व्यंग्य – नेता का स्थान – (लेखक – पांडेय बेचन शर्मा उग्र)
लड़कपन से लेकर बी.ए. पास हो लेने तक, आठ वर्ष की अज्ञान अवस्था से तेईस वर्ष की अपरिपक्व अवस्था तक वे दोनों अभिन्न मित्र रहे। दोनों तीव्र भी थे, दोनों ‘देश के चमकते हुए सितारे’ थे। दोनों का एक ही देश था, एक ही प्रदेश था, एक ही नगर था, एक ही मुहल्ला था, एक ही ‘आसरा’ था और एक ही धर्म था।
दोनों अत्याचार-पीड़ित देश के बालक थे। दोनों ऐसे राजा की छत्रछाया में रहते थे जो अधिकारियों को (अपनी झक की) उँगलियों पर नचाता था। दोनों ऐसे शासकों की रियासत की रिआया थे जो मनुष्य होकर मनुष्य के प्रति हिंसा-द्वेष का प्रचार करते थे। आदमी होकर आदमी को खा जाने पर तैयार थे। दोनों की जननी जन्म-भूमि परतंत्र थी। दोनों के नाम हम नहीं बतलाएँगे। दोनों के देश का नाम भी हम अभी नहीं बतलाएँगे।
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दोनों के हृदय में प्रेम था – मनुष्यता के लिए उत्साह था – जीवन-संग्राम में विजय पाने लिए, दया थी – दु:ख में पड़े ईश्वर के सुंदर खिलौनों (सांसारिक जीवों) के लिए, बल था – असुविधाओं से लड़ने के लिए।
दोनों स्वदेश का उपकार और उद्धार करना चाहते थे। दोनों स्वदेश-प्रेमोन्मत्त थे।
‘हम लोगों की लिखाई-पढ़ाई समाप्त हो गई’, एक दिन उनमें से एक ने दूसरे को छेड़ा, ‘अब जीवन-क्षेत्र में किधर से और किस रूप में प्रवेश किया जाए?’
‘नौकरी नहीं करेंगे?’
पहला – ‘नहीं, उससे भी अधिक आवश्यकता यह है कि शादी नहीं करेंगे।’
दूसरा – ‘ठीक कहते हो। अच्छा, तो यह बात तय रही कि हम दोनों शादी नहीं करेंगे, नौकरी नहीं करेंगे। आगे…।’
पहला – ‘मनुष्य, राष्ट्र, समाज और जीवन-मात्र की कल्याण-कामना और कल्याण-चेष्टा ही हमारे व्रत होंगे।’
‘हम सत्य के प्रचारक होंगे, असत्य के विरोधी। हम न्याय के प्रचारक होंगे, अन्याय के विरोधी, हम प्रेम के प्रचारक होंगे, द्वेष के विरोधी।’
‘और हम मनुष्य की पीठ पर हाथ रखकर उसे ठोंकते हुए उससे कहेंगे – अरे आदमी! तू डरता किससे है? तेरा बादशाह कौन हो सकता है? तेरे ऊपर शासन कौन कर सकता है? तुझे अपमानित करने का अधिकार स्वर्ग के देवताओं तक को नहीं है। फिर तू डरता किससे है, भाई? आँखें खोल! तू मामूली प्राणी नहीं है –
‘मत सहल हमें जानों,
फिरता है फलक बरसों,
तब खाक के परदे से
इन्सान निकलते हैं।’
पहला – ‘सारा देश हमारा परिवार होगा। भूमंडल हमारा निवास-स्थान होगा। हम बिना आत्म-विज्ञापन की चेष्टा किए – चुपचाप – अपने निर्धारित मार्ग पर चलेंगे।’
थोड़ा ठहरकर और सोचकर दूसरे ने कहा – ‘मगर भाई साहब, यहाँ पर हमारा मतभेद है। मैं जीवन में एक बार ‘नेता’ होना चाहता हूँ।’
पहला – ‘चाहते हो तो हो जाओगे, मगर सेवामार्ग में कामना-कामिनी के साथ चलने का अर्थ है शराब पीकर देवस्थान में जाना। नेता से अनुयायी का स्थान किसी प्रकार भी छोटा नहीं है।’
