असली बुद्धिमान कौन ?
इस कलियुगी भ्रष्ट माहौल में अक्सर “बुद्धिमान” शब्द का प्रयोग उस आदमी के लिए किया जाता है जो लोगों को बेवकूफ बनाकर फायदा कमाता है ! जबकि यह बुद्धिमानी नहीं, विशुद्ध मूर्खता है क्योकि कर्मफल के अटल सिद्धांत के अनुसार आज हमने किसी को बेवकूफ बनाया तो कल हम भी निश्चित किसी से बेवकूफ बनकर ही रहेंगे ! इसलिए “असली बुद्धिमान” कौन है इसे निम्नलिखित सत्य पौराणिक घटना को पढ़कर समझा जा सकता है-
राजा बलि का नाम तो लगभग सभी सनातनी सज्जनों ने सुन रखा होगा ! चूंकि अक्सर लोगो को भ्रम हो जाता है इसलिए यहाँ ये स्पष्ट करना जरूरी है कि राजा बलि और राजा बाली दोनों अलग – अलग राजा थे ! राजा बाली वो थे जो सुग्रीव के भाई थे और जिन्हे भगवान् राम ने मारा था ! जबकि राजा बलि वो थे जिनसे कई हजारो साल पहले खुद भगवान, वामन रूप में 3 पग धरती का दान मांगने आये थे ! इसलिए ये सत्य घटना राजा बलि से संबंधित है !
आप में से शायद कई लोगो को यह पता ना हो कि राजा बलि पिछले जन्म में एक अच्छे आदमी नहीं थे ! अच्छे आदमी ना होने का मतलब, हमेशा दूसरों से गुस्से में झगड़ा करके दुःख पहुँचाना, जुआ खेलना आदि करते रहने में ही बलि जी का पिछ्ला जन्म बीत रहा था ! एक बार बलि जी की जुए में अच्छी कमाई हुई थी तो वो उस पैसे एक महंगा सोने का हार खरीदकर चले अपनी प्रेमिका को देने के लिए, लेकिन रास्ते में ही अचानक उनकी तबियत बहुत ज्यादा खराब हो गयी थी जिसकी वजह से उनको अहसास होने लगा था कि शायद अब उनका अंतिम वक्त आ गया था !
माना जाता है कि अंतिम वक्त में बुरे आदमी की बुद्धि भी शुद्ध हो जाती है इसलिए बलि जी को भी समझ में आ गया था कि उनके पास जो हार है उसे अपनी गैर वफादार प्रेमिका तक पहुंचाने की जगह, थोड़ी दूर पर स्थित भगवान शिव के मंदिर में ही दान कर देना ज्यादा उचित रहेगा ! इसलिए बेहद बीमार और कमजोर होने के बावजूद भी बलि जी किसी तरह अपने शरीर को घसीट – घसीट कर मंदिर पहुंचे और अपना हार दान कर दिया !
हार दान करने के कुछ समय बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी और चूंकि उनके गुस्सैल स्वभाव की वजह से उनके सभी अपने सगे लोगों ने उनसे दूरी बना ली थी, इसलिए उनका अंतिम संस्कार भी उस अच्छे स्तर से नहीं हो सका था जिस स्तर पर उस समय बाकी सामान्य लोगों का हुआ करता था ! मरने के बाद यमदूतों ने बलि जी को यमराज के दरबार में उपस्थित किया !
तब धर्मराज ने बलि जी से बोला कि हे अज्ञानी प्राणी तुमने मानव जीवन जैसा दुर्लभ जीवन पाने के बावजूद भी सिर्फ दूसरों को दुःख देने में ही अपना पूरा जीवन गुजार दिया और एक बार भी नहीं सोचा कि तुमको भी एक दिन मरना है और मरने के बाद तुम्हे अपने गलत कर्मों का क्या दुष्परिणाम झेलना होगा ! जितना पाप तुमने अपनी अनैतिक कमाई के दौरान अर्जित किया है उतना ही पाप तुमने अपनी कड़वी जबान से लोगों को घायल करके कमाया है इसलिए तुम्हारा नर्क जाना तय है !
फिर यमराज ने कहा कि, लेकिन तुमने जीवन के अंत समय में जो अपने पास मौजूद सारी सम्पत्ति (यानी वो हार) को अत्यंत कष्ट सहते हुए भगवान शिव को समर्पित कर दी थी उसके महान पुण्य स्वरुप तुमको 2 घड़ी के लिए स्वर्ग में इंद्र पद भी प्राप्त हुआ है और साथ ही तुमने उस समय अपनी इच्छा से प्रेमिका को हार देने की जगह शिव मंदिर में हार देना ज्यादा उचित समझा था, इसलिए उस सही निर्णय के पुण्य स्वरुप तुम्हे अब यहाँ भी ये सुविधा दी जाती है कि तुम अपनी इच्छानुसार “नर्क की सजा” या “स्वर्ग का मालिक बनने का सुख” में से जो पहले भोगना चाहो, वो भुगत सकते हो, इसलिए अब तुम्ही बताओ की तुम्हारी इच्छा पहले नर्क जाने की है या स्वर्ग !
