जी को लाए। नवाब के यहाँ सन्नाटा पड़ा हुआ था। सफशिकन के गम में सब पर मुर्दनी छाई हुई थी। बस, लोग यही कहते थे कि आजाद साँड़नी ले कर लंबे हुए। एक मैं ही तुम्हारी हिमायत किया करता था।
मीर साहब – जी हाँ, हम भी आप ही की तरफ से लड़ते थे, हम और यह, दोनों।
आजाद – भई, कुछ न पूछो। खुदा जाने, किन-किन जंगलों की खाक छानी, तब कहीं यह मिले।
खोजी – यहाँ लोग गप उड़ा रहे थे। किसी ने कहा – भाँड़ों के यहाँ नौकरी कर ली। कोई तूफान बाँधता था कि किसी भठियारी के घर पड़ गए। मगर मैं यही कहे जाता था कि वह शरीफ आदमी हैं। इतनी बेहयाई कभी न करेंगे।
खोजी और मीर साहब, दोनों आजाद को मिलाना चाहते थे, मगर वह एक ही उस्ताद। समझ गए कि अब नवाब के यहाँ हमारी भी तूती बोलेगी, तभी ये सब हमारी खुशामद कर रहे हैं। बोले – अजी, रात जाती है या आती है? अब देर क्यों कर रहे हो? पंखाखे चढ़ाओ। घोड़े चलाओ। जब जुलूस तैयार हुआ, तो आजाद एक हाथी पर जा डटे। बटेर की काबुक को आगे रख लिया। खोजी और मीर साहब को पीछे बिठाया और जुलूस चला। चौक में तो पहले ही से हुल्लड़ था कि नवाब वाला बटेर बड़ी शान से आ रहा है। लाखों आदमी चौक में तमाशा देखने को डटे हुए थे, छतें फटी पड़ती थीं। बाजे की आवाज जो कानों में पड़ी, तो तमाशाई लोग उमड़ पड़े। निशान का हाथी झंडे का फुरेरा उड़ाता सामने आया। लेकिन ज्यों ही चौक में पहुँचा, वैसे ही दीवानी के दो मजकूरियों ने डाँट कर कहा – हाथी रोक ले। आजाद के नाम वारंट आया है।
लोगों के होश उड़ गए। फीलवान ने जो देखा कि सरकारी आदमी लाल-लाल पगिया बाँधे, काली-काली वरदी डाटे, खाकी पतलून पहने, चपरस लटकाए हाथी रोके खड़े हैं, तो सिटपिटा गया और हाथी को जिधर उन्होंने कहा उधर ही फेर दिया। जुलूस में हुल्लड़ मच गया। कोई तख्त लिए भागा जाता है, कोई झंडे लिए दबका फिरता है। घोड़े थान पर पहुँचे। तामदान और पालकियों को छोड़कर कहार अड्डे पर हो रहे। बाजेवाले गलियों में घुस गए।
आजाद और खोजी मजकूरियों के साथ चले, तो शहर के बाहर जा पहुँचे। एका एक हाथी जो गरजा, तो खोजी और मीर साहब पिनक से चौंक पड़े।
खोजी – ऐं, पंशाखे चढ़ाओ, पंशाखे! अबे, यह क्या अँधेर मचा रखा है! जरा यों ही आँख झपक गई, तो सारी करी-कराई मिहनत खाक में मिला दी। अब मैं उतर कर कोड़े फटकारूँगा।, तब मानेंगे। लातों के आदमी कहीं बातों से मानते हैं!
मीर साहब – हैं, हैं! ओ फीलवान! यह हाथी क्या आतशबाजी से भड़कता है? बढ़ा ले चलो। मील-मील, धत-धत। अरे भई खोजी, यह किस मैदान में आ निकले? आखिर यह माजरा क्या है भाई?
खोजी – पंशाखे चढ़ाओ, पंशाखे। और इन बाजेवालों को क्या साँप सूँघ गया है? जरा जोर-जोर छेड़े जाओ। अब तो विहाग का वक्त है, बिहाग का।
मीर साहब – अजी, आँखें तो खोलिए, रोशनी का चिराग गुल हो गया।
मुसीबत में आ फँसे। आप वही बेवक्त की शहनाई बजा रहे हैं। इस जंगल में आपको बिहाग की धुन समाई है।
खोजी – पंशाखे चढ़ाओ पंशाखे। नहीं, मैं कच्चा पैसा तो दूँगा नहीं। झप से चढ़ाना तो पंशाखे। शाबाश है बेटा!