दूसरा – ‘सभी नेता नहीं हो सकते। नेता होने के लिए अवसर, भाग्य और बुद्धि की आवश्यकता होती है।’
पहला – ‘इस तरह तो सभी अनुयायी भी नहीं हो सकते। संसार में कुछ भी होने के लिए – किसी-न-किसी हद तक अवसर, भाग्य और बुद्धि की आवश्यकता होती है। ऐसे – यदि लोकमत स्वयं चुनकर किसी को अपना नेता बना ले तो इससे बढ़कर और क्या होगा। मगर, नेता बनने के लिए उद्योग करना, रूपक बाँधना ठीक नहीं। नेता मनुष्यता का उपदेशक होता है। नेता ईश्वर का प्रतिनिधि होता है। वह देवस्थान की तरह पवित्र और धर्म की तरह ग्रहणीय होता है। नेता सब नहीं हो सकते। वे बनाए भी नहीं जाते। नेता होना खिलवाड़ नहीं है।’
दूसरा – ‘तुम्हारी इस परिभाषा से तो संसार में कोई नेता ही न रह जाएगा। अजी, हम मनुष्य, राष्ट्र और समाज की सेवा कर साबित कर देंगे कि हम औरों से अधिक बुद्धिमान, चतुर और दक्ष हैं। हमें लीडर बनाओ – तुम्हारा मंगल होगा।’
पहला – ‘अच्छी बात है। जाओ, देश की सेवा करो, उससे बदले में ‘लीडरी’ माँगो। भगवान् तुम्हारा सहायक हो। मैं तो चुपचाप काम करने का उपासक हूँ। हमारा-तुम्हारा ध्येय एक ही है। पथ दो हैं। इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। हम दोनों यथासमय ‘लीडर’ और ‘सेवक’ हो जाने पर भी एक-दूसरे के प्रेमी, बंधु और शुभाकांक्षी रहेंगे।’
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उस देश में मुट्टी-भर आदमियों ने सबके पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, सुख-दु:ख, जीवन-मरण आदि को अपने काबू में कर रखा था। वे मुट्ठी-भर आदमी विदेशी नहीं, स्वदेशी थे। ‘प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं।’ प्रायः ऐसा देखा जाता है कि अधिकार पा जाने पर स्वदेशी-विदेशी दोनों प्रकार के निरंकुश शासकों का रूप एक ही प्रकार का हो जाता है। कभी-कभी तो स्वदेशी शासक विदेशियों के भी कान काटते हैं। उस देश की भी यही अवस्था थी। स्वदेशी स्वेच्छाचार का बाजार गर्म था। राजा अपने ओछे विचार के चापलूस सहायकों से जो कुछ सुनता उसी को ब्रह्म वाक्य की तरह पकड़कर बैठ जाता। इसका फल यह हुआ कि व्यर्थ के और नए-नए करों से प्रजा व्यग्र हो उठी। जगह-जगह से धीरे-धीरे पर, गंभीर विरोध की आवाज आने लगी। निरंकुशों ने सोचा – ‘रिआया को विरोध करने का क्या हक है। उन्हें गिड़गिड़ाना, हाथ-पैर जोड़ना चाहिए। हम शक्तिशाली हैं। जो हमारी बात काटेगा, हम उसका सिर काट लेंगे।’ उन्होंने किया भी ऐसा ही। सो जिस प्रदेश, जिस नगर से या जिस मुहल्ले से विद्रोह-सूचक समाचार आए – सच्चे या झूठे – वह नष्ट कर दिया गया, उड़ा दिया गया। उस स्थान-विशेष के बूढ़े, जवान, बच्चे, स्त्रियाँ, अपराधी, निरपराध – सभी पीस डाले गए। शासकों के और शासन के विरुद्ध बोलना मजाक नहीं था।
यह उस देश की राजनीतिक अवस्था थी।
