विश्व पर्यावरण दिवस पर, जानिये स्वयं व समाज को भी जबरदस्त लाभान्वित कर सकने वाली आसान थ्योरी “चार बिना हार” को
जैसा कि हमने अपने इस पूर्व प्रकाशित आर्टिकल (कैसे यूरोपियन यूनियन द्वारा पोषित संस्था की रिपोर्ट में लिखा “स्वयं बनें गोपाल” समूह का नाम, माध्यम बना, बंजर जमीन में सब्जियाँ उगाने का) में बताया था कि अक्सर कई आदरणीय पाठक, हमसे आर्गेनिक फार्मिंग (प्राकृतिक खेती/बागवानी) से संबंधित विभिन्न प्रोडक्ट्स व जानकारियों के बारे में भी पूछते रहतें हैं !
अतः अधिकांश पाठकों की विविध जिज्ञासाओं के समाधान के लिए, “स्वयं बनें गोपाल” समूह, इस विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून 2025) के उपलक्ष्य पर, यह विस्तृत आर्टिकल प्रकाशित कर रहा है, जिसका शीर्षक है “चार बिना हार” !
इस आर्टिकल में जिस थ्योरी का वर्णन किया गया है, उसका नाम “स्वयं बनें गोपाल” समूह के मूर्धन्य शोधकर्ताओं ने क्यों “चार बिना हार” रखा है, उसे जानने के लिए सर्वप्रथम आपको निम्नलिखित सभी महत्वपूर्ण जानकारियां को ध्यान से पढ़ना होगा क्योकि तभी आपको इस “चार बिना हार” थ्योरी का असली मतलब समझ में आएगा ! अतः आईये अब बाते करतें हैं स्टेप बाई स्टेप (क्रमशः) सभी महत्वपूर्ण जानकारियों के बारे में !
जब भी, कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति खेती/बागवानी के बारें में बात करता है तो सबसे पहला प्रश्न यही आता है कि कैसे हर तरह के खेतो/बगीचों की मिट्टी को इतना ज्यादा उपजाऊ बनाया जा सके कि हर तरह के पौधों/फूलों/फलों/फसलों की पैदावार खूब हो सके, वो भी बिना किसी केमिकल युक्त फ़र्टिलाइज़र व पेस्टिसाइड (रासायनिक खाद व कीटनाशक) का इस्तेमाल किये हुए !
इसी संदर्भ में यहाँ उद्धृत करना चाहेंगे कि “स्वयं बनें गोपाल” समूह, भूमि (मिट्टी या मृदा) के सरंक्षण व संवर्धन के वैश्विक अभियान में भी पार्टनर है (जिसके बारे में अधिक जानने के लिए कृपया हमारे इस आर्टिकल को पढ़ें, जिसमें बताया गया है कि “स्वयं बनें गोपाल” समूह, संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन “फ़ूड एंड एग्रीकल्चरल आर्गेनाइजेशन” के उपक्रम “ग्लोबल स्वायल पार्टनरशिप” (Global Soil Partnership) का पार्टनर है- संयुक्त राष्ट्र संघ के नए विश्वप्रसिद्ध उपक्रम का पार्टनर बना “स्वयं बनें गोपाल” समूह) !

Joseph Michael’s VOICES FOR THE FUTURE, 2019. Photo: Project Pressure.
“ग्लोबल स्वायल पार्टनरशिप” की 2 रिपोर्ट में हमारे प्रधान स्वयं सेवक (अध्यक्ष) परिमल पराशर जी का नाम देखने के लिए कृपया इन 2 लिंक्स पर क्लिक करें- Report of the eighth meeting of the Asian Soil Partnership और Eleventh Session of the Global Soil Partnership Plenary Assembly (“स्वयं बनें गोपाल” समूह, “संयुक्त राष्ट्र संघ” के कई विश्वस्तरीय पर्यावरणीय उपक्रमों से पार्टनर, पालिसी मेकर, मेंबर व स्टेकहोल्डर आदि के तौर पर भी जुड़ चुका है जिनके बारे में अधिक जानने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें- वसुधैव कुटुंबकम्) !
अब बात करते हैं ऊपर वर्णित प्रश्न से संबंधित जानकारी की ! जैसा की “स्वयं बनें गोपाल” समूह ने पूर्व प्रकाशित आर्टिकल्स में बताया है कि मिट्टी की उर्वरक शक्ति में सुधार लाने के लिय “जीवामृत खाद” से बढियाँ कोई दूसरी आर्गेनिक फ़र्टिलाइज़र (प्राकृतिक खाद) नहीं है, और आज इसी परिप्रेक्ष्य में हम कई अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ – साथ यह भी अनुभूत सत्य बताने जा रहें हैं कि अगर जीवामृत खाद बनाते समय, उसमें नीम की पत्ती भी 1 से 5 किलो तक मिला दिया जाए तो वह जीवामृत खाद एक बढियाँ उर्वरक (पोषक दाता) के साथ – साथ एक बढियाँ कीटनाशक भी बन जाती है !
ऐसी जीवामृत खाद में, जो गोमूत्र व नीम जैसे तत्व होतें हैं वो जबरदस्त कीटनाशक होते हैं, इसलिए इस जीवामृत खाद को आवश्यकता अनुसार पानी में घोलकर, फिर छानकर, पौधों की पत्तियों पर छिड़काव करने से पौधों पर कीड़े नहीं लगने पाते हैं क्योकि कीड़ों को जीवामृत का स्वाद अच्छा नहीं लगता है ! सामान्यतः कीड़े उन सभी पत्तियों/फलों/फूलों से दूर भागते हैं जिन पर जीवामृत का छिड़काव हुआ रहता है !
इसे कई बार आजमाकर देखा गया है कि नीम की पत्ती मिलाने से जीवामृत खाद, एक्स्ट्रा पॉवरफुल हो जाती है ! चाहे कोई बड़ा खेत हो या घर/फ्लैट/अपार्टमेंट में बना कोई छोटा गार्डन (या गमला आदि) हो जीवामृत खाद का इस्तेमाल बहुत लाभकारी हो सकता है ! इसलिए नीचे वर्णित आर्टिकल में जितने भी फायदे दिए गए हैं, वो सभी नीम मिली हुई जीवामृत खाद के हैं !
जीवामृत खाद कैसे बनाई जाती है, इसे जानने के लिए कृपया हमारे इस पूर्व प्रकाशित आर्टिकल को पढ़ें- जानिये सोना फसल उगाने वाली आयुर्वेदिक खाद व कीटनाशक का जबरदस्त फार्मूला या इसी आर्टिकल में नीचे भी जीवामृत खाद बनाने की विधि बताई गयी है !
जीवामृत खाद की मदद से ये 2 बेहद महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं सम्पन्न होती हैं- (1) जहरीले फ़र्टिलाइज़र व पेस्टिसाइड के लगातार इस्तेमाल करने से खेतों/बगीचों की जमीनों के अंदर मर चुके गुड बैक्टीरिया (अच्छे जीवाणु) फिर से तेजी से पैदा हो सकते है, जिससे जमीन की उर्वरक क्षमता व सभी तरह के पौधों की इम्युनिटी यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता काफी अच्छी हो सकती है, क्योकि अगर जमीन स्वस्थ हो तो जमीन से आने वाले अधिकाँश हानिकारक कीटाणु अपने आप समाप्त हो जाते हैं (2)- जमीन को आवश्यक कई बेशकीमती पोषक तत्व भी प्राप्त हो सकते हैं, जिससे सभी तरह के पौधे/फल/फूल/फसल की खूब पैदावार हो सकती है !
सही खाद के चुनाव के साथ – साथ, उगाने के लिए सही फसल/पौधों का चुनाव करने से भी, खेती की पैदावार खूब बढ़ती है, इसलिए खेतो/बगीचों में बार – बार, बदल – बदलकर, अलग – अलग फसलों को उगाने से, और अगर सम्भव हो सके तो कभी – कभी आयुर्वेदिक जड़ीबूटियों को भी उगाने से, बहुत लाभ मिलता है !