मीर साहब तो जले-भुने बैठे ही थे; खोजी ने जब कई बार पंशाखों की रट लगाई तो वह झल्ला उठे। खोजी को हाथी पर से नीचे ढकेल ही तो दिया। अरा-रा-रा-धंम। कौन गिरा? जरी टोह तो लेना, कौन गिरा?
आजाद – तुम गिरे, तुम। आप ही तो लुढ़के हैं, टोह क्या लें?
खोजी – अरे, मैं! यह तो कहिए, हड्डी-पसली बच गई? यारो, जरी देखना तो, हमारा सिर बचा या नहीं?
मजकूरी – बचा है, बचा। नहीं फूटा। पहिरि लिहिन सुथना, और चले फारसी छाँटे। ई बोझ उठाव।
खोजी – हाँय-हाँय, कोई मजदूर समझा है! शरीफ और पाजी को नहीं पहचानता? ले, अब उतारता है बोझ, या नाले में फेंक दूँ? ओ गीदी! लाना तो मेरी करौली। क्या मैं गधा हूँ?
मीर साहब – गधे नहीं, तो और हो कौन?
मजकूरी – तैं को हँस रे? अरे तैं को हँस? उतर हाथी पर से। उतरत है कि हम आवन फिर, तैं अस न मनि है।
मीर साहब – कहता किससे है? कुछ बेधा तो नहीं है? कुछ नाविर हैं, हम, लो आए।
मजकूरी – अच्छा, तो यह बोझ उठा। थरिया-लोटिया रख मूड़े पर और अगुवा।
मीर साहब ने नीचे उतर कर देखा, तो सरकारी प्यादा वरदी डाटे खड़ा है। लगे थर-थर काँपने। चुपके से बोझ उठाया और मचल-मचल कर चलने लगे। दोनों मजकूरी हाथी पर जा बैठे। खोजी और मीर साहब, दोनों लदे-फँदे गिरते पड़ते जाने लगे।
खोजी – वाह री किस्मत। क्यों जी मीर साहब, हम तो खुदा की याद में थे, तुमको क्या हुआ था?
मीर साहब – जहाँ आप थे, वहीं मैं भी था। यह सारी शरारत आजाद की है।
आजाद – जरी चोंच सम्हाले हुए, नहीं मैं उतरता हूँ।
चलते-चलते तड़क हो गया। खोजी बोले – लो भाई, हमारा तो भोर ही हो गया। अब जो बोझ उठाकर ले चले, उसकी सत्तर पुश्त पर लानत। यह कह कर बोझ फेंक दिया। जब जरा दिन चढ़ा, तो गोमती के किनारे पहुँचे। एक मजकूरी ने कहा – ओ फीलवान, हाथी रोक दे, नहाय लेई।
फीलवान – अरे तो नहा लेना, कैसे गवँरदल हो?
आजाद – कहो खोजी, नहाओगे?
खोजी – यों ही न गला घोंट डालो?
नदी के पार पहुँचे तो चंडूबाज की सूरत नजर पड़ी।
चंडूबाज – बड़े भाई, सलाम। कहो, खैर सल्लाह? आँखें तुमको ढूँढ़ती थीं, देखने को तरस गए। अब कहो, क्या इरादे हैं? अलारक्खी ने यह खत दिया है, पढ़कर चुपके से जवाब लिख दो।
आजाद ने खत खोला और पढ़ा –
‘क्यों जी, इसी मुँह से कहते थे कि तुमसे ब्याह करूँगा? तुम तो चकमा देकर सिधारे और यहाँ दिल कराहा करता है। नहा धोकर कुरान शरीफ पर हाथ धरो कि ब्याह का वादा नहीं किया था? क्यों नाहक इंसाफ का गला कुंद छुरी से रेतते हो? इस खत का जवाब लिखना, नहीं मैं अपनी जान दे दूँगी।’
आजाद ने जवाब लिखा –
‘सुनो बीबी, हम कोई उठाई गीरे नहीं हैं। हम ठहरे शरीफ, तुम हो भठियारी। भला, फिर हमसे क्योंकर बने। अब उस खयाल को दिल से निकाल दो। तुम्हारे कारण मजकूरियों की कैद में हूँ। तुम्हें मुँह न लगाता, तो इतना जलील क्यों होता?’