उस देश के मुट्ठी-भर आदमियों ने सरकार की कृपा से राष्ट्र की संपूर्ण संपत्ति अपने हाथ में कर रखी थी। देश की एक-दो नहीं कोड़ियों-करोड़ जनसंख्या थी। पर देश की अनंत संपत्ति के भोक्ता प्रति करोड़ सौ से भी कम थे। यानी वहाँ एक लाख मनुष्य गरीब थे और एक मनुष्य भयानक अमीर, यह विषमता की चरम सीमा थी। अमीर और अमीरों के कुत्ते साथियों ने समाज में अनर्थ मचा रखा था। चारों ओर स्वेच्छाचार और नकद-नारायण के बल पर जुल्म करने का रोग फैला हुआ था। मजदूर और किसान, गरीब और अनपढ़, खून देकर भी पेट-भर भोजन नहीं पाते थे। गरीबों की स्त्रियाँ, बेटियाँ, बहनें अमीरों के उन्माद की दासियाँ थीं। शासकों और अमीरों ने गुट बनाकर घर-घर में फूट डाल रखी थी। अपमानित महिलाओं का, प्रताड़ित पुरुषों का और पेट-पीड़ित गरीब परिवारों का खोज-लेवा कोई नहीं था – ईश्वर भी नहीं था।
यह उस देश की सामाजिक अवस्था थी।
मुट्ठी-भर धर्म के ठेकेदारों ने – पंडे-पुरोहित और ईश्वर के नाम पर संसार को ठगनेवालों ने – प्रथा, पुराण और धर्म के नाम पर और भी भयानक उत्पात मचा रखा था। उनमें से कोई भी ‘अपने’ को नहीं पहचानता था। पर ईश्वर-दर्शक होने का दावा सबका था। ईश्वर के निवासस्थानों (देवालयों), (मठों) को उन्होंने होटल और वेश्यालय बना रखा था। त्यागियों और संन्यासियों की विभूति देखकर गृहस्थ चकरा जाते थे। विरागियों का वासनानुराग संसारियों को दहला देता था। सच्चे साधु, सच्चे पंडे और सच्चे धर्माध्यक्षों का कहीं पता नहीं था। चारों ओर धूर्तों, कामुकों, आततायियों और दुष्टों का बोलबाला था। ये पुरोहित-पुजारी भी अत्याचारी सरकार से मिले थे। इस कारण सब धनी भी थे। ये सरकार की मदद करते थे – राजा और राजा के प्रतिनिधियों को ईश्वर का अवतार या अंश बताकर। सरकार इनकी मदद करती थी – प्रथा की, पुराण की दुहाई देकर। धर्म की आड़ में उक्त धर्माध्यक्षों ने न जाने कितने घर तबाह कर डाले, न जाने कितनी कुमारियों का कौमार्य नष्ट कर डाला, न जाने कितनी सतियों का सतीत्व लूट लिया, न जाने कितने गरीबों का गला रेत डाला!
यह उस देश की धार्मिक अवस्था थी।
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उस देश में गौतम बुद्ध, महावीर तीर्थंकर या गाँधी-जैसे अहिंसा-प्रिय महापुरुषों ने किसी युग में भी जन्म न लिया था। अस्तु! वहाँ का आंदोलन शुद्ध अहिंसात्मक नहीं था। वहाँ जब-जब उपद्रव हुए, सशस्त्र हुए। राक्षसों को राक्षसी भाषा में, दानवों को दानवी ढंग से ठीक करने की नीति वहाँ के – यदा-कदा, यत्र-तत्र असत्य के अंधकार के विरुद्ध सत्य के प्रकार की तरह टिमटिमा उठनेवाले – नेताओं के ग्रहण की थी।