आम तौर पर लोग पहले दुःख ही भोगना चाहते हैं क्योकि वर्तमान सुख में भी कोई मजा नहीं मिल पाता है अगर यह पहले से पता हो कि वर्तमान के थोड़ी देर के सुख के बाद खूब दुःख भोगना पड़ेगा ! लेकिन तब तक भगवान शिव की कृपा से बलि जी का दिमाग सही तरीके से यानी “असली बुद्धिमान” तरीके से काम करने लगा था जिसकी वजह से बलि जी ने सोचा कि वास्तव में इस दुनिया में जो कुछ भी चीजे उपलब्ध हैं उन सबको बनाने वाले तो खुद भगवान शिव ही हैं तो इस तरह से तो उस हार को बनाने वाले भी भगवान शिव ही थे जिसे मैंने वापस शिव जी को ही समर्पित कर दिया था तो फिर मुझे इतना बड़ा पुण्य क्यों मिल गया !
मतलब बलि जी इस बात से हैरान थे की शिव जी का बनाया हुआ हार, शिव जी को ही लौटाकर बलि जी ने ऐसा कौन सा बहादुरी का काम कर दिया था जो उन्हें 2 घड़ी के लिए इंद्र पद मिल सकता है ! फिर बलि जो को यह समझ में आया की वास्तव में यह कुछ और नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ ईश्वर की “महान दया” ही है जो उनकी ही बनाई हुई वस्तुओं को भक्तों द्वारा उन्ही को लौटाने का नाटक करने मात्र से वो खुश हो जाते हैं (जबकि ईश्वर अपने ऊपर अर्पित किसी वस्तु का इस्तेमाल खुद कभी नहीं करते हैं क्योकि ऐसी सभी वस्तुएं अंततः वापस लौटकर भक्तों के पास ही प्रसाद के रूप में पहुँच जाती है या अन्य परोपकारी कार्यों में खर्च हो जाती है) !
बलि जी की “असली बुद्धि” को अब अच्छे से समझ में आने लगा था कि इस दो पल की जिंदगी में भगवान की ही बनाई हुई कुछ वस्तुओं/शक्तियों (जैसे- हमारा शरीर, धन, सामाजिक रुतबा आदि) को इस्तेमाल करने का अधिकार अगर हमें कुछ वर्षों के लिए मिला है तो हमें यह भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए कि “ये सब मेरा है” क्योकि पाप – पुण्य के हिसाब – किताब के अलावा हमारा कुछ भी नहीं है ! इसलिए भगवान् ने मेहरबानी करके अपनी जो वस्तुएं/शक्तियां (जैसे- हमारा शरीर, धन, सामाजिक रुतबा आदि) हमें इस्तेमाल करने के लिए दी हैं उनसे रोज अधिक से अधिक दूसरे लोगों का भला करके पुण्य अर्जित करते चलना चाहिए, नहीं तो इसके लिए जीवन में अलग से कभी कोई समय नहीं मिलने वाला है !
अतः बलि जी ने बहुत कुछ सोच विचार करके एक अंतिम “असली बुद्धिमानी” की और यमराज जी से पहले नर्कवास की जगह स्वर्गवास मांग लिया ! यमराज जी को भी आश्चर्य हुआ कि ये कैसा विचित्र जीव है जिसने पहले स्वर्गवास मांग लिया क्योकि स्वर्ग में भी जाकर ये कैसे खुश रह सकेगा जबकि इसे हमेशा यही चिंता परेशान करती रहेगी कि सिर्फ 2 घड़ी बाद ही इसे भीषण नर्क यातनाये झेलनी पड़ेंगी !
खैर बलि जी की इच्छानुसार उन्हें तुरंत स्वर्ग पहुंचा दिया गया और वहां उनके पहुँचते ही सभी देवताओं द्वारा उनका बहुत आदर सत्कार करके उन्हें वहां का राजा इंद्र बना दिया गया ! राजा बनते ही बलि जी ने फिर से “असली बुद्धिमानी” वाला दिमाग लगाया और स्वर्ग में मौजूद सभी दुर्लभ सुख सुविधाओं का खुद आनंद उठाने में समय बर्बाद करने की जगह, तुरंत ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े तपस्वी साधुओं यानी सप्तर्षियों को अपने स्वर्ग में निमंत्रण भेजकर बुलवाया !