चंडूबाज तो खत ले कर रवाना हुए, उधर का किस्सा सुनिए। नवाब झूम-झूम कर बगीचे में टहल रहे थे, आँखें फाड़-फाड़ कर देखते थे कि जुलूस अब आया, और अब आया। एकाएक चोबदार ने आ कर कहा – खुदाबंद, लुट गए! लुट गए! वह देखो साहब तुम्हारे, लुट गए।
नवाब – अरे कुछ मुँह से कहेगा भी, क्या गजब हो गया?
चोबदार – खुदाबंद, बरात को उठाईगीरों ने लूट लिया!
नवाब – बरात? बरात किसकी? कहीं शाह जी की सवारी से तो मजलब नहीं है? उफ्, हाथों के तोते उड़ गए।
चोबदार – वह देखो साहब तुम्हारे, बारात चली आ रही थी। तमाशाई इतने जमा थे कि छतें फटी पड़ती थीं। देखो साहब तुम्हारे, जैसे बादशाह की सवारी हो। मुदा जैसे ही चौक में पहुँचे कि देखो साहब तुम्हारे, दो चपरासियों ने हाथी को फेर दिया। बस साहब तुम्हारे, सारी बरात तितर-बितर हो गई। कहाँ तो बाजे बज रहे थे, कहाँ साहब तुम्हारे, सन्नाटा छा गया।
नवाब – भला शाह जी कहाँ है?
चोबदार – हुजूर, शाह जी को लिए फिरते हैं। यहाँ देखो साहब तुम्हारे –
नवाब – कोई है, इधर आना, इसके कल्ले पर खड़े हो, जितनी बार इसके मुँह से ‘वह देखो साहब तुम्हारे’ निकले, उतने जूते इस पर पड़ें। गधा एक बात कहता है, तो तीन सौ साठ दफे ‘ओ देखो साहब तुम्हारे।’
चाबुक – सवार-हुजूर, इस वक्त गुस्से का मौका नहीं, कोई ऐसी फिक्र कीजिए कि शाह जी तो छूट आएँ।
नवाब – ऐं, क्या वह भी गिरफ्तार हो गए?
सवार – जी, आजाद, खोजी, हाथी, सबके सब पकड़ लिए गए?
नवाब – तो यह कहिए, बेड़े का बेड़ा गया है। हमें यह क्या मालूम था भला, नहीं तो एक गारद साथ कर देते। आखिर, कुछ मालूम भी हुआ कि यह धर-पकड़ कैसी थी? सच तो यों है कि इस बख्त मेरे हाथ-पाँव फूल गए। रुपए हमसे लो, और दौड़-धूप तुम लोग करो।
मुसाहबों की बन आई। अब क्या पूछना है! आपस में हँड़िया पकने लगी। वल्लाह, ऐसा मौका फिर तो हाथ आएगा नहीं। जो कुछ लेना हो, ले लो, और उम्र भर चैन करो। इस वक्त यह बौखलाया हुआ है। जो कुछ कहोगे, बेधड़क दे निकलेगा। लेकिन, एक काम करो, दस-पाँच आदमी मिल-जुल कर बातें बनाओ। एक आदमी के किए कुछ न होगा। कहीं भड़क गया, तो गजब ही हो जाएगा। खुदा करे रोज इसी तरह वारंट जारी रहे। मगर इतना याद रखिएगा कि कहीं अंदर खबर हुई, तो बेगम साहब छछूँदर की तरह नाचेंगी। फिर करते-धरते कुछ न बन पड़ेगा।
मुबारककदम दरवाजे के पास खड़ी सब सुन रही थी। लपक कर गई और छोटी बेगम को बुला लाई। जरी जल्दी-जल्दी कदम उठाइए, ये सब जाने क्या वाही-तबाही बक रहे हैं। मुँह झुलस दे पकड़ के। बेगम साहबा दबे पाँव गईं, तो सुन कर मारे गुस्से के लाल हो गईं और नवाब को अंदर बुलाया।
मुबारककदम – ये हुजूर के मुसाहब, अल्लाह जानता है, एक ही अड़ीमार हैं, जिनके काटे का मंतर ही नहीं। जो है, वह झूठों का सरदार। मगर हुजूर उनको क्या जाने क्या समझते हैं। पछुआ हवा चलती, तो ठंडा पानी पीते, अब दिन भर शोरे का झला पानी मिलता है पीने को, और खुदा ने न्यामत खाने को दी। फिर उन्हें दूर की न सूझे, तो किसे सूझे।
बेगम – ऐसे ही झूठे खुशामदियों ने तो लखनऊ का सत्यानाश कर दिया।
नवाब – यह आज क्या है, क्या?
