आत्मकथा – दिग्दर्शन – (लेखक – पांडेय बेचन शर्मा उग्र)
‘मैंने क्या-क्या नहीं किया? किस-किस दर की ठोकरें नहीं खाईं? किस-किसके आगे मस्तक नहीं झुकाया?’ मेरे राम! आपको न पहचानने के सबब ‘जब जनमि- जनमि जग, दुख दसहू दिसि पायो।’
आशा के जाल में फँस, ‘योर मोस्ट ओबीडिएण्ट सर्वेंट’ बन, नीचों को मैंने परम प्रसन्न प्रेमपूर्वक ‘प्रभु! प्रभु!’ पुकारा। मैंने द्वार-द्वार, बार-बार मुँह फैलाया दीनता सुनाने, लेकिन किसी ने उसमें एक मुट्ठी धूल तक नहीं डाली!
‘भोजन और कपड़े के लिए पागल बना मैं यत्र-तत्र-सर्वत्र झक मारता फिरा, प्राणों से भी अधिक प्रिय आत्म-सम्मान त्यागकर खलों के सामने मैंने खाली पेट खोल-खोलकर दिखलाया!’
सच कहता हूँ, कौन-सा ऐसा नीच नाच होगा जो लघु-लोभ ने मुझ बेशरम को न नचाया होगा! किन्तु…आह!… लालच से ललचाने के सिवाय नाथ! हाथ कछु नहिं लग्यो!’
तुलसीदास (विनय)
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