ईश्वर को पिता समझने के भ्रम से उबरें क्योंकि ईश्वर पिता नहीं, सखा (मित्र) है : श्री वेदव्यास (ब्रह्म सूत्र)
वास्तव में ब्रह्मर्षि वेदव्यास भगवान श्री कृष्ण के चरित्र के हर आयाम से बहुत इम्प्रेस (प्रभावित) थे इसलिए उन्होंने श्री कृष्ण पर बहुत रिसर्च किया था और उस रिसर्च से मिलने वाले रिजल्ट्स के गहन सारांश का उन्होंने वर्णन किया है “ब्रह्म सूत्र” जैसे आदि प्राचीन ग्रन्थों में !
पर इस ग्रन्थ को पढ़कर उसकी गम्भीर व्याख्या को ठीक से समझ पाना, आज के बहुत से साधारण संसारियों के लिए मुश्किल काम है लेकिन इसी तरह की कठिनाईयों का हमेशा सरल उपाय खोजने में प्रयासरत हमारे समूह को उच्च स्तर के सन्त समाज के सानिध्य से कुछ बेहद आसान निष्कर्ष मिले हैं, जिन्हें हम आपसे आसान भाषा में ही शेयर कर रहें हैं –
ब्रह्मर्षि वेदव्यास के अनुसार ज्यादातर साधारण लोग यही समझते हैं कि ईश्वर पिता हैं और उन्होंने ने ही सभी आत्माओं को जन्म दिया है !
चूकीं यह सिद्धांत आसान है इसलिए साधना की प्रारम्भिक सीढ़ी चढ़ने वाले साधकों के समझने के लिए ठीक है पर जब कोई साधक किसी भी योग में (चाहे वह भक्ति योग हो, राज योग हो, हठ योग हो, तंत्र योग हो या सेवा योग हो) में आगे बढ़ता है तो उसके दिव्य चक्षु खुलने लगते हैं और तब उसे समझ में आता है कि सभी आत्मायें भी, परमात्मा की ही तरह नित्य और अविनाशी हैं और परमात्मा, किसी आत्मा को जन्म देने वाला पिता नहीं बल्कि आत्मा का सखा (यानी मित्र) होता है !
जैसे परमात्मा अजन्मा और अमर है मतलब परमात्मा को ना तो किसी ने जन्म दिया है और ना ही यह कभी मरेगा, ठीक उसी तरह सभी आत्माएं भी अजन्मा और अमर हैं मतलब सभी आत्माओं ने भी, ना कभी जन्म लिया है और ना ही वे भी कभी मरेंगी !
आत्मा अजन्मा है, इस सत्य को गीता में भगवान् श्री कृष्ण द्वारा बोला गया यह श्लोक भी प्रमाणित करता है जिसमें उन्होंने यह कहा है कि (नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः) आत्मा अजर अमर है और ना ही इसे कभी किसी भी माध्यम से मारा जा सकता है और ना ही यह खुद से मर सकती है !
अब यह भगवान् ने ही कई बार बोला है कि जिसने जन्म लिया है वो कभी ना कभी मरेगा ही लेकिन आत्मा तो कभी मरती ही नहीं है (सिर्फ उसके अलग अलग जन्म का शरीर मरता है), तो इसका मतलब यही हुआ कि सभी आत्माएं भी परमात्मा की ही तरह नित्य, शाश्वत, अजर, अमर और आदि अन्त (अर्थात जन्म मृत्यु) रहित हैं !
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से यह भी कहा है कि तेरे भी अब तक अनन्त जन्म हो चुके हैं और मैंने भी अब तक अनन्त बार अवतार ग्रहण किया है (इसीलिए कहा गया है हरि अनन्त, हरि कथा अनन्त), पर तेरे और मेरे में फर्क यही है कि मुझे तेरे अनन्त जन्मों की हर छोटी सी छोटी घटना के बारे में पता है लेकिन तुझे इस जन्म के अलावा कुछ भी याद नहीं है !
आत्मा और परमात्मा में एक मुख्य अंतर यह भी होता है कि परमात्मा मुख्य रूप से निराकार है पर आत्माएं हमेशा किसी ना किसी आकार के बंधन में रहती हैं और इसी आकार को ही शरीर कहते हैं !