अनेक वर्षों तक जनता के साथ रहकर, अखबारों से प्रचार कर, जेल और निर्वासन के दंड भोग कर हमारे पूर्वकथित नवयुवक ‘नेता’ ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली। जिन दिनों हमारे नेता को (अब हम दूसरे नवयुवक को इसी नाम से पुकारेंगे) नेतृत्व मिला। उन दिनों लीडरी का भाव कुछ सत्ता भी था। पहले के नेताओं ने अपनी तपस्या से यशैषणा का मार्ग साफ कर रखा था। नए नेताओं को कुछ साधारण परीक्षाएँ पास कर लेने से ही – किसी समाचार-पत्र की नीति के संचालक हो जाने से और उत्तेजक भाषा में ‘भाइयों और बहनों’ कहकर गरज लेने से ही – नेतृत्व सुलभ था।
नेता हो जाने के बाद, अपढ़, श्रद्धालु और उत्तेजनाप्रिय मूर्ख जनता की नकेल हाथ में आ जाने के बाद, एक दिन ‘नेता’ और ‘सेवक’ दोनों दोस्तों की भेंट हुई।
‘मैं नेता हूँ।’ नेता ने ‘सेवक’ से कहा।
‘तुम राक्षस भी हो, देवता भी।’ सेवक ने उत्तर दिया।
‘मैं देवता हूँ, राक्षस नहीं। राक्षस के पीछे मनुष्यता के सुंदर-सुंदर खिलौने ‘जय-जय’ पुकारते हुए नहीं चलते।’
‘नहीं यदि तुम अपने पथ पर, अपने स्थान पर, अपनी प्रतिज्ञा पर, दृढ़ रहे तब तुम धन्य हो, पूज्य हो, देवता हो और यदि समय आने पर, प्राणों की बाजी लगने पर गरीब जनता को भूल अपने फेर में पड़ गए तो तुमसे बढ़कर कोई राक्षस नहीं। राक्षस तो स्पष्ट होते हैं। तुम नेतृत्व की खाल में राक्षसता का व्यापार करनेवाले हो जाओगे। जो बहुत ऊँचे चढ़ता है। गिरकर उसका पतन भी उतना ही नीचा होता है।’
‘सेवक!’ नेता ने अभिमान से कहा, ‘देखोगे एक दिन सारा संसार मुक्त कंठ से कहेगा कि मेरा पथ-निर्णय ठीक है। मैं इतिहास में अमर हूँ।’
‘नेता!’ सेवक ने नम्रता से उत्तर दिया, ‘ईश्वर तुम्हारी बातें सच करें। पर भाई मैं कहता हूँ कि तुम ज्वालामुखी के मुख पर खड़े हो। कब आग भड़केगी और तुम मुँह के बल गिरोगे, इसका कोई ठिकाना नहीं। नेता का स्थान ज्वालामुखी के भयानक मुख पर होता है। इसका ध्यान रखना।’
5
एक दिन नेता ने विचार किया – ‘इतना बड़ा दल मेरे साथ है कि अन्यायकारी अमीर, धर्माध्यक्ष और राजा तक मेरी परवाह करते हैं। विरोध करते हुए भी, गालियाँ और दंड देते हुए भी वे मुझसे डरते हैं। जनता मेरे इशारे पर मरने और मारने को तैयार है। फिर… फिर।’
‘क्या बुराई है अगर एक बार आग लगा दूँ, क्या बुराई है अगर गरीबों को अमीरों के विरुद्ध उभार दूँ। अगर एक बार लोहा बजवा देने से इतने बड़े देश का ‘उद्धारक’ पद मुझे मिलता है, तो इसे क्यों छोड़ दिया जाए। क्रांति के बाद विजयी नेता की कैसी पूजा, प्रतिष्ठा होती है। संसार का इतिहास इसका प्रमाण है।’
‘मगर, मगर…’ नेता हिचका, ‘यदि जनता में काफी बल न हुआ। यदि मुझमें ही काफी बल न हुआ। यदि राष्ट्रीय पक्ष की हार हुई।’
‘उह! यह सब मन की दुर्बलता है। जरूर हमारी विजय होगी। जरूर हमारे भाग्य चमकेंगे। जय उद्योग की! जय साहस की!! जय मनुष्य की!!!’
नेता ने उस देश की सरकार के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध-घोषणा कर दी। अधिकारियों के ताप से जनता सूखे पुआल की तरह हो रही थी, नेता ने उसमें आग लगा दी!!
