आत्मकथा – धरती और धान – (लेखक – पांडेय बेचन शर्मा उग्र)
‘अरे बेचन! न जाने कौन आया था— उर्दजी, उर्दजी, पुकार रहा था!’
ये शब्द मेरी दिवंगता जननी, काशी में जन्मी जयकली के हैं जिन्हें मैं ‘आई’ पुकारा करता था। यू.पी. में माता या माई को आई शायद ही कोई कहता हो। महाराष्ट्र में तो घर-घर में माता को आई ही सम्बोधित किया जाता है। कैसे मैंने माई को आई माना, आज भी विवरण देना मुमकिन नहीं। लेकिन बम्बई जाने पर जब लक्ष-लक्ष महाराष्ट्रियों के मुँह से ‘आई’ सुना तो मेरे आन्तरिक हर्ष की सीमा न रही। जो हो। मैं यह कहना चाहता था कि मेरी जननी इस क़दर अनपढ़ थीं कि जो सार्थकता उन्हें ‘उर्द’ जी में मिलती थी वह ‘उग्र’ जी में नहीं। बिलकुल नहीं। उनसे जब मैंने अपने जन्म के समय के बारे में पूछा तो उन्होंने बतलाया कि पौष शुक्ल अष्टमी की रात में जब तुम्हारे पिता बिहारीसाहु के मन्दिर से पूजा करके लौटे थे तब तुम पैदा हो चुके थे। दूसरा पता उन्होंने यह दिया कि तुम्हारी बारही के दिन मातादयाल का जन्म हुआ था। यह मातादयाल मेरे भतीजे थे। पिता दिवंगत बैजनाथ पाँडे चुनार के ख़ासे धनिक वणिक बिहारीसाहु के राममंदिर में वैतनिक पुजारी थे। वेतन था रुपए पाँच माहवार। साथ ही चुनार में जजमानी-वृत्ति भी पर्याप्त थी। उन्हीं में एक जजमान बहुत बड़ा ज़मींदार था जिसके मरने के बाद उसके दोनों पुत्रों में सम्पत्ति के लिए घोर अदालती संघर्ष हुआ। उसी मुक़दमे में ज़मींदार के बड़े लड़के ने कुल-पुरोहित की हैसियत से मेरे पिता का नाम भी गवाहों में लिखा दिया था, गोकि उन्होंने भाई के द्वन्द्व में पड़ने से बारहा इन्कार किया था। नए ज़मींदार ने मेरे पिता को प्रलोभन भी ‘प्रापर’ दिए। लेकिन वह भद्रभाव से अस्वीकार ही करते रहे कि समन आ धमका। लाचार अदालत में हाज़िर तो वह हुए, पर पुकार होते ही उन्होंने कोर्ट से साफ़-साफ़ कह दिया कि उन्हें माफ़ करे कोर्ट, उनकी गवाही उस पार्टी के विरुद्ध पड़ सकती है जिसने गवाह बनाकर उन्हें अदालत के सामने पेश कराया है। तब तो आपकी गवाही ज़रूर होनी चाहिए, अदालत ने आग्रह किया— और गवाही हुई। कहते हैं उसी गवाही पर कोर्ट का सारा फ़ैसला आधारित रहा। बड़ा भाई हार गया। वही जिसने मेरे पिता को गवाह बनाया था। जीत छोटे भाई की हुई। इस सबमें पिता के पल्ले सिवाय सत्य के और कुछ भी नहीं पड़ा। घर की बुढ़िया इसके लिए बैजनाथ पाँडे को बराबर गर्व से कोसती रही, कि उसने ज़रा भी टेढ़ी-मेढ़ी बात न कर खरे सच के पीछे एक अच्छी ज़मींदारी हाथ से खो दी। चुनार में बैजनाथ पाँडे की जजमानी थोड़ी ही थी। निकटस्थ जलालपुर माफ़ी गाँव में ज़मीन भी चन्द बीघे थी जो—और कुछ नहीं तो—साल का खाने-भर अनाज और पशुओं के लिए भुस पर्याप्त दे सकती थी। बस इतने में ही बैजनाथ पाँडे अपने कुनबे का ख़र्च अपने दायरे में मज़े में चला लेते थे—यहाँ तक मज़े में कि सारी ज़िन्दगी बिहारीसाहु के मन्दिर में वेतन-भोगी पुजारी रहे, पर वेतन लिया कभी नहीं—और मर भी गए। बैजनाथ पाँडे संस्कृत के साधारण जानकार, जजमानी विद्या-निपुण, साथ ही गीता के परम-भक्त, शैव परिवार में पैदा होकर भी वैष्णव प्रभाव, भाव-सम्पन्न थे। कहते हैं बैजनाथ पाँडे सम्यक् चरित्रवान, सुदर्शन और सत्यवादी थे। कहते हैं वह चालीस वर्ष ही की उम्र में बैकुण्ठ-बिहारी के प्यारे हो गए थे। कहते हैं इतनी ही उम्र में वह बारह बच्चों के जनक बन चुके थे। मेरे कहने का मतलब यह कि बैजनाथ पाँडे अच्छे तो थे—बहुत—लेकिन अन बैलेन्स्ड भी कम नहीं थे। सो उन्हें क्षय-रोग हुआ, जिससे असमय में ही उनके जीवन-स्रोत का क्षय हो गया। कहते हैं क्षय के बकरे की सन्निकटता, बकरी का दूध, उसी के मांस का स्वरस बहुत लाभदायक होते हैं। हमारा परिवार शाक्त, हम छिपकर मांसादि ग्रहण करने वाले, फिर भी बैजनाथ पाँडे ने प्राणों के लिए अवैष्णवजी उपाय अपनाना अस्वीकृत कर दिया। अपने पिता की एक झलक-मात्र मेरी आँखों में है। मन्दिर से आकर ब्राह्मण-वेश में किसी ने मेरे मुँह में एक आचमनी गंगाजल डाल दिया, जिसमें बताशे घुले हुए थे। मैं माँ की गोद में था। उसने बतलाया, चरणामृत है बेटे! कितना मीठा! मैंने अपने पिता को बुरी तरह बीमार देखा, घर में चारों ओर निराशा!… पिता का मरना… आई का पछाड़ खा-खाकर रोना मुझे मज़े में याद है। यद्यपि तब मैं बहुत छोटा, रोगीला, बेदम-जैसा बालक था। जब मेरे पिता का देहान्त हुआ मैं महज़ दो साल और छह महीनों का था। यानी मैंने जब ज़रा ही आँखें खोलकर दुनिया को देखा तो मेरा कोई सरपरस्त नहीं! प्राय: जन्मजात अनाथ—ऐसा—जिस पर किसी का भी बरदहस्त नहीं रहा। पिता भाई-बहन मिलाकर हम चार जने, भाभी और माता को अनाथ कर दिवगंत हुए थे। बहन बड़ी और ब्याहता थी, फिर भी घर में खाने को थे आधा दर्जन मुख और कमानेवाला हाथ एक भी नहीं था। खेतीबाड़ी इतनी ही थी कि कर्त्ता ही उससे जीवन-यापन कर सकता था। इधर मेरे दोनों भाई रामलीला करने पर आमादा थे। कलिकाल विकराल आ रहा था—भागा-भागा; सनातन धर्म, कर्मकाण्ड, वर्ण-व्यवस्था, सारे-का-सारा मण्डल जा रहा था भागा-भागा। धर्म का लोप हो रहा था। परिवार टूट रहा था। अर्थ-टका-युग का उदय हो रहा था। जब पिता का देहान्त हुआ मेरा बड़ा भाई बाईस वर्ष का रहा होगा। उसका विवाह हो चुका था। मेरी भाभी घर पर ही थीं। मझला भाई सोलह-सत्रह साल का रहा होगा, जो पिता-मरण के कुछ ही दिन के अन्दर बड़े भाई और भाभी से लड़कर घर से अयोध्या भाग गया और साधु बनकर रामलीला-मंडलियों में अभिनय करने लगा था। तब मैं चार साल का था। सारे तन में पेट परम प्रधान। मेरे देह में वह रोग था जिसमें आयुर्वेदीय चिकित्सक लोहे की भस्म या मंडूर खिलाते हैं। मेरी आई के मरे और जीवित अनेक बच्चे थे, पर चाची के एक कन्या के अलावा कोई भी जीवित न था। सो, उनके मन में पुत्र का मोह था। दोनों घरों में सबसे छोटा बालक मैं ही था। चाची मेरी आई से तो कसकर झगड़ती थीं, लेकिन मुझे उनका वात्सल्य प्राप्त था। पाते ही प्यार से, पुचकार से वह मुझे कुछ-न-कुछ खाने को देतीं। लेकिन