मुझे शून्य में विलीन करती रही

मुझे शून्य में विलीन करती रही

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वर्षा की गिरती हुई बूंदों सी
पतझड़ की झरती हुई कलियों सी
माँ मै जाने कितनी बार
तुम्हारी कोख से फिसलती रही !

माँ मै भी तुम्हारे आँगन की बगिया की
कली बनकर खिलना चाहती हूँ
और तुम्हारे नैनो के स्नेहिल रस
से भीगना चाहती हूँ !

पर हर बार तुम मुझे एक वंशधर (पुत्र)
की चाह में शून्य में विलीन करती रही !

और मैं आज भी माँ की
उस कोख की तलाश में हूँ
जहाँ पुत्र और पुत्री दोनों समान पहचान
से पल्लवित और पुष्पित हों !

लेखिका –
श्री देवयानी (श्री देवयानी की अन्य रचनाओं को पढ़ने के लिए, कृपया नीचे दिए गए लिंक्स पर क्लिक करें)-

न हम कुछ कर सके, न तुम कुछ कर सके

सिर्फ अपनी ख़ुशी की तलाश बर्बाद कर रही है अपने अंश की ख़ुशी

एक कठोर अनुशासक ऐसा भी

एक माँ – पुत्र के विछोह की असीम पीड़ायुक्त संवाद

वो अपने

अनजाना कर्ज

माँ

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