“स्वयं बनें गोपाल” समूह के शोधकर्ताओं के अनुसार, वास्तव में जो जड़ीबूटियां इंसानो की जीवनी शक्ति को बढ़ाती हैं, वहीँ जड़ीबूटियां धरती माँ की भी जीवनी शक्ति यानी उपजाऊ क्षमता को बढ़ती हैं इसलिए प्राचीन काल में किसान इतने समझदार होते थे की वे अपने खेतों में अक्सर नए – नए तरह के पौधों की फसल भी उगाते थे ताकि उन नई फसलों को काटते समय, गिरने वाले पौधों के टुकड़े, खेत में ही सड़कर (composting), अलग – अलग तरह के बेशकीमती पोषक तत्वों का निर्माण करते थे, जिससे धरती माँ की उर्वरक शक्ति खूब रिचार्ज (soil health boost) होती थी !
प्राचीन काल में किसी भी तरह के हरे पौधे को अनावश्यक नहीं काटा जाता था क्योकि उस समय लोगों को पता था कि प्रकृति द्वारा अपने आप पैदा किये गए पौधे या घास (जिसे आजकल लोग खरपतवार समझते हैं) सूखकर सड़ने के बाद (biomass) परम् लाभकारी जैविक खाद में बदल जाते हैं !
इसलिए ना ही कभी भी , किसी भी तरह के हरे पेड़ – पौधे – फसल को उखाड़कर बाहर फेकना चाहिए और ना ही कभी भी अपने से सूखकर गिरे हुए किसी भी तरह के पत्ते – फूल – बीज आदि को झाड़ू से बटोरकर फेकना चाहिए, बल्कि उन्हें वहीँ सड़ने देना चाहिए ताकि वे बेशकीमती खाद बना सकें (आजकल कई लोग यही काम करते हैं कि वे अपने खेत/बगीचे में, हर तरह के हरे/सूखे पौधे को हमेशा वहीं पड़े रहने देते हैं जिसकी वजह से उनकी मिटटी की उर्वरक शक्ति, इतनी मजबूत बन गयी है जहाँ हर तरह के फल/फूल/फसल खूब पैदा होते हैं) !
लेकिन यह भी अक्सर सुनने को मिलता है कि रासायनिक खाद बनाने वाली कई कम्पनीज़ ने यह अफवाह फैला दी है कि ये खरपतवार जमीन की ऊर्जा सोखते रहते हैं जिससे फसल कमजोर हो जाती है इसलिए इन्हे हर्बीसाइड (खरपतवार नाशक दवा) डालकर नष्ट कर देना चाहिए !
ऐसी अफवाह फैलाने वाली कम्पनीज़ से ये प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि जंगलो में तो कोई खरपतवार को नष्ट नहीं करता है, लेकिन तब भी वहां के सभी पेड़ – पौधे, इतने स्वस्थ – मजबूत होतें हैं कि ना तो कभी उन्हें कोई खाद देने की जरूरत पड़ती है और ना ही कभी उन पर कोई कीटनाशक डालने की जरूरत पड़ती है !
वास्तव में प्राचीन काल में, श्री वेदव्यास ऋषि जी ने ही इस अकाट्य सत्य का खुलासा कर दिया था कि “जीवो जीवस्य जीवनम्” यानी एक जीव से ही दूसरे जीव का जीवन चलता है ! इसलिए किसी मिटटी में पौधे स्वस्थ व मजबूत तभी बने रहेंगे जब उस मिटटी में गुड बैक्टीरिया (अच्छे जीवाणुओं) की संख्या खूब ज्यादा होगी !
जीवामृत खाद में स्वास्थवर्धक जीवाणुओं (beneficial microorganisms or microbes) की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ाने के लिए, किसी खेत की मिट्टी या किसी बरगद के पेड़ के नीचे की मिट्टी मिलाने की जगह, ये ज्यादा बेहतर होता है कि उसमें किसी जंगल की ऐसी 1 मुट्ठी मिट्टी मिलाई जाए, जहाँ केमिकल युक्त फ़र्टिलाइज़र या कीटनाशक कभी ना पड़ा हो, जिसकी वजह से उस जंगली मिट्टी में आज भी लगभग सभी स्वास्थवर्धक जीवाणु जीवित होतें है और उस जंगली मिट्टी को जीवामृत खाद में मिलाकर, जिस भी बंजर खेत में डाला जाता है, वहां भी वे जीवाणु अपनी संख्या तेजी से बढ़ाकर, बंजर खेत को भी निश्चित उपजाऊ बनाने लगते है !
जंगल में मिट्टी को किसी ऐसे पेड़ के नीचे से, 2- 3 इंच खोदकर लाना चाहिए, जहाँ की जमीन में प्राकृतिक नमी हमेशा मौजूद रहती हो, क्योकि एकदम सूखी जमीन (चाहे वो सूखी जमीन जंगल की ही क्यों ना हो) में जीवाणु बहुत कम होते हैं ! इसलिए जंगल में भी 1 मुट्ठी मिट्टी किसी पेड़ की छाँव के नीचे से खोदकर, थोड़ी गीली अवस्था में ही लानी चाहिए !
चूंकि जीवामृत खाद का मुख्य घटक देशी गाय माँ का गोबर है इसलिए यह खाद जब जमीन में जाती है तो जमीन में कार्बन की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ाती है और नमी को भी जल्दी ख़त्म नहीं होने देती है जिससे जमीन की उपजाऊ क्षमता तेजी से बढ़ती है (जंगलों में सूखकर गिरने वाले पत्ते – टहनियां ही कार्बन में बदल जातें हैं, जिसकी वजह से जंगल में बारिश के अलावा, कभी भी पानी ना मिलने के बावजूद भी सभी पेड़ – पौधे हमेशा हरे – भरे बने रहते हैं) !
देशी गोबर खाद में विशेष फायदेमंद जीवाणुओं के अलावा नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, गंधक, लोहा, मैंगनीज, तांबा व जस्ता आदि भी पाए जाते हैं ! साथ ही गोबर की खाद, चूना आदि जमीन का PH लेवल भी नार्मल करने में मदद करतें है ! इसलिए इस, जीवामृत खाद को वर्मी कम्पोस्ट (केचुआ खाद) से भी ज्यादा अच्छी आर्गेनिक फ़र्टिलाइज़र (जैविक या प्राकृतिक खाद) माना जाता है, क्योकि जीवामृत खाद एकदम बंजर हो चुकी जमीन को भी कुछ सालों में बेहद उपजाऊ निश्चित बना सकती है !
जीवामृत खाद का दूसरा मुख्य घटक है देशी गोमूत्र, जिसके आध्यात्मिक फायदे तो अनंत है इसलिए इसे जीवों द्वारा पायी जानी वाली सबसे रहस्यमय व लाभकारी औषधि माना जा सकता है (गाय माँ के सैकड़ों आश्चर्यजनक फायदे जानने के लिए, कृपया इस लिंक पर क्लिक करें- जगदम्बा स्वरूपा, कृष्ण माता अर्थात भारतीय देशी गाय माता के सैकड़ों आश्चर्य जनक सत्य फायदे) !
आधुनिक रिसर्च के मुताबिक़ गौमूत्र में नाइट्रोजन, गंधक, अमोनिया, कॉपर, यूरिया, यूरिक एसिड, फास्फेट, सोडियम, पोटैशियम, मैग्नीस, कार्बोलिक एसिड़ आदि जैसे बेहद जरूरी पोषक तत्व पाये जाते हैं, जो मिट्टी की सेहत और फसलों के बेहतर उत्पादन के लिये बहुत जरूरी हैं !
हम जो भी जैविक पदार्थ खेत में डालते हैं चाहे वह गोबर की खाद हो, कम्पोस्ट खाद हो, वर्मी कम्पोस्ट हो, हरी खाद हो, फसलों के अवशेष हों, विभिन्न प्रकार की खलियां हों, आदि उन सभी को अपघटित करने का काम, अच्छे जीवाणु यानी सूक्ष्म जीव ही करते हैं !