इसका पता लगते ही मेरी आई धरित्री पर बैठ पसारे हुए पाँवों पर मुझे पट लिटा, देवरानी को दिखा-दिखा, सुन-सुनाकर धमार की धुन में धमकती थीं। एक तो ब्राह्मण क्रोधी होता ही है, दूसरे हम परम क्रोधी कौशिक यानी विश्वामित्र के गोत्रवाले, तीसरे मेरी आई अनायास ही भयानक क्रोध करने वाली थीं। मैं सोलह साल का हो गया था तब भी वह मुझे मारने को ललकती थीं। एक बार तो अनेक झाड़ू उन्होंने मुझ पर झाड़ भी डाले थे। मझले भाई श्रीचरण पाँडे तो क्रोधी नहीं थे, लेकिन उमाचरण और बेचन अपने-अपने समय में परम क्रोधी व्यक्ति बने। हम सबमें माता के स्वभाव का प्रभाव ख़ासा था। लेकिन क्रोध माता करे या पिता, पति करे या पत्नी, बालक करे या युवा, होता है—पाप का मूल। ‘जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विश्व प्रतिकूल’। सो, माता के क्रोध का कुफल माता को मिला, भ्राता के क्रोध का भ्राता को। खुद बेचन पाँडे को क्रोध का कुफल जो मिला उसे मैं ही जानता हूँ और अच्छा करता हूँ कि डायरी नहीं लिखता वरना दुनिया जानती। अपने बारे में दुनिया को क्या जनाना चाहिए क्या नहीं, इसी का नुस्ख़ा ‘विनय’ में गोस्वामीजी ने खूब बतलाया है। ‘किये सहित सनेह जे अध, हृदय राखे चोरि, संग बस किए शुभ, सुनाए सकल लोक निहोरि।’ यानी परम प्रेमपूर्वक किए हुए प्रचंड पापों को तो हृदय की अन्ध कोठरी में छिपा रखना, लेकिन किसी दूसरे के संग में होने के कारण भी कोई भला काम बन पड़ा हो तो उसका ढोल मूसलों पीटना। चार सौ वर्ष पूर्व ही जैसा महाकवि ने बीसवीं सदी का उत्तर का ख़ाक़ा खींचकर रख दिया हो। मेरी आई परम क्रोधिनी थीं, साथ ही परम भोली। जब भी उन्होंने किसी बेटे को रुपया भुनाने को दिया होगा, बेटे ने साढ़े पन्द्रह आने ही लौटाए होंगे। इस पर दूसरे बेटे ने कहा होगा— माँ, बड़े ने पैसे ग़लत तो नहीं गिने? ला तो, फिर से गिन दूँ। और फिर से गिनने में वह साढ़े पन्द्रह आने की जगह पन्द्रह आने ही को सोलह बतला माँ को दे देता। और वह रख लेतीं। वह परिश्रमी भी ज़बरदस्त थीं। हमारे लम्बे-चौड़े दरिद्र कच्चे घर को होली-दिवाली पर वह अकेले ही कछाड़ बाँधकर पोतनी या पीली मिट्टी से दिव्य कर देती थीं। फटे-पुराने कपड़ों की कंथा बहुत अच्छी तो नहीं, फिर भी ऐसी सी देती थीं जिसे सरदी के दिनों में वरदान की तरह लोग ओढ़ते-बिछाते थे। काग़ज़ गला पल्प बना उसकी भद्दी टोकरियाँ बना लेती थीं। सींक के पंखे तो ख़ासे बना लेती थीं। ब्याह-गौना, कथा वगैरह में सामयिक गीत गानेवालियों में वह आगे ही रहना चाहती थीं। मेरा भाई जब परदेश होता और घर में भूनी भाँग भी न होती, तब आई मुहल्ले-टोले से मन-आध मन गेहूँ ले आतीं; एक निहायत करुण गीत गाती-गाती मेरी तरुणी भाभी के साथ उसे पीसतीं। तब कुछ पैसे मिलते, तब हमारे घर चूल्हा चेतता, मुँह निवाले लगते। मैं खुश हो चहकने लगता और आई कहावत सुनाकर खुश हो जातीं— ‘पेट में पड़ा चारा, तो नाचे लगा बेचारा!’
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