जब कोई आत्मा किसी आकार के बंधन में नहीं रहती है तो वो निराकार ईश्वर अर्थात अपने एकमात्र सखा ईश्वर से एकाकार हो जाती है, इसी दुर्लभ प्रक्रिया को कहते हैं कि अनन्त वर्षों से अलग अलग शरीर धारण कर भटकती हुई आत्मा का अपने सबसे घनिष्ठ मित्र परमात्मा अर्थात प्रियतम से मिलन !
इसी को मोक्ष भी कहते हैं !
वेदव्यास जी कुछ और महत्वपूर्ण बातें भी बताते हैं जिन्हें अच्छे से जानकर समझ लेने वाले के स्वतः दिव्य चक्षु खुलने लगते हैं !
वेदव्यास जी बताते हैं कि आत्मा जब मानव शरीर के बंधन में रहती है तो उसे निर्देशित करता है उस मानव शरीर का मन !
आत्मा, मन से लगातार बातें करना चाहती है लेकिन यह संवाद उतना ही सफल हो पाता है जितनी विकसित चेतना होती है !
यह संवाद इसलिए ज्यादा से ज्यादा हो पाना जरूरी होता है क्योंकि मन जितना ज्यादा आत्मा की आवाज सुनेगा उतना ही गलत काम करने से डरेगा और उतना ही ज्यादा, बहुमुखी आत्मिक उन्नति भी करेगा !
इसलिए आपने देखा होगा कि कई महापुरुष खुद अपने तो ख़ुशी ख़ुशी कष्ट सह लेते थे लेकिन कोई ऐसा काम कभी नहीं करते थे जिससे किसी निर्दोष को कोई कष्ट पहुंच सके !
अतः इस चेतना को विकसित करने का कौन सा उपाय है ?
चेतना विकसित होती है, ज्ञान और कर्म के सम्मिलित अभ्यास से !
ज्ञान मिलता है किसी विद्वान मनीषी से या ग्रन्थ से !
और इसी ज्ञान को कर्म रूप में क्रियान्वन करने से ही चेतना का विकास होता है जिससे आत्मा की आवाज स्पष्ट रूप से मन को सुनाई देने लगती है !
पर सिर्फ आत्मा की आवाज सुनाई देने से ही मन आत्मानुसार काम करने लगे यह जरूरी नहीं है ! इसे ठीक से उस उदाहरण से समझा जा सकता है जब कोई मानव अपनी अंतरात्मा की आवाज को एक सिरे से अनसुना करते हुए जानबूझकर कर कोई गलत काम कर देता है !
जैसे कई ढीठ किस्म के भ्रष्ट आदमी ऐसे भी होते हैं जो अच्छे संस्कारी परिवार से सम्बन्ध रखने के बावजूद भी रोज धड़ल्ले से बेईमानी की कमाई कमाने में व्यस्त रहते हैं ! संस्कारी परिवार से सम्बन्ध रखने की वजह से उनकी चेतना, अन्य सामान्य परिवार की तुलना में ज्यादा विकसित होती है इसलिए वे जब जब भी कोई गलत कमाई कर रहे होतें हैं तब तब उन्हें उस गलत कमाई को बिल्कुल ना करने के लिए उनकी अंतरात्मा की आवाज जरूर रोकती है, लेकिन उसके बावजूद भी वे अपने अंतरात्मा की आवाज को तुरन्त नकार कर अपनी गलत कमाई के अभियान को लगातार चालू रखते हैं !
अतः यहाँ फिर से ध्यान से समझने वाली बात है कि किसी मानव की चेतना जितनी ज्यादा विकसित होगी, वह व्यक्ति उतना ज्यादा साफ़ साफ़ अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुन पायेगा लेकिन सिर्फ चेतना में यह ताकत नहीं होती कि वो मन को मजबूर कर दे अंतरात्मा का हर आदेश मानने के लिए !
तो क्या कोई ऐसा उपाय भी है जिससे मन, अंतरात्मा की जो कुछ भी आवाज सुने उसे तुरंत मान ले ?
