आत्मकथा – नागा भागवतदास – (लेखक – पांडेय बेचन शर्मा उग्र)
यह सन् 1910 ई. है। और यह नगर? इसका नाम है मिण्टगुमरी! मिण्टगुमरी? यह नगर कहाँ है रे बाबा! यह नगर इस समय पश्चिमी पाकिस्तान में है, लेकिन जब की बात लिखी जा रही है तब ब्रिटिश भारत में पंजाब में था। और यह सब क्या है? यह सब रामलीला की तैयारी है। कई दिन से अयोध्याजी से कोई रामलीला-मण्डली आई हुई है। इस मण्डली ने पहले सरगोधा मण्डी में लीलाएँ दिखलाईं थीं, जिससे वहाँ की हिन्दी-पंजाबी-सिख जनता बहुत ही धन्य हुई थी। सरगोधा मण्डी से इस रामलीला-मण्डली की प्रशंसाएँ भक्त दर्शकों से सुनने के बाद मिण्टगुमरी के भक्त दर्शनार्थियों ने वहाँ जाकर सारी मण्डली के किराया-भोजन-भर रकम पेशगी देकर दस दिन में रामलीला दिखलाने के लिए उत्साह, श्रद्धा और आग्रह से अपने यहाँ आमन्त्रित किया था।
ये लीलाधारी जब स्टेशन पर उतरे तभी मिण्टगुमरी के दर्शनार्थियों की भीड़-सी लग गई थी। कितना सामान! दस बड़े-बड़े काठ के बक्से, बीसियों लोहे के ट्रंक। सबमें रामलीला की आवश्यक वस्तुएँ। लीला-भूमि बनाने का बाँस-बल्ली-पटरे वग़ैरह सामान, समूह-भोजन जिनमें सिद्ध हो सके ऐसे पीतल और ताँबे के बड़े-बड़े बरतन-भाँडे, टेण्ट-छोलदारियाँ। अयोध्यावासी ये लीलाधारी संख्या में छत्तीस और दस और एक— कुल मिलाकर सैंतालिस थे। छत्तीस थे प्रौढ़ पुरुष, अधिकतर साधु-महात्माओं की ड्रेस में; दो-चार छैल-चिकनियाँ भी जो दूर ही से नाटकीय दीखते थे। दस थे दस से अट्ठारह की वय के बालक और युवक। सारी जमात में मुश्की रंग का आठों गाँव कुम्मैत एक घोड़ा भी था। असल में नागा महन्त भागवतदास महाराज की यह जमात थी पंजाब-भ्रमण पर कटिबद्ध। जमात में विविध पदों के निशानधारी और बेनिशान नागा साधु थे। पंजाबी माताएँ श्रद्धालु होती हैं, प्रदेश धन-धान्य से परिपूर्ण है, यह सब मज़े में जानकर ये साधु लीलाधारी उधर जाते थे और जाकर कभी पछताते नहीं थे। घोड़ा था महन्त भागवतदासजी का। दाढ़ीधारी, छापा-तिलकधारी, उजले वस्त्रधारी महन्तजी आँखों पर चश्मा चढ़ाए, हाथ में बेंत की छोटी चँवरी लिये जब उस घोड़े पर सवारी करते थे, बड़ा चमत्कारी दृश्य उपस्थित हो जाता था। भागवतदास महन्त एक आँख के काने थे। उन्हें बंगड़ वैरागी ‘भागवतदास कानियाँ’ कहकर मन्द माना करते थे, क्योंकि त्यागी-वैरागी होकर भी भागवतदास पैसा-जोड़ थे, कौड़ी-पकड़। साधु-जमात और रामलीला-मण्डली की मूर्तियों की सम्यक् आर्थिक व्यवस्था महन्त भागवतदासजी के हाथों में थी। स्थान पर महन्तजी स्टील का एक मजबूत बक्स निकट रखते थे, जिसमें छोटे-मोट बैंक जितनी माया—रत्न, सुवर्ण, रजत-मुद्राएँ—रेज़गारी सेरों, चमाचम प्राय: हमेशा रहा करती थी। जमात पर महन्तजी का शासन कठोर था। ज़रा भी अनुशासनहीनता पर वह वैरागी या मण्डली के एक्टर पर चँवरी चला बैठते थे।
