स्वयं बने गोपाल

उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 17 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं,...

उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 16 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

”देखो! चाल की बात अच्छी नहीं होती।” अपनी फुलवारी में टहलते हुए कामिनीमोहन ने पास खड़ी हुई बासमती से कहा- बासमती-क्या मैंने कोई आपके साथ चाल की बात की है? आपके होठों पर आज...

उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 15 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

बड़ी गाढ़ी अंधियाली छायी है, ज्यों-ज्यों आकाश में बादलों का जमघट बढ़ता है, अंधियाली और गाढ़ी होती है। गाढ़ापन बढ़ते-बढ़ते ठीक काजल के रंग का हुआ, गाढ़ी अंधियाली और गहरी हुई, इस पर अमावस,...

उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 14 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

कामिनीमोहन की फुलवारी के चारों ओर जो पक्की भीत है उसमें से उत्तरवाली भीत में एक छोटी सी खिड़की है। यह खिड़की बाहर की ओर ठीक धरती से मिली हुई है, पर भीतर की...

उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 13 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर...

नाटक – श्रीप्रद्युम्नविजय व्यायोग – अध्याय 1 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

प्रार्थना प्यारे पाठक बृन्द! आप लोग भली-भाँति जानते हैं कि मनुष्य की बुध्दि अपूर्णा अथच भ्रमात्मिका है। ऐसी अवस्था में यदि मेरी बुध्दि अति अपूर्णा और महाभ्रमात्मिका हो तो कोई आश्चर्य का विषय यहाँ...

कविता – वैदेही-वनवास – दाम्पत्य-दिव्यता तिलोकी (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

प्रकृति-सुन्दरी रही दिव्य-वसना बनी। कुसुमाकर द्वारा कुसुमित कान्तार था॥ मंद मंद थी रही विहँसती दिग्वधू। फूलों के मिष समुत्फुल्ल संसार था॥1॥ मलयानिल बह मंद मंद सौरभ-बितर। वसुधातल को बहु-विमुग्ध था कर रहा॥ स्फूर्तिमयी-मत्तता-विकचता-रुचिरता। प्राणि...

कविता – वैदेही-वनवास – जीवन-यात्रा तिलोकी (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

तपस्विनी-आश्रम के लिए विदेहजा। पुण्यमयी-पावन-प्रवृत्ति की पूर्ति थीं॥ तपस्विनी-गण की आदरमय-दृष्टि में। मानवता-ममता की महती-मूर्ति थीं॥1॥ ब्रह्मचर्य-रत वाल्मीकाश्रम-छात्रा-गण। तपोभूमि-तापस, विद्यालय-विबुध-जन॥ मूर्तिमती-देवी थे उनको मानते। भक्तिभाव-सुमनाजंलि द्वारा कर यजन॥2॥ अधिक-शिथिलता गर्भभार-जनिता रही। फिर भी परहित-रता...

कविता – वैदेही-वनवास – नामकरण-संस्कार तिलोकी (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

शान्ति-निकेतन के समीप ही सामने। जो देवालय था सुरपुर सा दिव्यतम॥ आज सुसज्जित हो वह सुमन-समूह से। बना हुआ है परम-कान्त ऋतुकान्त-सम॥1॥ ब्रह्मचारियों का दल उसमें बैठकर। मधुर-कंठ से वेद-ध्वनि है कर रहा॥ तपस्विनी...

कविता – वैदेही-वनवास – रिपुसूदनागमन सखी (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

बादल थे नभ में छाये। बदला था रंग समय का॥ थी प्रकृति भरी करुणा में। कर उपचय मेघ-निचय का॥1॥ वे विविध-रूप धारण कर। नभ-तल में घूम रहे थे॥ गिरि के ऊँचे शिखरों को। गौरव...

कविता – वैदेही-वनवास – तपस्विनी आश्रम चौपदे (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

प्रकृति का नीलाम्बर उतरे। श्वेत-साड़ी उसने पाई॥ हटा घन-घूँघट शरदाभा। विहँसती महि में थी आई॥1॥ मलिनता दूर हुए तन की। दिशा थी बनी विकच-वदना॥ अधर में मंजु-नीलिमामय। था गगन-नवल-वितान तना॥2॥ चाँदनी छिटिक छिटिक छबि...

कविता – वैदेही-वनवास – अवध धाम तिलोकी (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

था संध्या का समय भवन मणिगण दमक। दीपक-पुंज समान जगमगा रहे थे॥ तोरण पर अति-मधुर-वाद्य था बज रहा। सौधों में स्वर सरस-स्रोत से बहे थे॥1॥ काली चादर ओढ़ रही थी यामिनी। जिसमें विपुल सुनहले...

कविता – वैदेही-वनवास – आश्रम-प्रवेश तिलोकी (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

था प्रभात का काल गगन-तल लाल था। अवनी थी अति-ललित-लालिमा से लसी॥ कानन के हरिताभ-दलों की कालिमा। जाती थी अरुणाभ-कसौटी पर कसी॥1॥ ऊँचे-ऊँचे विपुल-शाल-तरु शिर उठा। गगन-पथिक का पंथ देखते थे अड़े॥ हिला-हिला निज...

कविता – वैदेही-वनवास – मंगल यात्रा मत्तसमक (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

अवध पुरी आज सज्जिता है। बनी हुई दिव्य-सुन्दरी है॥ विहँस रही है विकास पाकर। अटा अटा में छटा भरी है॥1॥ दमक रहा है नगर, नागरिक। प्रवाह में मोद के बहे हैं॥ गली-गली है गयी...

कविता – वैदेही-वनवास – कातरोक्ति पादाकुलक (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

प्रवहमान प्रात:-समीर था। उसकी गति में थी मंथरता॥ रजनी-मणिमाला थी टूटी। पर प्राची थी प्रभा-विरहिता॥1॥ छोटे-छोटे घन के टुकड़े। घूम रहे थे नभ-मण्डल में॥ मलिना-छाया पतित हुई थी। प्राय: जल के अन्तस्तल में॥2॥ कुछ...

कविता – वैदेही-वनवास – सती सीता ताटंक (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

प्रकृति-सुन्दरी विहँस रही थी चन्द्रानन था दमक रहा। परम-दिव्य बन कान्त-अंक में तारक-चय था चमक रहा॥ पहन श्वेत-साटिका सिता की वह लसिता दिखलाती थी। ले ले सुधा-सुधा-कर-कर से वसुधा पर बरसाती थी॥1॥ नील-नभो मण्डल...