इसका बेहद कारगर उपाय बताया है ब्रह्मर्षि वेदव्यास जी ने और वो उपाय है, मानव को अपना विवेक भी विकसित करना चाहिए !
मानव के विवेक और बुद्धि में अंतर होता है ! जहाँ बुद्धि सिर्फ तर्क करती है, वहीँ विवेक स्पष्ट जीवन्त अंतर्दृष्टि देता है कि अगर ऐसा गलत काम किया तो वैसा गलत दंड तुम्हे जरूर मिलेगा !
विवेक विकसित हो तो वो मन को विवश कर देता है हमेशा सही काम करने के लिए !
चूंकि मन से ही कण्ट्रोल होती हैं सभी शारीरिक इन्द्रियां (जो सांसारिक भोग, वासना आदि की तरफ चुम्बक के समान बार बार आकर्षित होती रहती हैं) इसलिए मानव शरीर में विवेक के ताकतवर हो जाने पर मन, बुद्धि और इन्द्रियां सब आज्ञाकारी सेवक के समान निश्चित वश में हो जाते हैं !
तो अब यह प्रश्न पैदा होता है कि कोई मानव आखिर कैसे अपने विवेक को ताकतवर बना सकता है ?
यह विवेक भी विकसित अर्थात ताकतवर होता है, सिर्फ और सिर्फ ज्ञान प्राप्त करने से !
इसीलिए हमारे अनन्त वर्ष पुराने सनातन धर्म में बार बार सत्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत ही जोर दिया गया है !
यह ज्ञान सिर्फ वही दे सकता है जिसे वाकई में खुद ज्ञान प्राप्त हो और ऐसा ज्ञानी गुरु का मिलना किसी स्वर्णिम सौभाग्य से कम नहीं होता है !
जिसके पास ज्ञान होता है उससे मिल कर ही कुछ ऐसा दिव्य अहसास होता है कि अपने आप पता लग जाता है कि वाकई में यह आदरणीय व्यक्ति ही हमारे मार्गदर्शक बनने के लायक हैं ! ठीक यही अहसास स्वामी विवेकानंद को हुआ था जब वे पहली बार अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस से मिले थे !
ऋषि श्री वेदव्यास जी ने एक और बहुत अच्छी बात समझाई है ब्रह्मसूत्र में कि, आखिर क्यों परमात्मा अर्थात श्री कृष्ण सिर्फ सखा है, मतलब सिर्फ सहयोगी है !
इसका मतलब श्री वेदव्यास जी यही बताते हैं कि इस दुनिया में तुम अर्थात मानव ही मुख्य कर्ता हो और परमात्मा सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा सहयोगी मात्र हैं ठीक उसी तरह जैसे महाभारत नामक अति कठिन परीक्षा में अर्जुन समेत पांडव मेन हीरो (मुख्य कलाकार) थे जबकि श्री कृष्ण सिर्फ साइड हीरो (सह कलाकार) थे !
यह सत्य है कि बिना श्री कृष्ण की सहायता के पाण्डव महाभारत नाम का महाभीषण युद्ध कभी ना जीत पाते, लेकिन उसके बावजूद श्री कृष्ण ने क्यों जानबूझकर खुद सिर्फ उनके सहयोगी की ही भूमिका निभाई ?
इसके पीछे एक राज है !
और वो राज यह है कि, उन्हें पता था कि आने वाले समय अर्थात कलियुग में अंध विश्वास, पाखण्ड, भ्रम आदि चरम पर पहुँचने वाले हैं जिसके चलते बहुत से लोग इन्ही अंध विश्वास, भ्रम, पाखण्ड आदि में ही फसकर अपने पूर्ण बाहुबल और पौरुष का प्रदर्शन नहीं करेंगे !
श्री कृष्ण ने पांडवों का सिर्फ इसीलिए पीछे से अप्रत्यक्ष साथ देकर यही साबित किया कि जो जो मानव धर्म के रास्ते पर रहकर अपने पूरे परिश्रम और संकल्प बल से किसी चीज को पाने का प्रयत्न करेंगे, सिर्फ उन्हें ही मेरा पूर्ण सहयोग प्राप्त होगा अन्यथा अकर्मण्य के लिए तो मै भी अकर्मण्य हूँ अर्थात अकर्मण्य और आलसी मानवों को मेरा कोई भी सहयोग कभी प्राप्त नहीं होगा !
