अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 30 – (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
दूसरे दिन सुबह को नवाब साहब जनानखाने से निकले, तो मुसाहबों ने झुक-झुक कर सलाम किया। खिदमतगार ने चाय की साफ-सुथरी प्यालियाँ और चमचे ला कर रखे। नवाब ने एक-एक प्याली अपने हाथ से मुसाहबों को दी और सबने गरम-गरम दूधिया चाय उड़ानी शुरू की। एक-एक घूँट पीते जाते हैं और गप भी उड़ाते जाते हैं।
मुसाहब – हुजूर, कश्मीरी खूब चाय तैयार करते हैं।
हाफिज – हमारी सरकार में जो चाय तैयार होती है, सारी खुदाई में तो बनती न होगी। जरा रंग तो देखिए। हिंदू भी देखे, तो मुँह में पानी भर आए।
रोशनअली – कुरबान जाऊँ हुजूर, ऐसी चाय तो बादशाह के यहाँ भी नहीं बनती थी। खुदा जाने, मियाँ रहीम कहाँ से नुस्खा पा गए। मगर जरा तल्खी बाकी रह जाती है।
रहीम – सुभान अल्लाह! आप तो बादशाहों के यहाँ चाय पी चुके हैं और इतना भी नहीं जानते कि चाय में तल्खी न हो, तो वह चाय ही नहीं।
खिदमतगार – खुदावंद, शिवदीन हलवाई हाजिर है।
नवाब – दारोगा जी, इस हलवाई का हिसाब कर दो, और समझा दो कि अगर खराब या सड़ी हुई बासी मिठाई भेजी, तो इस सरकार से निकाल दिया जायगा। परसों बरफी खराब भेजी थी। घर में शिकायत करती थीं।
दारोगा – सुनते हो शिवदीन? देखो, सरकार क्या फरमाते हैं? खबरदार जो सड़ी-गली मिठाई भेजी। अब तुमने नमकहरामी पर कमर बांधी है! खड़े-खड़े निकाल दिए जाओगे।
हलवाई – नहीं खुदावंद, अव्वल माल दूँ, अव्वल। चाशनी जरा बहुत आ गई, तो दाना कम पड़ा। कड़ी हो गई। चाशनी की गोली देर में देखी, नहीं तो इस दुकान की बरफी तो शहर भर में मशहूर हैं। वह लज्जती होती है कि ओठ बँधने लगते हैं।
दारोगा – चलो, तुम्हारा हिसाब कर दें। ले बतलाओ, कितने दिन से खर्च नहीं पाया, और तुम्हारा क्या आता है?
हलवाई – अगले महीने में 25 रु. और कुछ आने की आई थी। और अबकी 10 तारीख अंगरेजी तक कोई सत्तर या अस्सी की।
दारोगा – अजी, तुम तो गद्देबाजियाँ करते हो! सत्तर या अस्सी, सौ या पाँच सौ; उस महीने में उतनी और इस महीने में इतनी। यह बखेड़ा तुमसे पूछता कौन है? हमें तो बस, गठरी बता दो, कितना हुआ?
हलवाई – अच्छा, हिसाब तो कर लूँ, (थोड़ी देर के बाद) बस, 142 रुपए और दस आने दीजिए। चाहे हिसाब कर लीजिए, बोलता जाऊँ।
दारोगा – अजी, तुम कोई नए तो हो नहीं। बताओ इसमें यारों का कितना है? सच बोलना लाला! (पीठ ठोंक कर) आओ, वारे-न्यारे हों। क्यों, है न?
हलवाई – बस, सौ हमको दे दो, बयालीस तुम ले लो। सीध-सीधा मैं तो यह जानता हूँ।
दारोगा – अच्छा, मंजूर। मगर बयालीस के बावन करो। एक सौ तुम्हारे, बावन हमारे। सच कहना, दोनों महीनों में चालीस की मिठाई आई होगी या कम?