बेगम – है क्या? तुम्हारे मुसाहब मुँह पर तो तुम्हारी झूठी तारीफें करते हैं और पीठ पीछे तुम्हें गालियाँ सुनाते हैं। इन सबको दुत्कार क्यों नहीं देते?
इधर तो ये बातें हो रही थीं, उधर मजकूरियों ने आजाद को एक बाग में उतारा।
खोजी – मियाँ फीलबान, जरी जीना लगा देना।
फीलवान -अब आपके लिए जीना, बनवाऊँ, ऐसे तो खूबसूरत भी नहीं हैं आप?
मीर साहब – जीना क्या ढूँढ़ते हो, हाथी पर से कूदना कौन सी बड़ी बात है।
यह कह कर मीर साहब बहुत ही अकड़ कर दुम की तरफ से कूदे, तो सिर नीचे और पाँव ऊपर। रोक रोक, हत् तेरे फीलवान की! सच है, गाड़ीवान, शुतुरवान, कोचवान जितने वान है, सब शरीर। लाख बचे, मगर औंधे हो गए। हमारा कल्ला ही जानता है। खट से बोला। वह तो कहिए, मैं ही ऐसा बेहया हूँ कि बातें करता हूँ, दूसरा तो पानी न माँगता।
खोजी खिलखिला कर हँस पड़े। अब कहिए, हमने जो जीना माँगा, तो हमें बनाने लगे।
मीर साहब – मियाँ, उतरे हो कि दूँ धक्का।
खोजी बेचारे जान पर खेल कर जैसे ही उतरने को थे कि हाथी उठ खड़ा हुआ। या अली, या अली, बचाइयो, खुदा, मैं बड़ा गुनहगार हूँ।
इतना कह चुके थे कि अररर-धम, जमीन पर आ कर ढेर हो गए।
मीर साहब ने कहा – शाबाश मेरे पट्ठे, ले झपाके से उठ तो जा।
खोजी – यहाँ हड्डी-पसली का पता नहीं, आप फरमाते हैं, उठ तो जा! कितने बेदर्द हो!
दो आदमी वहीं बैठे कुछ इधर-उधर की बातें कर रहे थे। खोजी और मीर साहब तो लकड़ियाँ खोजने लगे कि और नहीं तो सुलफा ही उड़े और आजाद इन दोनों अजनबियों की बातें सुनने लगे –
एक – भई, आखिर मुँह फुलाए क्यों बैठे हो? क्या मुहर्रम के दिनों में पैदा हुए थे?
दूसरा – हाँ यार, क्यों न कहोगे। यहाँ जान पर बनी है, आप मुहर्रम लिए फिरते हैं। हमने बी अलारक्खी मे कई रुपए महीने भर के वादे पर लिए थे। उसको दो साल होने आए। अब वह कहती है, यह हमारे रुपए दो, या हमारे मुकदमें में गवाह हो जाओ। नहीं तो हम दाग देंगे और बड़ा घर दिखाएँगे। वहाँ चक्की पीसनी होगी। सोचते हैं, गवाही दें, तो किस बिरते पर। मियाँ आजाद की तो सूरत ही नहीं देखी। और न दें, तो वह नालिश जड़े देती हैं। बस, यही ठान ली है कि आज शाम को झप से चल खड़े हों। रेल को खुदा सलामत रखे कि भागूँ तो पता भी न मिले।
दूसरा – अरे मियाँ, वह तरकीब बताऊँ, जिसमें ‘साँप मरे न लाठी टूटे।’ तुम मियाँ आजाद से मिल जाओ; उधर अलारक्खी से भी मिले रहो। गवाही में गोल-मोल बातें कही और मूँछों पर ताव देते हुए अदालत से आओ। बचा, तुम हो किस भरोसे पर। चार-चार गंडे में तुमको गवाह मिलते हैं, जो तड़ से झूठा कुरान या झूठी गंगा उठा लें, हमको कोई दो ही रुपए दे, कुरान उठवा ले। जो चाहे कहवा ले। फिर वाही हो, खासे दस मिलते हैं, दस! तुम्हें झूठ-सच से मतलब? सच वही है, जिसमें कुछ हाथ लगे। भई, यह तो कलयुग है। इसमें सच बोलना हराम है। और जो कुत्ते ने काटा हो, तो सच ही बोलिए।
पहला – हजरत सुनिए, सच फिर सच है, और फिर झूठ। इतना याद रखिएगा।
दूसरा – अबे जा, लाया वहाँ से झूठ फिर झूठ है। अरे नादान, इस जमाने में झूठ ही सच है। एक जरा सा झूठ बोलने में दस चेहरेशाही आए गए होते हैं। जरा जबान हिला दी, और दस रुपए हजम। दस रुपए कुछ थोड़े नहीं होते। हमें किसी से तुम दो गंडे ही दिलवा दो। देखो, हलफ उठा लेते हैं या नहीं।
आजाद – क्यों भई, और जो अपनी बात से फिर जाय, तो फिर कैसी हो? औरत की बात का एतबार क्या? बेहतर है कि अलारक्खी से स्टांप के कागज पर लिखवा लो।
पहला – वल्लाह, क्या सूझी है।
दूसरा – कैसा स्टांप जी? हम क्या जानें क्या चीज है, बातें कर रहे हैं, आप आए वहाँ से स्टांप पर लिखवा लो! क्या हम कोई चोर हैं!
