जो गलती सत्यभामा जी ने की, वही आज भी बहुत से लोग कर रहें हैं
यह सत्य घटना महाभारत काल की है जब कुरुक्षेत्र में एक भव्य उत्सव का आयोजन चल रहा था !
भगवान श्री कृष्ण भी द्वारिकावासियों के साथ मेले में आए हुए थे !
देवर्षि नारद जी भी इस उचित समय का फायदा उठाते हुए श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए पृथ्वी पर पहुच गए !
श्री नारद जी ने श्रीकृष्ण की रानियों से बातों ही बातों में बताया कि तीर्थ में दिया गया दान अक्षय होकर, शाश्वत रूप से वापस अपने आप को ही प्राप्त होता है !
श्री कृष्ण की रानी सत्यभामा जी के मन में यह बात अच्छे से बैठ गयी थी !
उन्होंने सोचा भगवान श्रीकृष्ण से प्रिय कोई और नहीं है इसलिए अगर वे ही हमें अक्षय होकर प्राप्त हो जाएँ, तो इससे बड़ी क्या बात हो सकती है किंतु इसमें भी एक समस्या यह थी कि जो प्रिय है, उसे ही दान में कैसे दिया जा सकता है ?
जब यह जिज्ञासा व्यक्त की गयी तो देवर्षि नारद जी ने जवाब दिया कि श्रीकृष्ण के बराबर मूल्य देकर, श्रीकृष्ण को वापस लिया जा सकता है !
सत्यभामा जी ने अभिमान में कहा कि हम श्रीकृष्ण को दान देने के लिए, श्रीकृष्ण के बराबर मूल्य देकर उन्हें वापस ले लेंगे जिससे हमें जन्म-जन्मान्तरों के लिए उनका साथी बनने का महासौभाग्य मिलेगा !
दान देना शुरू किया गया ! अखिल ब्रह्मांडनायक श्रीकृष्ण तराजू के पलड़े पर बैठे गए और दूसरे पलड़े पर खूब ढेर सारे सोना चाँदी हीरा जवाहरात आदि रखना शुरू किया गया लेकिन पलड़ा ज्यों का त्यों रहा मतलब श्री कृष्ण का पलड़ा जरा भी नहीं उठ सका !
देवर्षि ने कहा कि आप रुके नहीं, संकल्प करती जाएँ, और तराजू पर रखती चली जाएँ।
वहाँ मौजूद सभी लोग हैरान होकर यह देख रहे थे कि कितना भी अधिक से अधिक कीमती सामान तराजू के दूसरे पलड़े पर रखा जा रहा था लेकिन श्री कृष्ण का पलड़ा तो जरा सा भी उठने का नाम ही नहीं ले रहा था !
अंततः युधिष्ठिर जी ने भी इंद्रप्रस्थ का अपना पूरा राज्य, महाराज उग्रसेन ने भी अपना पूरा राज्य संकल्पित कर तराजू के दूसरे पलड़े पर रख दिया लेकिन तब भी श्री कृष्ण का पलड़ा जरा सा भी टस से मस नहीं हुआ !
श्री बलराम की माता वसुदेव जी की दूसरी पत्नी अर्थात माँ रोहिणी भी वहाँ पर मौजूद थीं, उन्होंने सुझाव दिया कि यहाँ से थोड़ी दूर पर नन्दबाबा का भी शिविर लगा हुआ है ! कन्हैया अगर बिकेंगे तो सिर्फ भक्ति के मोल ही और भक्ति का धन ब्रज के लोगों के पास भरपूर है !
तुरंत सभी लोग ब्रजवासियों के शिविर के पास पहुचे ! राधा जी से अनुरोध किया गया ! उन्होंने सहायता का आश्वासन दिया !
राधा जी की सलाह पर सारे सोना चांदी मुकुट संकल्प आदि तराजू के दूसरे पलड़े से उतार लिए गए !
राधाजी ने मन ही मन प्रेम से श्रीकृष्ण को प्रणाम करते हुए, तुलसीजी के पौधे की मात्र एक पत्ती को उन लोगों को दे दिया तराजू के उस खाली पलड़े पर रखने के लिए !
और जैसे ही उस तुलसी पत्ती को श्रीकृष्ण के बगल वाले खाली पलड़े पर रखा गया वैसे ही तुलसीपत्ती का पलड़ा भारी होकर तुरंत नीचे दब गया और श्रीकृष्ण का पलड़ा एक झटके से ऊपर उठ गया !
प्रेममयी भक्ति की यह प्रचंड महिमा देखकर सभी उपस्थिति जन धन्य धन्य हो गए !
राधाजी की भक्ति के आगे सारे सोना चांदी हीरा जवाहरात आदि जैसे ऐश्वर्य, दो कौड़ी के साबित हुए ऐसा सभी ने एक मत से स्वीकारा !
इस घटना से, धन से श्रीकृष्ण को पाने का भ्रम रखने वाली सत्यभामा जी का क्षणिक अभिमान भी टूट गया !
देवर्षि नारद जी ने वह तुलसीदल रूपी प्रसाद अत्यंत श्रद्धा से ग्रहण किया और श्रीकृष्ण की प्रेममयी भक्ति का गुणगान करते हुए वहां से प्रस्थान कर गए !
यह घटना आज भी उन सभी लोगों के लिए एक सत्य उदाहरण हैं जिनके पास, नर के भेष में छिपे जीवंत नारायण अर्थात गरीब/लाचारों को खिलाने के लिए एक रूपए भी नहीं होता है, लेकिन मन्दिर में चढ़ाने के लिए इफरात सोना चांदी रुपया पैसा होता है !
यह घटना यह भी साबित करती है कि किसी भी मंदिर में मूर्ती के रूप में विराजमान श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए तो सिर्फ एक तुलसी जी की पत्ती ही पर्याप्त है, इसलिए श्रीकृष्ण की मूर्ती के आगे धन चढ़ाने की बजाय उसी पैसे से अगर किसी गरीब को खाना खिला दिया जाय या किसी बीमार का इलाज करा दिया जाए तो निश्चित ही बिना किसी भी मंदिर में गए हुए श्री कृष्ण उस परोपकारी आदमी से प्रसन्न नहीं, बल्कि परम प्रसन्न हो जाते हैं क्योंकि यही धर्म का सार है कि-
“परहित सरिस धर्म नहिं भाई
पर पीड़ा सम नहिं अघमाई”
अर्थात गरीब लाचारों की सेवा से बड़ा कोई धर्म (ईश्वर की पूजा) नहीं है और दूसरों का अनावश्यक कष्ट देने से बड़ा कोई पाप नहीं है !
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