सूक्ष्म जीव इन जैविक पदार्थों को पचाकर ह्यूमस (humus) बनाते हैं ! ह्यूमस ही मिट्टी की असली ताकत होती है ! जिस मिट्टी में जितना ज्यादा ह्यूमस होगा, उस मिट्टी की उतनी अधिक उपजाऊ क्षमता होगी ! मिट्टी में जीवाणुओं की संख्या कम होने पर, ह्यूमस जल्दी या ठीक से नहीं बनता है !
जीवांश पदार्थ और ह्यूमस में अन्तर यह है कि ह्यूमस बनने में समय लगता है ! ह्यूमस यानी जैव रसायन (जीवनद्रव्य ) का निर्माण, जीवांश खाद व पौधों के अवशेष के विघटन के बाद होता है ! विघटन करने वाले करोड़ो सूक्ष्म जीव होते हैं और देशी गाय माँ का गोबर, इन सूक्ष्म जीवों का जामन होता है (जैसे 1 चम्मच दही का जामन, सैकड़ो लीटर दूध को दही बना सकता है) !
ह्यूमस में अनेक पोषक तत्व पाए जाते हैं जिनमें से जैविक कार्बन व जैविक नाइट्रोजन मुख्य हैं ! जैविक कार्बन हरे पौधे प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा तथा जैविक नत्रजन, नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणुओं द्वारा हवा से नत्रजन लेकर पौधों की जड़ों को उपलब्ध कराते हैं !
ह्यूमस में मुख्य रूप से 60% जैविक कार्बन एवं 6% जैविक नत्रजन होता है, जिसे C: N अनुपात 10:1 भी कहा जाता है ! जब भूमि में ह्यूमस बनता है तब ही मिट्टी की जल धारण क्षमता में सुधार होता है ! मिट्टी में पोषक तत्वों को रोकने की ताकत, इसी ह्यूमस से आती है इसलिए ह्यूमस ही मिट्टी की ताकत है !
अच्छे जीवाणु यानी सूक्ष्म जीव ही पौधों को पोषक तत्व उपलब्ध कराते हैं ! खेत में जो जीवांश डाला जाता है, उनमें उपस्थित पोषक तत्वों को निकालने व अलग करने का कार्य सूक्ष्म जीव ही करते हैं ! भूमि में उपलब्ध पोषक तत्वों को उसी रूप में पौधे नहीं ले सकते हैं इसलिए सूक्ष्म जीव ही सभी पोषक तत्वों को उस रूप में बदलते हैं जिस रूप में पौधे उन तत्वों को ले सकते हैं ! कुछ सूक्ष्म जीव (जैसे राइजोबियम आदि) वातावरण के नाइट्रोजन फिक्सेशन का कार्य करते हैं तथा पौधों को नत्रजन उपलब्ध कराते हैं !
अच्छे जीवाणु ही भूमि में उपलब्ध, अघुलनशील फोस्फेट को घुलनशील बनाते हैं ! पोटेशियम को मिट्टी के कणों से बाहर निकालने का कार्य भी सूक्ष्म जीव ही करते हैं ! और भी कई अघुलनशील पोषक तत्वों को घुलनशील बनाने का काम सूक्ष्म जीव ही करते हैं !
सूक्ष्म जीव मिट्टी से ऐसे कई हार्मोन्स, विटामिन्स निकालने का कार्य करते हैं जो पौधों की जड़ों के विकास में सहायता करते हैं ! जड़ें मजबूत होंगी तभी वह भूमि से अधिक पोषक तत्वों को ग्रहण कर सकेंगी, जिससे पौधे मजबूत बनेंगे !
सूक्ष्म जीव, ऐसे रसायन पैदा करते हैं जिनसे मिट्टी के कण बन्ध जाते हैं और मिट्टी भुरभुरी बनती है ! ऐसी मिट्टी में वायु का संचार बढियाँ होता है, जिससे जड़ों को आक्सीजन मिलती है तथा जड़ों का अच्छा विकास होता है ! इसलिए मृदा यानी मिटटी की संरचना व दशा को सुधारने के काम में, सबसे ज्यादा अहम किरदार, अच्छे जीवाणुओं यानी सूक्ष्म जीवों का है !
इसलिए किसी भी खेत या जमीन में कोई भी केमिकल युक्त फ़र्टिलाइज़र या पेस्टिसाइड कभी नहीं डालना चाहिए, क्योकि ये केमिकल्स पौधों को तात्कालिक रूप से थोड़ा फायदा तो जरूर पहुँचातें हैं, लेकिन इनका दूरगामी असर बहुत ही बुरा होता है ! ये केमिकल्स जमीन के अधिकांश अच्छे जीवाणुओं को भी मार देते हैं जिसकी वजह से आज पूरे विश्व में अधिकाँश खेत धीरे – धीरे बंजर होने की दिशा में आगे बढ़ते जा रहें हैं, जिनके बारे में अधिक जानने के लिए कृपया मीडिया में प्रकाशित निम्नलिखित न्यूज़ को पढ़ें-
रासायनिक खेती से मिट्टी हो रही है बंजर
रासायनिक खाद से खराब हो रही मिट्टी, नहीं संभले तो खत्म हो जाएगी खेती; करें ये उपाय
सिर्फ इतने ही सालों में बंजर हो जाएंगे खेत, मिट्टी से बेहद तेजी से गायब हो रहे हैं पोषक तत्व
रासायनिक खाद से मिट्टी का पीएच लेवल 9.9 पहुंचा, नतिजन, बंजर हो सकते हैं खेत
अंधाधुंध रसायनों के प्रयोग से बंजर हो रही धरती की कोख
रासायनिक खाद के प्रयोग से जमीन हो रही बंजर : जानिए कारण
इन्ही सब ज्वलंत समस्याओं को ध्यान में रखते हुए, माना जाता है कि जीवामृत खाद सर्वोत्तम है क्योकि यह खाद पूरी तरह से प्राकृतिक तत्वों (environment friendly) से बनी हुई है जिसकी वजह से इसका कोई भी साइड इफ़ेक्ट नहीं है और यह खाद इतनी ज्यादा सुरक्षित है कि इस खाद की मात्रा ज्यादा डालने पर भी पौधों को कोई नुकसान नहीं पहुँचता है (जबकि केमिकल युक्त फ़र्टिलाइज़र व पेस्टिसाइड्स की मात्रा ज्यादा हो जाने पर, ना केवल पौधे मर सकते हैं, बल्कि उन पौधों को खाने वाले इंसानों को भी कैंसर/डायबिटिज/किडनी/हार्ट डिसीज़ आदि होने का खतरा रहता है) !
वास्तव में जीवामृत खाद इतना जबरदस्त फायदेमंद है कि कई उपभोक्ताओं का कहना है कि बिना किसी केमिकल युक्त फ़र्टिलाइज़र व पेस्टिसाइड्स का इस्तेमाल किये हुए, सिर्फ इस जीवामृत खाद को ही, इस्तेमाल करने से, हर तरह के पेड़, पौधों, फसल, अनाज, सब्जियों में बहुत बढियाँ लाभ पहुंच सकता है और फसल के लिए आवश्यक किसी भी पोषक तत्व (जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, सल्फर, लोहा, जिंक, कॉपर, बोरॉन, मैंगनीज, मोलिब्डेनम, क्लोरीन आदि) को अलग से डालने की जरूरत नहीं पड़ती है !
यहाँ ध्यान से समझने की जरूरत है कि जैसे किसी मानव की अगर रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत है तो फिर उसे रोग नाशक दवा खाने की जरूरत नहीं पड़ती है, इसी तरह, जीवामृत खाद से पौधों – फसलों की रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है इसलिए उन्हें जल्दी कोई बिमारी होने नहीं पाती है !
अनुभव से जाना गया है कि नीम मिली हुई जीवामृत खाद का, अगर फसल में रोग लगने से पहले ही छिड़काव कर दिया जाए तो फिर भविष्य में रोग लगने की संभावना काफी कम हो जाती है ! इसलिए फसल में किसी रोग लगने का इंतजार करने की जगह, बीज बोन के पहले दिन से ही नीम वाली जीवामृत खाद का छिड़काव, महीने में कम से कम एक बार करते रहना चाहिए !