‘सेवक’ ने हाथ जोड़कर नेता से कहा, ‘नेता, जल्दी न कर। हाथ से छूट जाने पर तीर लौटाया नहीं जाता। अभी समय नहीं है, युद्ध न छेड़।’
‘सेवक!’ नेताओं की राष्ट्रीय मुस्कराहट के साथ नेता ने कहा, ‘तेरा विषय सेवा है, अनुगमन है। तू अपने रास्ते जा।’
नेता के चापलूस अनुयायियों ने कहा, ‘सत्य वचन, धर्मावतार! यह कायर हैं, डरपोक हैं।’
‘नेता, आग न लगा। देश के नौनिहाल तबाह हो जाएँगे, माताएँ मर मिटेंगी, बहनें सतायी जाएँगी, विधवाओं की आहों से आकाश हिल जाएगा।’
‘सेवक, तेरी सलाह ठीक नहीं। तेरी आत्मा कमजोर है, तू केवल तमाशा देख चुप रह। मैं अपनी जिम्मेदारी समझता हूँ।’ नेता ने कहा।
‘सेवक, तू देशद्रोही है, नीच है, पतित है। हमारी आँखों से दूर हो जा! नेता देवता हैं, नेता सर्वशक्तिमान हैं। उसकी जय हो।’ नेता के अनुयायियों ने कहा।
जाते-जाते आँखों में आँसू भरकर सेवक कहता गया, ‘नेता भाई! इस समय तेरा सिंहासन ज्वालामुखी के मुख पर है। सावधान!’
6
सरकार काँप उठी, दहल उठी, संसार चकरा गया। नेता का नाम ईश्वर के नाम की तरह लोगों की जुबान पर फिरने लगा। इन सब बातों का एक कारण नेता की चतुर बुद्धि थी।
देश में विद्रोह – सशस्त्र विद्रोह हुआ। सब जगह नहीं, केवल उन्हीं स्थानों पर, जहाँ नेता ने चाहा। जनता ने जरा-सी छेड़खानी की, पृथ्वी को रक्त से प्लावित कर दिया। कुछ सरकार का बिगड़ा। बहुत कुछ जनता का। मगर, नेता दूध का धोया साफ था। कानून की पहुँच उस तक न हो सकी। सारे देश में खलबली मच जाने के डर से सरकार, नेता को सारे खुराफातों की जड़ जानते हुए भी गिरफ्तार नहीं कर सकती थी।
अनेक स्थानों पर जनता के रक्त से होली खेलने के बाद, आग अधिक भड़कते देख सरकार ने नेता को याद किया। राजा ने अपना विशेष प्रतिनिधि भेजकर नेता को निमंत्रित किया।
एक दिन, रात्रि के दस बजे, नेता राजा के प्रासाद में पहुँचा। बड़ी तैयारी थी – उसके स्वागत के लिए बड़ी धूमधाम थी। बड़े-बड़े सरदारों और दरबारियों से घिरा नेता राजा के सामने पहुँचा। स्वर्ण-दीपक जल रहा था। सुगंधवाही पवन भवन के कोने-कोने में घूमकर पंखा झल रहा था। माया की ज्योति से राजभवन देदीप्यमान था। विविध रूप-रंग की सुंदरियाँ और शराबें अपने-अपने स्थानों पर शोभित हो रही थीं। नेता का शासन राजा के पास ही, कुछ नीचे था।
उस दिन नेता महामान्य राजा का अतिथि था। राजा ने इशारा किया, दरबारियों ने अपने-अपने प्याले ऊँचे किए। लाल परी शीशे में नाच उठी। मगर नेता ने अपना प्याला न छुआ। उसके हृदय ने कहा, ‘तू नेता है और यह शराब।’
दाहिनी तरफ बैठे हुए राजा के प्रतिनिधि ने नेता के कान में कहा, ‘क्षमा कीजिएगा। आप इसे न पीजिएगा तो राजा का अपमान होगा। इसमें हानि ही क्या है।’
‘इसमें हानि ही क्या है।’ नेता के हृदय में यह बात एक बार प्रतिध्वनित हुई। उसी समय सुंदरियों ने मधुर तान लेना आरंभ किया। उसी मंद मलय समीर का एक झोंका नेता के कपोलों को स्पर्श करता हुआ निकल गया। उसी समय भवन की हरे मखमल की कामदार झालरों से जड़ी ‘खिड़की से चंद्रदेव ने भीतर झाँका, इसमें हानि ही क्या है। मैं इतना दुर्बल हृदय नहीं…
नेता के मन ने मानों उसे फिर चेताया, ‘तेरे ही शब्दों में यह ‘गरीबों का खून’ है। सँभल! देख, तू गिर तो नहीं रहा है!’