हलवाई – अजी हुजूर; अब इस भेद से आपको क्या वास्ता? आपको आम खाने से गरज है, या पेड़ गिनने से। सच-सच यह कि सब मिला कर अड़तीस रुपए की आई होगी। मुल वजन में मार देता हूँ। सेर भर लड्डू माँग भेजे, हमने पाव सेर कम कर दिए।
दारोगा – ओह, इसकी न कहिए, यहाँ अंधेर-नगरी चौपट-राज है। यह दिमाग किसे कि तौलने बैठे। मियाँ लखलुट, बीवी उनसे बढ़ कर। दस के पचास लो, और सेर के तीन पाव भेजो। मजे हैं। अच्छा, ये सौ रुपए गिन लो और एक सौ बावन की रसीद हमें दो।
हलवाई – यह मोल-तोल है। सौ और पाँच हम लें और बाकी हजूर को मुबारक रहें।
अब सुनिए, मियाँ खोजी ने ये सारी बातें सुन लीं। जब शिवदीन चला गया, तो बढ़ कर बोले – अजी, हजरत, आदाबरज है। कहिए, इसमें कुछ यारों का भी हिस्सा है? या बावन के बावन खुद ही हजम कर जाओगे और डकार तक न लोगे? अब हमारा और आपका साझा न होगा, तो बुरी ठहरेगी।
दारोगा – क्या? किससे कहते हैं आप! यह साझा कैसा! भंग तो नहीं पी गए हो कहीं? यह क्या वाही-तबाही बक रहे हो? यहाँ बेहूदा बकने वालों की जबान खींच ली जाती है। तुम टुकड़गदों को इन बातों से क्या वास्ता?
खोजी – (कमर कस कर) ओ गीदी, कसम खुदा की, इतनी करौलियाँ भोंकी हों कि याद करो। मुझे भी कोई ऐसा-वैसा समझे हो? मैं आदमी को दम के दम में सीधा बना देता हूँ। किसी और भरोसे न भूलिएगा। क्या खूब अड़तीस के डेढ़ सौ दिलवाए, पचास खुद उड़ाए और ऊपर से गुर्राता है मर्दक। अभी तो नवाब साहब से सारा कच्चा चिट्ठा जड़ता हूँ। खड़े-खड़े न निकाल दिए जाओ, तो सही। हम भी तमाम उम्र रईसों की ही सोहबत में रहे हैं, घास नहीं छीला किए हैं। बाएँ हाथ से बीस रुपए इधर रख दीजिए। बस, इसी में खैर है; वर्ना उलटी आँते गले पड़ेंगी। अब सोचते क्या हो? जरा चीं-चपड़ करोगे, तो कलई खोल दूँगा। बोलो, अब क्या राय है? बीस रुपए से गम खाओगे, या जिल्लत उठाओगे? अभी तो कोई कानोंकान नहीं सुनेगा, पीछे अलबत्ता बड़ी टेढ़ी खीर है।
दारोगा – वाह री फूटी किस्मत! आज सुबह-सुबह बोहनी अच्छी हुई थी, अच्छे का मुँह देख कर उठे थे; मगर हजरत ने अपनी मनहूस सूरत दिखाई। अब बावन में से आपको बीस रुपए, रकम की रकम निकाल दें, तो हमारे पास क्या खाक रहे? और हाँ, खूब याद आया, बावन किस मरदूद को मिले। सैंतालिस ही तो हमारे हत्थे चढ़े। दस तुम भी लो भई। (गर्दन में हाथ डाल कर) मान जाओ उस्ताद। हमें जरूरत थी इससे कहा, वरना क्या बात थी। और फिर हम-तुम जिंदा हैं तो सैकड़ों लुटेंगे मियाँ, ये हाथ दोनों लूटने ही के लिए हैं, या कुछ और?