ये देखा गया है कि अगर जीवामृत खाद का स्प्रे (छिड़काव) किया जाए तो काफी कम जीवामृत खाद से भी उतना लाभ मिल जाता है जितना ड्रिप इरीगेशन (पानी के साथ बहाने) से मिलता है ! आम तौर पर जीवामृत में 10 गुना पानी मिलाकर स्प्रे किया जाता है !
जीवामृत खाद लिक्विड (तरल) अवस्था में होती है, लेकिन अगर इसे नीचे बताये गए तरीके से सूखी खाद में बदल दिया जाए तो उसे घनजीवामृत खाद बोलते हैं ! लिक्विड खाद की तुलना में, सॉलिड खाद काफी ज्यादा फायदा करती है क्योकि इसमें कॉर्बन बहुत ज्यादा होता है (लिक्विड जीवामृत की ही तरह, सूखी घनजीवामृत को भी आवश्यकता अनुसार पानी में घोलकर, फिर छानकर, पौधों की पत्तियों पर छिड़काव करने से पौधों पर कीड़े नहीं लगने पाते हैं) !
जीवामृत को उर्वरक (यानी पोषण देने वाली खाद) के तौर पर इस्तेमाल करना भी बहुत आसान है ! अगर एक एकड़ खेत हो तो सामान्यतः हर महीने, इस खाद को 200 लीटर लिक्विड अवस्था में या 50 से 100 किलो तक सूखी अवस्था में डाला जा सकता है ! इसी तरह घर में बना हुआ कोई छोटा – बड़ा गार्डन (बगीचा) हो तो उसमें हर महीने, उसमें 5 लीटर लिक्विड अवस्था में या 2 से 3 किलो तक सूखी अवस्था में खाद डाल सकते हैं ! छोटे – बड़े गमलों में भी हर महीने 1 ग्लास लिक्विड अवस्था में या 1 से 2 मुट्ठी तक सूखी अवस्था में खाद डाल सकते हैं ! जमीन में सूखी खाद डालने के तुरंत बाद पानी भी डाल देना चाहिए ताकि खाद, जमीन में अच्छी तरह से समा सके !
सामान्य जीवामृत खाद (जो की तरल अवस्था में होती है) उसे बनाने की विधि है- 200 लीटर के ड्रम में पानी भरकर उसमें एक मुट्ठी ऐसी जगह की मिटटी डाल दें जहाँ कभी कोई रासायनिक खाद या कीटनाशक ना पड़ा हो (जैसा की ऊपर बताया गया है कि आम तौर पर ऐसी मिट्टी किसी सुनसान जंगल में पेड़ों के नीचे नमी युक्त स्थान में मिलती है, जहाँ कभी कोई इंसान का आना – जाना ना हो) !
और फिर उस ड्रम के पानी में 15 किलो गोबर, 1 किलो गुड़ (या चीनी), 1 किलो चने का बेसन (या गेंहू का आटा), 1 लीटर देशी गाय माँ के दूध की दही, 1 से 5 किलो नीम के पत्ते और अगर मिल सके तो 1 से 5 लिटर गोमूत्र डालकर, सूती कपडे से ढ़ककर, छाँव में रख दें (शुद्ध गोमूत्र मिलना कठिन होता है इसलिए अगर गोमूत्र ना मिल सके तब भी कोई विशेष दिक्कत नहीं है क्योकि गोबर में हमेशा थोड़ा – बहुत गोमूत्र मिला हुआ होता है) !
फिर रोज सुबह – शाम इस घोल को डंडे से 1 मिनट के लिए घुमाते रहें ताकि घोल में ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में पहुंचती रहे ! इस तरह करने से लगभग 15 दिन में बेशकीमती 200 लीटर खाद तैयार हो जाती है जिसको पानी के साथ मिलाकर, एक एकड़ खेत में हर महीने बहाया जा सकता है !
अब अगर आपको सॉलिड (सूखी) खाद बनानी हो (जिसे घनजीवामृत खाद भी कहते हैं) तो ऊपर बनी हुई 200 लीटर लिक्विड खाद को ही, 100 किलो ताजे गोबर के ढेर पर छिड़क दे (यह गोबर का ढेर छाँव में ही रहना चाहिए ताकि उसमें पैदा होने वाले अच्छे जीवाणु, सूरज की कड़ी धूप से मरे नहीं) ! फिर हर 7 से 10 दिन बाद उस गोबर के ढ़ेर को ऊपर – नीचे हिलाते रहें ताकि नीचे स्थित गोबर तक भी ऑक्सीजन ठीक से पहुंचती रहे !
इस तरह करते रहने से लगभग 1 से डेढ़ महीने में, बेहतरीन 60 से 80 किलो तक सूखी घनजीवामृत खाद तैयार हो जाती है, जिसे खेत में डालने पर जमीन के कार्बन में इतनी ज्यादा बढ़ोत्तरी होती है कि फसल का उत्पादन काफी अच्छा होता है (यहाँ फिर से इस बात को दोहराया जा रहा है कि लिक्विड खाद की तुलना में, सॉलिड खाद काफी ज्यादा फायदा करती है क्योकि इसमें कॉर्बन बहुत ज्यादा होता है) !
इन्ही वजहों से आम तौर पर माना जा सकता है कि जीवामृत खाद की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती है क्योकि गुड बैक्टीरिया कई सालों तक डॉर्मेंसी (निष्क्रिय अवस्था) में रहकर जिन्दा बने रह सकतें हैं और सालों बाद भी उचित माहौल व खुराक पाकर फिर से सक्रीय हो जातें हैं ! यानी इन जीवाणुओं की संख्या जब चाहें तब, फिर से बढ़ाया जा सकता है ऊपर बताये गए लिक्विड या सॉलिड खाद बनाने के तरीके से !
असल में इन स्वास्थप्रद जीवाणुओं का सबसे प्रिय भोजन होता है मीठा (जैसे गुड़ – चीनी), देशी गाय माँ का गोबर – गोमूत्र, बेसन या आटा, दही, मॉइस्चर (नमी) आदि ! इसलिए अगर आप जीवामृत खाद को भले 1 साल से लेकर 100 साल बाद भी इस्तेमाल करें, तब भी इस खाद में कुछ ना कुछ जीवाणु हमेशा मौजूद रहेंगे (जो कि सुप्त अवस्था में रहेंगे) और वो जीवाणु जब भी मीठा, गोबर, गोमूत्र, आटा, दही, मॉइस्चर आदि के सम्पर्क में आते हैं, वैसे ही फिर से वे जीवाणु अपनी जनसंख्या इतनी तेजी से बढ़ाने लगते है कि कुछ ही दिनों में लाखों से करोड़ों, फिर करोड़ों से अरबों, फिर अरबों से खरबों, फिर खरबों से अनगिनत हो जातें हैं !
जीवामृत खाद में अच्छे जीवाणुओं की संख्या, हमेशा बरकरार रहे इसलिए इस खाद को ऐसे प्लास्टिक या मिट्टी के बर्तन में रखना चाहिए जिसके अंदर हवा (यानी ऑक्सीजन भी) सूक्ष्म मात्रा में आ – जा सकती हो (जबकि कई ऐसी कम्पनीज़ भी है जो अपनी प्राकृतिक खाद की पैकिंग को सुन्दर व सुरक्षित बनाने के लिए, प्लास्टिक का ऐसा कम्प्लीट सील्ड पैकेट इस्तेमाल करती हैं जिसके अंदर हवा बिल्कुल प्रवेश नहीं कर पाती है जिसकी वजह से उस खाद के अंदर रहने वाले अधिकांश अच्छे जीवाणु जल्दी मरने लगते हैं और वो खाद कोई ख़ास फायदा नहीं पहुंचा पाती है) !
जीवामृत खाद की मदद से किचन वेस्ट (यानी रसोई से निकलने वाला प्राकृतिक कचरा जैसे सब्जियों – फलों के छिलके व बीज, किसी भी तरह का सड़ा – गला – बासी खाना आदि) को भी बहुत अच्छी खाद में बदला जा सकता है, जिसके लिए बस इतना करना होता है कि किसी भी प्लास्टिक या मिटटी के बर्तन में या जमीन के गड्ढे में, पहले 1 ग्लास लिक्विड या 1 मुट्ठी सूखी जीवामृत खाद डालकर, फिर उसमें रोज किचन वेस्ट डालें और फिर डिब्बे का मुंह ढक कर रख दें !