नेता को इस तरह इतस्ततः करते देख राजा ने इशारा किया। एक अनुपम सुंदरी अपनी गति से शराब के भी होश उड़ाती हुई नेता की बायीं कुर्सी पर जा बैठी। नेता को रोमांच हो आया।
जिसके आगे जगत्-गुरु हिंदुओं के ब्रह्मा, विष्णु और महादेव ने विश्वामित्र, पाराशर और नारद ने हार मानकर मस्तक झुका लिया था, उसी के आगे एक देश का नेता कब तक ठहर सकता था।
सुंदरी के हाथ से शराब लेते हुए उसके मन ने कहा, ‘कोई हर्ज नहीं, मैं नेता हूँ। औरों से अधिक शक्ति-संपन्न हूँ,’ उसके मुख ने कहा –
‘बात साकी की न टाली जाएगी,
करके तौबा तोड़ डाली जाएगी।’
दूसरे दिन नेता अत्याचारी राजा के मंत्रियों में – धन के कुत्तों में – था।
7
जब से नेता ‘मिनिस्टर’ हुआ, उसकी आन-बान का क्या पूछना! पहरा भी, चौकी भी, मोटर भी, महल भी। सेवक के साथ की हुई सब प्रतिज्ञाएँ उसे भूल गयीं। दुष्ट शासन के सहायकों ने उसे बिलकुल अपने काबू में कर लिया। अब नेता सतायी हुई जनता के लिए कराहता नहीं। अखबारों में कभी-कभी कुछ लिखता है। अब नेता की बातों में वह जोर भी नहीं जो पहले था।
एक दिन ‘सेवक’ उसके बँगले के फाटक पर से लौटा जा रहा था। पहरेदारों ने उसे घुसने नहीं दिया। वह थोड़ी ही दूर गया था कि उसे एक बहुत बड़ी भीड़ आती दिखाई पड़ी। उस भीड़ में गरीब थे, मजदूर थे, स्त्रियाँ थीं, बच्चे थे और अनेक अन्य पुरुष थे। सेवक ने भीड़ के अगुआ से पूछा, ‘किधर?’
‘मिनिस्टर बने हुए नेता के घर।’
सेवक भीड़ के साथ-साथ फिर नेता के फाटक पर पहुँचा।
पहले पहरेदारों ने आनाकानी की, मगर फिर भीड़ को नेता से मिलने के लिए अत्यंत उत्सुक देख उसे (मिनिस्टर नेता को) सूचना दी। नेता बाहर आया।
‘नेता!’ गरीबों ने पुकारा, ‘तू हमें भूल क्यों गया? हम तो हमेशा तेरे भक्त रहे। तू आजकल हमारी सुधि क्यों नहीं लेता?’