खोजी – दस में तो हमारापेट न भरेगा। अच्छा भई, पंद्रह दो।
आखिर दारोगा ने मजबूर हो कर पंद्रह रुपए मियाँ खोजी को नजर किए और दोनों आदमी जाकर महफिल में शरीक हुए। थोड़े ही देर बैठे होंगे कि चोबदार ने आकर कहा – हुजूर, वह बजाज आया है, जो विलायती कपड़ा बेचता है। कल भी हाजिर हुआ था; मगर उस वक्त मौका न था, मैंने अर्ज न किया।
नवाब – दारोगा से कहो, मुझे क्या घड़ी-घड़ी आके परचा जड़ते हो। (दारोगा से) जाओ भई, उसको भी लगे हाथों भुगता ही दो। झंझट क्यों बाकी रह जाय। कुछ और कपड़ा आया है विलायत से? आया हो, तो दिखाओ; मगर बाबा मोल की सनद नहीं।
बजाज – अब कोई दूज तक सब कपड़ा आ जायगा। और, हुजूर ऐसी बातें कहते हैं! भला, इस ड्योढ़ी पर हमने कभी मोल-तोल की बात की है आज तक? और यों तो आप अमीर हैं, जो चाहे कहें, मालिक हें हमारे।
दारोगा और बजाज चले। जब दारोगा साहब की खपरैल में दोनों जा कर बैठे, तो मियाँ खोजी भी रेंगते हुए चले और दन से मौजूद! दारोगा ने जो इनको देखा, तो काटो तो बदन में लहू नहीं; मुर्दनी सी चेहरे पर छा गई! चुप! हवाइयाँ उड़ी हुई। समझे कि यह खोजी एक ही काइयाँ है। इससे खुदा पनाह में रखे। सुबह को तो मरदूद ने हत्थे ही पर टोक दिया, और पंद्रह पटीले। अब जो देखा कि बजाज आया, तो फिर मौजूद। आज रात को इसकी टाँग न तोड़ी हो, तो सही। मगर फिर सोचे कि गुड़ से जो मरे, तो जहर क्यों दें। आओ इस वक्त चुनीं-चुनाँ करें, फिर समझा जायगा। बोले – आओ भाईजान, इधर मोढ़े पर बैठो। अच्छी तरह भई? हुक्का लाओ, आपके लिए।
बजाज सदर-बाजार का रहने वाला एक ही उस्ताद था। ताड़ गया कि इसके बैठने से मेरा और दारोगा का मतलब खब्त हो जायगा? किसी तदबीर से इसको यहाँ से निकालना चाहिए। पहले तो कुछ देर दारोगा से इशारों में बातें हुआ कीं। फिर थोड़ी देर के बाद बजाज ने कहा – मियाँ साहब, आपको यहाँ कुछ काम हैं?
खोजी – तुम अपनी कहो लालाजी, हमसे क्या वास्ता?
बजाज – तुम यहाँ से उठ जाओ। उठते हो कि मैं दूँ एक लात ऊपर से।
खोजी – ओ गीदी, जबान सँभाल; नहीं तो इतनी भोंकूँगा कि खून-खराब हो जायगा।
बजाज – उठूँ फिर मैं?
खोजी – उठके तमाशा भी देख ले!
बजाज – बेधा है क्या?
खोजी – वल्लाह, जो बे-ते किया, तो इतनी करौलियाँ…
खोजी कुछ और कहने ही को थे कि बजाज ने बैठे-बैठे मुँह दबा दिया और एक चपत जमाई। चलिए, दोनों गुँथ गए। अब दारोगा जी को देखिए। बीच बचाव किस मजे से करते हैं कि खोजी के दोनों हाथ पकड़ लिए और कमर दबाए हुए हैं और बजाज ऊपर से इनको ठोक रहा है। दारोगा साहब गला फाड़-फाड़ कर गुल मचाए जाते हैं कि मियाँ, क्यों लड़े मरते हो? भई, धौल-धप्पे की सनद नहीं। खोजी अपने दिल में झल्ला रहे हैं कि अच्छे मीर फैसली बने। इतने में किसी ने नवाब साहब से जा कर कह दिया कि मियाँ खोजी, दारोगा और बजाज तीनों गूँथे पड़े हैं। उसी वक्त बजाज भी दौड़ा हुआ आया और फरियाद की कि हुजूर, हम आपके यहाँ तो सस्ता माल देते हैं, मगर यह खोजी हिसाब-किताब के वक्त सर पर सवार हो गए। लाख-लाख कहा कि भई, हम अपने माल का भाव तुम्हारे सामने न बताएँगे; मुल इन्होंने हारी मानी न जीती, और उल्टे पंजे झाड़ के चित-पट की ठहराई। कमजोर, मार खाने की निशानी। मैंने वह गुद्दा दिया कि छठी का दूध याद करते होंगे। दारोगा भी रोते-पीटते आए कि दोहाई है, चारपाई की पट्टी तोड़ डाली, खासदान तोड़ डाला और सैकड़ों गालियाँ दीं।
मियाँ खोजी ऐसे धपियाए गए और इतनी बेभाव की पड़ी कि बस, कुछ पूछिए नहीं। नवाब ने पूछा – आखिर झगड़ा क्या था?