अगर आपके पास जीवामृत खाद नहीं है तो भी कोई बात नहीं है, आप किचन वेस्ट में जीवामृत की जगह, सिर्फ 1 मुट्ठी नार्मल मिटटी डालकर भी अच्छी खाद बना सकते हैं क्योकि कोई भी ऐसी मिट्टी जिसमें पौधे उग जाते हों, उसमें भी अच्छी मात्रा में स्वास्थवर्धक जीवाणु होते हैं, जो किचन वेस्ट को अपघटित करके बढ़िया खाद बना देते हैं ! लेकिन ये याद रखें कि डिब्बे में हवा जाने के लिए कुछ छेद जरूर हों !
डिब्बे में किचेन वेस्ट न बहुत ज्यादा सूखा होना चाहिए और ना ही बहुत गीला होना चाहिए (सूखा होने पर खाद बहुत देर में बनेगी और गीला होने पर कीड़े पड़ सकतें हैं जिनसे कोई नुकसान तो नहीं हैं लेकिन कई लोगों को कीड़े देखने में अच्छे नहीं लगते हैं) !
जिस दिन डिब्बा पूरी तरह से भर जाए उस दिन ऊपर से भी, जीवामृत खाद या नार्मल मिट्टी 1 मुट्ठी डाल दें ! इस किचन वेस्ट को हर हफ्ते, एक बार ऊपर – नीचे हिलाते रहना है जिससे लगभग 2 से 3 महीने में बेहद पौष्टिक खाद तैयार हो जाती है !
इस बात को फिर से यहाँ दोहराया जा रहा है कि किचन वेस्ट को अक्सर हिलाते रहना जरूरी है क्योकि जितना ज्यादा ऊपर – नीचे हिलायेंगे, उतनी ज्यादा ऑक्सीजन किचन वेस्ट के हर कण – कण तक पहुंच सकेगी और उतना ही जल्दी किचन वेस्ट, खाद में तब्दील हो सकेगा !
अक्सर देखा गया है कि गावों में लोग, रोज गोबर को एक बड़े से गड्ढे में फेककर जमा करते रहतें है, लेकिन फेकने के बाद गोबर को कभी एक बार भी हिलाते नहीं हैं, इसलिए उनका गोबर भी खाद में बदलने में 1 साल लग जाता है जबकि जीवामृत पद्धति से गोबर मात्र 15 दिनों में खाद बन जाता है क्योकि जीवामृत में सुबह – शाम गोबर के घोल को हिलाना बहुत जरूरी है !
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि अगर जल्दी खाद चाहिए तो जैविक पदार्थों को अधिक से अधिक हिलाना आवश्यक है ! खाद पूरी तरह से बन गयी है या नहीं, इसकी सामान्य पहचान है कि खाद लगभग काले रंग की हो जाती है और आसानी से छोटे – छोटे टुकड़ों में टूटकर भुरभुरी सी हो जाती है !
वैसे ये जरूरी नहीं है कि 2 – 3 माह बाद, खाद में मौजूद सभी चीजें, छोटे – छोटे टुकड़ों में टूटकर भुरभुरी सी हो जाएँ क्योकि किचन वेस्ट के बड़े टुकड़ों (जैसे कटहल के छिल्के, आम की गुठलियां आदि) को अपघटित होने में ज्यादा समय लगता है ! इसलिए ऐसे बड़े टुकड़े (जो 2 -3 माह में भी भुरभुरे नहीं हुए हैं) को फिर से दुबारा नई खाद बनाने वाले डिब्बे में डालकर 2 – 3 माह के लिए अपघटित होने देना चाहिए !
अगर आप चाहते हैं कि सभी किचन वेस्ट एक ही बार में यानी सिर्फ 2 – 3 माह में ही खाद बनकर तैयार हो जाएँ तो रोज किचन वेस्ट को डिब्बे में डालने से पहले चाकू या मिक्सर ग्राइंडर से छोटे – बारीक टुकड़ों में काट लें ! हालांकि की कई लोगों को किचन वेस्ट को अपने हाथों से रोज काटने में घिन्न आ सकती है इसलिए वो किचन वेस्ट से खाद बनाने के बारे में सोचते भी नहीं है, तो ऐसे लोगों को सुझाव है कि वो किचन वेस्ट को बिना काटकर छोटा किये, ऐसे ही डिब्बे में डाल दिया करें, तब भी अधिकाँश बड़े टुकड़े 2 – 3 माह में खाद में बदल जाएंगे और जो नहीं बदल पाएंगे उन्हें फिर से नई खाद बनाने वाले डिब्बे में डाल दिया करें तो अगले 2 – 3 माह में वो बड़े टुकड़े भी निश्चित खाद में बदल जायेंगे !
इस खाद बनाने की पूरी प्रक्रिया में इस बात का ध्यान जरूर रखें की इस डिब्बे को शुरू से ही किसी खुली जगह (जैसे गार्डन, टैरेस, बालकनी, आँगन आदि) में ही रखें क्योकि चाहे वो किचन वेस्ट हो या गोबर से बनी जीवामृत खाद, सभी को अपघटित होने के दौरान, कई तरह की अदृश्य गैस (जैसे CO2) धीरे – धीरे पैदा होती रहती है जो कि हानिकारक होती है, साथ ही इसमें मीथेन गैस (CH4) भी बनती है जो कि ज्वलनशील होती है !
इसलिए कभी – कभी पॉली हॉउस खेती (जिसमे अधिकांश खेत, प्लास्टिक की पारदर्शी शीट से ढका रहता है) करना, तब खतरनाक हो सकता है जब उस पॉली हॉउस में वेंटिलेशन (वायु संचार) की स्थिति ठीक ना हो क्योकि पौधों से और मिट्टी में मौजूद अपघटित होने वाली सामग्रियों से निकलने वाली CO2 का लेवल बढ़ने से वहां मौजूद लोगों की तबियत बिगड़ सकती है ! विदेशों तो में बड़े पॉली हॉउस में CO2 का लेवल लगातार चेक करते रहने के लिए इलेक्ट्रॉनिक सेंसर्स लगाए जाते हैं ! इसलिए किसी भी तरह की प्राकृतिक खाद बनाने की प्रक्रिया को कभी भी कमरे या रसोई के अंदर नहीं करना चाहिए !
गोबर की मदद से, किचन वेस्ट की ही तरह, क्रॉप वेस्ट से भी बहुत बढियाँ खाद बन सकती है ! क्रॉप वेस्ट बोलते हैं, ऐसे कृषि अपशिष्ट/अवशेष पदार्थों को जो खेतों/बगीचों में पैदा होते हैं और जिनका उपयोग मानव या पशु भोजन के लिए नहीं किया जाता है, जैसे- विभिन्न फसलों को तने , शाखाएँ, पत्तियाँ, बीज, ख़राब फल – फूल – अनाज आदि !
आपको जानकर आश्चर्य होगा की दुनिया भर में सबसे ज़्यादा उगाई जाने वाली जो 4 कृषि फ़सलें हैं (गन्ना, मक्का, अनाज व चावल) उन सभी फसलों के हर साल का कुल वज़न (यानी लगभग 20000 बिलियन किलोग्राम) का 80% हिस्सा क्रॉप वेस्ट में निकल जाता है और विडंबना ये है कि ये क्रॉप वेस्ट जो कि बहुत ही अच्छी प्राकृतिक खाद बन सकता है, लेकिन सिर्फ जानकारी के अभाव और दुर्व्यवस्था की वजह से, अधिकांश क्रॉप वेस्ट व्यर्थ बर्बाद हो जाता है कूड़े की तरह या जला दिया जाता है (जैसे- धान की पराली) !
लेकिन अब ये देखकर अच्छा लग रहा कि इन समस्याओं को भी सुअवसर में बदलने के लिए, समाज के बुद्धिमान लोगों ने भी कमर कस ली है, जैसे- इस वीडियो में देखिये कि भारतीय मूल के अमेरिकन अरबपति बिजनेसमैन मनोज भार्गव जी क्रॉप वेस्ट को गोबर की मदद से एक बेहतरीन खाद में बदलने का तरीका निःशुल्क सिखा रहें गरीब भारतीय किसानों को- शिवांश खेती | मनोज भार्गव और इस वीडियो में भी देखिये कि दिल्ली की एक कॉलोनी में लगभग 300 घर अपने किचन वेस्ट को कूड़े में फेकने की जगह, खुद ही बढियाँ खाद बनवा रहें हैं- दिल्ली की पहली Zero Waste कॉलोनी
किसी भी तरह के क्रॉप वेस्ट को भी सिर्फ 2 से 3 माह में, ठीक उसी तरह बेहतरीन खाद में बदला जा सकता है, जैसे ऊपर किचन वेस्ट को बदलने का तरीका दिया गया है ! ये सामान्य नियम सभी को याद रखने की जरूरत है कि कोई भी जैविक पदार्थ (जैसे गोबर, किचन वेस्ट व क्रॉप वेस्ट) का साइज जितना छोटा होगा वो उतना ही जल्दी खाद में बदलेगा, क्योकि साइज छोटा होने पर ऑक्सीजन उस पदार्थ के ज्यादा अंदर तक पहुँच पाती है, जिससे उस पदार्थ के अपघटित होने की प्रक्रिया तेज हो जाती है !
गोबर और किचन वेस्ट तो थोड़ा मुलायम होतें हैं इसलिए इन्हे हाथ से या चाकू – मिक्सर से काटकर छोटा किया जा सकता है लेकिन कई क्रॉप वेस्ट (जैसे पेड़ की लकड़िया, जड़ें) काफी बड़े और मजबूत होतें हैं जिन्हे काटकर छोटा करना मुश्किल होता है इसलिए ऐसे कठोर क्रॉप वेस्ट, को जीवामृत की मदद से अपघटित कराने के बावजूद भी लगभग 1 साल तक में खाद में बदलते हुए देखा गया हैं !
पुराने जमाने में एक कहावत थी की “उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी” जिसका अर्थ है कि खेती करना सबसे सम्मानजनक काम था, उसके बाद व्यापार करना माना जाता था, जबकि नौकरी करने को सबसे छोटा काम माना जाता था चाहे वो नौकरी कितनी भी बड़ी पद पर हो ! लेकिन आज के जमाने में इसका ठीक उल्टा हो गया है क्योकि कई किसानो के लिए खेती करना, अब बिल्कुल प्रॉफिटेबल नहीं रहा है !
खेती में प्रॉफिट इसलिए नहीं मिलता है क्योकि केमिकल्स युक्त फ़र्टिलाइज़र व पेस्टिसाइड्स इतने महंगे हो चुके हैं कि किसान की सारी कमाई इन्ही को खरीदने में खत्म हो जा रही है और ऊपर से केमिकल्स का प्रयोग करने से जमीन की उपजाऊ क्षमता हर साल कम होती जा रही है जिससे हर साल फर्टिलाइज़र्स का खर्चा पहले से ज्यादा बढ़ता जा रहा है और साथ ही पेस्टिसाइड्स का भी खर्चा बढ़ता जा रहा है, क्योकि अगर जमीन, कमजोर हो तो पौधे भी कमजोर पैदा होते हैं जिन्हे आसानी से कोई रोग लग जाता है !
जबकि जीवामृत खाद से खेती करने से, हो सकता है कि पहले साल खर्चा थोड़ा ज्यादा पड़े क्योकि जमीन में वर्षो से जमा जहर युक्त केमिकल्स (टॉक्सिन्स) की शुद्धिकरण के लिए, ज्यादा मात्रा जीवामृत खाद डालना पड़ सकता है, लेकिन धीरे – धीरे कुछ ही सालों में खेत की जमीन इतनी अच्छी होने लगती है कि फिर काफी कम खाद (यानी काफी कम खर्चे) में ही खूब पैदावार होने लगती है !
इसलिए ये हमेशा याद रखने की जरूरत है कि जीवामृत खाद का असली फायदा सिर्फ तभी मिलेगा, जब खेत में जीवामृत खाद डालने के बाद से कभी भी कोई केमिकल्स युक्त फ़र्टिलाइज़र व पेस्टिसाइड्स को बिल्कुल ना डाला जाए (क्योकि एक तरफ खेत में, जीवामृत खाद जितना ज्यादा अच्छे जीवाणुओं की संख्या बढ़ाएगी, वहीँ दूसरी तरफ केमिकल्स जीवाणुओं को उतना ही ज्यादा मारते भी रहेंगे, इसलिए जीवामृत डालने का कोई ख़ास लाभ नहीं मिल पाता है अगर केमिकल्स को डालना पूरी तरह से रोका ना गया तो) !
जैसा की ऊपर बताया गया है कि जमीन से पैदा होने हानिकारक कीटाणुओं के नाश के लिए, इसी जीवामृत खाद का छिड़काव करने से बेहतरीन लाभ मिलता है, लेकिन खेतों में जो कीड़े, हवा में उड़ते हुए दूसरी जगह से आते हैं, उनका सर्वोत्तम इलाज है चिड़ियाँ, जिन्हे किसान भाई लोग अजनाने में अपना दुश्मन समझते हैं !
पेस्ट कण्ट्रोल (यानी बड़े कीड़ों के नाश) के लिए खेतों में उड़ने वाली चिड़ियाँ सबसे अच्छी माध्यम होती हैं इसलिए पुराने जमाने में खेतों की मेड़ पर, पेड़ लगाए जाते थे ताकि उन पर अधिक से अधिक चिड़िया घोसला बना सकें और कीड़ों को खाकर अपना पेट भर सकें !
इसलिए पुराने जमाने में एक कहावत थी कि “राम की चिरइया, राम का खेत” यानी खाने वाले भी भगवान् और खिलाने वाले भी भगवान् ही हैं ! लेकिन जब से अंग्रेजों ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, बंद पड़ी रासायनिक हथियार बनाने वाली फैक्ट्रीज को रासायनिक खाद व कीटनाशक बनाने वाली फैक्ट्रीज में बदलकर, भारतीयों को प्राकृतिक खाद इस्तेमाल करने की जगह, रासायनिक उत्पादों को जबरदस्ती इस्तेमाल करने की प्रथा शुरू की, तब से यह कहावत अस्तित्व में आयी कि “अब पछताए का होय, जब चिड़िया चुग गयी खेत” क्योकि जब महंगे रासायनिक कीटनाशक सभी कीड़ों को तुरंत मार देते हैं तो फिर मजबूरी में चिड़ियों को अपना पेट भरने के लिए फसलों में पैदा होने वाले अनाजों को खाना पड़ता हैं जिसकी वजह से किसानों को चिड़िया अपनी दुश्मन लगती है !
जबकि चिड़िया, किसानो की परम मित्र है, क्योकि अगर किसान प्राकृतिक खेती करे तो चिड़िया सिर्फ हानिकारक कीड़ों को खाकर ही अपना पेट भरेंगी ! जीवामृत खाद में मौजूद प्राकृतिक कीटनाशक तत्वों के छिड़काव की वजह से चिड़ियों (और कीड़ों) को भी फसल की पत्तियों व फलों का स्वाद अच्छा नहीं लगता है इसलिए जो किसान इस जीवामृत खाद का छिड़काव करते हैं उनके लिए चिड़िया परम मित्र के समान ही है क्योकि चिड़िया सिर्फ उन बचे हुए कीड़ों को ही खाती हैं, जो इस खाद से भी नहीं भाग पाते हैं !