‘यह तुम लोगों ने बड़ा बुरा किया।’ नेता ने भीड़ को फटकारा, ‘इतने बड़े दल में आने की क्या जरूरत थी? यह तो मुझे धमकाना है। इस तरह तुम्हारी एक भी बात नहीं सुनी जाएगी। एक-एक शांत होकर मुझसे मिलने आओ।’
‘तू तो मोटरों में घूमता है, हम गरीब पैदल चलनेवाले हैं। तू राजा के पास रहता है, हम गरीबों के पास रहते हैं, हमारी तुझसे भेंट ही कब होती है?’ भीड़ में से एक आदमी ने कहा।
‘नेता!’ दूसरे ने कहा, ‘सरकार ने… उसी सरकार ने जिसका तू मंत्री है मेरे भाई को फाँसी पर टँगवा दिया है – तेरे कारण, तेरे चलाए हुए आंदोलन में। अब तू उसी राक्षस सरकार से सहयोग कर रहा है। तू तो पहले मिनिस्टर को बुरा समझता था।’
‘चुप रहो।’ नेता ने कहा, ‘राजनीति में सदा एक मत नहीं रहता। उस वक्त मंत्रित्व से दूर रहने की जरूरत थी, आज स्वीकार करने की आवश्यकता है। तुम मूर्ख हो, राजनीति क्या जानो।’
नेता? एक ओर से किसी स्त्री ने कहा, ‘उस बार के आंदोलन में सरकारी आज्ञा से राजा के सैनिकों ने हमारा घर लूट लिया था और चुन-चुनकर पुरुष प्राणियों को मार डाला था। अब हम स्त्री और बच्चे मर रहे हैं। नेता, हमारी रक्षा कर।’
नेता – ‘इस वक्त मैं तुम्हारी एक बात भी न सुनूँगा। तुम लोग मुझे भय दिखाने आए हो! उल्टे पाँव लौट जाओ, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा।’
‘तू हमारी रक्षा कर, हम तुझे लौटाने आए हैं। तू सरकारी सोने और प्रतिष्ठा पर आज मुग्ध है। तू हमें भूल गया है।’
‘हम कुछ नहीं सुनते,’ नेता ने झिड़की दी, ‘सचमुच तुम सब दुष्ट हो।’ मिनिस्टर ने अपने नौकर की ओर देखकर कहा, ‘टेलीफोन से पुलिस को बुलाओ। ये बदमाश सीधी तरह नहीं जाएँगे।’
‘हमारे लिए पुलिस!’ एक ने कहा।
‘हम जनता हैं।’ एक उत्तेजित नवयुवक ने आगे बढ़कर कहा, ‘हम मूर्ख भले ही हों, गरीब भले ही हों, शक्तिहीन भले ही हों – फिर भी, हम सम्राटों के सम्राट और बादशाहों के बादशाह हैं। हम देवता की तरह दयालु और भोले हैं। हम दानव की तरह क्रूर और भयानक हैं। हम जब बिगड़ते हैं, आकाश काँप उठता है, पृथ्वी हिल जाती है, तू हमारे विरुद्ध हो रहा है! हमारे खून से शक्ति पाकर हमारे ही विरुद्ध शक्ति-प्रयोग! मूर्ख!’
उत्तेजित भीड़ ने कहा, ‘मूर्ख धोखेबाज!’
‘अपना कुशल चाहते हो तो लौट जाओ, कुत्तो!’ नेता ने कहा।
‘हम कुत्ते हैं?’ नवयुवक ने क्रोध से पूछा।
‘हम कुत्ते हैं?’ बूढ़ों ने घृणा से पूछा।
‘हम कुत्ते हैं?’ बच्चों ने मचलकर पूछा।
नेता ने अपने नौकर को टेलीफोन की ओर भेजा। वह स्वयं भी बँगले की ओर मुड़ा। उत्तेजना बढ़ी।
एक ने भीड़ में से ललकारा, ‘कहाँ जाता है?’
दूसरे ने कहा, ‘आज हमारा और तुम्हारा फैसला होकर रहेगा।’
तीसरे ने कहा, ‘मारो इस मनुष्य रूपधारी राक्षस को।’
कौन सोचता? कौन विचार करता है? भीड़ के सिर पर शैतान सवार हो गया था। अच्छे-बुरे का खयाल जाता रहा। देखते-देखते वह नेता पर टूट पड़ी। चारों ओर हल्ला मच गया। पुलिस के आने के पहले ही नेता टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया।
उत्तेजित जनता नेता के शव को टाँगों के सहारे सड़क पर घसीटती हुई पागलों की तरह चली जा रही थी। ‘सेवक’ हजार चेष्टा करके भी उस क्षुब्ध समुद्र को शांत नहीं कर सकता था। इसी समय सामने से सशस्त्र घुड़सवार आते दिखाई पड़े।
सेनानायक ने ललकारकर पूछा, ‘यह कौन है? इसे इस तरह कहाँ लिए जा रहे हो?’
सेवक ने उत्तर दिया, ‘यह ज्वालामुखी से खेलनेवाला नेता है, अपने स्थान पर पहुँचाया जा रहा है।’
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