सातों ऋषि यानी सप्तर्षि जब इंद्र के दरबार में पहुँच गए तो इंद्र यानी बलि जी ने तुरंत ऋषियों के चरणों में अपना सिर रखकर प्रार्थना की मैं अपना पूरा स्वर्गलोक आप जैसे महान तपस्वियों के चरणों में दान करना चाहता हूँ इसलिए कृपया इसे स्वीकार करने की महान दया करें ! बलि की बात सुनकर सभी सातों ऋषियों ने प्रेमपूर्वक इस दान का विरोध करते हुए बोला कि भला हम तपस्वियों को इन स्वर्ग की सुख सुविधाओं की क्या आवश्यकता, इसलिए हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं !
लेकिन बलि जी निराश नहीं हुए और उन्होंने प्रेमपूर्वक तब तक सप्तर्षियों से प्रार्थना करना नहीं छोड़ा जब तक कि वे मान नहीं गए ! बलि जी की सच्ची समर्पण भावना से प्रसन्न होकर सप्तर्षियों ने कहा की चलो ठीक है हम तुम्हारी बात का मान रखते हुए तुम्हारे दान को स्वीकार तो कर लेते हैं लेकिन स्वर्ग पर शासन करना हम तपस्वियों का काम नहीं है इसलिए जब तक तुम यहां हो तब तक तुम्ही हमारे प्रतिनिधि बनकर शासन करो और तुम्हारे बाद जो नए इंद्र आएंगे उन्हें हम लोग सब राज पाट सौंप देंगे ! लेकिन हम सभी सप्तर्षि लोग तुम्हारी इस दुर्लभ त्यागपूर्ण सर्वस्व दान करने की भावना से भी परम प्रसन्न है इसलिए जाओ तुम अब से दुर्गति के शिकार कभी नहीं होंगे (यानी अब तुम्हे नर्क नहीं जाना पड़ेगा) और अब तुम जहाँ भी जन्म लोगे वहां सद्गति ही प्राप्त करोगे बस अपनी वाणी में विनम्रता और दानशीलता कभी मत छोड़ना (क्योकि लक्ष्मी जी कभी भी कड़वी जबान बोलने वाले के पास ज्यादा देर तक नहीं रुकती हैं और यथोचित दान करते रहने से धन बहुत तेजी से बढ़ता है) !
यही बलि जी स्वर्गलोक में इंद्रपद की समाप्ति के बाद, भक्तराज प्रह्लाद के घर पोते बनकर पैदा हुए थे (ये प्रह्लाद जी वही हैं जिनके लिए भगवान ने नृसिंह अवतार लिया था और जिनकी याद में हर वर्ष होलिका दहन का पर्व मनाया जाता है) ! राजा बलि के इस जन्म में भी उनकी दानशीलता और विनम्र स्वभाव की परीक्षा लेने खुद भगवान विष्णु, वामन अवतार ग्रहण करके पहुंचें थे ! छोटे बालक का भेष धरकर आये वामन भगवान को देखकर राजा बलि के गुरु शुक्राचार्य जी पहचान गए थे कि ये कोई साधारण बालक नहीं है बल्कि खुद भगवान नारायण हैं जो धोखे से बलि जी की सारी सम्पत्ति हड़प कर लेना चाहते हैं इसलिए शुक्राचार्य जी ने बलि जी को बार – बार चेतावनी दी थी की इस लड़के को दान देने का कोई वचन ना दे देना, लेकिन बलि जी ने कहा की ऐसा कैसे हो सकता की मैं किसी गरीब बच्चे को बिना दान दिए लौटा दूँ !
तब शुक्राचार्य जी ने बलि जी को श्राप दिया की जाओ तुमने अपने गुरु की चेतावनी नहीं मानी इसलिए अब तुम खुद गरीब बन जाओगे और हुआ भी वही, क्योकि बलि जी से 3 पग जमीन के दान का वचन पाते ही भगवान वामन ने महाविशाल रूप धारण करके 3 पग में पूरे ब्रह्माण्ड के साथ – साथ राजा बलि के शरीर को भी नापकर उसके मालिक बन गए, जिससे बलि जी की सारी सम्पत्ति अब बलि जी की नहीं रही बल्कि वामन जी की हो चुकी थी और राजा बलि इतने गरीब हो गए कि उनके पास एक पैसा भी नहीं बचा था !
इस पूरे प्रकरण में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी की राजा बलि ने अत्यंत विपरीत परिस्थिति के बावजूद भी अपनी दानशीलता व विनम्रता का गुण नहीं छोड़ा जबकि राजा बलि की जगह कोई और होता तो वो शायद गुरु शुक्राचार्य जी पर क्रोध कर सकता था कि वो तो एक अच्छा काम यानी गरीब बच्चे को दान ही तो कर रहे थे तब फिर क्यों शुक्राचार्य जी ने इतना कठोर श्राप दे दिया ! और राजा बलि ने वामन जी पर भी इस बात पर गुस्सा नहीं किया की दान का वचन मिल जाने के बाद क्यों धोखे से वामन जी ने अपने शरीर को इतना ज्यादा विशाल बना लिया था !