मिण्टगुमरी के भक्तों ने रामलीला-भूमि के निकट ही मण्डलीवालों के ठहरने की व्यवस्था की थी। माताएँ बड़ी श्रद्धा से स्वरूपों तथा अन्य साधुओं के लिए दूध, दही, मक्खन, मट्ठा, लस्सी, गुड़, बताशे, लड्डू, अन्न, वस्त्र, पुष्कल दे जाती थीं। सीता, राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, वग़ैरह बनने वाले बालकों को मण्डलीवाले अपनी भाषा में ‘स्वरूप’ या ‘सरूप’ कहा करते थे। श्रृंगार के साथ हम स्वरूपों को भक्तों के हाथ से दूध पिलवाने या प्रेमियों के घर भोजन कराने के लिए महन्त भागवतदास पंजाबी भक्तों से मोटी रकमें उतारते थे। भक्त लोग अक्सर साधुओं की जमात का भण्डारा अपने घर करते, तब महन्त के दल के नागा लोग सूरत के बने जरी के काम के खूबसूरत निशान, पताका, भाला, तलवार, तुरही से लैस बारात बनाकर भक्त के दरवाज़े पर जाते थे। बड़ी अभ्यर्थना, बड़ी पूजा, भक्त लोग इन साधुओं की करते थे। फिर पंगत बैठती थी, यानी जमात भोजन पाने बैठती। माल, मलाई, मिठाइयाँ, मालपुए, तरह-तरह की सब्जि़याँ, जिन्हें साधु लोग ‘साग’ नाम से भजते थे, परसी जातीं। फिर एक मुख्य साधु पंगत में टहल-टहलकर ‘जय’ बोलने-बुलाने लगता। यानि वह बोलता नाम दूसरे बोलते ‘जय!’ चारों धाम की—जय! सातों समुद्र की—जय! सातों पुरियों की—जय! श्री हनुमानजी की—जय! श्री सुग्रीवजी की—जय! श्री अंगदजी की—जय! यह जय-जय घोष कभी-कभी तो पूरे एक घण्टे तक होता, जिसमें महन्त के गुरु की तथा स्वयं महन्त भागवतदास की जय भी पुकारी जाती थी। महन्त की आज्ञा से जमात को सादर भोजन देने वाले भक्त के नाम की जय भी बुलवाई जाती। मालपुए ठंडे हो जाते, मलाई पर माखी भिनकने लगती, बढ़िया-से-बढ़िया बना हुआ सालन भी इस घंटे-भर की जयबाजी में ठंडा पड़कर सचमुच साग बन जाता था। जय बोलते-बोलते मारे थकावट और भूख के मुझे तो नींद आने लगती थी।
किसी एक दिन की बात। उस दिन धनुष-यज्ञ और लक्ष्मण-परशुराम संवाद की लीला होने वाली थी। मण्डली वाले मेक-अप रूम या ग्रीन रूम को श्रृंगार-घर कहते थे। ‘श्रृंगार’ होता था वहाँ का व्यवस्थापक, जिसके चार्ज में वस्त्र, आभूषण, मुखौटे, दाढ़ी, मूँछें और मेक-अप का आवश्यक सामान होता था। हम सरूपों के चेहरों पर मुर्दासंख और लाल सिमरिख के रंग बाक़ायदे चढ़ाने के बाद गालों और माथे पर चमकती डाक और सितारों से, गोंद के सहारे वह श्रृंगार करता—फूल या मछली बनाता। इस श्रृंगार में कम समय नहीं लगता था। फिर हमारे मस्तक पर ऊन के काकपक्ष या जुल्फ़ें अलकदार लटकाई जातीं, कानों में कुण्डल और मस्तक पर मुकुट-किरीट-चन्द्रिका कसकर बाँधी जाती। फिर नीचे और ऊपर के वस्त्र पहनाए जाते। साधारण लड़के को देवता की तरह सजाकर खड़ा कर देना श्रृंगारी का काम था।
धनुष-यज्ञ में मेरे बड़े भाई साहब दो-दो काम किया करते थे। वह पहले तो राजा जनक के बन्दीजन बनकर आते थे और हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, फ़ारसी वगैरह कई भाषाओं में जनकजी की प्रतिज्ञा बड़े रोब से सुनाते थे। फिर, धनुष टूट जाने के बाद वह परशुरामजी बनकर आते थे; तुलसीदास के कथनानुसार रूपधर : अरुन नयन, भृकुटी कुटिल… गौर सरीर भूति भलि भ्राजा, भाल बिसाल त्रिपुण्ड विराजा, सीस जटा… सहजहु चितवत मनहु रिसाने। खुले विशाल कन्धे, एक कन्धे पर दिव्य जनेऊ और माला और मृगछाला। कमर में मुनियों के वल्कल-वस्त्र, कन्धों के पीछे दो-दो तूणीर-तर्कश, हाथ में धनुष और बाण तथा वाम कन्धे पर विख्यात परशु। पहले तो सहज ही वेश में अपने भाई को देखते ही मेरी रूह फ़ना होती थी, तिस पर परशुराम का मेक-अप। प्राय: उनके रंग-मंच