दोनों मजकूरियों ने उपले जलाए और खाना पकाने लगे। आजाद ने देखा, भागने का अच्छा मौका है। दोनो की आँख बचा कर चल दिए, चट से स्टेशन पर जा कर टिकट ले लिया और एक दर्ज़े में जा बैठे। दो-तीन स्टेशनों के बाद रेल एक बड़े स्टेशन पर ठहरी। मियाँ आजाद ने असबाब को बग्घी पर लादा और चल खड़े हुए। खट से सराय में दाखिल। एक कोठरी में जा डटे और बिछौना बिछा, खूब, लहरा-लहरा कर गाने लगे –
वहशत अयाँ है खाक से मुझ खाकसार की,
भड़के हिरन भी सूँघ के मिट्टी मजार की।
एकाएक एक शाह साहब फालसई तहमत बाँधे, शरबती का केसरिया कुरता पहने, माँग निकाले, आँखों में सुरमा लगाए, एक जवान, चंचल हसीन औरत के साथ आ कर आजाद की चारपाई पर डट गए और बोले – बाबा, हमारा नाम कुदमी शाह है। हसीनों पर जान देना हमारा खास काम है। इस वक्त आपने जो यह शेर पढ़ा, तो तबीयत फड़क गई। मगर बिना शराब के गाने का लुत्फ कहाँ? शौक हो, तो निकालूँ प्याला और बोतल, खूब रंग जमे और सरूर गठे।
आजाद – मैं तो तौबा कर चुका हूँ।
शाह जी – बच्चा, तौबा कैसी? याद रख, तौबा तोड़ने के लिए और कसम खाने के लिए है।
वह कह कर शाह जी ने झोली से सौंफ की बिलायती मीठी शराब निकाली और बोले –
सब्ज बोतल में लाल-लाल शराब;
खैर ईमान का खुदा हाफिज।
शाह जी मैकदे में बैठे हैं;
इस मुसलमान का खुदा हाफिज।
यह कह कर उस जवान औरत की तरफ देख कर शराब को प्याले में ढालने का इशारा किया। नाजनीन एक अदा से आकर आजाद की चारपाई पर डट गई और शराब का प्याला भरने लगी। भठियारी ने जो यह हाल देखा, तो बिजली की तरह चमकती हुई आई और कड़क कर बोली ‘ऐ वाह मियाँ, अठारह-अठारह साँड़ों को लेकर खटिया पर बैठते हो, और जो पाटी खट से टूट जाय, तो किसके माथे? ऐसे मुसाफिर भी नहीं देखे। एक तो खुद ही दुबले पतले हैं, दूसरे दस-दस को ले कर बैठते हैं। ले चारपाई खाली कीजिए, हम ऐसे किराए से बाज आए! आजाद की तो भठियारियों के नाम से रूह काँपती थी, चुपके से चारपाई खाली कर दी और जमीन पर दरी बिछवा कर आ बैठे। नाजनीन ने प्याला आजाद की तरफ बढ़ाया। पहले तो बहुत नहीं-नहीं करते रहे, लेकिन जब उसने कसमें खिला दीं, तो मजबूर हो कर प्याला लिया और चढ़ा गए। दौर चलने लगा। वह भर-भरके जाम पिलाती जाती थी और आजाद के जिस्म में नई जान आती जाती थी। अब तो वह मजे में आ कर खुल खेले, खूब पी। ‘मुफ्त की शराब काजी को भी हलाल है।’ यहाँ तक कि आँखें झपकने लगीं, जबान लड़खड़ाने लगी। बहकी-बहकी बातें करने लगे और आखिर नशे में चूर हो कर धड़ से गिरे। शाह जी तो इस घात में आए ही थे, झपाक से कपड़े बाँधे, जमा-जथा ली और चलता धंधा किया। औरत भी उनके साथ-साथ लंबी हुई। मियाँ आजाद रात भर बेहोस पड़े रहे। तड़के आँख खुली, तो हाल पतला। न शाह साहब हैं, न वह औरत, न दरी। जमीन पर पड़े लोट रहे हैं। प्यास के मारे गले में काँटे पड़े जाते हैं। उठे, तो लड़खड़ा कर गिर पड़े, फिर उठे, फिर मुँह के बल गिरे। बारे बड़ी मुश्किल से खड़े हुए, पानी ला कर मुँह-हाथ धोये और खूब पेट भर कर पानी पिया, तो दिल को तसकीन हुई। एकाएक चारपाई पर निगाह पड़ी। देखा सिरहाने एक खत रखा हुआ है। खोल कर पढ़ा-
‘क्यों बच्चा! और पियो! अब पियोगे, तो जियोगे भी नहीं। कितने बड़े पियक्कड़ हो, बोतल की बोतल मुँह से लगा ली। अब अपनी किस्मत को रोओ। धत तेरे की! क्या मजे से माशूक के पास बैठे हुए गट-गट उड़ा रहे थे। गठरी घूम गई न! भई, हमारी खातिर से एक जाम तो लो। कहो, तो उसी के हाथ भेजूँ। ले, अब हम जताए देते हैं, खबरदार, मुसाफिर, का एतबार न करना, और सफर में तो किसी पर भरोसा रखना ही नहीं। देखो, आखिर हम ले-दे कर चल दिए। उम्र भर सफर किया मगर आदमी न बने।’
यह खत पढ़ कर मियाँ आजाद पर सैकड़ों घड़े पड़ गए। बहुत कुछ गुल-गपाड़ा मचाया, सराय भर को सिर पर उठाया, भठियारे को दो-चार चपतें लगाईं, मगर माल न मिला, न मिला। लोगों ने सलाह दी कि जाओ, थाने पर रपट लिखाओ। गिरते-पड़ते थाने में पहुँचे, तो क्या देखते हैं, थानेदार साहब बैठे हाँक रहे हैं – मैंने फ्लाँ गाँव में अट्ठारह डाकुओं से मुकाबिला किया और चौंतीस बरस की चोरी बरामद की। सिपाही हाँ जी में हाँ मिलाते और भर्रे देते जाते थे कि आप ऐसे और आप वैसे, और आप डबल वैसे। इतने में आजाद पहुँचे। सलाम-बंदगी हुई।
थानेदार – कहिए, मिजाज कैसे हैं?
आजाद – मिजाज फिर पूछ लेना, अब गठरी दिलवाओ उस्ताद जी!
थानेदार – उस्तादजी किस भकुए का नाम है, और गठरी कैसी? आप भंग तो नहीं पी गए?
आजाद – जरा जबान सँभाल कर बातें कीजिएगा। मैं टेढ़ा आदमी हूँ।
थानेदार – अच्छे-अच्छे टेढ़ों को तो हमने सीधा बनाया, आप हैं किसी खेत की मूली? कोई है? वह हुलिया तो मिलाओ, हम तो इन्हें देखते ही पहचान गए।
ज्ञानसिंह ने हुलिया जो मिलाया, तो बाल का भी फर्क नहीं। पकड़ लिए गए, हवालात में हो गए। मगर एक ही छटे हुए आदमी थे। कानस्टिबल को वह भर्रे दिए, बातों-बातों में दोस्ती पैदा कर ली कि वह भी उनकी दम भरने लगा। अब उसे फिक्र हुई कि इनको हवालात से टहला दे। आखिर रात को पहरेदार की आँख बचा कर हवालात का दरवाजा खोल दिया। आजाद चुपके से खिसक गए। दाएँ-बाएँ देखते दबे-पाँव जाने लगे। जरा आहट हुई, और इनके कान खड़े हुए। बारे खुदा-खुदा करके रास्ता कटा। सराय में पहुँचे और भठियारी को किराया दे कर स्टेशन पर जा पहुँचे।
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