अतः जिसमें विनम्रता और दानशीलता की भावना इतनी प्रचंड हो वो कैसे ज्यादा देर तक गरीब रह सकता है और हुआ भी वही, मतलब भगवान वामन ने राजा बलि की इन दैवीय गुणों से प्रसन्न होकर उन्हें अपना “शाश्वत सामीप्य” प्रदान कर दिया और उन्हें पाताल लोक का राजा बनाकर खुद वहां हमेशा के लिए बस गए ! अब जहाँ नारायण खुद रहते हों वहां से लक्ष्मी कब तक दूर रह सकती हैं, इसलिए माना जाता है कि राजा बलि आज भी पूरे पाताल लोक में सबसे ज्यादा धनी हैं और नारायण का शाश्वत सामीप्य प्राप्त होने की वजह से वो रोग और मृत्यु से रहित होकर सदा परम सुख का अनुभव करते रहते हैं !
देखिये इस संसार में ऐसी कोई जीवात्मा नहीं होगी जिसने अपने अनंत जन्मों में कभी पाप ना किया हो और ऐसी भी कोई जीवात्मा नहीं होगी जिसने कभी पुण्य ना किया हो, इसलिए ही कहावत है कि “पाप से घृणा करो, पापी से नहीं” लेकिन जब किसी जीवात्मा को ईश्वर के साक्षात् दर्शन का महासौभाग्य प्राप्त हो जाता है तो वो जीवात्मा परम शुद्ध होकर, ईश्वर का पार्षद (गण) रूप प्राप्त कर लेती है ! पुराणों में कई बार स्पष्ट रूप से लिखा है कि ईश्वर के पार्षद, ईश्वर के समान ही तेजस्वी होते हैं, इसलिए आज भी हर वर्ष केरल प्रदेश में लगातार 10 दिनों तक खूब धूमधाम से मनाये जाने वाले “ओणम त्यौहार” (Onam Festival) को राजा बलि की याद में मनाया जाता है !
माना जाता है कि हर वर्ष, “ओणम त्यौहार” में दस दिनों के लिए राजा बलि खुद पाताल लोक से धरती पर आते हैं और अपनी प्रजा यानी जनता का दुःख – दर्द दूर करते हैं ! राजा बलि को केरल की क्षेत्रीय भाषा में “मावेली” भी कहा जाता है जिसका अर्थ संभवतः “महाबली” या “बाहुबली” (यानी महाशक्तिशाली) होता है ! राजा बलि के बारे में कभी – कभी केरल के क्षेत्रीय लोगों से यह कहानी भी सुनने को मिलती है कि राजा बलि को बाद में भगवान् वामन ने “कलरीपायट्टु” युद्द कला भी विधिवत सिखाई थी यह दिखाने के लिए कैसे एक निहत्था छोटा बालक भी सैकड़ों दुष्ट दुश्मनो को हरा सकता है (जैसा की “स्वयं बनें गोपाल” समूह ने अपने पूर्व प्रकाशित आर्टिकल में भी बताया है कि “कलरीपायट्टु” युद्द कला को दुनिया की सबसे पुरानी मार्शल आर्ट्स टेक्निक माना जाता है और इसमें वर्णित “मर्म चिकित्सा” से कठिन बीमारियों में भी काफी जल्दी लाभ मिल सकता है ! इस आर्टिकल को विस्तार से पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें- जनरल असेंबली ने ट्यूबरकुलोसिस, डिजास्टर रिस्क रिडक्शन, प्रेस फ्रीडम व विकासीय मुद्दों पर आधारित मीटिंग्स में आमंत्रित किया हमारे स्वयं सेवक को) !
अतः इस पूरे कथानक के 3 मुख्य सारांश है; पहला सारांश- जीवन की हर परिस्थिति में ध्यान से समझने की जरूरत है की “असली बुद्धिमानी” किसमें हैं क्योकि वर्तमान का अनैतिक लाभ, भविष्य में निश्चित दुखदायी होता है ! दूसरा सारांश- उचित दान करने से धन घटता नहीं है, बल्कि कई गुना बढ़कर वापस मिलता है ! तीसरा सारांश- गुस्सा और कड़वी जबान पाप के द्वार हैं इसलिए वक्त रहते इन पर हमेशा के लिए लगाम लगाना जरूरी है, नहीं तो सांसारिक व पारलौकिक दुर्गति होना तय है !
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