माना जाता है कि एक चिड़िया एक साल में लगभग 30 हजार तक कीड़े खा सकती है ! साथ ही चिड़ियों की बीट (मल) खेतों में गिरने से, मुफ्त में फॉस्फोरस बहुत ज्यादा बढ़ता है जिससे किसानों को खेतों में डी. ए. पी. (DAP) डालने की भी जरूरत नहीं पड़ती है ! इसलिए खेत की मेड़ (यानी साइड बॉउंड्री) पर पेड़ जरूर लगाने चाहिए क्योकि चिड़ियाँ ऐसे खुले खेतों में जाने से डरती हैं, जहाँ उनको खतरा समझ आने पर, तुरंत छुपने के लिए कोई पेड़ ना हो !
वास्तव में ना केवल चिड़िया, बल्कि खेतों में पाए जाने वाले हर जीव (जैसे सांप, केंचुए, तितलियाँ आदि) फसल के लिए मित्र के समान हैं क्योकि इन जीवों की किसी भी गतिविधि से फसल की जड़ों तक ऑक्सीजन पहुंचती रहती है !
खेतों में बायोडायवर्सिटी (जैव विविधता यानी कई तरह के जीव) होने से खेत का ही भला होता है (“स्वयं बनें गोपाल” समूह, वैश्विक बायोडायवर्सिटी अभियान से कैसे जुड़ा हुआ है, जानने के कृपया इस लिंक पर क्लिक करें- 94 देशों की सरकारों द्वारा स्थापित संस्था ने, अपने कार्यों के निस्तारण के लिए “स्वयं बनें गोपाल” समूह को “सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंसी” साइंटिफिक आर्गेनाइजेशन के तौर पर चुना) !
मेड़ पर पेड़ लगाने के कई और भी जरूरी फायदे हैं जैसे जमीन में मौजूद अच्छे जीवाणु, सूरज की कड़ी धूप से मर सकते हैं लेकिन पेड़ की छाँव की वजह से हमेशा जिन्दा बने रहते हैं ! इसके अलावा खेत में मौजूद अति आवश्यक तत्व कार्बन, बहुत हल्का होता है जो पानी के साथ बहकर ढ़लान की तरफ बह जाता है जबकि मेड़ और पेड़ की जड़ इन्हे बहने से रोक देता है !
मेड़ पर अलग – अलग किस्म के पौधे लगाने से ज्यादा लाभ मिलता है क्योकि अलग – अलग पेड़ों से गिरने वाले पत्तों से, खेतों को मुफ्त में अलग – अलग तरह के बेशकीमती पोषक तत्व अपने आप प्राप्त होते रहते हैं क्योकि पेड़ की जड़े, जमीन में काफी गहराई तक नीचे जाती हैं और वहां जीवाणुओं की मदद से सभी आवश्यक माइक्रोन्यूट्रिएंट्स {जैसे- बोरॉन (B), जिंक (Zn), मैंगनीज (Mn), आयरन (Fe), कॉपर (Cu), मोलिब्डेनम (Mo), और क्लोरीन (Cl) आदि} को ऊपर खींचकर अपने पत्तों, फूलों, फलों, लकड़ियों आदि में समा लेती हैं और जब यही पत्ते-फल-फूल-लकड़ियां सूखकर खेतों में गिरतें हैं तो फिर से जीवाणुओं की मदद से अपघटित होकर, बेहद पौष्टिक खाद में बदल जाते हैं !
वैसे हर मेड़ पर नीम का एक पेड़ जरूर लगाना चाहिए ताकि कई तरह के कीटाणुओं का नाश भी अपने आप मुफ्त में होता रहता है और साथ ही जीवामृत खाद में मिलाने के लिए नीम की पत्तियां भी हमेशा आसानी से मिलती रहती है ! नीम की पत्तियों में नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होती है इसलिए इसे खाद के रूप में इस्तेमाल करने पर, यह मिट्टी में (यूरिया की तरह ही) नाइट्रोजन को बढ़ाता है ! नीम की पत्तियों में नाइट्रोजन के अलावा, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम और मैग्नीशियम जैसे परम आवश्यक तत्व पाए जातें हैं !
नीम के अलावा शीशम, शिरीष, अमलतास, गुलमोहर आदि फली पैदा करने वाले पेड़ को लगाने से भी, खेत को हमेशा मुफ्त में नाइट्रोजन मिलती रहती है ! इसके अलावा फलीदार पौधे (Legumes) जैसे- दालें, मटर, चना आदि को भी खेत में बोने से, खेतों के अंदर नाइट्रोजन पैदा होती है क्योकि सभी फलीदार पेड़ – पौधों की जड़ों में राइजोबियम बैक्टीरिया पाया जाता है जो नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करता है !
खेतों में जुताई के लिए ट्रैक्टर का प्रयोग करना भी हानिकारक होता है, क्योकि एक सामान्य ट्रैक्टर का भी वजन लगभग ढाई हजार किलो होता है और जब इतना भारी ट्रैक्टर खेत में जुताई करता है तो भले ही ऊपर की जमीन भुरभुरी हो जाती हो लेकिन नीचे की जमीन ट्रेक्टर के वजन से कॉम्पैक्ट (ठोस, कड़ी) हो जाती है जिससे पौधों की जड़ों तक ठीक से ऑक्सीज़न नहीं पहुँच पाती है, साथ ही ट्रैक्टर के भारी वजन से केचुए जैसे लाभकारी जीव भी मर जाते हैं !
नीचे की जमीन कड़ी हो जाने से बारिश का पानी भी ठीक से नीचे नहीं जा पाता है (जिससे भूगर्भ जल का स्तर गिरता है) और खेत को दलदल की तरह गीला सा बना देता है (जिससे फसल खराब होने का डर भी बना रहता है) ! अगर खेतों में पेड़ लगे हों तो पेड़ की जड़ें ही नीचे की कड़ी जमीन में छेद करती हैं जिससे बारिश का पानी अच्छे से जमीन में समा पाता है !
वैसे देखा जाए तो जुताई की जरूरत ही क्या है ? जी हाँ ये सुनने में थोड़ा अटपटा लग रहा होगा, लेकिन अब मॉडर्न साइंटिस्ट भी इस बात को स्वीकार रहें हैं कि मिटटी से किसी भी तरह की छेड़छाड़ करने (जैसे जुताई, निराई करने) से उसके मूलभूत सरंचना में परिवर्तन आता है जिससे उपजाऊ क्षमता में कमी आती है !
इसलिए आजकल यूरोप, अमेरिका से लेकर भारत में भी कई किसान, सालों से ऐसी खेती कर रहें जिसमें खेतों में कभी भी जुताई, निराई नहीं की जाती है और शुरुआत के कुछ साल आर्गेनिक खाद डालने के बाद, फिर कभी खाद भी नहीं डाली जाती है (क्योकि हर फसल के अवशेष ही खेत में गिरकर, बढ़िया खाद में बदल जातें है) इसके बावजूद भी फसलों का उत्पादन भरपूर होता है ! मतलब ना जुताई, ना निराई, ना खाद का खर्चा, लेकिन पैदावार में कोई कमी नहीं है !
इतना ही नहीं ऐसे खेतों में, अगर बीज को जमीन में गड्ढा करके डालने की जगह, सिर्फ हाथ से ही छीट (बिखेर) दिया जाए, तब भी अधिकांश बीज आसानी से उग जाते हैं, इसलिए बीज को बोने का खर्च भी काफी कम हो सकता है ! ऐसे किसानों ने अपने खेतों में खूब पेड़ भी लगा रखें हैं क्योकि इनका मानना है कि बिना पेड़ों के जमीन परमानेंट उपजाऊ नहीं रह सकती है ! उदाहरण के तौर पर यह वीडियो देखिये, जिसमें बताया गया है कि पिछले 40 सालों से एक भारतीय किसान बिना जुताई, निराई के भी फसलों का भरपूर उत्पादन कर रहें हैं- बिना डीजल की 1 बूंद भी जलाए – लिया मैंने उत्पादन 40 क्विंटल
जब “नो टिल फार्मिंग” (No-Till Farming ; जुताई रहित खेती) के इतने फायदे हैं तो सभी किसान भाईओं को एक बार इसको जरूर करके देखना चाहिए ! लेकिन जिन किसान भाईओं को अब भी लगता है कि बिना जुताई के खेती करना सम्भव नहीं है तो उनको हम सलाह देना चाहेंगे कि वे या तो बैलों से जुताई करवाएं (जिससे केंचुओं को सबसे कम नुकसान पहुँचता है) या तो भारी ट्रैक्टर की जगह, इन वीडियो में दिखाई गयी मशीनो की ही तरह किसी हल्की – छोटी मशीन से जुताई करवाएं- kisano ke liye khet jotne wali machine और खेती कि शान को बढ़ाएगी ये मशीन !
