गायत्री मन्त्र की सत्य चमत्कारी घटनाये – 40 (समस्त उलझनों की एक हल-माँ गायत्री)
अन्धे होने पर भी सर्व शास्त्र पारंगत-
आर्य समाज के स्थापक नैष्ठिक ब्रह्मचारी स्वामी दयानन्द जी के गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी श्री विरजानन्द जी सरस्वती ने अनेक कष्टï सहते हुए तीन वर्ष तक गंगा तीर पर रहकर गायत्री का जप किया। उन्होंने खाने-पीने, उठने-बैठने, सोने-जागने आदि जीवन की सब स्थितियों में गायत्री के जप को चालू रखा।
घोर तपस्या के फलस्वरूप इस दुबले तथा अन्धे संन्यासी ने अपरिमित विद्या, अलौकिक आत्म-श्रद्घा तथा ब्रह्मï तेज इतने प्रबल प्रमाण में प्राप्त किया था कि जयपुर तथा अलवर के महाराज भी इनके अधीन होकर आज्ञाकारी हो गये थे।
पच्चीस रुपये वेतन से तीन सौ हो गये-
श्री मधु सूदन स्वामी का नाम संन्यास लेने से पहले मायाशंकर दयाशंकर पंडया था और वे सिद्घपुर में रहते थे। वे आरम्भ में पच्चीस रुपये की नौकरी में दाखिल हुए। उन्होंने हर रोज हजार गायत्री जप से लेकर चार हजार तक बढ़ाया। उसके परिणाम- स्वरुप वे बड़ौदा राज्य में रेलवे असिस्टेन्ट ट्राफिक सुप्रिन्टेन्डेन्ट के औहदे तक पहँुच गये। उनका वेतन तीन सौ था। उत्तरावस्था में उन्होंने संन्यास लिया और आज तक मौजूद हैं।
सर्वोपरि गायत्री-
पं. मणिशंकर भट्ट, जूनागढ़ लिखते हैं कि हमारे यहाँ कई पीढ़ी से पौरोहित्य वृत्ति होती रही है। पिता जी कर्मकाण्ड विद्या के असाधारण ज्ञाता थे। उन्होंने मुझे भी वेदपाठी और कर्मकाण्डी पंडित बनाने के लिए भरपूर प्रयत्न किया। मथुरा, काशी, प्रयाग आदि संस्कृत विद्या के केन्द्रों में विद्वान आचार्यों की संरक्षता में रहकर मैंने संस्कार, यज्ञ, अनुष्ठïन पुरश्चरण आदि की श्रौत स्मार्त क्रियाऐं भली प्रकार सीखीं। चौदह वर्ष विधाध्यान के पश्चात घर लौटा, थोड़े ही दिनों में मेरी योग्यता की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। उपरोक्त कार्यों के लिए दूर-दूर तक बुलावे आने लगे। तब से लेकर अब तक उत्तर भारत के प्रमुख नगरों में मैंने अनेकों कर्मकाण्डों को पूरा कराने का भार अपने ऊपर लिया है और उन्हें पूरा कराया है।
अपने जीवन के इस लम्बे अनुभव के आधार पर मुझे यह करने का साहस है कि अन्य प्रकार के समस्त पूजा, पुरश्चरण, पाठ, जप, अनुष्ठïन यज्ञ आदि की अपेक्षा गायत्री साधन का लाभ अधिक है। गोपाल सहस्त्र नाम, विष्णु सहस्त्र नाम, गंगा लहरी, शिव महिमा आदि के पाठ, महामृत्यंजय अष्टïक्षरी द्वादशाक्षरी मंत्रों के जप, शतवण्डी अनुष्ठïन, विविध विधियों से किये जाने वाले सकाम यज्ञ, इस सब के द्वारा जो लाभ लोगों को प्राप्त नहीं हो सके थे, वे गायत्री साधन से प्राप्त हो गये। यजमान अपनी इच्छा से कोई कार्य कराते थे, उन्हें ठीक विधि विधान के साथ पूरा करा देता था, पर कोई मुझसे सलाह लेता कि अमुक प्रयोजन के लिए मुझे कुछ कर्मकाण्ड कराना है तो मैं सदा उसे यही सलाह देता कि आप या तो गायत्री स्वयं जप एवं साधना करने का समय नहीं निकाल पाते थे वे उस कार्य को पंडितों द्वारा कराते थे और उन्हें दक्षिणा देकर साधन का फल प्राप्त कर लेते थे।
