जानिए आयुर्वेद के अदभुत इतिहास को
आयुर्वेद इस भूमण्डल में स्वास्थ्य एवं रोग निवारण के ज्ञान का सर्वप्रथम स्रोत है। वैसे तो यह ज्ञान प्रकृति की उत्पत्ति के साथ ही उत्पन्न हुआ लेकिन इसका नामकरण भगवान धन्वन्तरि जी द्वारा किया गया। भगवान धन्वन्तरि ने चिकित्सा को दो भागों में विभक्त किया- औषधि चिकित्सा और शल्य चिकित्सा।
आयुर्वेद का ज्ञान बहुत ही विशाल है। इसमें ही ऐसी प्रणाली का ज्ञान है, जो मानव को निरोगी रहते हुए स्वस्थ लम्बी आयु तक जीवित रहने की लिये मार्ग प्रशस्त कराता है, ताकि प्राणी सारी उम्र सुख शान्ति व निरोगी रहकर लम्बे समय तक अपना जीवन यापन कर सके। मानव हित व अहित किसमें है,अायुर्वेद इसका ज्ञान कराता है।
आयुर्वेद में जड़ी-बूटी-भस्म, तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र, ज्योतिष आदि को दर्शाया गया है। ये इसके ही अंग-प्रत्यंग हैं। ऐसा कोई रोग नहीं है, जिसको आयुर्वेद ने न दर्शाया हो। कैन्सर एवं एड्स जैसे भयानक रोगों के लक्षण एवं उनके उपचार की प्रक्रिया को भी आयुर्वेद में बताया गया है। मिरगी दौरे जैसे असामान्य माने जाने वाले रोग की इसमें सफल चिकित्सा का ज्ञान कराया गया है।
आयुः कामयमानेन धर्मार्थ सुखसाधनम्
आयुर्वेदो देशेषु विधेय परमादरः।।
अर्थात धर्म, अर्थ एंव काम नामक पुरुषार्थों का साधन आयु ही है। अतः आयु की कामना करने वाले को आयुर्वेद के प्रति सत्य निष्ठा रखते हुए इसके उपदेशों का पालन करना नितान्त आवश्यक है।
इस पृथ्वी की रचना के साथ ही ब्रह्मा जी ने प्राणियों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिये जड़ी-बूटियों के रूप में आयुर्वेद के ज्ञान को प्रसारित किया। ताकि उनके बनाये प्राणि स्वस्थ बने रहें। सभी चिकित्सा पद्धतियों की जननी आयुर्वेद ही है। नाड़ी ज्ञान केवल आयुर्वेद की ही देन है। इसमें वैद्य रोगी की नाड़ी को पकड़ कर ही उसके शरीर के अन्दर व्याप्त रोगों का वर्णन कर देता है। चिकित्सा का प्रयोजन रोगी को रोग से शान्ति दिलाना है।
परन्तु आयुर्वेद कहता है कि रोगी को रोग से शान्ति तो होनी ही चाहिये साथ ही प्राणी के स्वास्थ्य की रक्षा कैसे की जाये, इसका ज्ञान भी आयुर्वेद कराता है। ताकि प्राणी जीवनपर्यन्त निरोगी रह कर आनन्द पूर्व जीवन बिता सके।
यह बात अवश्य ध्यान में लावें कि जितनी भी चिकित्सा पद्धतियां हैं, उन सभी में केवल आयुर्वेद ही यह ज्ञान देता है कि यदि आयु है तो उसकी रक्षा, संवर्धन, संरक्षण करते हुए कैसे आनन्दपूर्वक जीवन बिताया जाये। इसीलिये आयुर्वेद का ज्ञान तथा आयुर्वेद दवाओं की उपयोगिता अति आवश्यक है।
आयुर्वेद मूल रूप से स्वस्थ जीवन का एक तरीका है। साथ-साथ आयुर्वेद दवा के माध्यम से एक उपचार पद्धतियॉं है। मानव शरीर के गठन के सैंकड़ों गुणों के अलावा प्रकृति, उसके मौसम, खाने और सैकड़ों प्राकृतिक पदार्थो के चिकित्सीय गुणों का उपयोग होता है।
अँग्रेज़ भारत में आधुनिक चिकित्सा प्रणाली लाए। इसने आयुर्वेद पर के चलन को काफी प्रभावित किया। विज्ञान के आधुनिक तौर तरीकों और राज्य के सहयोग से आधुनिक चिकित्सा आयुर्वेद से आगे निकल गई। आज आयुर्वेद केवल कुछ ही समुदायों में, केवल कुछ ही बीमारियों के लिए जीवित है। इसे आधुनिक चिकित्सा के बाद दूसरे नम्बर पर ही महत्व दिया जाता है। ये बहुत दुख की बात है कि हमने चिकित्सा के इस पुराने तरीके को बचाने के लिए कुछ खास नहीं किया।
पिछले कुछ सम में आयुर्वेद और जड़ी बूटियों में दोबारा से दिलचस्पी शुरू हो रही है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की गम्भीर सीमाएँ अब सामने आ रही हैं। क्षरण वाली बीमारियॉं बढ़ रही हैं और विकासशील देशों तक में संक्रामक रोग कम हो रहे हैं। इसने बीमारियों के कारणों और उपचार के बारे में फिर से नए सवालों को जन्म दिया है। कोई ऐसा पौधा ही नहीं है जो दवा के काम नहीं आ सकता।