आजकल अनएरोबिक तरीके से भी खाद बन रही है, जो कि एरोबिक खाद से कम फायदेमंद होती है ! अनएरोबिक खाद वो होती है जो हवा की अनुपस्थिति में बनती है, जैसे- ऊपर चित्र में दिखाए गए काफी लम्बे – चौड़े प्लास्टिक बैग (जिनकी कैपेसिटी 1 हजार लीटर से लेकर 1 लाख लीटर तक हो सकती है) या किसी भी पूरी तरह से बंद सीमेंट के चैम्बर, के अंदर भी गोबर – किचन वेस्ट – क्रॉप वेस्ट आदि को अपघटित कराके खाद बनाई जाती है !
एरोबिक तरीका वो होता है जिसमें हवा की मौजूदगी में जैविक पदार्थों को अपघटित कराकर खाद बनाई जाती है जैसे जीवामृत खाद, जिसे प्लास्टिक के खुले ड्रम (जो सिर्फ कपड़े से ढका हुआ होता है) में बनाया जाता है ! जीवामृत खाद में अनएरोबिक खाद के भी लाभ अपने आप विद्यमान रहते हैं क्योकि गाय माँ के पेट में बनने वाले गोबर में अनएरोबिक जीवाणु भी मौजूद रहते हैं ! इसलिए ही जीवामृत को सभी तरह की खादों की गंगोत्री (उद्गम स्रोत) माना जा सकता है जिसके दम पर खेती में बड़े से बड़े चमत्कार निश्चित किये जा सकते हैं !
वैसे मुलायम व छोटे जैविक पदार्थों को भी किसी खाद बनाने वाली प्रक्रिया (जैसे अनएरोबिक या एरोबिक ; Anaerobic Or Aerobic) से बिना गुजारे हुए, अगर अपने आप सड़कर खाद बनने के लिए छोड़ दिया जाए तो इनको पूरी तरह से खाद बनने में कई महीने से लेकर कुछ साल तक भी लग सकते हैं !
लेकिन अगर इन्ही जैविक पदार्थों को जीवामृत खाद की मदद से अपघटित कराके खाद बनाया जाए (जैसे ऊपर बताई गयी किचन वेस्ट को खाद बनाने की विधि की ही तरह) तो मात्र 2 से 3 महीने में ही ऐसी बेहतरीन खाद तैयार हो जाती है, जिससे जमीन का कार्बन बहुत बढ़ता है और जमीन से पानी की कमी दूर होती है (जमीन से गायब होते पानी का भयंकर असर और इसका आसान इलाज जानने के लिए कृपया हमारे इस आर्टिकल को पढ़ें- इससे पहले कि पानी की घनघोर किल्लत से आपको घर – शहर छोड़ना पड़ जाए, तुरंत लागू करवाईये इन 3 उपायों को अपने घर, कॉलोनी/मोहल्ले, शहर में
पानी की क्या कीमत होती है इसे रेगिस्तानी इलाकों में रहने वाले लोगों से बेहतर कौन जानता है और इसका जीता जागता उदाहरण हैं, राजस्थान के किसान श्री सुंदरम वर्मा जी ने जिन्होंने वो बेहतरीन खोज की है जिसकी वजह से किसी पौधे को जमीन में लगाते समय सिर्फ 1 लीटर पानी देना है और फिर आजीवन कभी नहीं देना है, तब भी वह पौधा हमेशा हरा – भरा रहेगा ! इस खोज की वजह से उन्हें, भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया है ! इस बेहद आसान खोज को समझने के लिए विदेशों से भी लोग भारत आ रहें हैं, जिसके बारे में विस्तृत जानकारी इस वीडियो से जानी जा सकती है- पेड़ लगाने की अनोखी विधि : लाइफ टाइम एक बार महज एक लीटर पानी देकर पेड़ लगायें
आजकल कम्पोस्टिंग फ़र्टिलाइज़र (जैविक खाद) को सिर्फ 1 से 2 दिन में बनाने के लिए भी कई छोटी – बड़ी मशीन (Compost Machine) मार्केट में बिक रहीं हैं जिनका काम करने का सिद्धांत उचित नहीं है क्योकि प्राकृतिक खाद बनना, कई दिनों तक चलने वाली एक स्वतः प्रक्रिया होती है जिसमें जीवाणुओं की संख्या बढ़ने में समय लगता है ! अतः प्राकृतिक खाद बनाने के लिए, जीवामृत जैसा नेचुरल प्रोसेस ही सर्वोत्तम होता है !
अतः इस पूरे आर्टिकल के निष्कर्ष को आसान भाषा में समझाने के लिए ही “स्वयं बनें गोपाल” समूह के मूर्धन्य शोधकर्ताओं ने इस महत्वपूर्ण थ्योरी का नाम रखा है “चार बिना हार” जिसका मतलब है कि आपको खेतो/बगीचों से लगातार बढ़िया फसल नहीं मिल सकती है, अगर आपके पास निम्नलिखित 4 चीजें नहीं हैं तो-
(1) फसलों के लिए खाना बनाने में माहिर, अच्छे जीवाणु ……… {जो हमें आसानी से प्राप्त हो सकतें हैं देशी गाय माँ के बेशकीमती गोबर – गोमूत्र आदि से बनने वाली जीवामृत खाद को नियमित मिट्टी में डालने से (जीवामृत खाद बनाने की विधि ऊपर लिखी हुई है) } !
(2) फसलों के लिए खाना बनाने के लिए आवश्यक सामग्रियां ……… {जिसे ह्यूमस कहतें हैं जो आसानी से प्राप्त हो जाता है सूखी जीवामृत खाद यानी घनजीवामृत खाद से या किचन वेस्ट – क्रॉप वेस्ट यानी बासी, सड़ी गली, खराब सब्जियों – फलों – फसलों को जीवाणुओं द्वारा अपघटित करके बनाई गयी खाद से (घनजीवामृत खाद और किचन वेस्ट – क्रॉप वेस्ट से बनने वाली खाद की विधि ऊपर बतायी गयी है) } !
(3) जीवाणुओं को सुरक्षित रूप से रहने के लिए खेत या बगीचा ……… {जमीन से आने वाले कई किस्म के कीटाणुओं को मारने में सक्षम है नीम मिली हुई जीवामृत खाद, इसलिए खेतो में कभी भी केमिकल युक्त फ़र्टिलाइज़र व पेस्टिसाइड का उपयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए ताकि कोई भी अच्छा जीवाणु इन केमिकल्स की वजह से ना मर सके (जीवामृत में नीम मिलाने की विधि ऊपर लिखी हुई है) } !
(4) अच्छे जीवाणुओं के परम् मित्र यानी विविध जीव ……… {जैसे- चिड़िया (जो हवा से आने वाले कई हानिकारक कीड़ों को खाकर फसलों की मुफ्त में रक्षा तो करती हैं, लेकिन जीवामृत के छिड़काव की वजह से फसलों को खाकर नुकसान नहीं पहुँचा पातीं है), केचुआ, तितलियाँ, भौरें और विभिन्न तरह के पेड़ आदि ! लोग पेड़ों की असली महिमा समझते नहीं हैं लेकिन वास्तविकता यही है कि पेड़ों के बिना खेत परमानेंट उपजाऊ नहीं रह सकतें है (बायोडायवर्सिटी यानी जैव विविधता और पेड़ों की अहम भूमिका को ऊपर बताया गया है) !
अतः ये सत्य है कि अगर सबसे कम खर्च में, सबसे ज्यादा फसल चाहिए तो ऊपर लिखी हुई 4 चीजें आपके पास होनी ही चाहिए क्योकि इन “चार बिना हार” निश्चित है !
जय हो परम आदरणीय गौ माता की !
वन्दे मातरम् !
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