दारोगा – हुजूर यह खोजी बड़े ही तीखे आदमी हैं। बात-बात पर करौली भोंकते हैं, और गीदी तो तकिया-कलाम है। इस वक्त लाला बलदेव ही से भिड़ पड़े। वह तो कहिए, मैंने बीच-बचाव कर दिया। वर्ना एक-आध का सिर ही फूट जाता।
बजाज – बड़े झल्ले आदमी हैं। दारोगा जी बेचारे न आ जाते तो कपड़े-वपड़े फाड़ डालते।
खोजी – तो अब रोते काहे को हो? अब यह दुखड़ा लेके क्या बैठे हो।
नवाब – लप्पा-डग्गी तो नहीं हुई।
खोजी – नहीं हुजूर, शरीफों में कहीं हाथा-पाई होती है भला? हमने इनको ललकारा, इन्होंने हमको डाँटा, मगर कुंदे तौल-मौल कर दोनों रह गए। भले-मानस पर हाथ उठाना कोई दिल्लगी है!
खैर, मियाँ खोजी तो महफिल में जा कर बैठे और उधर लाला बलदेव और दारोगा साहब हिसाब करने गए।
दारोगा – हाँ भाई, बताओ।
लाला – अजी बताएँ क्या, जो चाहे दिलवा दो।
दारोगा – पहले यह बताओ, तुम्हारा आता क्या है? सौ, दो सौ, दस, बीस, पचास जो हो, कह दो।
लाला – दारोगा जी, आजकल कपड़ा बड़ा महँगा है।
दारोगा – लाला, तुम गिरे गावदी ही रहे। हमको महँगे-सस्ते क्या वास्ता? हमको तो अपने हक से मतलब। तुम तो इस तरह कहते हो, जैसे हमारी गिरह से जाता है।
लाला – फिर तो 753 निकालिए।
दारोगा – बस, अरे मियाँ, अबकी इतने दिनों में सात-साढ़े सात सौ ही की नौबत आई?
लाला – जी हाँ, आप से कुछ परदा थोड़े ही है। दो सौ और पचपन रुपए का कपड़ा आया है; अंदर-बाहर, सब मिला कर। मगर परसों नवाब साहब कहने लगे। कि अबकी तो तुम्हारा कोई पाँच-छह सौ का माल आया होगा। मैंने कहा कि ऐसे मौके पर चूकना गधापन है। वह तो पाँच-छह सौ बताते थे, मेरे मुँह से निकल गया कि हिसाब किए से मालूम होगा। मुल कोई सात-आठ सौ का आया होगा। तो अब 753 ही रखिए। इसमें हमारा और आपका समझौता हो जायगा।
दारोगा – अजी, समझौता कैसा, हम-तुम कुछ दो तो है नहीं; और हमारे-तुम्हारे तो बाप-दादा के वक्त से दोस्ताना है। बोलो, कितने पर फैसला होता है?
लाला – बस, दो सौ छब्बीस तो हमको एक दीजिए और तीन सौ और दीजिए। इसके बाद बढ़े सो आपका।
दारोगा – (हँस कर) अच्छा भई, मंजूर। हाथ पर हाथ मारो। मगर 753 रु. 6 आ. की रसीद लिखो, जिनमें मालूम हो कि आने-पाई से हिसाब लैस है।
लाला – बड़े काइयाँ हो दारोगा जी! अजी, 227 रु. 6 आ. कुल आपका?