कुछ लोग आयुर्वेदिक दवा ज़्यादा पसन्द करते हैं। पर दूसरे लोग तब इसका सहारा लेते हैं जब अन्य प्रणालियों से फायदा नहीं होता। भारत के ज़्यादातर गॉंवों में आयुर्वेद आज भी काफी प्रचलित है। एक परम्परा के रूप में पढ़े लिखे वर्ग तक में इसकी काफी मान्यता है। इसकी लोकप्रियता का एक कारण हमारे साथ इसकी प्राकृतिक नजदीकी है। इससे भी ज़्यादा यह है कि कुछ बीमारियो के लिए आयुर्वेद अन्य प्रणालियों से बेहतर काम करता है।
भगवान बुद्व के समय से पहले से लाखो साल से आयुर्वेद विज्ञान और चिकित्सा का एक महत्वपूर्ण तरीका हुआ करता था। बार बार होने वाले हमलों में आयुर्वेद की ढेरों किताबें और संस्थान बर्बाद कर दिए। परन्तु आज भी वैद, वैद्य और दादी नानियॉं चिकित्सा के लिए आयुर्वेद का इस्तेमाल करते हैं।
आयुर्वेद की कई एक शाखाएँ हैं जैसे दवाएँ, शल्यचिकित्सा, मर्मचिकित्सा (एक्यूप्रेशर जैसे), सूतिका (प्रसव सम्बन्धी) विद्या, सिद्व और इलाज के कई और तरीके। परन्तु आयुर्वेद की ज़्यादातर जानकारी खो चुकी है।
आज की शल्यचिकित्सा में उपयोग होने वाले उपकरणों जैसे कुछ उपकरण ज़रूर मिले हैं परन्तु परम्परागत शल्यचिकित्सा खतम हो चुकी है। कम से कम कुछ क्षेत्रों में आयुर्वेद की जानकारी और दवाइयों का भविष्य काफी सुरक्षित है। दवाइयॉं आयुर्वेद का एक छोटा सा ही हिस्सा है। परन्तु आज आयुर्वेद का जो स्वरूप मौजूद है उसका अधिकॉंश हिस्सा यही है। आयुर्वेद के विद्वानों ने उस समय की वैज्ञानिक तर्क के अनुरूप सैंकड़ों चिकित्सीय पेड़ पौधों का अध्ययन किया।
हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि इसके विशेष जानकार थे। उन्होंने इस चिकित्सा पद्धति पर विशेष शोध किया तथा जंगल में उगी वनस्पतियों का परिचय अपने साधना बल से प्राप्त किया फिर उनके गुण दोषों का विवेचन किया, नये तथ्योें को स्पष्ट किया, उनकी उपयोग की विधि ज्ञात की और ऋषि-मुनि यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये कि आयुर्वेद विज्ञान (जड़ी-बूटियां) प्रकृतिसत्ता की तरफ से मनुष्य शरीर को एक विशेष वरदान है।
इस विज्ञान के माध्यम से प्रकृति सत्ता ने मनुष्य को पूर्ण स्वस्थ रहने की कुंजी प्रदान की है। इस ज्ञान को बढ़ाने में चरक ऋषि, सुश्रुत ऋषि, वाग्भट, बंगसेन आदि अनेक ऋषियों ने आयुर्वेद में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
यह भारत का सौभाग्य है कि वर्तमान में अनेकों आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रन्थ ज्यादातर छपे हुये संस्करण के रूप में उपलब्ध हैं। परन्तु, साथ ही दुर्भाग्य भी रहा है कि कई महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित ग्रन्थ हमारी नासमझी के कारण लुप्तप्राय हो गयेे। बचे हुए ग्रंथों में जिन्हे प्रामाणिक ग्रंथ कह सकते हैं, वे हैं -चरक संहिता, भावप्रकाश, सुश्रुतसंहिता, वैद्यकप्रिया, माधवनिदान, सारंगधर संहिता, अष्टांग हृदय, योगरत्नाकर, निघंटु, रसतंत्रसार आदि।
इनमें भी अगर मूल प्रति पहले के छपे ग्रंथ मिल सकें, इसके साथ ही कुछ ज्ञान और आयुर्वेदिक नुस्खे जो शिष्य दर शिष्य चलते गये वे आज भी संन्यासियों या उनके शिष्यों में अन्तर्निहित है।
आयुर्वेद के मूल सिद्धांत के अनुसार शरीर में मूल तीन-तत्त्व वात, पित्त, कफ (त्रिधातु) हैं। अगर इनमें संतुलन रहे, तो कोई बीमारी आप तक नहीं आ सकती। जब इनका संतुलन बिगड़ता है, तभी कोई बीमारी शरीर पर हावी होती है। इसी सिद्धांत को लेकर हमारे ऋषि मुनियों, आयुर्वेदज्ञों ने नुस्खों का आविष्कार किया।
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