देखा गया कि इस प्रकार पंडितों से कार्य कराने पर भी उन्हें वैसा आनन्ददायक फल मिला, जैसा कि अन्य साधन स्वयं करने पर भी नहीं मिल पाता। सन्तान प्राप्ति, रोग नाश व्यापा, दुर्दिन निवारण, विपत्ति हटाने या किसी अन्य प्रकार की विशेष सफलता को प्राप्त करने के लिए मेरे द्वारा सैकड़ों ही कर्मकाण्ड कराये गये हैं इसमें से एक भी ऐसा स्मरण नहीं आता जिसमें प्रयत्न विष्फल हो गया हो। अनेकों बार तो जिस कामना के लिए वह किया गया था, वह कार्य अत्यन्त कठिन दिखाई देने पर भी वह सरल रीति से हल हो गया कि जिस प्रयोजन के लिए कार्य किया गया वह तो पूरा नहीं हुआ, पर दूसरा कोई और भी अच्छा लाभ प्राप्त हुआ। बड़ौदा में एक व्यक्ति ने मुकदमेबाजी से छुटकारा पाने के लिए अनुष्ठïन कराया। मुकदमा तो वह न जीत सका पर उसका तीस वर्ष पुराना खूनी बवासीर का रोग अच्छा हो गया। अहमदाबाद में एक व्यक्ति चाहता था कि उसे रात्रि में जो भयंकर स्वप्न आते हैं वे बन्द हो जायें।
अनुष्ठïन के बाद भी उसके बुरे स्वप्न तो बन्द न हुए पर पचास वर्ष की अवस्था तक सन्तान रहित रहने वाले इस व्यक्ति को अनुष्ठïन के एक वर्ष बाद एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। बम्बई के एक व्यक्ति ने अपने पुत्र को बी.ए. में उत्तीर्ण होने की कामना से पुरश्चरण कराया। लड़का तो उत्तीर्ण न हो सका, पर उसी वर्ष सट्टï के व्यापार में उन्हें इतना अधिक लाभ हुआ कि वह साधारण स्थिति के न रहकर बड़े धनिकों में गिने जाने लगे। इस प्राकर कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि जिस उद्देश्य के लिए सकाम कर्म किया गया था, वह पूरा न होने पर भी अन्य मार्गों से भी संतोषजनक लाभ हुआ। बीस वर्षों तक दूसरों के लिए मैंने अनुष्ठïन कराये और उसके बदले में दक्षिणा लेकर अपना निर्वाह किया। पीछे मुझे ज्ञान हुआ कि जितना श्रम दूसरों के लिए करता हूँ उतना अपने लिए करुँ मुझे गायत्री माता विमुख न रखेंगी। गत पाँच वर्ष से मैंने दूसरों के लिए अनुष्ठïन या कर्मकाण्ड करना बिल्कुल छोड़ दिया है। अपनी ही साधना में रत रहता हूँ। हमारे परिवार की सांसारिक आवश्यकताएँ ठीक प्रकार पूरी होती जा रही हैं और आत्मोन्नति की जो दिव्य सम्पदा इकठ्ठï होती जा रही है, वह संचित कोष की तरह लाभ खाते जमा हो रहा है।
कष्ट रहित महायात्रा-
पं. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, जयपुर लिखते है कि शास्त्रों में लिखा है कि मृत्यु के समय प्राणा को एक हजार बिच्छुओं के काटने जैसी पीड़ा होती है। देखा भी ऐसा गया है कि कितने ही मनुष्य ऐसे कष्टï साध्य रोगो में ग्रसित होकर प्राण छोड़ते हैं कि देखने वालों का कलेजा काँप जाता है। कई-कई दिन आवाज बन्द रहना, गले में कफ घड़घड़ाना, श्वांस भी पूरी तरह न ले सकना, मूर्छा, अकडऩ, हडफ़ूटन, दर्द, अश्रुपात, दीनता एवं वेदना के साथ प्राण त्यागे हुए मनुष्य को देखकर यही अनुभव होता है कि स्वर्ग नरक सब यहीं पर हैं।