पर आते ही मेरी सिट्टी गुम हो जाती थी और अच्छी तरह याद किया हुआ संवाद भी सफाचट भूल जाया करता था। या लक्ष्मण का संवाद वीरतापूर्वक न कर केवल घिघियाया करता था। पार्ट भूलते ही परशुराम वेशधारी मेरा भाई स्टेज ही पर मुझे धमकाता कि चल अन्दर, तेरा भुरकुस न कर दूँ तो मेरा नाम नहीं। और परदा गिरते ही श्रृंगार में ही परशुरामजी लक्ष्मणजी को पीटने लगते। परदे के पीछेवाले उस परशुराम से लक्ष्मण की रक्षा राम ही नहीं राम के बाप दशरथ भी नहीं कर सकते थे। ख़ैर, इस धनुष-यज्ञ में बड़े पेटवाले राजा का मज़ाकिया काम करने वाला एक्टर भी मेरा ही भाई था — मझला श्रीचरण पाँडे जो साधु-कण्ठीधारी बनकर अब सियारामदास हो गया था। जहाँ तक एक्टिंग का सम्बन्ध है, मेरा बड़ा भाई मझले से श्रेष्ठतर अदाकार था। लेकिन स्टेज पर प्रसिद्धि मझला ही विशेष पाता था, क्योंकि उसे नाचना, गाना, बजाना तथा जनता की चुटकियाँ लेना ख़ासा आता था। ‘नाचे-गावे तोड़े तान तिसका दुनिया राखे मान’ कहावत उन दिनों काफ़ी प्रचलित थी। घर में न सही परेदस — रामलीला-मण्डलियों — में हम तीनों भाई साथ-ही-साथ रहे, और काफ़ी प्रेम से। घर में प्रेम इसलिए नहीं था कि खाना नहीं था। जब ‘भूखे भजन न होहि’ कहावत है तब भला भूखे प्रेम क्या होता! रामलीला-मण्डली में, दोनों ही, अपनी-अपनी स्वतन्त्र कमाई कर लेते थे। ऊपर से बुनियादी राशन मण्डली के पंचायती भण्डारे से मिल जाता था। बुनियादी राशन यानी साग-दाल, चावल, बड़ी-बड़ी रोटियाँ दोपहर को तथा घुइयाँ का साग और छोटी-छोटी पूरियाँ रात के ब्यालू में। मेरे बड़े भाई की तरह शौकीन एक्टर अपना खाना बिस्तर या आसन पर लेते, जो महन्त भागवतदास को बहुत बुरा लगता। वह चाहते कि जिसे भी भण्डारे में खाना हो पंगत में बैठकर जय बोलने के बाद प्रसाद पाए। जो पंगत से चूके उसका भाग भण्डारे के प्रसाद में नहीं। कहावत मशहूर — डार का चूका बन्दर, पाँत का चूका बैरागी। सो, जो एक्टर पंगत में न शामिल होना चाहता वह अपना प्रबन्ध अलग करता। महन्त भागवतदास मेरे बड़े भाई की क़द्र करते थे, क्योंकि वह उनका पत्र-व्यवहार सुन्दर अक्षरों, उत्तम हिन्दी में कर देते थे। फिर भी, नागा कानियाँ महन्त से दहशत सभी खाते थे। वह झक में आने पर अच्छे-अच्छों पर हाथ झाड़ देते थे। कोई भी एक्टर भागवतदास के सामने जाने में एक बार झिझकता था।
जमात के अधिकारियों में महन्तजी के अलावा एक ‘कुठारी’ जी थे, जिनके चार्ज में अन्न, घृत, बासन, वसनादि वस्तुएँ होती थीं। उन्हें ‘अधिकारीजी’ भी कहा जाता था। मण्डली में भागवतदास के बाद अधिकारीजी का ही मान था। वह साधुई किते से पहनी हुई लुंगी और बगलबन्दी धारण करते थे, टाट के जूते पहनते थे, ऊर्ध्वपुण्ड सह-श्री माथे पर लगाते थे, जिसका फैलाव उनक़ी नासिका तक होता था। वह बहुत अच्छे रामायण-भक्त भी थे। श्रृंगारी की तारीफ़ आप सुन ही चुके हैं। कुठारी, श्रृंगारी के बाद भण्डारीजी थे, जिनके हाथ में सारा भोजन-भण्डारा होता था। भण्डारी अक्सर उसी नागा साधु को बनाया जाता था जिसमें, आवश्यकता पड़ने पर, सौ-सवा सौ मूर्तियों के पाने (खाने) योग्य प्रसाद अकेले तैयार करने की क्षमता होती थी। वैसे साधारणत: उसको सहायक साधु स्वयं-सेवक