खोजी – बल्कि आपके बाप का।
यह आवाज सुन कर दोनों चौंके। इधर-उधर देखते हैं, कोई नजर ही नहीं आता। दारोगा के हवास गायब। बजाज के बदन में खून का नाम नहीं। इतने में फिर आवाज आई – कहो, कुछ यारों का भी हिस्सा है? तब दोनों के रहे-सहे होश और भी उड़ गए।
अब सुनिए – मियाँ खोजी खपरैल के पिछवाड़े एक मोखे की राह से सब सुन रहे थे। जब कुल कारवाई खतम हो गई, तो आवाज लगाई। खैर, दारोगा और लाला बलदेव ने उनको ढूँढ़ निकाला और लल्लो-पत्तो करने लगे।
बजाज – हमारा कसूर फिर माफ कीजिए।
दारोगा – अजी, ये ऐसे आदमी नहीं हैं। ये बेचारे किसी से लड़ने-भिड़नेवाले नहीं। बाकी लड़ाई-झगड़ा तो हुआ ही करता है। दिल में कुदरत आई और साफ हो गए।
खोजी – ये बातें तो उम्र भर हुआ करेंगी। मतलब की बात फरमाइए। लाओ कुछ इधर भी।
दारोगा – जो कहो।
खोजी – सौ दिलवाइए पूरे। एक सौ लिए बगैर न टलूँगा। आज तुम दोनों ने मिल कर हमारी खूब मरम्मत की है।
दारोगा – यह तीस रुपए तो एक लीजिए और यह दस का नोट। बस। और जो अलसेट कीजिए, तो इससे भी हाथ धोइए।
खोजी – खैर लाइए, चालीस ही क्या कम हैं।
दारोगा – हम समझते थे कि बस, हमी-हम हैं; मगर आप हमारे भी गुरु पैदा हुए।
मियाँ खोजी और दारोगा साहब हाथ में हाथ दिए जा कर महफिल में बैठे, गोया दोनों में दाँत-काटी रोटी थी। मगर दारोगा का बस चलता, तो खोजी को काले पानी ही भेज देते, या जिंदा चुनवा देते। महफिल में लतीफे उड़ रहे थे।
नुदरत – हुजूर, आज एक आदमी ने हमसे पूछा कि अगर दरिया में नहायँ, तो मुँह किस तरफ रखें। हमने कहा कि भाई, अगर अक्लमंद हो, तो अपने कपड़ों की तरफ रुख रखे, वर्ना चोर उठा ले जायगा और आप गोते ही खाते रह जायँगे।
हाफिज – पुराना लतीफा है।
आजाद – एक हकीम ने कहा कि जब तक मैं बिन ब्याहा था, तो बीवीवाले गूँगे हो गए थे और अब जो शादी कर ली, तो एक-एक मुँह में सौ-सौ जबानें हैं।
इतने में गंधी ने आ कर सलाम किया।
नवाब – दारोगा जी, इनको भी भुगता दो।
दारोगा और गंधी खपरैल में पहुँचे, तो दारोगा ने पूछा – कितना इत्र आया?
गंधी – देखिए, आपके यहाँ तो लिखा होगा।
दारोगा – हाँ, लिखा तो है। मगर खुदा जाने वह कागज कहाँ पड़ा है। तुम अपनी याद से जो जी में आए, बता दो।
गंधी – 35 रु. तो कल के हुए, और 80 रु. उधर के। बेगम साहब ने अब की इत्र की भरमार ही कर दी। कराबे के कराबे खाली कर दिए।
दारोगा – अच्छा भई, फिर इसमें किसी के बाप का क्या इजारा। शौकीन हैं, रईसजादी हैं, अमीर हैं। इत्र उन्हीं के लिए है, या हमारे आपके लिए? अच्छा, तो कुल 115 रु. हुए न! तुम भी क्या याद करोगे। लो, सौ ये हैं और तीन नोट पाँच-पाँच के।
गंधी – अच्छा लीजिए, यह इत्र की शीशी आपके लिए लाया हूँ।
दारोगा – किस चीज का है?
गंधी – सूँघिए, तो मालूम हो। खुदा जानता है, 10 रु. तोले में झड़ाझड़ उड़ा जा रहा है।
मियाँ गंधी उधर रवाना हुए, इधर दारोगा जी खुश-खुश चले, तो आवाज आई कि उस्ताद, इस शीशी में यारों का भी हिस्सा है। पीछे फिर के देखते हैं, तो मियाँ खोजी घूमते हुए चले आते हैं।
दारोगा – यार, तुमने तो बेतरह पीछा किया।
खोजी – अब की तो तुमको कुछ न मिला। मगर इस इत्र में से आधी शीशी लेंगे।
दारोगा – अच्छा भई, ले लेना। तुमसे तो कोर ही दबी है। दोनों आदमी जा कर महफिल में फिर शरीक हो गए।
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