नरक के यमदूतों द्वारा दी जानेवाली पीड़ाओं, सजाओं का कुछ आभास, देखने वालों को भी मिलता रहता है। मरने वाले पर जो बीतती है उसे वही जानता है। हमने अपनी आँखों से ऐसी मृत्युएँ देखी हैं जिनमें हजार बिच्छू काटने का दु:ख होने वाली बात सत्य प्रतीत होती है। यह निश्चित है कि दु:खों का कारण अकर्म ही है। सत्कर्म करने वाला मुनष्य इस लोक या परलोक में कोई कष्टï नहीं पाता, मृत्यु के समय भी उसे कोई पीड़ा नहीं होती।
कितने ही सत्पुरुष इस प्रकार प्राण त्यागते हैं जैसे हाथी के गले में पड़ी हुई फूलों की माला टूट पड़े तो हाथी को पता तक नहीं चलता है कि वह माला कब टूट पड़ी। माया मोह ग्रस्त, दुरात्मा मनुष्य ही बहुधा मृत्यु के समय असहनीय पीड़ा सहते हैं। हमारे परिवार नेता श्री पं. हरिसहाय जी की मृत्यु पिछले मई मास में ही हुई है। रात को भाजन करके वे सोये प्रात:काल उठने पर उन्हें कुछ कमजोरी-सी अनुभव हुई। साधारण अवस्था में उन्हें मान हुआ कि अब शीघ्र ही उनकी अन्तिम यात्रा होने वाली है।
घर के लोगों को बुला कर उनने कहा कि, ”बस मैं अब डेढ़ घण्टे और रहूँगा।” घर के लोगों को इस बात पर विश्वास न हुआ कि यह कह क्या रहे हैं। उन्होंने फिर समझाया कि मैं असत्य नहीं कहता। जो बात अवश्यभावी है वही कह रहा हूँ। वे डेढ़ घण्टे सदुपदेश देते रहे और भगवान का नाम उच्चारण करते रहे। बोलते, बात करते, ठीक समय पर उनके प्राण पखेरू उड़ गये। मृत्यु से कुछ ही क्षण पूर्व उन्होंने बताया कि मुझे वह विमान लेने आ गया।
वह विमान घर के किसी दूसरे को न दिखा तो वे चुप हो गये और कहा- यह तुम लोगों को नहीं दिखेगा। हमारे गाँव में एक हरि भक्त महिला है उसे अपने घर से ही ठीक समय पर वह दिव्य विमान जाता हुआ दिखाई दिया। साधारणत: मृत्यु के समय बड़ा भयंकर और अशान्त वातारवरण हो जाता है, पर उनकी मृत्यु के समय ऐसा वातावरण न था। ऐसी शान्तिमयी दिव्य धारा बह रही थी, मानों इस स्थल पर कोई देव पुरूष विराज- मान हों।
श्री हरि सहाय जी पृथ्वी के देवता थे। उन्हें सच्चे अर्थों में भूसुर कह सह सकते हैं। अपने पूरे परिवार की उन्होंने ऐसी रक्षा, उन्नति और सषा की मानो घर ही उनकी आत्म-साधना की तपोभूमि हो उन्हें सफल गृहस्थ योगी कहा जा सकता है। प्रात:काल तीन बजे उठकर गायत्री का जप करने लग जाना उनका नित्य नियम था। वे अक्सर कहा करते थे कि- ”गायत्री पर श्रद्घा करने वाले मनुष्य की आत्मा पवित्र हो जाती है और उसके सब कार्य यज्ञमय होते हैं। मैं इस छोटे से परिवार को ईश्वर की अमानत समझ कर वैसी ही उच्च भावना से सेवारत रहता हूँ जैसे कि योगी अपनी साधना में लगे रहते हैं।
यह शिक्षा और भावना गायत्री माता ने मेरे हृदय में प्रेरित की है।” एक दिन सबको मरना है, इसलिए मृत्यु की पीड़ा से बचने के लिए हमें स्वर्गीय आत्मा का प्रत्यक्ष उदाहरण अधिक उपयुक्त लगता है। महा कल्याण कारिणी गायत्री उपासना में आत्मा को श्रद्घा पूर्वक लगाये रहना और शरीर को कत्र्तव्यधर्म में निरत रखना, यह दो कार्यक्रम ऐसे हैं जिन्हें अपनाकर हम सब अपनी अन्तिम यात्रा को कष्टï रहित बना सकते हैं। मैंने इसी मार्ग को पकड़े रहने का निश्चय किया है। पाठक बन्धुओं से भी ऐसा ही करने की मेरी प्रार्थना है।
(सौजन्य – पं० श्रीराम शर्मा आचार्य वांग्मय – 11)
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