सुलभ रहा करते थे। मण्डली की हर मूर्ति का आवश्यक कर्तव्य माना जाता था भण्डारी की हर तरह से सहायता करना। साग ‘अमनियाँ’ करना, पुष्कल आटा गूँधना, ईंधन की लक्कड़ चीरना, जल जुटाना, और सबके ऊपर भोजन के बाद बड़े-बड़े कड़े-जले बरतन माँजना-चमाचम! मँजे बासनों को कानियाँ भागवतदास आँख पर सोने के फ्रेम के चश्मे चढ़ाकर देखते और ज़रा भी मलिनता या मल मिलते ही माँजनेवाली वैरागी को चँवरी-मढ़े बेंत से मारते-मारते आदमी से टट्टू बना देते थे—टुटरूँ टूँ। इन्हीं सब फ़जीहतों, दिक्कतों से बचने के लिए मेरे भाई-जैसे शौकीन अपना खाना अलग बनाते थे। इससे इनको प्याज़, लहसुन वग़ैरह की सुविधा भी मिल जाती थी, जो नागाओं के भण्डारे में असम्भव थी। ऐसे लोगों का जमात के विधान से स्वतन्त्र आचरण महन्त भागवतदास को भला नहीं लगता था, फिर भी ‘नान’ वैरागियों को इतनी आज़ादी वह दे ही देते थे। महन्त भागवतदास हिम्मतवाले जीवटवाले साधु-महात्मा थे। तभी तो सन् 1910 ई. में सीमान्त प्रदेश के विख्यात शहर बन्नू में जाकर रामलीला दिखाने की जुरअत की उन्होंने। उन दिनों बन्नू तक रेल लाइन तैयार नहीं हो पाई थी। मिण्टगुमरी से कोहाट पहुँच वहाँ से ताँगों से शायद दो दिन की यात्रा के बाद मण्डली बन्नू पहुँची थी। ताँगे दिन में चलते ओर सायंकाल किसी डेरा या ‘खेल’ पर विश्राम करते। निशानेबाज, ख़ूँख्वार सरहदी डाकुओं का बड़ा भय था। मुझे याद है बन्नू की राह की किसी सराय में घोड़े की लीद-भरी कोठरी में सोना। मुझे मज़े में याद है शौच के लिए पहाड़ियों में जाने पर किसी महाभयानक पठान को देखते ही बिना निपटे ही भाग आना। मुझे बतलाया गया था कि सरहदी बदमाश लड़कों को ख़ासतौर पर पकड़ ले जाते हैं। बन्नू पहुँचने पर भी शहर देखने, घूमने-फिरने, बड़े लोग ही जा पाते थे। हम लड़के तो उसी अहाते में बन्द रखे जाते जिसमें रात को फाटक बन्द कर, केवल सौ-दो सौ हिन्दुओं की उपस्थिति में रामलीला दिखाई जाती थी।
बन्नू के भक्तों से विदाई में दक्षिणा भारी मिलने वाली थी, इसलिए विशेषत: महन्त भागवतदास पैसा-पकड़ मण्डली लेकर वहाँ गए थे। लौटे भी अच्छी रकम बनाकर। रुपये, पशम, ऊन, काठ का सामान, चाँदी के पात्र, सोने के आभूषण।
बन्नू हम गए थे कोटाह की तरफ से, लौटे डेरा-ग़ाज़ीखाँ की तरफ़ से।
मेरे बड़े भाई-जैसे हज़रत छिपे-छिपे फुसफुसाते कि महन्त बटुक-विलासी है। इसका कारण यह था कि स्वयं साढ़े चार बजे सवेरे स्नान के बाद महन्तजी उनके लड़कों को भी उसी वक्त नहलवाते थे जो स्वरूप (राम-लक्ष्मण-सीता) बना करते थे। सरदी के दिनों स्नान के बाद शीत से काँपते उन किशोरों को प्राय: नियम से महन्तजी अपने कोम इटालियन कम्बल में बुला लिया करते थे — एक, दो, तीन को — और उनके गाल हथेलियों से रगड़-रगड़कर गरमाया करते थे। मेरे मते यह क्रोधी, कठोर-स्वभावी महन्त का महज निर्विकार कोमल पक्ष था। महन्त भागवतदास सिद्धान्त और लँगोट के सच्चे थे।
बन्नू में अनेक सरहदी सौगात संग्रह करने के कारण बड़े भाई और मैं इसके बाद घर यानी चुनार लौट आए। हमारे आग्रह करने पर भी, माता के लिए भी, मझले साहब ने मण्डली छोड़कर चुनार आना स्वीकार नहीं किया।
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