यहाँ इस बात का मतलब ठीक से समझने की जरूरत है कि आस्तिक होना बुरी बात नहीं है लेकिन आस्तिकता की आड़ में कामचोर बन जाना बुरी बात है !
वास्तव में इस कलियुग में कर्म ही प्रधान है इसलिए गृहस्थ धर्म में रहते हुए, पूजा पाठ के चक्कर में किसी जरूरी कर्म की उपेक्षा करना गलत है और इसी तरह की बहुत सी गलतियाँ पूर्व काल में भारतवासियों से हुई हैं जब उन पर हमला करने क्रूर मुग़ल राजा आते थे तो लोग (जिसमें बहुत से युवा भी होते थे) हथियार उठाकर उन क्रूर मुगलों से मुकाबला करने की बजाय मंदिर में भगवान् की मूर्ती के सामने हाथ जोडकर खड़े हो जाते थे कि भगवान् हमें बचा लो पर भगवान् उन्हें बचाने कभी नहीं आये क्योंकि भगवान् को ऐसे अकर्मण्य लोगों को देखकर कोई सहानूभूति नहीं होती है जिनके अन्दर खुद कर सकने की काबलियत होती है लेकिन वे उसके बावजूद भी उचित कर्म करने की बजाय सिर्फ भगवान् के आसरे बैठकर अपनी मनोकामना पूरी होने का इंतजार करते हैं !
अगर कोई बीमार है, अशक्त कमजोर है, वृद्ध है, दिव्यांग है, या छोटा बालक है जिसकी वजह से वो कोई विशेष शारीरिक कर्म करने की स्थिति में नहीं है तो उसके लिए “हारे को हरि नाम जपना” जैसी बात उचित लगती है पर जब कोई शारीरिक रूप से सक्षम है तो उसे वे सभी प्रयास जरूर करना चाहिए जो वो कर सकता है !
ऐसा नहीं है कि पूजा पाठ आदि फ़ालतू चीज है और इसे नहीं करना चाहिए ! वास्तव में एक गृहस्थ के लिए पूजा पाठ ध्यान कीर्तन आदि भी बेहद जरूरी और अनिवार्य कार्य हैं क्योंकि इन महान अध्यात्मिक साधनाओं के थोड़े से पर नियमित अभ्यास के बिना, किसी मानव के मन में रोज नए जमने वाले घटिया विचारों की ठीक से सफाई नहीं हो पाती है जिससे मानव के गलत रास्ते की ओर मुड़ जाने की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है इसलिए हर मानव को प्रतिदिन एकदम नियम से थोड़ा समय निकाल कर पूजा पाठ भजन कीर्तन आदि के रूप में अपने परम घनिष्ठ मित्र अर्थात ईश्वर को याद जरूर करना चाहिए !
इसलिए हमारे आदि ग्रंथों में लिखा गया सूक्ति वाक्य कि “धर्मो रक्षति रक्षितः” अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है वही धर्म से रक्षित होता है, शाश्वत सत्य है !
धर्म क्या है ? निसहायों लाचारों की मदद करना, सदा सच बोलना, सिर्फ ईमानदारी की कमाई करना, सिर्फ शाकाहार खाना, अपने कार्य क्षेत्र में खूब मेहनत करना, सबसे सम्मान व प्रेम से बात करना और जरूरत पड़ने पर अत्याचार के खिलाफ युद्ध लड़ने से भी ना डरना आदि जैसे सभी अच्छे गुण ही तो धर्म हैं और जो व्यक्ति इनकी रक्षा करता है सिर्फ वही व्यक्ति ही धर्म के व्यक्त रूप अर्थात ईश्वर से निश्चित सुरक्षा और सहयोग प्राप्त करता है !
इसी शाश्वत सत्य को सामान्य लोकभाषा में कहते हैं कि “ईश्वर भी सहायता सिर्फ उन्ही की करता हैं जो धर्म के रास्ते पर ही रहते हुए, अपने प्रचंड मनोबल से जूझकर अपनी सहायता खुद से करने का प्रयास करतें हैं” !
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